________________
सम्पासाननलिका माथाडीका
कार हो है। ताके अनन्तर पीछ ही देख्या जो पदार्थ ताके वर्ण संस्थानादि विशेष ग्रहणरूप प्रयग्रह नामा ज्ञान हो है।
इहां प्रश्न - जो गाया विर्षे तो पहिले दर्शन न कहा, तुम कैसे कहो हो ?
ताको समाधान - जो अन्य ग्रंथनि में कहा है-'अक्षार्थयोगे ससालोफोर्थाकारविकल्पधीरवग्रहः' इंद्रिय अर विषय के संयोग होते प्रथम सत्तावलोकन मात्र दर्शन हो है, पीछे पदार्थ का आकार विशेष जाननेरूप अवग्रह हो है -- असा प्रकलं. काचार्य करि कहा है । बहुरि 'दंसपपुव्वं साणं मत्थाणं हवेदि गियमेरा' छमस्थ जीवन के नियम ते दर्शन पूर्वक ही ज्ञान हो है असा नेमिचंद्राचार्यने द्रव्य - संग्रह नामा अंथ में कहा है । बहुरि तत्त्वार्थ सूत्र की टीकावाले में असा ही कहा है तातें इहां ज्ञानाधिकार विर्षे दर्शन का कथन न क्रीया तो भी अन्य ग्रंथनि ते असे ही जानना। सो अवग्रह करि तौ इतना ग्रहण भया । ..
जो यह श्वेत वस्तु है, बहुरि श्वेत तौ बुग़लनि की पंक्ति भी हो है, ध्वजा रूप भी हो है; परि बुगलेनि की पंकतिरूप विषय कौं अवलंबि यह बुगलेनि की पंकति ही होसी वा ध्वजारूप विषय की अवलंबि यहु ध्वजा होसी असा विशेष वांछारूप जो ज्ञान, ताकौं ईहा कहिए । बहुरि बुगलनि की यह पंकति ही होसी कि ध्वजा होसी असा संशयरूप ज्ञान का नाम ईहा नाहीं है । वा बुगलनि पंकति विर्षे यह ध्वजा होसी असा विपर्यय ज्ञान का नाम ईहा नाहीं है; जाते इहां सम्यग्ज्ञान का अधिकार है । सम्यग्ज्ञान प्रमाण है । पर संशय, विपर्यय है, सो मिथ्याज्ञान है । तातें संशय विपर्यय का नाम ईहा नाहीं । जो वस्तु है, ताका यथार्थरूप असा ज्ञान करना कि यह अमुक ही वस्तु होसी; असे होसीरूप जो प्रतीति, ताका नाम ईहा है । अवग्रह तें ईहा विषं विशेष ग्रहण भया; तात याके वाके विर्षे भतिज्ञानावरण के क्षयोपशम का तारतम्य करि भेद जानना।
ईहणकरणेण जया, सुपिण्णी होवि सो अवायो दु । कालांतरे वि णिणिक-वत्थु-समरणस्स कारणं तुरियं ॥३०६।।
ईहनकरणेन यदा, सुनियो भवति स अवायस्तु । कालांतरेऽपि निीतवस्तुस्मरणस्य कारणं तुर्यम् ॥३०९॥