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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भावार्टीका
कीएं अगले स्थान विर्षे संख्यात घनगुल प्रमाण'- अवगाहना हो है । तातें तिस बियालीसवां स्थान विर्षे धनांगुल को असंख्यात का भागहार प्रकट ही सिद्धि भया । तहां सूक्ष्म अपर्याप्त वातकाय की जघन्य अवगाहना वा पृथ्वीकाय बादर पर्याप्त की उत्कृष्ट अवगाहना का प्रमाण, तहां ही जीवसमासाधिकार विर्षे कहा है, सो जानना । बहुरि 'प्राधारे थूलाओ' आधारे कहिए अन्य पुद्गलनि का प्राश्रय, तीहि विर्षे वर्तमान शरीर संयुक्त जे जीव, ते सर्व स्थूलः केहिए बादर जानने । यद्यपि
आधार करि तिनके शरीर का दादर स्वभाव रुकना न हो है। तथापि नीचे गिरना रूप जो गमन, ताका रुकना हो है, सो तहां प्रतिघात संभव है । ताते पूर्वोक्त घातरूप लक्षण ही बादर शरीरनि का दृढ भया।
बहरि सर्वत्र लोक विर्षे, जल विर्षे वा स्थल विर्षे वा आकाश विर्षे निरंतर आधार की अपेक्षा रहित जिनके शरीर पाइए, ते जीव सूक्ष्म हैं। जल-स्थल रूप आधार करि तिनिके शरीर के गमन का नीचे ऊपरि इत्यादि कहीं भी रुकना न हो है । अत्यंत सूक्ष्म परिणमन ते ते जीव सूक्ष्म कहिए हैं। अंतरयति कहिए अंतराल करै है, असा जो अंतर कहिए अाधार, तातै रहित ते. निरंतर कहिए । इस विशेषण करि भी पूर्वोक्त ही लक्षण दृढ भया । 'ओ' असा संबोधन पद जानना । याका अर्थ यहु- जो हे शिष्य ! असं तू जानि । बहुरि यद्यपि बादर अपर्याप्त वायुकायिकादि जीवनि की अवगाहना स्तोक है । बहुरि यात सूक्ष्म पर्याप्त वायुकायिकादिक पृथ्वीकायिक पर्यंत जीवनि की जधन्य वा उत्कृष्ट अवगाहना असंख्यात गुणी है । तथापि सूक्ष्म नामकर्म के उदय की समर्थता से अन्य पर्वतादिक तें भी तिनिका रुकना न हो है; निकसि जाय हैं । जैसे जल का बिंदु वसते निकसि जाय; रुक नाही, तैसें सूक्ष्म शरीर जानना।
बहुरि बादर नामकर्म के उदय के वश तें अन्यकरि रुकना हो है । जैसे सरिसौं वस्त्र से निकस माही, तैसें बादर शरीर जानना ।
बहुरि यद्यपि ऋद्धि कौं प्राप्त भए मुनि, देव इत्यादिक, तिनिका शरीर बादर है; तो भी ते वज़ पर्वतादिक से स्कै नाहीं; निकसि जांय हैं, सो यह तपजनित अतिशय की महिमा है, जाते तप, विद्या, मणि, मंत्र, प्रौषधि इनिकी शक्ति के अतिशय का महिमा अचित्य है, सो दीखे है । जैसा ही द्रव्यत्व का स्वभाव है । बहुरि स्वभाव विर्षे किछु तर्क नाहीं । यह समस्त वादी मात हैं । सो इहां अतिशयवानों का ग्रहण