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सम्यग्ज्ञानन्द्रिका भाषादोका 1
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देइ, एक भाग को जुदा राखि, श्रवशेष बहुभाग समान भाग संबंधी परिमाण विषै मिलाएं क्रोध का काल होइ । बहुरि जो अवशेष एक भाग रह्या, ताक समान भाग संबंधी परिमाण विषं मिलाएं, मानकषाय का काल होइ ।
अब इहां त्रैराशिक करना जो व्यारि कषायति के काल का परिमाण विषं सर्व मनुष्य पाइए, तौ लोभ कषाय का काल विषे केते मनुष्य पाइए ?
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इहां प्रमाणराशि व्यारों कषायनि का समुच्चयरूप काल का परिमाण भर फलराशि मनुष्य गति जीवनि का परिमाण र इच्छाराशि लोभ कषाय के काल का परिमाण । तहां फलराशि को इच्छाराशि करि गुणि, प्रमाण राशि का भाग दीएं, जो लब्धराशि का प्रमाण आवै, तितने लोभकषायवाले मनुष्य जानने । असें ही प्रमाण फलराशि पूर्वोक्त कीएं, माया को मान काल कौं इच्छाराशि कीएं, लब्धराशि मात्र मायावाले वा क्रोधवाले वा मानवाले मनुष्यनि की संख्या जाननी । बहुरि याही प्रकार तियंच गति विषै भी लोभवाले, मायावाले, क्रोधवाले, मानवाले जीवन की संख्या का साधन करना । विशेष इतना जो उहाँ फलराशि मनुष्यति का परिमाण था, इहां फलराशि तियंच जीवनि का परिमारण जानना । अन्य विधान तैसे ही करना । जैसे कषायमार्गणा विषै जीवनि की संख्या है।
इति आचार्य श्री नेमिचंद्र सिद्वांतचक्रवर्ती विरचित गोम्मटसार द्वितीय नाम पंचसंग्रह ग्रन्थ को जीवतत्त्वप्रदीपिका नामा संस्कृत टीका के अनुसारि सम्यग्ज्ञानचंद्रिका
नाम भाषाटीका विषै जीवकांड विष प्ररूपित जे बीस प्ररूपणा तिनि विषे कषायमार्गणा प्ररूपणा नाम ग्यारमा afare सम्पूर्ण भया ॥११॥