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। गोम्मटसार जीयकाट माया २५७.०२५२
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उक्कस्सटिदिचरिमे, सगसगउक्कस्ससंचयो होदि । पणदेहाणं वरजोगादिससामग्गिसहियारणं ॥२५.०॥
उत्कृष्ट स्थितिचरमे, स्वकस्वकोत्कृष्ट संचयो भवति ।
पंचदेहानां वरयोगादिस्वसामग्रीसहितानाम् ॥२५॥ टीका - उस्कृष्ट योग आदि अपने-अपने उत्कृष्ट बंध होने की सामग्री करि सहित जे जीव, तिनिक प्रौदारिकादिक पंच शरीरनि का उत्कृष्ट संचय जो उत्कृष्टपर्ने परमाणूनि का संबंध, सौ अपनी-मनी कृष्ट रिरि का अंत समय विर्षे हो है। तहां स्थिति के पहले समय से लगाइ एक-एक समयः विर्ष एक-एक समयप्रबद्ध बधै । बहुरिआगे कहिए हैं, तिसप्रकार एक-एक समयप्रबद्ध का एक-एक निषेक की निर्जरा होइ, अवशेष संचयरूप होते. संत अंत समय विर्षे किछु धाटि, ड्योढगुणहानि करि समयबद्ध कौं गुणे, जो परिमारण होइ, तितना उत्कृष्ट पर्ने सत्त्व हो है । 'श्रागै श्री माधवचंद्र विद्य देव उत्कृष्ट संचय होने की सामग्री कहैं हैं---
आवासया हु अक्प्रद्धाउस्सं जोगसंकिलेसो य । -प्रोकटुक्कट्टणया, छचनेदे गुणिवकम्मसे ॥२५१॥
आवश्यकानि हि भवादा प्रायुष्यं योगसंक्लेशौ च ।
अपकर्षरमोत्कर्षरणके, षट् चैते गुणितकर्भाशे ॥२५१।। टीका --- गुरिंगतकांश कहिए उत्कृष्ट संचय जाकै होइ, असा जो जीव, तोहि विर्षे उत्कृष्ट संचय को कारण ए छह अवश्य होइ । तातै उत्कृष्ट संक्य करने वाले जीव के ए यह यावश्यक "केहिए। १. भवाद्धा, २. प्रायुर्बल, ३. योग, ४. संक्लेश, ५. अपकर्षण, ६. उत्कर्षण ए छह जानने । इनिका स्वरूप विस्तार लीएं आगे कहिएगा।
अब पंच शरीरनि का बंध, उदय, सत्त्वादिक वि परमाणूनि का प्रमाण का विशेष जानने कौं स्थिति आदि कहिए है। तहां. औदारिकादिक पंच. शरीरनि की उत्कृष्ट स्थिति का परिमाण कहैं हैं---
पल्लतियं उबहीणं, तेत्तीसंतोमुहुत्त उवहीणं । छाबट्ठी कमट्ठिदि, बंधुक्कस्सहिदी तारणं ॥२५२॥
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