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सम्यग्भानचन्द्रिका पावारीका
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टीका - लेश्यामार्गणा विषे कृष्णादिक अशुभ तीन लेश्याएं हैं । ते स्थावर मिथ्यादृष्टी आदि संयत पर्यंत हैं । तहां जीवसमास चौदह हैं । बहुरि तेजोलेश्या अर पद्मलेश्या सैनी मिथ्यादृष्टी आदि श्रप्रमत्त पर्यंत है। तहां जीवसमास सैनी पर्याप्त वा अपर्याप्त ए दोष हैं ।
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वरिय सुक्का लेस्सा, सजोगिचरिमो त्ति होवि नियमे । tयोगिम्मि वि. सिद्धे, लेस्सा णत्थि त्ति जिद्दि ॥ ६६३॥
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नवरि च शुक्ला लेश्या, सयोगिचरम इति भवति नियमेन । गरासेपि न लिखे या व्यस्तीति निर्दिष्टम् ॥६६३॥
टीका - शुक्ललेश्या विषै विशेष है, सो कहा ? शुक्ललेश्या सैनी मिथ्यादृष्टी यदि सयोगी पर्यंत है । तहां जीवसमास सैनी पर्याप्त या पर्याप्त ए दोष हैं नियम eft; जाते केवलसमुद्घात का अपर्याप्तवता इहां अपर्याप्त जीवसमास विषै गर्भित है । बहुरि प्रयोगी जिन विषै वा सिद्ध विषे लेश्या नाहीं, असा परमागम विष कहा है ।
थावर काय पहूदी, अजोगिचरिमो त्ति होंति भवसिद्धा । मिच्छाइदिट्ठट्ठाणे, अभव्वसिद्धा हवंति त्ति ॥ ६६४ ॥
स्थावरका प्रभृति, प्रयोगिचरम इति भवंति भवसिद्धाः । मिथ्याsष्टिस्थाने, श्रभव्यसिद्धा भवतीति ॥ ६६४||
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टीका - भव्यमाणा विषे भव्यसिद्ध हैं, ते स्थावर काय मिथ्यादृष्टी प्रादि अयोगी पर्यंत हैं । अर श्रभव्यसिद्ध एक मिथ्यादृष्टी गुणस्थान विषे ही हैं । इनि दोऊनि विषे जीवसमास चौदह चौदह हैं ।
freछो सास मिस्सो सग-सग ठाम्मि होंदि श्रथदादो ।' पढमुवसमवेदगसम्मत्त दुगं अप्पमत्तोति ॥ ६६५॥
मिथ्यात्वं सासनमिश्री, स्वकस्वकस्थाने भवति प्रयतात् । प्रथमोपशमवेदकसम्यक्त्वद्विकमप्रमस इति ॥६६५॥
टीका - Tearfuा विषे मिथ्यादृष्टी, सासादन, मिश्र ए तीन तौ अपने-अपने एक-एक गुणस्थान विषे हैं । बहुरि जीवसमास मिथ्यादृष्टी विषे तौ