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| गोम्मटसार जीवकाण्ड गापा १६८
बहरि प्रश्न--जो अनंतकाल करि भी क्षय न होना साध्य, सो अक्षयामत के हेतु ते दृढ कीया । तात् इहां हेतु के साध्यसमत्व भया? .
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ताका समाधान-भव्यराशि का अक्षयानंतपना प्राप्त के पागम करि सिद्ध है। ताते साध्यसमत्व का अभाव है। बहुत कहने. करि कहा ? सर्व तत्वनि का वक्ता पुरुष जो है प्राप्त, ताकी सिद्धि होते तिस प्राप्त के वचनरूप जो भागम, ताकी सूक्ष्म, अंतरित, दुरि पदार्थनि विष प्रमाणता की सिद्धि हो है । तातें तिस प्रागमोक्त पदार्थनि विष मेरा चित्त निस्संदेह रूप है । बहुत वादी होने करि कहा साध्य है ?
बहुरि प्राप्त की सिद्धि कैसे ?
सो कहिए है "विश्वतश्चक्षुरुत विश्वतो मुखः' असा वेद का वचन करि, बहुरि 'प्रणम्य शंभं' इत्यादि नैयायिक वचन करि, बहुरि 'बुद्धो भवेई' इत्यादि बौद्ध वचन करि, बहुरि भोक्षमार्गस्य नेतारं, इत्यादि जैन वचन करि, बहुरि अन्य अपनाअपना मत का देवता का स्तवनरूप वचननि करि सामान्यपने सर्व मतनि विर्षे प्राप्त मान है । बहुरि विशेगापहला, बीतमाहेब स्याद्वादी ही प्राप्त है । ताका युक्ति करि साधन कीया है । सो विस्तार ते स्याद्वादरूप जैन न्यायशास्त्र विर्षे प्राप्त की सिद्धि जामनी । असें हो निश्चयरूप जहाँ खंडने वाला प्रमाण न संभव है, तातै प्राप्त अर प्राप्त करि प्ररूपित प्रागम की सिद्धि हो है । तातै प्राप्त आगम करि प्ररूपित ज्यो मोक्षतत्व अर बंदतत्त्व सो प्रदश्य प्रमाण करना असें आगम प्रमाण ते एक शरीर विषै निगोद जीवनि के सिद्ध-राशि तें अनंत गुरगाएनो संभव है । बहुरि अक्षयानंतपना भी सर्व मतवाले मान है । कौऊ ईश्वर विष भान है। कौऊ स्वभाव विरे मान है । तातै कह्या ह्या कथन प्रमाण है ।।
अत्थि अणंता जीवा, जेहिं ण पत्तो हसाण परिणामो। भावकलंकसुपउरा, णिगोदवासं ग मंचंति ॥१६७ ॥
संति अजंता जीया, यैनं प्राप्तस्त्रसानां परिणामः । भावकलंकसुप्रचुरा, निगोश्वासन संचंति ।। १९७ ॥
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१. घटण्डागम घयला पुस्तक १, पृष्ठ २७३, माथा १४८ परखण्डानम्-धवला पुस्तक पृष्ठ ४७७ माथा ४२ किन्तु तत्र भावकल-कैपउरा इति पाठः।