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सम्यम्झानचन्द्रिका भाषाटीका ]
[ ४०५ योग के धारक, निनिका परिणाम मिलाएं, सर्व वैक्रियिकमिश्र काययोर के धारक जीवनि का परिमाण हो है । व्यंतर देवां बिना अन्य देव वा नारकी, तिनकै अनुपक्रम काल जो न उपजने का काल, सो बहुत है । तातें सबनि ते वैऋियिकमिथ योग के धारक व्यंतर देव बहुत हैं । शस्तै शोरनि की रन विषं मिलाय करि परिमार कह्या । बहुरि काययोग के धारक देव पर नारकी, तिनिका परिमाण मिलाएं बैंक्रियिक काययोग के धारक जीवनि का परिमाण हो है। पूर्व जो त्रियोगी जीवनि का परिमाण विर्षे काययोगी जीवनि का परिमारण कहा था, तामै स्यों तिर्यंच, मनुष्य संबंधी प्रौदारिक, आहारक काययोग के धारक जीवनि का परिमाण घटाएं, जो परिमाण रहै; तितने वैक्रियिक काययोग के 'धारक जीव जानने । मिश्र योग के धारक जीव एक काययोगी ही हैं; सो उनका परिमाण एक योगीनि का प्रमाण विर्षे गभित जानना ।
आहारकायजोगा, चउवणं होंति एकसमयम्हि । पाहारमिस्सजोगा, सत्तावीसा उक्कस्सं ॥२७०॥
आहारकाययोगाः, चतुष्पंचाशत् भवंति एकसमये।
श्राहारमिश्रयोगाः, सप्तविंशलिस्तूकृष्टम् ॥२७॥ टीका - उत्कृष्टपने एक समय विर्षे युगपत् आहारक काययोग के धारक चौवन (५४) हो हैं । बहुरि आहारक मिश्र काययोग के धारक सत्ताईस ( २७ ) हो हैं । उत्कृष्टपने पर एक समय विर्षे असे ए दोय विशेषण मध्य दीपक समान हैं। जैसे बीचि वर्या हुआ दीपक दोऊ तरफ प्रकाश कर है; तैसें इनि दोऊ विशेषणनि तें जो पूर्वे गति आदि विषै जीवनि की संख्या कहि पाए, अर आगै देदादिक विर्षे जीवनि की संख्या कहिएगी; सो सब उत्कृष्टपन युगपत् अपेक्षा जाननी । जो उत्कृष्टपर्ने समय विर्षे युगपत् होइ, तो उक्त संख्या प्रमाण जीव होहि । उक्त संख्या ते हीन होइ तौ होइ, परन्तु अधिक कदाचित् न होंइ । ऐसी विवक्षात इहां कथन जानना' । बहुरि जघन्यपने ते वा नाना काल की अपेक्षा संख्या का विशेष अन्य जैनागम त जानना असे योगमार्गणा विर्षे जीवनि की संख्या कही है। इति श्री आचार्य नेमिचंद्र सिद्धान्त चक्रवर्ती विरचित गोम्मटसार द्वितीय माम पंचसंग्रह ग्रंथ की जोवतत्वप्रदीपिका नामा संस्कृत टीका के अनुसारि सम्यक्षानचन्द्रिका नाना भाषा
टीका विर्षे जीवकाण्ड विर्षे प्ररूपित जे बीस प्ररूपणा, तिनि विर्षे योग . प्ररूपणा है नाम जाका असा नवमा अधिकार सम्पूर्ण भया ॥६॥