________________
१५८
| गोम्मटसार जोयसरपद गाया ७६-८० अब इनि पंक्तिनि का जोड देने के अर्थि करणसूत्र कहिए है 'मुहभूमीजोगदले पदगुरिणदे पदघणं होदि' मुख प्रादि अर भूमी अंत, इनिकौं जोडे, प्राधा करि पद जो स्थान प्रमाण, तीहि करि गुणे, सर्वपदधन हो है ।
सो प्रथम पंक्ति विर्षे मुख एक पर भूमी उगणीस जोडै बीस, ताका आधा दश, पद उगरणीस करि गुणें एक सौ नब्बे सर्व जोड हो है ।
बहुरि द्वितीय पंक्ति विर्षे मुख दोय, भूमी अड़तीस जोडै चालीस, प्राधा कीए बीस पद, उगरणीस करि गुणें, तीन सं असी सर्व जोड हो है ।
बहरि तीसरी पंक्ति विर्षे मुख तीन, भुमी सत्तावन जोडे साठि, प्राधा कीएं तीस, पद उगणीस करि गुण पांच से सत्तरि सर्व जोड हो है ।
___ आगै एकैद्रिय, विकलत्रय जीवसमासनि करि मिले हुए जैसे पंचेंद्रिय संबंधी जीवसमास स्थान के विशेषनि की गाथा दोय करि कहै हैं --
इगियरणं इगिविगले, असणिणसण्णिगयजलथलखगाणं। गन्मभवे समुच्छे, कुतिगं भोगथलखेचरे दो दो ॥७॥ अज्जवमलेच्छमणुए, तिदु भोगकुभोगभूमिजे दो दो। सुररिणरये दो दो इदि, जीवसमासा हु अडरगउदी ॥१०॥ एकपंचाशत् एकविकले, असंजिसंहिंगतजलस्थलसमानाम् । गर्भभवे सम्मूई, द्वित्रिक भोगस्थलखेसरे द्वौ द्वौ ॥७९॥ श्रायम्लेच्छमनुष्ययोस्त्रयो द्वौ भोगकुभोगभूमिजयोद्वौं द्वौ ।
सुरनिरयोद्वों द्वौ इति, जीवसमासा हि अष्टानवतिः ॥८०॥
टीका -- पृथ्वी, अप, तेज, वायु, नित्यनिगोद-इतरनिगोद के सूक्ष्म, बादर भेद करि छह युगल पर प्रत्येक वनस्पती का सप्रतिष्ठित, अप्रतिष्ठित भेद करि एक युगल, ऐसे एकेन्द्रिय के सात युगल (बहुरि बेंद्री, तेंद्री, चौद्रों ए तीन ऐसे ए सतरह भेद पर्याप्त, निर्वृत्ति अपर्याप्त, लब्धि अपर्याप्त भेद करि तीन-तीन प्रकार हैं । ऐसे एकद्रिय, विकलेंद्रियनि विर्षे इक्यावन भेद भये । बहुरि पंचेंद्रियरूप तिर्यंच गति विर्षे कर्मभूमि के तिर्यंच तीन प्रकार हैं । तहां जे जल विर्षे गमनादि करें, ते जलचर; अर जे भूमि
-
-
-
-