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सम्परनामचन्द्रिका भाषाटीका 1 पहिौं मतिज्ञान भए बिना, सर्वथा श्रुतज्ञान न होइ । तीहिं श्रुतज्ञान के दोय भेद हैं । एक अक्षरात्मक, एक अनक्षरात्मक ! इनि विर्षे शब्दजं कहिए प्रक्षर, पद, छंदादिरूप शब्द से उत्पन्न भया, जो अक्षरात्मक श्रुतज्ञान, सो प्रमुख कहिए मुख्य-प्रधान है; जाते देना, लेना, शास्त्र पढना इत्यादिक सर्व व्यवहारनि का मूल अक्षरात्मक श्रुतज्ञान है । बहुरि लिम जो चिह्न, तातें उत्पन्न भया, असा अनक्षरात्मक श्रुतज्ञान सो एकेंद्रिय तें लगाइ पंचेंद्रिय पर्यंत सर्व जीवनि के है । तथापि याने किछू व्यवहार प्रवृत्ति नाही; तातें प्रधान नाहीं ।
__.. बहुरि "श्रूयते इति श्रुतः शब्दः तदुत्पन्नमर्थज्ञानं श्रुतं' सुरिणए ताकौं शब्द कहिए। शब्द से भया जो अर्थज्ञान, ताकौं श्रुतज्ञान कहिए । इस में भी अर्थ विष मारामा शुरुमागही प्रधान पाया । अथवा श्रुत असा रूहि शब्द है, सो मतिज्ञान पूर्वक अर्थातर का जानने रूप ज्ञान का विशेष, तीहिं अर्थ विर्षे प्रवर्ते है । जैसें कुशल शब्द का अर्थ तो यहु जो कुश कहिए डाभ ताकौं लाति कहिये दे, सो कुशल । परंतु रूढ़ि ते प्रवीण पुरुष का नाम कुशल है । तैसे यह श्रुत शब्द जानना ।
तहां 'जीवः अस्ति' असा शब्द कहा। तहां कर्ण इन्द्रिय रूप मतिज्ञान करि जोधः अस्ति असे शब्द कौं ग्रह्या । बहुरि तीहि ज्ञान करि 'जीव नामा पदार्थ हैं' असा जो झाम भया, सो श्रुतज्ञान है। शब्द अर अर्थ के वाच्य-वाचक संबंध है । अर्य वाच्य है, शब्द वाचक है । अर्थ है सो उस शब्द करि कहने योग्य है । शब्द उस अर्थ का कहन हारा है । सो इहां 'जीवः अस्ति' असे शब्द का जानना तौ मतिज्ञान है । पर उसके निमित्त ते जीव नामा पदार्थ का अस्तित्व जानना, सो श्रुतज्ञान है। अस ही सर्व अक्षरात्मक श्रुतज्ञान का स्वरूप जानना । अक्षरात्मक जो शब्द, ताते उत्पन्न भया जो ज्ञान, ताकौं भी अक्षरात्मक कह्या ।
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इहां कार्य विषं कारण का उपचार किया है। परमार्थ ते झान कोई अक्षर- रूप है नाहीं । बहरि जैसे शीतल पवन का स्पर्श भया, तहाँ शीतल पवन का जानना, तौ मतिज्ञान है । बहुरि तिस ज्ञान करि वायु की प्रकृति वाले को यह शीतल पवन अनिष्ट है। जैसा जानना, सो श्रुतिज्ञान है। सो यहु अनक्षरात्मक श्रुतज्ञान है । अक्षर के निमित्त ते भया नाहीं। जैसे ही सर्व अनक्षरात्मक श्रुतज्ञान का स्वरूप जानना।