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] गोम्मटसार कोषका गाथा ४०६
पावली का संख्यातवा भाग प्रमाण प्रथम कांडक का उत्कृष्ट काल हो है । बहुरि जेते जघन्य क्षेत्र ते प्रदेश बधै तितने जघन्य क्षेत्र विषें मिलाएं घनांगुल का संख्यातवां भाग प्रमाण प्रथम कांडक का उत्कृष्ट क्षेत्र हो है । से ही सर्व कांडक विषे ध्रुववृद्धि का प्रमाण साधन करना । विवक्षित कांडक विष समान प्रमाण लोएं, प्रदेशनि की वृद्धि होतें, जहां समय की वृद्धि होइ, तहां ध्रुववृद्धि जाननी । बहुरि वृद्धि भी यथायोग्य क्षेत्र काल का विरोध करि साधनी ।
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सो कहिए है
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अगुलग्रसंखभागं, संखं वा श्रं गुलं च तस्सेव | संखमसंखं एवं संढीपदरस्स प्रधुवर्गे ॥१०६ ॥
अंगुलासंख्यभागः संख्यं वा अंगुलं तस्यैव । संख्य संख्यमेवं श्रेणीप्रतरयोरध्रुवनायाम् ॥४०॥
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टीका वृद्धि विषै पूर्वोक्त क्रम चांगूल का असंख्यातवां भाग प्रमाण प्रदेश क्षेत्र विषै बधे, तब काल विषै एक समय बधं । प्रथवा घनांगुल का संख्यातवां भाग प्रमाण प्रदेश क्षेत्र विषै बधे, तब काल विषे एक समय बधे । अथवा धनांगुल प्रमाण अथवा संख्यात घनांगुल प्रमाण अथवा असंख्यात वनांगुल प्रमाण अथवा श्रेणी का असंख्यातवां भाग प्रमाण अथवा श्रेणी का संख्यातवां भाग प्रमाण tear श्रेणी प्रमाण अथवा संख्यात श्रेणी प्रमाण अथवा असंख्यात श्रेणी प्रमाण अथवा प्रतर का असंख्यातवां भाग प्रमाण अथवा प्रतर का संख्यातवां भाग प्रसारण अथवा प्रतर प्रमाण श्रथवा संख्यात प्रतर प्रमाण अथवा असंख्यात प्रतर प्रमाण प्रदेश क्षेत्र विषे बचें, तब काल विषै एक समय बधै, असा अध्रुववृद्धि का अनुक्रम है । इहां किल नियम नाहीं, जो इतने प्रदेश वधै ही समय बधं हातें याका नाम श्रध्रुववृद्धि है । इहां इतना विशेष - जिस कांडक विषै जिस जिस प्रकार वृद्धि संभवे, तिस तिस प्रकार ही वृद्धि जाननी । जैसे प्रथम कांडक विष घनांगुल का प्रसंख्यातवां भाग वाघांगुल का संख्यातवां भाग करि ही अध्रुववृद्धि संभव है । जातें तहां उत्कृष्ट भेद वि भी घनांगुल का संख्यातवां भाग मात्र ही क्षेत्र है, तो तहां घनांगुलादि करि
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१. प्र तथा व प्रति में असंख्यासा शब्द है ।
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