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सभ्यज्ञामचन्द्रिका भाषादीका
तहां द्रव्य करि धर्मास्तिकार पर अधर्मास्तिकाय समान है । संसारी जीवनि करि संसारी जीव समान हैं । मुक्त जीव करि मुक्त जीव समान हैं। इत्यादिक द्रव्य समवाय हैं। ..बहुरि क्षेत्र करि प्रथम नरक का प्रथम पाण्डे का सीमंत नामा इंद्रकविला पर अढाई द्वीपरूप मनुष्यक्षेत्र, प्रथम स्वर्ग का प्रथम पटल का ऋजु नामा, इंद्रक विमान अर सिद्धशिला, सिद्धक्षेत्र ये समान हैं। बहुरि सातवां नरक का अवधि स्थान नामा इंद्रक विला अर जंबूद्वीप पर सर्वार्थसिद्धि विमान ये समान हैं इत्यादि क्षेत्र समवाय है ।
बहुरि काल करि एक समय, एक समय समान है । प्रावली प्रावली समान है। प्रथम पृथ्वी के नारकी, भवनवासी, व्यंतर इनिकी जघन्य आयु समान है । बहुरि सातवी पृथ्वी के नारकी, साधसिद्धि के देव निको उत्कृष्ट प्रायु समान है, इत्यादिक कालसमवाय है।
बहुरि भाव करि केवलज्ञान, केवलदर्शन समान हैं । इत्यादि भावसमवाय है असे इत्यादि समानता इस अंग विष वणिये हैं।
बहुरि 'वि' कहिये विशेष करि बहुत प्रकार, ग्राहया कहिये गणघर के कीये प्रश्न, प्रज्ञाप्यते कहिये जानिये, जिसविर्षे जैसा व्याख्याप्रज्ञप्ति नामा पांचवां अंग जानना । इस विर्षे असा कथन है कि - जीव अस्ति है कि जीव नास्ति हैं, कि जीव एक है कि जीव अनेक है; कि जीव नित्य है कि जीव अनित्य है; कि जीव वक्तव्य हैं कि प्रवक्तव्य है इत्यादि साठि हजार प्रश्न गणधर देव तीर्थंकर के निकट कीये । ताका वर्णन इस अंगविर्षे है।
. बहुरि नाथ कहिये तीन लोक का स्वामी, तीर्थकर, परम भट्टारक, तिनके धर्म की कथा जिस विर्षे होइ असा वाथधर्मक्रया नाम छठा अंग हैं । इस विष जीवादि पदार्थनि का स्वभाव वर्णन करिए है । बहुरि धातियाकर्म के नाश तें उत्पन्न भया केवलज्ञान, उस ही के साथि तीर्थंकर नामा पुण्य प्रकृति के उदय से जाके महिमा प्रकट भयो; असा तीर्थकर के पूर्वाह्न, मध्याह्न, अपराह्न, अर्धरात्रि इति च्यारि कालनि विर्ष छह छह घडी पर्यन्त बारह सभा के मध्य सहज ही दिव्यध्वनि होय है । बहुरि गएधर, इंद्र, चक्रवति इनके प्रश्न करने हैं और काल विर्ष भी दिव्यध्वनि हो है । असा दिव्यध्वनि निकटवर्ती श्रोतृजननि कौं उत्तम क्षमा प्रादि दश प्रकार वा रत्नत्रय स्वरूप