________________
[ गोमतसार जीवका गाथा ३०१-३०२
देशघाती स्पर्धकनि का उदय जानना । बहुरि केवलज्ञान क्षायिक ही है, जाते केवलज्ञानावरण, वीर्यांतराय का सर्वथा नाश करि केवलज्ञान प्रकट हो है। क्षय होते उपज्या वा क्षय है प्रयोजन जाका, ताकौ क्षायिका कहिए । यद्यपि सावरण अवस्था विर्षे भारत में शामिहावना है, लवामितरूप प्रावरण के नाश करि ही है, तातै व्यक्तता की अपेक्षा केवलज्ञान क्षायिक कह्या; जाते व्यक्त भएं ही कार्य सिद्धि संभव है।
प्रागै मिथ्याज्ञान उपजने का कारण वा स्वरूप वा स्वामित्व वा भेद कहैं हैं
अण्णाणतियं होदि हु, सण्णाणतियं खु मिच्छ अणउदये। णवरि विभागं गाणं, पंचिंदियसणिपुण्रणेव ॥३०१॥ अज्ञानत्रिकं भवति खलु, सज्ञानत्रिकं खलु मिथ्यात्वानोदये ।
नवरि विभंग शान, पंचेंद्रियसंज्ञिपूर्ण एव ॥३०१॥
टीका - जे सम्यग्दृष्टी के मति, श्रुति, अवधि ए तीन सम्यग्ज्ञान हैं; संजी पंचेंद्री पर्याप्त वा निवृत्ति अपर्याप्त जीव के विशेष ग्रहणरूप ज्ञेयाकार सहित उपयोग रूप है लक्षण मिनिका असे हैं; तेई तीनों मिथ्यात्व वा अनंतानुबंधी कोई कषाय के उदय होते तत्त्वार्थ का अश्रद्धान रूप परिण्या जीव के तीनों मिथ्याज्ञान हो हैं। कुमति, कुश्रुति, विभंग ए नाम हो हैं । पथरि असा प्राकृत भाषा विषं विशेष अर्थ कौं लीएं अव्यय जानना ! सो विशेष यहु - जो अवधि ज्ञान का विपर्ययरूप होना सोई विभंग कहिए । सो विभंग अज्ञान सैनी पंचेंद्री पर्याप्त ही के हो है । याही ते कुमति, कुश्रुति, एकेद्रिय आदि पर्याप्त अपर्याप्त सर्व मिथ्यादृष्टी जीवनि के पर सासादन गुणस्थानवर्ती सर्व जीवनि के संभव है ।
प्रामें सम्यग्दृष्टि नामा तीसरा गुणस्थान विर्षे ज्ञान का स्वरूप कह हैं -
मिस्सुक्ये सम्मिस्सं, अण्णाणतियेण णाणतियमेव । संजमबिसेससहिए, मणपज्जवरणाणमुद्दिवें ॥३०२॥ ।
मिश्रोदये संमिश्र, अज्ञानत्रयेण ज्ञानप्रयमेव । संयमविशेषसहिते, ममःपर्ययज्ञानमुद्दिष्टम् ॥३०२।।
.anima-..
+
जा
im-ann -
-
-
-
maooo