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। गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा है-१० मिथ्यात्वादिक परिणाम, तिनकरि गुण्यंते कहिए लखिए वा देखिए वा लांछित करिए जीव, ते जीव के परिणाम गुरणस्थान संज्ञा के धारक हैं, असा सर्वदर्शी जे सर्वज्ञदेव, तिनकरि निर्दिष्टाः कहिए कहे हैं। इस गुण शब्द की निरुक्ति की प्रधानता लोए सूत्र करि जिमावादिन यो के हनीपता पर्यत ये जीव के परिणाम विशेष, तेई गुणस्थान हैं, असा प्रतिपादन कीया है।।
__ तहां अपनी स्थिति के नाश के वश तें उदयरूप निषेक विई गले जे कार्माण स्कंध, तिनका फल देनेरूप जो परिणमन, सो उदय है । ताकौं होते जो भाव होइ, सो औदयिक भाव है।
बहुरि गुरण का प्रतिपक्षी जे कर्म, तिनका उदय का अभाव , सो उपशम है। ताकी होते संतें जो होय, सो औपश मिक भाव है।
बहुरि प्रतिपक्षी कर्मनि का बहुरि न उपजै असा नाश होना, सो क्षय; ताकौं होते जो होइ, सो क्षायिक भाव है ।
बहुरि प्रतिपक्षी कर्मनि का उदय विद्यमान होते भी जो जीव के गुरण का अंश देखिए, सो क्षयोपशम; ताकी होते जो होइ, सो क्षायोपशमिक भाव है।
बहुरि उदयादिक अपेक्षा ते रहित, सो परिणाम है; ताकी होते जो होइ, सो पारिणामिक भाव है । असे प्रौदयिक आदि पंचभावनि का सामान्य अर्थ प्रतिपादन करि विस्तार से प्रागं तिनि भावनि का महा अधिकार विर्षे प्रतिपादन करिसी।
आग ते गुणस्थान गाथा दोय करि नाममात्र कहै हैंमिच्छो सासण मिस्सो, अविरदसम्मो य देसविरवो य । : विरदा पमत्त इदरो, अपुब्ब अणियट्टि सुहमो य ॥६॥ उवसंत खीणमोहो, सजोगकेवलिजिरणो अजोगी य। चउदस जीवसमासा, कमेण सिद्धा य खादव्वा ॥१०॥ मिथ्यात्वं सासनः मिश्रः, अविरतसम्यक्त्वं च देशविरतश्च । विरताः प्रमत्तः इतरः, अपूर्वः अनिवृत्तिः सूक्ष्मश्च ॥९॥ उपशांतः क्षीणमोहः, सयोगकेसिजिनः अयोगी च । चतुर्दश जीवसमासाः, क्रमेण सिद्धाश्च ज्ञातव्या ॥१०॥
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१,पखंडागम घयला पुस्तक १, पृष्ठ १६२ से २०१ तक, सूत्र १ से २३ तक।