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सम्परज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
संवृत; इनिके प्रतिपक्षी इतर अचित्त, उध्ण विवृत्त ; बहुरि इनिके मिलने से मिश्रसचित्ताचित, शीतोष्ण, संवृतविवृत असे नव प्रकार हैं । बहुरि ते योनि सम्मुर्छनादिकनि विष प्रत्येक यथासंभव जानना ।
तहां चित्त कहिए अन्य चेतन, तीहिकरि सहित दर्ते, ते सचित्त हैं । अन्य प्राणी करि पूर्वं ग्रहे हुवे पुद्गल स्कंध सचित्त कहिए । बहुरि ताते विपरीत अन्य प्राणीनिकरि न ग्रहे जे पुद्गल स्कंध, ते अचित्त हैं । बहुरि सचित्त-अचित्त दोऊरूप जे पुद्गल स्कंध, ते मिथ हैं । बहुरि प्रगट हैं शीत स्पर्श जिनके ऐसे पुद्गल, ते शील हैं । बहुरि प्रगट हैं उष्ण स्पर्श जिनिके असे पुद्गल, ते उष्ण हैं । बहुरि शीत, उध्या दोऊरूप जे पुद्गल, ते मिश्र हैं । बहुरि प्रकट जाकौं न अवलोकिए असा गुप्त आकार जाका, सो पुद्गल स्कंध संवृत है । बहुरि प्रकट आकाररूप जार्को अवलोकिए असा पुद्गल स्कंध, सो विवृत है । बहरि संयुत-विवृत दोऊरूप पुद्गल स्कंध, सो मिश्र है । असें जीव उपजने के आधाररूप पुद्गल स्कंध, नव प्रकार जानने ।
भावार्थ - गुण की धरै त्रैलोक्य विर्षे यथासंभय जीव जहां उपजे, असे योनिरूप पुद्गल स्कंध, तिनिके भेद नव हैं ।
प्रागै सम्मुर्छनादिक जन्मभेद के जे स्वामी हैं, तिनका निर्देश करै हैं -
पोतजरायुजअंडज, जीवाणं गब्भ देवणिरयाणं । उववादो सेसाणं, सम्मुच्छणयं तु गिदिदिठें ॥४॥ पोतजरायुजाउअजीवानां गर्भः देवनारकारसाम् । उपपादः शेषारणां, सम्मूर्छनकं तु निर्दिष्टम् ।।८४॥
टोका - किंछ भी शरीर ऊपरि अावरण बिना संपूर्ण है अवयव जाका पर योनि से निकसता ही चलनादिक की सामर्थ्य, ताकरी संयुक्त अंसा जीव, सो पोत कहिए । बहुरि जालवत् प्राणी का शरीर अपरि आवरण, मास, लोही जामें विस्तार रूप पाइए असा जो जरायु, ता विर्षे जो जीव उपज्या, सो जरायुज कहिए बहुरि शुक्र, लोहीमय आवरण कठिनता को लीए नख की चामडी समान गोल आकार १, जरायुजायजयोतानां गर्भ: ।।३३।। देवनारफानामुपपादः ॥३४॥
शेषाणां संमूगम् ॥३५॥ तत्वार्थसूत्र, अध्याय दूसरा