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राजस्थान भारती प्रकाशन नं०
धर्मवर्द्धन ग्रन्थावली
सम्पादक - अगरचंद नाहटा
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प्रकाशक - सादुल राजस्थानी रिसर्च इन्स्टीट्यूट
बीकानेर
प्रथम संस्करण
सवन् २०१७
मूल्य
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सेठ नादर्स ७० - बी०, धर्मतल्ला स्ट्रीट
(कलकत्ता)
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जिनसे सदा सहयोग व साहित्यक्षेत्र में आगे बढ़ने की प्रेरणा मिलती रही उन्हीं सौजन्यमूर्ति, विद्यामहोदधि, राजस्थानी साहित्य के महान्
सेवक श्री नरोत्तमदासजी स्वामी
के कर कमलों
सादर समर्पित
-अगरचंद नाहटा
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प्रकाशकीय
श्री सादूल राजस्थानी रिसर्च-इन्स्टीट्यूट बीकानेर की स्थापना सन् १९४४ में बीकानेर राज्य के तत्कालीन प्रधान मत्री श्री के० एम० परिणक्कर महोदय की प्रेरणा से, साहित्यानुरागी बीकानेर-नरेश स्वर्गीय महाराजा श्री सादूलसिंहजी वहादुर द्वारा संस्कृत, हिन्दी एव विशेषतः राजस्थानी साहित्य की सेवा तथा राजस्थानी भाषा के सर्वाङ्गीण विकास के लिये की गई थी।
भारतवर्ष के सुप्रसिद्ध विद्वानो एवं भापाशास्त्रियो का सहयोग प्राप्त करने का सौभाग्य हमे प्रारभ से ही मिलता रहा है ।
संस्था द्वारा विगत १६ वर्षों से बीकानेर में विभिन्न साहित्यिक प्रवृत्तिया चलाई जा रही हैं, जिनमे से निम्न प्रमुख हैं१. विशाल राजस्थानी-हिन्दी शब्दकोश
__इस संबंध में विभिन्न स्रोतो से सस्था लगभग दो लाख से अधिक शब्दो का सकलन कर चुकी है । इसका सम्पादन आधुनिक कोशो के ढंग पर, लवे समय से प्रारंभ कर दिया गया है और अब तक लगभग तीस हजार- शब्द सम्पादित हो चुके हैं। कोश मे शब्द, व्याकरण, व्युत्पत्ति, उमके अर्थ, और उदाहरण आदि अनेक महत्वपूर्ण सूचनाए दी गई हैं। यह एक अत्यत विशाल योजना है, जिसकी सतोषजनक क्रियान्विति के लिये प्रचुर द्रव्य और श्रम की आवश्यकता है । आशा है राजस्थान सरकार की ओर से, प्रार्थित द्रव्य-साहाय्य उपलब्ध होते ही । निकट भविष्य मे इसका प्रकाशन प्रारंभ करना सभव हो सकेगा। २. विशाल राजस्थानी मुहावरा कोश
__राजस्थानी भापा अपने विशाल शब्द भडार के साथ मुहावरो से भी समृद्ध है। अनुमानत पचास हजार से भी अधिक मुहावरे दैनिक प्रयोग मे लाये जाते हैं। हमने लगभग दस हजार मुहावरो का, हिन्दी मे अर्थ और राजस्थानी मे उदाहरणो सहित प्रयोग देकर सपादन करवा लिया है और शीघ्र ही इसे प्रकाशित करने का प्रवध किया जा रहा है । यह भी प्रचुर द्रव्य.और श्रम-साध्य कार्य है।
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यदि हम यह विशाल संग्रह साहित्य-जगत को दे सके तो यह मस्या के लिये ही नहीं किन्तु राजस्थानी और हिन्दो जगत के लिए भी एक गौरव की बात होगी। ३. आधुनिकराजस्थानीकाशन रचनओं काम
इसके अन्तर्गत निम्नलिखित पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं१. कळायण, ऋतु काव्य । ले० श्री नानूराम सस्कर्ता २. आभै पटकी, प्रथम सामाजिक उपन्यास । ले० श्री श्रीलाल जोशी । ३ वरस गाठ, मौलिक कहानी संग्रह । ले० श्री मुरलीधर व्यास ।
'राजन्यान-भारती' मे भी आधुनिक राजस्थानी रचनायो का एक अलग स्तम्भ है, जिसमे भी राजस्थानी कवितायें, कहानिया और रेखाचित्र आदि छपते रहते हैं। ४ 'राजस्थान-भारती' का प्रकाशन
इस विख्यात शोधपत्रिका का प्रकाशन संस्था के लिये गौरव की वस्तु है। गत १४ वर्षों से प्रकाशित इस पत्रिका की विद्वानो ने मुक्त कठ से प्रशसा की है । बहुत चाहते हुए भी द्रव्याभाव, प्रेस की एव अन्य कठिनाइयो के कारण, त्रैमासिक रूप से इसका प्रकाशन सम्भव नहीं हो सका है। इसका भाग ५ अङ्क ३-४ 'डा. लुइजि पित्रो तैस्सितोरी विशेषांक' बहुत ही महत्वपूर्ण एव उपयोगी सामग्री से परिपूर्ण है । यह अङ्क एक विदेशी विद्वान की राजस्थानी साहित्य-सेवा का एक बहुमूल्य सचित्र कोश है । पत्रिका का अगला ७वा भाग शीघ्र ही प्रकाशित होने जा रहा है । इसका अङ्क, १-२ राजस्थानी के सर्वश्रेष्ठ महाकवि पृथ्वीराज राठोड का सचित्र और वृहत् विशेपाक है । अपने ढग का यह एक ही प्रयत्न है ।
पत्रिका की उपयोगिता और महत्व के सम्बन्ध मे इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि इसके परिवर्तन में भारत एव विदेशो से लगभग ८० पत्र-पत्रिकाए हमे प्राप्त होती हैं। भारत के अतिरिक्त पाश्चात्य देशो मे भी इसकी माग है व इसके ग्राहक हैं। शोधकर्तायो के लिये 'राजस्थान भारती' अनिवार्यत: सग्रहणीय शोधपत्रिका है । इसमे राजस्थानी भाषा, साहित्य, पुरातत्व, इतिहास, कला आदि पर लेखो के अतिरिक्त सस्था के तीन विशिष्ट सदस्य डा० दशरथ शर्मा, श्रीनरोत्तमदास स्वामी और श्री अगरचन्द नाहटा की वृहत् लेख सूची भी प्रकाशित की गई है ।
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[ ३ । ५. राजस्थानी साहित्य के प्राचीन और महत्वपूर्ण ग्रन्थों का अनुसधान, सम्पादन एव प्रकाशन
हमारी साहित्य-निधि को प्राचीन, महत्वपूर्ण और श्रेष्ठ साहित्यिक कृतियो __ को सुरक्षित रखने एव सर्वसुलभ कराने के लिये सुसम्पादित एव शुद्ध रूप मे मुद्रित ___ करवा कर उचित मूल्य मे वितरित करने की हमारी एक विशाल योजना है।
सस्कृत, हिंदी और राजस्थानी के महत्वपूर्ण ग्रथो का अनुसघान और प्रकाशन संस्था के सदस्यो की ओर से निरंतर होता रहा है जिसका संक्षिप्त विवरण नीचे दिया जा रहा है६. पृथ्वीराज रासो
पृथ्वीराज रासो के कई सस्करण प्रकाश मे लाये गये हैं और उनमे से लघुतम सस्करण का सम्पादन करवा कर उसका कुछ अश 'राजस्थान भारती' मे प्रकाशित किया गया है । रासो के विविध सस्करण और उसके ऐतिहासिक महत्व पर कई लेख राजस्थान-भारती ने प्रकाशित हुए है। ७. राजस्थान के अज्ञात कवि जान (न्यामतखा) की ७५ रचनाओ की खोज की गई। जिसको सर्वप्रथम जानकारी 'राजस्थान-भारती' के प्रथम अक मे प्रकाशित हुई है । उसका महत्वपूर्ण ऐतिहासिक काव्य 'क्यामरासा' तो प्रकाशित भी करवाया जा चुका है। ८. राजस्थान के जैन संस्कृत साहित्य का परिचय नामक एक निवघ राजस्थान भारती मे प्रकाशित किया जा चुका है। ६. मारवाड क्षेत्र के ५०० लोकगीतो का संग्रह किया जा चुका है। बीकानेर एव जैसलमेर क्षेत्र के सैकडो लोकगीत, घूमर के लोकगीत, बाल लोकगीत, लोरिया और लगभग ७०० लोक कथाएँ सग्रहीत की गई हैं। राजस्थानी कहावतों के दो भाग प्रकाशित किये जा चुके हैं । जीणमाता के गीत, पाबूजी के पवाडे और राजा भरथरी आदि लोक काव्य सर्वप्रथम 'राजस्थान-भारती' मे प्रकाशित किए गए हैं। १० बीकानेर राज्य के और जैसलमेर के अप्रकाशित अभिलेखो का विशाल सग्रह 'बीकानेर जैन लेख संग्रह' नामक वृहत् पुस्तक के रूप में प्रकाशित हो चुका है।
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११. जसवत उद्योत, मुहता नैणसी री ख्यात और अनोखी प्रान से महत्वपूर्ण ऐतिहासिक ग्रथो का सम्पादन एव प्रकाशन हो चुका है। १२. जोधपुर के महाराजा मानसिंहजी के सचिव कविवर उदयचद नडारी की ४० रचनाओ का अनुसंधान किया गया है और महाराजा मानसिंहजी की काव्य-साधना के सवध मे भी सबसे प्रथम 'राजस्थान-भारती' मे लेख प्रकाशित हुआ है । १३. जैसलमेर के अप्रकाशित १०० शिलालेखो और 'भट्टि वश प्रशस्ति' प्रादि अनेक अप्राप्य और अप्रकाशित ग्रय खोज-यात्रा करके प्राप्त किये गये है । १४ बीकानेर के मस्तयोगी कवि ज्ञानसारजी के ग्रयो का अनुसंधान किया गया और ज्ञानसार ग्रयावली के नाम से एक ग्रंय भी प्रकाशित हो चुका है । इसी प्रकार राजस्थान के महान विद्वान महोपाध्याय समयमुन्दर की ५६३ लघु रचनाओं का संग्रह प्रकाशित किया गया है । १५. इसके अतिरिक्त सस्था द्वारा--
(१) डा० लुइजि पिनो तस्सितोरी, ममयसुन्दर, पृथ्वीराज, और लोकमान्य तिलक आदि साहित्य-सेविवों के निर्वाण-दिवस और जयन्तियां मनाई जाती हैं।
(२) साप्ताहिक साहित्यिक गोष्ठियो का आयोजन बहुत समय से किया जा रहा है, इसमें अनेको महत्वपूर्ण निवध, लेख, कविताएँ और कहानिया आदि पढ़ी जाती हैं, जिससे अनेक विच नवीन साहित्य का निर्माण होता रहता है । विचार विमर्श के लिये गोष्ठियो तथा भाषणमालामो आदि का भी समय-समय पर आयोजन किया जाता रहा है।। १६. वाहर से ज्यातिप्राप्त विद्वानो को बुलाकर उनके भाषण करवाने का आयोजन भी किया जाता है । डा० वासुदेवशरण अग्रवाल, डा० कैलाशनाथ काटजू, राय श्री कृष्णदास, डा० जी० रामचन्द्रन्, डा० सत्यप्रकाश, डा० डब्लू० एलेन, डा० सुनीतिकुमार चट्ठा , डा० तिबेरिप्रो-तिवेरी आदि अनेक अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त विद्वानो के इस कार्यक्रम के अन्तर्गत भाषण हो चुके है ।
गत दो वर्षों ने महाकवि पृथ्वीराज राठोड आमन की स्थापना की गई है। दोनो वो के आसन-अधिवेशनो के अभिभाषक प्रमश: राजस्थानी भाषा के प्रकासड
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विद्वान् श्री मनोहर शर्मा एम० ए०, विसाऊ और पं० श्रीलालजी मिश्र एम० ए०, डूडलोद, थे।
इस प्रकार सस्था अपने १६ वर्षों के जीवन-काल मे, सस्कृत, हिन्दी और राजस्थानी साहित्य की निरंतर सेवा करती रही है । आर्थिक संकट से ग्रस्त इस संस्था के लिये यह संभव नहीं हो सका कि यह अपने कार्यक्रम को नियमित रूप से पूरा कर सकती, फिर भी यदा कदा लडखडा कर गिरते पडते इसके कार्यकर्तामो ने 'राजस्थान-भारती' का सम्पादन एवं प्रकाशन जारी रखा और यह प्रयास किया कि नाना प्रकार की वाघाओ के वावजूद भी साहित्य सेवा का कार्य निरतर चलता रहे। यह ठीक है कि संस्था के पास अपना निजी भवन नहीं है, न अच्छा सदर्भ पुस्तकालय है, और न कार्य को सुचारु रूप से सम्पादित करने के समुचित साधन हो हैं, परन्तु साधनो के अभाव में भी सस्था के कार्यकर्ताओ ने साहित्य की जो मौन और एकान्त साधना की है वह प्रकाश मे आने पर सस्था के गौरव को निश्चय ही वढा सकने वाली होगी ।
राजस्थानी साहित्य-भंडार अत्यन्त विशाल है । अब तक इसका- अत्यल्प अंश ही प्रकाश में आया है । प्राचीन भारतीय वाङमय के अलभ्य एव अनर्घ रलो को प्रकाशित करके विद्वज्जनो और साहित्यिको के समक्ष प्रस्तुत करना एव उन्हें सुगमता से प्राप्त कराना सस्था का लक्ष्य रहा है। हम अपनी इस लक्ष्य पूत्ति की अोर धोरे-धीरे किन्तु दृढता के साथ अग्रसर हो रहे है।
___यद्यपि अव तक पत्रिका तथा कतिपय पुस्तको के अतिरिक्त अन्वेषण द्वारा प्राप्त अन्य महत्वपूर्ण सामग्री का प्रकाशन करा देना मी अभीष्ट था, परन्तु अर्थाभाव के कारण ऐसा किया जाना सभव नहीं हो सका। हर्ष की बात है कि भारत सरकार के वैज्ञानिक सशोध एव सास्कृतिक कार्यक्रम मत्रालय (Ministry of scientific Research and Cultural Affairs) ने अपनी प्राधुनिक भारतीय भाषामो के विकास की योजना के प्रतर्गत हमारे कार्यक्रम को स्वीकृत कर प्रकाशन के लिये रु० १५०००) इस मद मे राजस्थान सरकार को दिये तथा राजस्यान सरकार द्वारा उतनी ही राशि अपनी ओर से मिलाकर कुल रु० ३००००) तीस हजार की सहायता, राजस्थानी साहित्य के सम्पादन-प्रकाशन
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हेतु इस संस्था को इस वित्तीय वर्ष में प्रदान की गई है, जिससे इस वर्ष निम्नोक्त ३१ पुस्तको का प्रकाशन किया जा रहा है । १. राजस्थानी व्याकरण
श्री नरोत्तमदास स्वामी २. राजस्थानी गद्य का विकास (शोध प्रबंध) डा० शिवस्वरूप शर्मा अचल ३. अचलदास खीची री वचनिका
श्री नरोत्तमदास स्वामी ४. हमीराय ए
श्री भवरलाल नाहटा ५. पद्मिनी चरित्र चौपई६. दलपत विलास
श्री रावत सारस्वत ८७. डिंगल गीत--
" " " ८. पवार वंश दर्पण
डा० दशरथ शर्मा ६. पृथ्वीराज राठोड ग्रंथावली
श्री नरोत्तमदास स्वामी और
श्री बद्रीप्रसाद साकरिया १०. हरिरस
श्री वद्रीप्रसाद साकरिया ११. पीरदान लालस ग्रंथावली
श्री अगरचन्द नाहटा २२. महादेव पार्वती वेलि
श्री रावत सारस्वत १३. सीताराम चौपई
श्री अगरचन्द नाहटा १४. जैन रासादि संग्रह
श्री अगरचन्द नाहटा और
डा० हरिवल्लभ भायारणी १५. सदयवत्स वीर प्रवत्व
प्रो० मंजुलाल मजूमदार १६. निनराजसूरि कृतिकुसुमाजलि
श्री भंवरलाल नाहटा १७. विनयचन्द कृतिकुसुमाजलि-~
" " " २८. कविवर धर्मवद्धन ग्रथावली
श्री अगरचन्द नाहटा १६. राजस्थान रा दूहा
श्री नरोत्तमदास स्वामी २०. वीर रस रा दहा--
, , , २१. राजस्थान के नीति दोहा
श्री मोहनलाल पुरोहित २२. राजस्थान व्रत कथाएं
" " " २३. राजस्थानी प्रेम कथाएं
" " " २४. चंदायन--
श्री रावत सारस्वत
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२५ - भड्डली
श्री अगरचन्द नाहटा
माविनय सागर २६. जिनहपं ग्रथावली
श्री अगरचन्द नाहटा २७ राजस्थानी हस्तलिखित ग्रथो का विवरण , २८. दम्पति विनोद २६. हीयाली-राजस्थान का बुद्धिवर्धक साहित्य ३०. समयसुन्दर रासत्रय
श्री भवरलाल नाहटा ३१. दुरसा आढा ग्रथावली . श्री वदरीप्रसाद साकरिया
___ जैसलमेर ऐतिहासिक साधन संग्रह (संपा० डा० दशरथ शर्मा), ईशरदास प्रथावली (संपा० बदरीप्रसाद साकरिया), रामरासो (प्रो० गोवर्द्धन शर्मा ), राजस्थानी जैन साहित्य (ले० श्री अगरचन्द नाहटा), नागदमण (सपा० बदरीप्रसाद साकरिया), मुहावरा कोश (मुरलीधर व्यास) आदि ग्रथो का सपादन हो चुका है परन्तु अर्याभाव के कारण इनका प्रकाशन इस वर्ष नही हो रहा है । " हम आशा करते हैं कि कार्य की महत्ता एव गुरुता को लक्ष्य मे रखते हुए अगले वर्ष इससे भी अधिक सहायता हमे अवश्य प्राप्त हो सकेगी जिससे उपरोक्त सपादित तथा अन्य महत्वपूर्ण ग्रंथो का प्रकाशन सम्भव हो सकेगा।
इस सहायता के लिये हम भारत सरकार के शिक्षा विकास सचिवालय के आभारी हैं, जिन्होने कृपा करके हमारी योजना को स्वीकृत किया और ग्रान्ट-इनएड की रकम मजूर की।
राजस्थान के मुख्य मन्त्री माननीय मोहनलालजी सुखाडिया, जो सौभाग्य से शिक्षा मन्त्री भी हैं और जो साहित्य की प्रगति एव पुनरुद्धार के लिये पूर्ण सचेष्ट हैं, का भी इस महायता के प्राप्त कराने मे पूरा-पूरा योगदान रहा है। अतः हम उनके प्रति अपनी कृतज्ञता सादर प्रगट करते हैं।
राजस्थान के प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षाध्यक्ष महोदय श्री जगन्नाथसिंहजी मेहता का भी हम आभार प्रगट करते हैं, जिन्होंने अपनी ओर से पूरी-पूरी दिलचस्पी लेकर हमारा उत्साहवर्द्धन किया, जिससे हम इस वृहद् कार्य को सम्पन्न करने में • समर्थ हो सके । सस्था उनकी सदैव ऋणी रहेगी।
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इतने थोडे समय में इतने महत्वपूर्ण ग्रन्थो का सपादन करके सस्था के प्रकाशन-कार्य मे जो सराहनीय सहयोग दिया है, इसके लिये हम सभी अन्य सम्पादको व लेखको के अत्यंत आभारी हैं।
अनूप सस्कृत लाइब्रेरी और अभय जैन ग्रन्यालय बीकानेर, स्व० पूर्णचन्द्र नाहर सग्रहालय कलकत्ता, जैन भवन संग्रह कलकत्ता, महावीर तीर्थक्षेत्र अनुसंधान समिति जयपुर, भीरियटल इन्स्टीट्यूट बडोदा, भांडारकर रिसर्च इन्स्टीट्य ट पूना, खरतरगच्छ वृहद् ज्ञान-भडार बीकानेर, मोतीचंद खजाची ग्रंथालय बीकानेर, खरतर प्राचार्य ज्ञान भण्डार बीकानेर, एशियाटिक सोसाइटी ववई, आत्माराम जैन ज्ञानभडार बडोदा, मुनि पुण्यविजयजी, मुनि रमणिक विजयजी, श्री सीताराम लालस, श्री रविशकर देराश्री, पं० हरदत्तजी गोविंद व्यास जैसलमेर आदि अनेक सस्यानो और यक्तियो से हस्तलिखित प्रतिया प्राप्त होने से ही उपरोक्त ग्रन्थो का संपादन संभव हो सका है । अतएव हम इन सबके प्रति आभार प्रदर्शन करना अपना परम कर्तव्य समझते हैं।
ऐसे प्राचीन ग्रन्यो का सम्पादन श्रमसाध्य है एवं पर्याप्त समय की अपेक्षा रखता है। हमने अल्प समय मे ही इतने ग्रन्थ प्रकाशित करने का प्रयत्न किया इसलिये त्रुटियो का रह जाना स्वाभाविक है । गच्छत: स्खलनक्वपि भवय्येव प्रमाहतः, हसन्ति दुर्जनास्तत्र समादधति साधवः । __ याशा है विद्वद्वन्द हमारे इन प्रकाशनों का अवलोकन करके साहित्य का रसास्वादन करेंगे और अपने सुझावो द्वारा हमें लाभान्वित करेंगे जिससे हम अपने प्रयास को सफल मानकर कृतार्थ हो सकेंगे और पुन. मा भारती के चरण कमलों मे विनम्रतापूर्वक अपनी पुष्पाजलि समर्पित करने के हेतु पुन उपस्थित होने का साहस बटोर सकेंगे।
निवेदक वीकानेर,
लालचन्द कोठारी मार्गशीर्ष शुक्ला १५
प्रधान-मत्री स० २०१७
सादूल राजस्थानी-इन्स्टीट्यूट दिसम्बर ३,१६६०.
बीकानेर
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धर्मवर्द्धन ग्रन्थावली:
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Hemraमिनापुत्सर्गपानिध्यमायानिमिनायवदिनबाध्यते परिहत्यापवादविषयमुत्सतितिशत गोमतस्थानिय ll
त्यासविकारपवादानोत्सगतिविधानाधते गोपादारतिसप्तमोध्यायः सर्वत्रासिकायमविर्वनने पाद अनित्यमा गमावासन निमिनापाटनैमितिकस्पाप्पपाय रेफषाद, गौणखरव्ययारियकार्यपत्यय, शनिमानिमयो सति| मिकार्यसत्यया पानाप्रधानयो पनि कार्थ प्रत्ययः पदवितीकारक वित्तक्तिबलायमावयवृद्धिमा मुदायप्रसिर्बिजायसी गामादायदणे,विशेष: सामान्यस्यातिदेशनिशेषग्याननिदेशा तामिनया, श्रोता
धोघलाया पिस्वराधिस्वरोवलीयान विधिनिय मसलवेविधरेवड्यांयान प्रतियतिविधामाधोगविता |गोबलायात नियमज्ञापकयोमिथोविनराधेश्यारण्य विलविवेचल्यत्वान्नतनवलंबन्नम् सविधिया लोपविधिबलवा तत्पविकारेत्पसदेवशास्पमा नर्थलात्यविधिपत्यथापत्यययो पत्ययस्पवय
'सदवश्विासदवस्तियोः सत्वरितस्पेनयदा यथाद्देवासज्ञापस्तिाषाकार्यमनित्यम् 'गणकार्यम नित्य संदेदेवजवनप्रयोकव्य अादितक्तिपरिणामयोगवितागादिष्टसिदि, पयायशदातारकरलायव नाडायने व्यवस्थितवितापायाकायोगिक्रियते अनिष्टि प्रत्ययास्वार्थतवति ज्ञापकशिनसर्वत्र सुगमता धिकरणवचनेक इंधासाधनेनयुत्पने पचासवा ' अथवावमुपसगया समासहनदिनेसबा निधानमन्पत्र निन्तरूपावासिवारियबंधेत्या एत्वपादातिभ्रष्टाध्यायज्ञपिस्सिापासमानतामगादगाधरी णा गयश्लोका १६॥ अगाम्बकुमाशोगापमाणेवसरवरे शुक्राचाष्टमातियामलिरवक्षाविना श्री. श्री मदनापोलीत तौरवाहात्मरायोवियाकरणमाषायावी नवलप नातिधारनाकरे।
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कविवर धर्मवर्द्धन की हस्तलिखित “परिभापा"।
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भूमिका
राजस्थान की साहित्य-सम्पत्ति की अभिवृद्धि एवं सुरक्षा में जैन विद्वानों का योग सदैव स्मरणीय रहेगा। जैनविद्वानों का उद्देश्य एकमात्र जनसाधारण में सद्धर्म का प्रचार करना एव ज्ञान की ज्योति की प्रकाशमान रखना रहा है। न उनको राजा-महाराजाओ का गुणानुवाद करना था, न हिंसामय युद्ध के लिए योद्धाओ को उत्तेजित करना था और न शृगार रस से पूर्ण रचनाओं द्वारा जनसमाज में कामोत्तेजना फैलाना था। उनका जीवन सदा से निवृत्ति-प्रधान रहता आया है। अतः सद्धर्म-प्रचार के साथ ही साहित्य का उत्पादन एवं उन्नयन करना उनके जीवन का अग बना हुआ दृष्टिगोचर होता है।
जैन विद्वानो ने प्रचुर साहित्य-सामग्री का निर्माण करने के साथ ही अतिमात्रा में ग्रंथो का संरक्षण भी किया है। इस कार्य मे उन्होने जैन-अजैन का विचार नहीं किया। जैन भंडारो में सभी प्रकार के महत्वपूर्ण ग्रन्थो की प्रतिया सुरक्षित की जाती रहीं है और उनके अपने लिखे हुए ग्रन्थ भी केवल जैन-धर्म विषयक ही नहीं है। उन्होंने सभी विषयो के ग्रन्थो से अपने भंडारों को परिपूर्ण करने के साथ ही स्वयं भी विविध ज्ञान
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( २ ) शाखाओं अथवा साहित्यिक परम्पराओं की पूर्ति के लिए लिए ग्रन्थ रचना की है। जैन भंडारी मे की गई ज्ञान साधना ने विद्यारसिको के लिए प्रचूर साहित्य-सामग्री एकत्रित कर दी है। यह जैन विद्वानों की एकान्त तपस्या का ही फल है कि बहुसख्यक अनमोल ग्रन्थ नष्ट होने से बच गए हैं और वे अब भी सर्वसाधारण के लिए सुलभ है।
राजस्थान के लब्धप्रतिष्ट जैन विद्वानो एव कवियों की संख्या भी काफी बड़ी है। इन विद्वानों ने अनेक भाषाओं में ग्रन्थ-रचना की है। जहा इन्होंने संस्कृत मे ग्रन्थ लिखे है, वहा प्राकृत एवं अपभ्रंश को भी अपनी प्रतिभा की भेंट दी है। लोकभापा की ओर तो जेन विद्वानो का ध्यान सदा से ही रहा है। यही कारण है कि राजस्थानी जैन साहित्य की विशालता आश्चर्यजनक है। प्राचीन राजस्थानी साहित्य को तो जैन विद्वानों की विशेष देन है।
राजस्थान के जन साहित्य-तपस्वियो मे उपाध्याय धर्नवर्द्धन का विशिष्ट स्थान है। ये एक साथ ही सद्धर्मप्रचारक, समर्थ विद्वान पब सरस कवि के रूप में प्रतिष्ठित है। इनकी अपनी रचनाएँ काफी अधिक है और वे संस्कृत, पिंगल एवं डिंगल आदि अनेक भाषाओ मे है। इतना ही नहीं, इन्होंने अपनी रचनाओं मे अनेक परम्पराओ का सुन्दर निर्वाह कर के अपने साहित्य को समष्टि रूप से एक विशिष्ट वस्तु बना दिया है, जिसके विषय मे आगे जरा विस्तार से चर्चा की जाएगी।
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श्री अगरचंद नाहटा ने अपने राजस्थानी साहित्य और जैन कवि धर्मवर्द्धन' शीर्षक लेख (त्रैमासिक राजस्थान, भाद्रपद १६६३ ) में उपाध्याय धर्मवर्द्धन के जीवनवृत्तान्त पर अच्छा प्रकाश डाला है। तदनुसार इनका जन्म स० १७०० मे हुआ था और इनका जन्म नाम 'धरमसी' (धर्मसिंह ) था। इन्होने तत्कालीन खरतरगच्छाचार्य श्रीजिनरत्नसूरि के पास स० १७१३ में तेरह वर्ष की अल्पायु में ही दीक्षा ग्रहण की और इनका दीक्षा नाम 'धर्मवर्द्धन' हुआ। पद्रहवींशताब्दी के प्रभावक खरतर गच्छाचार्य श्रीजिनभद्रसूरि की शिष्य-परम्पग के मुनि विजयहर्प आप के विवागुरु थे, जिनके समीप रह कर आपने अनेक शास्त्रों का अध्ययन किया।
मुनि धर्मवर्द्धन का समस्त जीवन धर्मप्रचार एवं ग्रन्थरचना में ही व्यतीत हुआ। आपने अनेक प्रदेशो, नगरों एवं ग्रामो मे विहार करके धर्म-प्रचार किया और प्रचुर साहित्य-रचना की। आपको अपने जीवन मे बडा सम्मान प्राप्त हुआ। आपकी विद्वत्ता की प्रसिद्धि फैली। फलतः गच्छनायक श्रीजिनचन्द्रसूरि ने आपको स. १७४० में उपाध्याय पद से अलकृत किया। आगे चल कर गच्छ के तत्कालीन सभी उपाध्यायो मे वयोवृद्ध एवं नानवृद्ध होने के कारण आप महोपाध्याय पद से विभूषित हुए।
लाभग ८० वर्ष की आयु में यशस्वी एवं दीर्घजीवन प्राप्त करके मुनि धर्मवर्द्धन ने इहलीला सवरण की। जयसुन्दर,
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कीर्तिसुन्दर, ज्ञानवा आदि अनेक विद्वान आपके शिष्य थे। इनकी शिष्यपरम्परा १६ वीं शताब्दी तक चालू रही ' ! आपके सम्बन्ध मे भोजक अमराजी का कहा हुआ एक डिंगल गीत इस प्रकार है :
वखतवर श्री विजहरप वाचक तणी, ज्ञान गुण गीत सौभाग बड़ गात । घडा वावई तिके गुणा रा धरमसी, पतगड तुने सहि वडा कवि पात ॥१॥ ज्ञानवत सूत्र सिधतरी लहइ गम, अगम रा अरथ जिके तिके आणइ । महु बहोतर कला तो कना धरमसी, जंन सिव धरम रा मरम जाण ॥ २ ॥ व्याकरण वेद पुगण कुराण विधि आप मति सार अधिकार आखइ । ताहरी धरमसी सममि इसड़ी तरह, भरह पिंगल तणा भेद भाखइ ॥३॥ राजि है श्री कमल साईज चढ़ती रती,, जिन सासन जोइतां जती गुण जाण । नग अमूल धरमसी सारिखा नीपजइ, खरतरइ गच्छ हीरां तणी खाण ॥४॥
२ महोपाध्याय धर्मवर्द्धनजी की विस्तृत जीवनी श्री नाहाटाजी के
लेख मे द्रष्टव्य है।
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तत्कालीन बीकानेर नरेश सुजाण सिंहजी ने गच्छनायक श्रीजिनसुखसूरि को दिए गए सं० १७७६ के अपने पत्र में महोपाध्यायजी की इस प्रकार प्रशंसा की है :
सब गुण ज्ञान विशेप विराज । कविगण ऊपरि धन ज्यु गाजै ।। धर्मसिंह धरणीतल माहि । पण्डित योग्य प्रणति दल ताहि ।। महोपाध्याय धर्मवर्द्धन अनेक विपयो के ज्ञाता एवं बहुभाषाविद् उच्चकोटि के विद्वान थे। आपकी अनेक रचनाएं सस्कृत मे है। साथ ही प्राकृत-अपभ्रंश आदि प्राचीन भापाओ मे भी रचना करने में आप समर्थ थे। इम सम्बंध में कुछ उदाहरण द्रष्टव्य है :
सरस्वती-बंदना (संस्कृत) मंद्र मध्येश्च तारैः क्रमततिभिरुरः कण्ठमूर्द्धप्रचारैः , सप्तस्वा प्रयुक्त सरगमपधनेत्याख्ययाऽन्योन्यमुक्तः। स्कन्धे न्यस्य प्रवालं कल ललितकल कच्छपी वादयती, रम्यास्या सुप्रसन्ना वितरतु वितते भारती भारती मे ।।६।।
(सरस्वत्यष्टकम)
प्राकृत विविह सुविहि लच्छीवल्सिंताणमेह, सुगुणरयणगेह पत्तसापुण्णरेहं ।
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दलियटुरियदाह लद्वससिद्धिलाह , जलहिमिव अगाह व दिमो पासनाहं ।। ३ ।।
अपभ्रांसिका तुहु राउल राउलह सामि हुँ राउल रंकह, हिणसु दुहाइ सुहाइ कुण सुमड मा अवहीरह । पिक्खड जुगू अजुग्गु ठाणु वरसतउ कि घणु, पत्तउ पड़ जड होसु दुहियसा तुह अवहीरणु |८||
(श्रीगौडीपार्श्वनाथस्तवनम् ) राजस्थान का डिंगल साहित्य अत्यंत गौरवमय है। इसके गीत भारतीय साहित्य की विशिष्ट वस्तु है। गीतो की वर्णन-शैली एवं उनकी छन्द रचना अपने आप मे स्वतंत्र है। डिंगल की गीत सम्पत्ति है भी अति विशाल और इसकी अभिवृद्धि मे केवल चारणो ही नहीं, अन्य वर्गो एवं कवियों का भी पूरा योगदान रहा है। महोपाध्याय धर्मवर्द्धन के डिंगलगीन उनकी समस्त साहित्यसामग्री में अपना विशिष्ट स्थान रखते है। उन्होने काफी डिंगल गीत लिखे है और
और उनका अर्थ-गाभीर्य विशेष रूप से ध्यान मे रखने की चीज है। यहा उनके कुछ डिंगलगीत उदाहरण-स्वरूप प्रस्तुत किए जाते है :
१. सूर्य स्तुति हुढे लोक जिण रे उद, मुर्दै सहु काम है, पूजनीका सिरे देव पूजौ।
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साच री बात सहु साभलौ सेवका. देव को सूर सम नही दूजौ ॥ १ ॥ सहस किरणा धरै हरै अधकार सही, नमैं प्रहसमै तियां कष्ट नावै ।। प्रगट परताप परता घणा पूरतो, अवर कुण अमर रवि गमर आवै ॥२॥ पडि रहै रात रा पखिया पथिया, हुवै दरसण सकी राह हींढे ।। सोम चढे सुरां सुरा असुरा सिहर, मिहर री मिहर सुर कवण मीठे ॥३॥ तपे जग ऊपरा जपै सहुँको तरणि, सुभा असुभां करम धरम साखी। रूड़ा ग्रह हुवइ सहु रूडै ग्रह राजवी, रूड़ा रजवट प्रगट रीति राखी ॥४॥
वर्षा वर्णन सबल मेंगल वादल तणा मज करि, गुहिर असमाण नीसाण गाजै। जंग जोरै करण काल रिपु जीपवा, आज कटकी करी इंदराजै ॥१॥ तीख करवाल विकराल वीजली तणी घोर माती घटा घर र घाले।। छोडि वासा घणी सोक छाटा तणी,
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चटक माहे मिल्यौ कटक चालै ॥२॥ तड़ा तड़ि तोब करि गयण तड़के तड़ित, महाझड़ झड़ि करि झम मंड्यौ। कड़ा किड़ि कोध करि काल कटका कीयौ, खिणकर वल खल सबल खंड्यौ ॥३॥ सरस वाना सगल की सजल थल, प्रगट पुहवी निपट प्रेम प्रघला। लहकती लाछि वलि लील लोको लही, सुध मन करे धर्मशील सगला ॥ ४ ॥
३. श्री महावीर जन्म सफल थाल वागा थिया धवल मंगल सयल तुरत त्रिभुवन हुआ हरप त्यारां । धनद कोठार भंडार भरिया धने, जनमियो देव बधमान ज्यारा ।। १ ।। वार तिण मेरगिरि सिहर न्ववरावियो भला सुर असुरपति हुआ मेला । सुद्रव वरपा हुई लोक हरप्या सहु, वाह जिनवीर री जनम वेला ॥२॥ मिहर जगि ऊगते पूगते मनोरथ जुगति जाचक लहै दान जाचा। मडिया महोछव सिधारथ मौहले, सुपन त्रिसला सुतन किया साचा ॥ ३ ॥
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(
६
)
करण उपगार ससार तारण कलू., आप अवतार जगदीस आयौ । धनो धन जैन धर्म सीम धारणधणी, जगतगुर भले महावीर जायौ ।। ४ ।।
४. शत्रुञ्जय महिमा सरव पूरब सुकृत तीये किया सफल, लाभ सहु लाभ में अधिक लीया। सफल सहु तीरथा सिरे र्सेत्रुज री, यात्रा कीधी तिया धन्न जीया ।। १ ।। सुजस परकासता मिले सघ सासता, शास्त्रे सासता विरुद सुणिजे] ऋपभ जिणराज पुडरीक गिरि राजीयो, भेटिया सार अवतार भणिजे ॥ २ ॥ काकरै काकर कोडि कोडी किता, साधु शुभ ध्यान इण थान सीधा । साच सिद्धक्षेत्र शुद्ध चेत सु सेवता, कीध दरसण नयनसफल कीधा ।।३॥ तासु दुरगति न ह नरक त्रियंच री, सुगति सुर नर लहै सुगति सारी। विमल आतम तिको विमलगिरि निरखसी धनो धन श्री धर्मसील धारी ।।४।
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( १० ) ५. धरती की ममता भोगवी किते भू किता भोगवसी माहरी माहरी करइ मरें।
ठी तजी पातला ऊपरि, कृकर मिलि मिलि कलह कर ॥ १॥ धपटि धरणि कितेइ धु सी, धरि अपणाइत के ध्र वे। धोवा तणी सिला परि धोवी, ह पति हूं पति कर हुबै ॥२॥ इण इल किया किता पति आर्ग, परतिख किता किता परपूठ । वसुधा प्रगट दीसती वेश्या, भूझ भूप भुजंग सुझूठ ॥३॥ पातल सिला वेश्या पृथ्वी, इण च्यारा री रीत इसी। ममता कर मर सो मूरख, कहै ध्रमसी धणियाप किसी ॥४॥
६. राष्ट्रवीर शिवाजी सकति काइ साधना किना निज भुज सकति.. बड़ा गढ धूणिया वीर वाकै। अवर उमराव कुण आइ साम्ही अड़े, सिवा री धाक पातिसाह साके ।। १ ।।
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( ११ ) खसर करता तिके असुर सहु खूदिया, जीविया तिके त्रिणौ लेहि जीहै। सबद आवाज सिवराज री साभल , बिली जिम दिली रो धणी बीहै ॥२॥ सहर देखे दिली मिले पतिसाह सू , खलक देखत सिवो नाम खारै। आवियो वले कुसले. दले आप रे। हाथ घसि रह्यौ हजरत्ति हार ।। ३ ।। कहर म्लेच्छा शहर डहर कंद काटिवा, लहर दरियाव निज धरम लोचै । हिंदुऔ राव आइ दिली लेसी हिवै,
सवल मन माहि सुलताण सोचे ।। ४ ॥ उपर कविवर धर्मवर्द्धन के ६ डिंगल गीत इसलिए प्रस्तुत किए गए हैं कि इनके द्वारा विषयगत विविधता प्रकट हो सके। कविवर ने विविध विषयो मे डिंगलगीत रच कर इस शैली का महत्त्व प्रकाशित किया है। डिंगलगीतो का विपय केवल युद्धवर्णन अथवा विरूदगान तक ही सीमित नहीं है। इस मे देवस्तुति, प्रकृति वर्णन, निर्वेद एव राष्ट्रीयता आदि तत्त्वो का भी सम्यक् सन्निवेश दृष्टिगोचर होता है। कविवर धर्मवर्द्धन के गीतो की डिंगल भी प्रसादगुण धारण किए हुए है। यह इनकी अपनी विशेषता है।
कविवर धर्मवर्द्धन ने अनेक गेय पदो की भी रचना की है। ये पद अधिकाश मे औपदेशिक अथवा स्तवन रूप है
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( १२ ) और पदों की भाषा पिंगल है। कविवर के कुछ पढो को उदाहरण-स्वरूप यहा दिया जाता है :
१. राग तोड़ी तु करे गर्व सो सर्व वृथा री। स्थिर न रहे सुर नर विद्याधर ता पर तेरी कौन कथा री ॥१॥ कोरिक जोरि दाम किये इक ते, जाके पास वि दाम न था री । उठि चल्यो जब आप अचानक, परिय रही सब धरिय पथा री ।। २ ॥ सपद आपद दुहु सोकनि के, फिकरी होइ फद में फथा री। सुधर्मशील धरे सोउ सुखिया, मुखिया राचत मुक्ति मथारी ॥ ३ ॥
२. राग सामेरी मन मृग तु तन यन में मातौ । कलि करे चरे इच्छाचारी जाणे नहीं दिन जातो ।। १ ।। माया रूप महा मृग त्रिसना, तिण मे धावे तातो। आखर पूरी होत न इच्छा, तो भी नहीं पछतातो ॥२॥ कामणी कपट महा कुडि मंडी, खबरि करे फाल खातो। कहे धर्मसीह उलगीसि वाको, तेरी सफल कला तो ।। ३ ।।
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( १३ ) जैन विद्वानो द्वारा लोक साहित्य का बड़ा उपकार हुआ है। जहा उन्होंने अपनी रचनाओ के लिए लोककथाओ का आधार लेकर बड़ी ही रोचक एवं शिक्षाप्रद सामग्री प्रस्तुत की है, वहा उन्होंने लोकगीतो के क्षेत्र मे भी विशेष कार्य किया है। उन्होंने लोकगीतो की धुनो के आधार पर बहुत अधिक गीतो की रचना की है और साथ ही उनकी आधारभूत धुनों के गीतो की आद्य पंक्तिया भी अपनी रचनाओ के साथ लिख दी है। इस प्रकार हजारो प्राचीन लोकगीतों की आद्य पक्तिया इन धर्म प्रचारक कवियो की कृपा से सुरक्षित हो गई'। मुनि धर्मवर्द्धन विरचित अनेक गीत भी इसी रूप में है। उनके कुछ गीतो की धुनें इस प्रकार
१. मुरली बजावै जी आवो प्यारो कान्ह । २ आज निहेंजो दीस नाहलो। ३ केसरियो हाली हल खड़े हो । ४. धण रा ढोला। ५. ढाल, सुबरदेरा गीत री। - ६ ढाल, नणदल री। ७ उड रे आबा कोइल मोरी। ८. हेम घड्यो रतने जड्यो खंपो ।
६ कपूर हुवै अति ऊजलो रे । २ 'जैन गुर्जर कवियो' भा० ३ ख ० २ मे रोसी प्राचीन 'देशियो' की
अति विस्तृत सूची दी गई है, जो द्रष्टव्य है ।
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( १४ ) १० सुगुण सनेही मेरे लाला। ११. दीवाली दिन आबीयउ ।
मुनि धर्मबर्द्धन का जीवन त्यागमय था एव जनता में लद्धर्म का प्रचार करना ही उनका मुख्य कार्य था। अतः उनकी रचनाओं में औपदेशिक एवं धार्मिक सामग्री का पाया जाना सर्वथा म्वाभाविक है। वे जैन शासन में थे। उनके हृदय में जैन तीर्थङ्करों एव आचार्यों के प्रति अगाध भक्ति थी, जो उनकी अधिकाश रचनाओ का प्रधान विषय है। इन रचनाओ से मुनिवर के हृदय की भक्ति टपकी है। यहां कुछ उदाहरण दिए जाते है :
१. संघ (छप्पय ) वदो जिन चौबीम चबदसे बावन गणधर । माधु अट्टावीस लाख सहस अड़तीस मुखंकर ।। साध्वी लाग्य चम्माल सहस छयालिस चउसय ।
श्रावक पचपन लाख सहस अडताल समुच्चय ।। श्राविका कोडि पच लाख सहु, अधिक अठावीस सहस अख । ‘परिवार इतो मंघ ने प्रगट, श्री धर्ममी कहै करहु सुख ।।
२. श्री जिनदत्तमरि ( सवैया ) बावन वीर किए अपने वश, चौसटि योगिनी पाय लगाई। डाइण साइणि, व्यंतर खेचर, भूत परेत पिसाच पुलाई। वीज तटक भटक कट्टक, अटक रहै पै खटक न काई। कहे धर्मसीह लधे कुण लीह, टीय जिनदत्त की एक दुहाई।
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( १५ ) ३. श्री जिनचंद्रसूरि ( कवित्त ) जैसे राजहंसनि सौ राजे मानसर राज,
जैसे विंध भूधर विराजै गजराज सौ। जैसे सुर राजि सुजु सोभ सुरराज साजै,
जैसे सिंधुराज राजै सिंधुनि के साज सौ। जसे तार हरनि के वृन्द सौं विराज चढ,
__ जैसे गिरराज राजै नद वन राज सौ । जैसे धर्मशील सौं विराजै गच्छराज तैसे
राजै जिनचदसूरि सघ के समाज सौं। जनता में सद्धर्म का प्रचार करने का मुख्य अग 'आचरण एव व्यवहार की शुद्धि है। मुनिवर ने इन विपयों ‘पर भी बहुत कुछ लिखा है। इसी श्रेणि मे उनकी नीति-प्रधान रचनाएँ है। इनमे कवि के दीर्घजीवन का सार समाया हुआ है। यहां कुछ उदाहरण इस सम्बंध में प्रस्तुत किए जाते हैं :
१. भाव भाव ससार समुद्र की नाव है,
___ भाव बिना करणी सब फीकी भाव क्रिया ही को राव कहावत,
भाव ही तैं सब बात है नीकी ।
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( १६ ) दान करौ बहु ध्यान धरौ,
तप जप्प की खप्प करो दिन ही की। बात को सार यहै धर्मसी इक, भाव विना नहीं सिद्धि कहीं की ।।४।।
(धर्म बावनी)
२. मधुर वचन बहु आदर सू बोलिय, वारु मीठा वैण । धन विण लागा धर्मसी, सगला ही है सैण ।। सगला ही है सैण, वैण अमृत वदीजै । आदर दीजं अधिक, कदे मनि गर्व न कीज ।। इणा बात आपणा, सैंण हुइ सोभ वर्दै सहु । मान निसर्च मीत, बोल मीठो गुण छै बहु ॥४४||
(कुण्डलिया वावनी)
३. मोर और पंख कहै पाखा सुणि केकि, कत तुझ लागि केहै । करि कु मया तु कांड, फूस ज्यु अम्ह पा फेडे ।। सुन्दर माहरे संग, कहै सहु तोने कलाधर ।
नहीं तर खुथड़ो निरखी, नेट निन्दा करसी नर ।। अम्ह घणी ठाम वीजी अवर, धरमी आदर करि धरै। माहरे सुगुण सोभा मुगट, श्रीपति पिण करसी सिरै ॥२२॥
(छप्पय वावनी)
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( १७ )
४ दृष्टान्त
मोटा रे पिण कष्ट में, जतन नेह सहु जाय । रातै रमणी रांन मे, नाखि गयौ नलराय ॥२२॥ राज लैण माहे रहै, वडा तणी मति वक्र । भरते मारण भ्रात नै, चपल चलायौ चक्र ॥२३॥ दान अदान दुहूं दिसी, अधिक भाव री ओर। नवल सेठ नै फल निबल, जीरण नै फल जोर ॥२४॥
( दृष्टान्त छतीसी)
५. काया
काया काचे कुंभ समान कहै ककौ । धाख घेखी काल - सही देसी धकौ ।।
करवत वहता काठ ज्यु आउखो कट। परिहा, न धरै तोइ धर्मसीख जीव नट ज्यु नटै ॥११॥
(परिहा बत्तीसी)
६. सीख राजा मित्र म जाणे रंग,- सुमाणस रो करिजे संग। काया रखत तपस्या कीजै, दान वल धन सारु दीजै ॥१०॥ जोरावर सुमत रमे जुऔ, करिजे मत घर माहे कुऔ। वैदा सुमत करजे वैर, गालि. बोले तो ही न कहे गैर ॥१२॥
( सवासौ सीव)
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( १८ )
७ शिक्षाकथन सुगुरु कहै सुण प्राणिया, धरिज धर्म वट्टा। पूरव पुण्य प्रमाण तें, मानव भव खट्टा। हिव अहिली हारे मता, भाजे भव भट्टा । लालच मे लागै रखें, करि कूड़ कपट्टा ॥२॥ उलम नौ तु आप सु, ज्यु जोगी जट्टा । पाचिस पाप संताप में, ज्युभोभरि भट्टा। भमसी तु भव नवा नवा, नाचै ड्युनट्टा । ऐ मंदिर ऐ मालिया, ऐ ऊचा अट्टा ॥३॥ हयवर गयवर हींसता, गौ महिपी थट्टा। लाल दु लीपी झूवका, पल्लिंग सु घट्टा । मांनिक मोति मूदड़ा, परवाल प्रगट्टा । आइ मिल्या है एकठ्ठा, जैसा चलवट्टा ॥४॥
(गुरु शिक्षा कथन निसाणी) ऊपर के उदाहरणों से प्रकट होता है कि समर्थ-कवि धर्मवर्द्धन ने राजस्थान में प्रचलित प्रायः सभी काव्य शैलियों को अपनाया है और इस प्रकार की अपनी रचनाओं में वे पूरे सफल हुए हैं। राजस्थानी साहित्य मे काव्यगत नामों के अनेक प्रकार हैं और उन सब में रचना,शैली की दृष्टि से अपनी अपनी विशेषताएं हैं। मुनि धर्मवर्द्धन ने उन सब को अपनी वाणी का सुफल भेंट किया है। उपर के उदाहरणों के अतिरिक्त अन्य काव्यशलियों से सम्बधित कवि की 'नेमि
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( १६ ) राजमती वारहमासा', 'श्री गौड़ी पार्श्वनाथ छन्द', 'शील रास' 'श्रीमती चौढालिया' एव 'श्री दशार्णभद्र राजर्षि चौपई' आदि रचनाओ के नाम लिए जा सकते है। इतनी अधिक काव्यशैलियों में सफल रचनाएं प्रस्तुत करना कवि की सामर्थ्यका द्योतक है। राजस्थान के कवियो में मुनि धर्मवर्द्धन की यह विशेषता वस्तुतः ही अत्यंत गौरव का विषय है।
पुराने कवियों मे चित्रकाव्य की रचना करने का चाव रहा है। कविवर धर्मवर्द्धन ने भी इस प्रकार की रचनाएँ की है। कुछ उदाहरण द्रष्टव्य है :
साधु स्तुति ( सर्व लघु अक्षर ) घरत धरम मग, हरत दुरित रग,
करत सुकृत मति हरत भरम सी। गहत अमल गुन, दहत मदन वन,
रहत नगन तन सहत गरम सी। कहत कथन सत, वहत अमल मन,
तहत करन गण महति परम सी। रमत अमित हित सुमति जुगत जति,
चरन कमल नित नमत धरमसी । देव गुरु वंदना (इकतीसा, तेवीसा सवैया)' शोभ(त) घणी(जु) अति देह (की) वणी(है) दुति,
सूरि(ज) समा(न) जसु तेज(मा) वदा(य) जू । १ इस पद्य के कोष्ठक वाले अक्षरो को छोड़ कर पढने से यह
'तेवीसा' सवैया बन जाता है ।
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भूप)ति) नम(ह) नित नाम(को) प्रता(प) पहु, देख(त) ताही(ही) दुख नाहि(है) कदा(य) जू। पूर(ण) बडे(ई) गुण सेव(के) करें(थे) सुख, वंद(त) तही(ही) बहु लोक (स)मुदा(य) जू । देत(है) बहू(त) सुख देव (सु)गुरु(हि) नित, दोऊ(को) नमै(है) ध्रमसीह (यौ) सदा(य) ज।
साथ ही एक हीयाली भी उदाहरण स्वरूप प्रस्तुत की जाती है :
हीयाली चतुर कहो तुम्है चुप सु, अरथ हीयाली एहो रे। नारी एक प्रसिद्ध छ, सगला पास सनेहो रे॥ ओल बैठा एकली, कर सगला ई कामो रे। राती रस भीनी रहे, छोडै नहीं निज ठामो रे ।।२।। चाकर चौकीदार ज्यु, बहुला राखै पासो रे। काम करावे ते कन्हा, विलसै आप विलासो रे ।।३।।' जोड़ प्रीति जण जण, बोड़े पिण तिण वारो रे। करिज्यो वस धर्मसी कहै, सुख वालो जो सारो रे ||४||
(जीभ) इसी प्रकार कवि समाज मे 'समस्यापूत्ति का भी विशेष प्रचलन रहा है। काव्यविनोद करने का यह एक सुन्दर तरीका है। समस्या की पूर्ति के लिए प्रसंगोद्भावना करनी पड़ती है। इसमे प्रखर कल्पना-शक्ति की आवश्यकता है।
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( २१ ) कविवर धर्मवर्द्धन ने अनेक समस्याओ की सुन्दर एवं रोचक रूप में पूर्ति की है। उनमे से कई तो संस्कृत मे है। आगे कुछ उदाहरण इस दिशा मे प्रस्तुत किए जाते हैं, जो अतीव सरस एवं रोचक है:
१. समस्या, भावी न टरे रे भैया, भावे कछु कर रे ।। श्रवण भरै तो नीर, मार्यों दशरथ तीर,
ऐसी होनहार कौण मेटि सके पर रे । पांडव गये राज हार, कौरव भयौ सहार,
द्रौपढी कुदृष्टि मार्यो कीचक किचर रे। केती धर्मसीख दइ, सीत विष वेलि वइ,
रावन न मानि लइ जावन कुं घर रे। भावी को करनहार, सो भी भम्यौ दश वार,
भावी न टरत भैया, भावै कछु कर रे । २ समस्या, नीली हरी विचि लाल ममोला । एक समै वृषभान कुमारि,
सिंगार सजे मनि आनिइ लोला । रंग हर्ये सब वेस बणाइ के,
अंग लुकाइ लए तिहि ओला । आए अचाण तहा घनश्याम,
लगाइ झरी कर केलि कलोला । घुघट में ए कर्यो अधरामनु,
नील हरी विचि लाल ममोला । . यह आणंदरामजी नाजर द्वारा दी हुई समस्या की पूर्ति है।
ये उस समय बीकानेर के राज्यमत्री थे ।
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( २२ ) ३. समस्या, टेरण के मिस हेरण लागी।
चुप सु च्यार सखी मिलि चौक मे,
___ गीत विवाह के गावन लागी। गौख तै कान्ह को साद सुणे ते,
___भइ बृपभान सुता चित रागी। जाइ नहीं चितयो उत ओर,
सखीनि के वीचि मे वैठि सभागी।। उते कर को सुकराज उड़ाइ के,
टेरण के मिसि हेरण लागी ।
४. समस्या, हरिसिद्धि हसे हरि यों न हसे ।। हनुमान हरोल किये चढे राम
तयों निधि संनिधि लंक ध्वसे ।। करि रौद्र संग्राम लकेश कुमारि,
कियौ सुखवास की नास नसे । शिव चिंत्यो त्रिलोक को कटक सोऊ,
नमावती मो पद सीस दसे ।। उत दैत्य हसे उत देव हसे,
हरिसिद्धि हसे हर यौ न हसे ।
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( २३ ) इसी प्रसग में 'कहावत' के साथ समाप्त होने वाले कविवर के अनेक पद्यो मे से उदाहरण स्वरूप यहा एक पद्य प्रस्तुत किया जाता है :
फूल अमूल दुराइ चुराड,
लीए तौ सुगध लुके न रहैगे। जो कछु आथि के साथ सु हाथ है,
___ ता तिन कु सब ही सलहैगे। जो कछु आपन में गुन है,
जन चातुर आतुर होइ चहैगे। काहे कहो धर्मसी अपने गुण,
बूठे की बात बटाऊ कहेंगे।
महोपाध्याय धर्मवर्द्धन संस्कृत के विद्वान थे। उन्होने सस्कृत के सुभाषित श्लोकों को अनूदित करके भी अपनी रचनाओंमें यत्रतत्र स्थान दिया है। इस विषयमे उदाहरण देखिए :
रीस भयो कौइ राक, वस्त्र विण चलीयो बाट। तपियो अति तावड़ौ, टालता मुसकल टाट। वील रु ख तलि वेसि, टालणो माड्यो तड़को । तर हुंती फल बेटि, पड़यो सिर माहे पड़कौ ।
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( २४ ) आपदा साथि आगे लगी, जायै निरभागी जठे । कर्मगति देख धर्मसी कहै, कही नाठो छुटै कठे ॥१३॥
(छप्पय वावनी)
खल्वाटो दिवसेश्वरस्य किरणः सन्तापिते मस्तके, गच्छन् देशमनातपं द्र तगतिस्तालस्य मूलं गतः । तत्राप्यस्य महाफलेन पतता भग्नं सशब्दं शिरः, प्रायो गच्छति यत्र देवहतकस्तत्रैव यान्त्यापदः ।।
(नीतिशतकम्-६६) पंकज मामि दुरेफ रहै, जु गहै मकरंद चितं चित ऐसौ। जाइ राति जु है है परमात, भय रवि दोत हसै कंज जैसो। , जाउंगो मैं तव ही गज नै जु, मृनाल मरोरि लयौ मुहि तैसो । युं धर्मसीह रहै जोउ लोभित, ह तिन की परि ताहिं अंदेसो।
(धर्म वावनी-४२) रात्रिर्गमिष्यति भविष्यति सुप्रभातं भास्वानुदेष्यति हसिप्यति पङ्कजश्रीः । इत्थं विचिन्तयति कोशगते द्विरेफे
हा मूलतः कमलिनी गज उज्जहार ।। इस प्रकार महोपाध्याय धर्मवर्द्धन के काव्य की विविधता पर विचार करने से वे एक समर्थ एवं सरस कवि के रूप मे मूर्तिमान होते हैं। उनकी रचनाए उनके जीवन के अनुरूप है और साथ ही रोचक तथा शिक्षाप्रद भी कम नहीं
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( २५ )
है । उनके काव्य के सम्बंध में उन्हीं के शब्दों में इस प्रकार
यथार्थ ही कहा जा सकता
है
--
एक एक तै विसेप पंडित वसें असेप,
रात दिन ज्ञान की ही बात कु धरतु है । वेंद्रक गणक ग्रन्थ जानें ग्रह गणन पंथ,
और ठौर के प्रवीण पाइनि परतु है ।
करत कवित सार काव्य की कला अपार,
है ।
श्लोक सच लोकनि के मन कुं हरतु कहे भ्रमसीह भैया पंडिताई कहु कैसी, दोहरा हमारे देस छोहरा करतु है
1
हिंदी विभाग, आर. एन रुइया कालेज, रामगढ़, शेखावाटी दि० २६-१०-६१
मनोहर शर्मा
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महोपाध्याय धर्मवद्धन
राजस्थानी साहित्य की जैन विद्वानो ने बहुत बड़ी सेवा की है। १३वीं शताब्दी से अब तक सैंकड़ों जैन कवि हो गये है जिनकी रचनाओ का प्रमाण कई लाख श्लोकों का है। गद्य और पद्य दोनों प्रकार का विविध विपयक राजस्थानी साहित्य जैन विद्वानो के रचित है। जैन विद्वानों मे प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश, राजस्थानी, हिन्दी, सभी भापाओ के विद्वान हो गये है। इनमे से कुछ विद्वानी ने इन सभी भापाओ मे रचनाएं की है कुछने केवल राजस्थानी मे ही और कुछ ने राजस्थानी, हिन्दी, गुजराती भाषा में ही अपनी सारी रचनाएं की है। यहा उनमे से एक ऐसे कवि और उनकी रचनाओ का परिचय दिया जा रहा है जिन्होंने विशेषतः संस्कृत, राजस्थानी,हिन्दी इन भाषाओं में रचनाएं की है। वैसे उनके रचित पट-भाषामय स्तोत्र और सिन्धी भाषा के दो स्तवन भी प्राप्त है। अपने समय के वे महान् विद्वानो मे से थे। अपने गच्छ मे ही नहीं राज-दरवारों में भी इन्हें अच्छा सन्मान प्राप्त था। उन कविश्री का नाम है 'धर्मवर्द्धन' । जन्म ___ कविवर धर्मवर्द्धन का मूल नाम धर्मसी था जो उनकी कई रचनाओं मे भी प्रयुक्त है। जैनमुनि-दीक्षा के
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( २७ )
अनंतर उनका नाम धर्मवर्द्धन रखा गया था । कवि के. जन्मस्थान, तिथि, वश, माता-पिता, आदि के संबंध में विशेष जानकारी तो प्राप्त नहीं होती पर हमारे संग्रह के एक पत्र मे प० धर्मसी के परिवार की विगत लिखा है उसमें उनका गोत्र ओसवाल- वशीय - आचलिया लिखा है । यद्यपि पं० धर्मसी नामक और भी कई यति-मुनि हो गये है, इसलिए उस पत्र में उल्लिखित धर्मसी आप ही है या अन्य कोई, यह निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता । आपकी भाषा राजस्थानी प्रधान है और दीक्षा भी मारवाड़ राज्यार्न्तगत साचोर में हुई थी, इसलिए आपका जन्मस्थान राजस्थान और विशेषतः मारवाड़ का ही कोई ग्राम होना चाहिये ।। धर्मसी या धर्मसिंह नामकरण उनके उच्चकुल का द्योतक है । उस समय ओसवाल जाति आदि मे ऐसे और भी कई व्यक्तियों के नाम पाये जाते है । आपके जन्म की निश्चित तिथि तो ज्ञात नहीं हो सकी पर आपकी सर्व प्रथम रचना 'श्रेणिक चौपाई' संवत १७१६ चदरीपुर मे रची गई थी और उसकी प्रशस्ति में आपने अपने को १६ वर्ष का बतलाया है । इससे आपका जन्म सवत् १७०० मे हुआ प्रतीत होता है ।।
यथा
लघुवय मे उगणीसवे वर्षे, कीधी जोड़ कहावे आयो सरस वचन को इण मे, सो सतगुरु सुपसाय रे ||७||
+ सतरसें उगशी से वरसे 'चदेरीपुर चावै ।'
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(२८ ) जैन मुनि-दीक्षा __ आपनी रञ्ताओं में संवतोल्लेख वाली 'श्रेणिक चौपाई मंवत १७१६ में रचित होने से आपकी शिक्षा दीक्षा लघुवय ने ही हो चुकी थीः निश्चित होता है। खरतर गच्छ के आचार्य जिनरत्ननुरिजी के पट्टयर जिनचन्द्रसूरिजी ने जिन जिन मुनियों को दीक्षा दी थी, उस दीक्षा नंदी की नामावली के अनुसार आपकी दीक्षा संवत् १७१३ चैत्र वदी है साचोर न जिनचन्द्रसुरिजर्जा के हाथ से हुई थी। उस समय आपका नान परिवर्तन करके धर्मवर्द्धन रखा गया था और विजयर्ष जी का शिष्य बनाया गया था।
गुरु-परम्परा
आपने अपनी रचनाओं की प्रशस्ति में जो गुरु-परम्परा के नाम दिये हैं. उसके अनुसार आप जिनभद्रमूरि शाखा के उपाध्याय माधुकीर्ति के शिष्य साधुसुन्दर शिष्य वाचक विमलनीति के शिष्य विमलचन्द्र के शिप्य विजयहर्ष के शिष्य थे। यथागरवो श्री खरतर गच्छ गाजे, श्री जिनचन्द्रसूरि राजे जी । मात्रा जिनभद्रमूरि सहाजे, दौलति चढ़ी दिवाजे जी। पाठक प्रवर प्रगट पुन्याची, साधुकीरति सबाई जी । नाधुसुन्दर बनाय सदाइ, विद्या जस वसाई जी । वाचक विमलकीरति मतिमंता, विनलचन्द्र दुतिवंता जी।
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( २६ ) विजयहर्प जसु नाम बधता, विजयहर्प गुण-व्यापी जी। सद्गुर वचन तणे अनुसारी, धर्म सीख मुनि धारी जी। कहे धर्मवर्द्धन सुखकारी, चउपइ ए सुविचारी जी।
(अमरसेन वयरसेन चौपाई, संवन् १७२४, सरसा)
इस प्रशस्ति मे उल्लिखित जिनचन्द्रसूरि तो आपके दीक्षा-गुरू थे और उस समय के गच्छनायक थे। जिनभद्रसूरि सुप्रसिद्ध जैसलमेर ज्ञानभंडार आदि के स्थापक है जिन्हे संवत् १४७५ में आचार्य पद प्राप्त हुआ था और १५१४ मे जिनका स्वर्गवास हुआ। उनकी परम्परा के उपाध्याय साधुकीर्ति से धर्मवर्द्धनजी ने अपनी परम्परा जोडी है । साधुकीर्ति का समय संवत् १६११से १६४२ तक का है। ये बहुत अच्छे विद्वान थे। हमारे सम्पादित "ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह" में आपके जीवन से संबधित ६ रचनाए प्रकाशित हुई है । उनके अनुसार "ओशवाल वंशीय सचिंती गोत्र के शाह वस्तिग की पत्नी खेमलदे के आप पुत्र और दयाकलशजी के शिष्य अमरमाणिक्यजी के सुशिष्य थे। आप प्रकाण्ड विद्वान थे। सवत् १६२५ मि० व० १२ आगरे मे अकवरकी सभा मे तपागच्छीय बुद्धिसागरजी को पोपह की चर्चा मे निरुत्तर किया था और विद्वानों ने आपकी बड़ी प्रशसा की थी, सस्कृत मे आपका भापण वड़ा मनोहर होता था।
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( ३० ) सवत १६३२ माधव (वैशाख ) शुक्ला १५ को जिनचद्रसूरि जी ने आपको उपाध्याय पद प्रदान किया था और अनेक स्थानो मे विहार कर अनेक भव्यात्माओं को आपने सन्मार्ग-गामी बनाया था।
सवत् १६४६ में आपका शुभागमन जालोर हुआ, वहा माह कृष्ण-पक्ष मे आयुष्य की अल्पता को ज्ञात कर अनशन “उच्चारणपूर्वक आराधनाकी और चतुर्दशी को स्वर्ग सिधारे। “आपके पुनीत गुणों की स्मृति मे वहा स्तूप निर्माण कराया गया, उसे अनेकानेक जन समुदाय वन्दन करता है। साधुकीर्तिजी अमरमाणिक्य के शिष्य थे, जिनका समय सवत् १६०० के करीव का है अतः जिनभद्रसूरि और अमरमाणिक्यजी के बीच की परम्परा में तीन-चार नाम और होने चाहिये। साधुकीर्ति के आपाढभूति प्रबंध के अनुसार "वा० मतिवर्द्धन शिष्य मेरुतिलक शिष्य दयाकलश के शिष्य अमरमाणिक्य थे। पर साधुकीर्तिजी बहुत प्रसिद्ध विद्वान हुए इमलिए धर्मवर्द्धनजी ने अपनी गुरु परम्पग के वे बीच के नाम नहीं देकर साधुकीर्तिजी से ही अपनी परम्परा मिला दी है। साधुकीर्तिजी की सस्कृत और राजस्थानी की कई रचनाए मिलती हैं, उनमें से प्रधान रचनाओं की नामावली नीचे दी जा रही है।
(१) सप्तस्मरण बालावबोध-संवन् १६११ दीवाली, बीकानेर के मंत्री सग्रामसिंह के आग्रह से रचित ।
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( ३१ ) (२) सतरेभेदी पूजा-स० १६१८ श्रावणसुदि ५ पाटण । (३) सघपट्टकवृत्ति-स० १६१६ । (४) कायस्थिति बालावबोध स० १६२३ महिम।
(५) आपाढ़भूति प्रबंध-सवत् १३२४ विजयादशमी, दिल्ली, श्रीमाल वश पापड गोत्र साह तेजपाल कारित ।
(६) मौन एकादशी स्तवन-सवन् १६३५ जेठसुदी ३, अलवर। ... (७) नमि-राजर्पि चौपाई-सवत् १६३६ माघ सुदी ५, नागौर।
(८) शीतल जिन स्तवन-संवत् ११३८, अमरसर । (ह.) भक्तामर स्तोत्रावरि । (१०) दोपावहार वालाववोध । (११) विशेप नाममाला । (१२) सव्वत्थ वेलि। (१३) षट् कर्मग्रन्थ टब्बा । (१४) गुणस्थान विचार चौपई। (१५) स्थूलिभद्र रास । (१६) अल्पाबहुत्त्व स्तवन आदि ।
साधुकीर्तिजीके गुरुभ्राता वाचक कनकसोम भी अच्छे विद्वान थे, जिनकी सवत १६५५ तक की २१ रचनाए प्राप्त हुई हैं । राजस्थानी भाषा के आप सुकवि थे।
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( ३२ ) साधुकीर्तिजी के शिष्य साधुसुन्दर भी बहुत अच्छे व्याकरणी थे। उनके रचित धातुरत्नाकर, क्रियाकल्पलता टीका ( स० १६८०, दीवाली ) उक्तिरत्नाकर, और पाव स्तुति ( स १६८३ ), शतिनाथ स्तुति वृत्ति प्राप्त है। साधुसुन्दर के शिष्य उदयकीर्ति रचित पदव्यवस्था टीका (स १६८१ ) और पचमी स्तोत्र उपलब्ध हैं।
___ साधुकीर्तिजी के अन्य शिष्य विमलतिलक के शिष्य विमलकीर्ति भी अच्छे विद्वान् थे। उनके रचित चन्द्रदूत काव्य ( स० १६८१), आवश्यक बालाववोध, जीवविचार बा०, जयतिहुअण बा०, पक्खीसूत्र बा०, दशवकालिक वा०, प्रतिक्रमण समाचारी टब्बा, गणधर सार्द्धशतक टब्बा, पष्टिशतक बा०, उपदेशमाला वा०, ईकीसठाणा टव्वा, एवं यशोधर रास, कल्पसूत्र समाचारी वृत्ति, और कई स्तवन, सज्झाय आदि प्राप्त है। इनके सतीर्थ्य विजयकीर्ति के शिष्य विमलरत्न रचित वीरचरित्र बालावबोध (सवत् १७०२ पोप सुदी १० साचोर ) प्राप्त है। इन्हीं विमलकीर्ति के शिष्य विजयहर्प हुए और उनके शिष्य धर्मवर्द्धन । विमलरत्न रचित विमलकीर्ति गुरू गीत के अनुसार विमलकीर्ति हुँबड़ गोत्रिय श्रीचन्द शाह की धर्मपत्नी गवरा की कुक्षि से जन्मे थे। सवत् १६५४ माघ सुदी ७ को उपाध्याय साधुसुन्दरजी ने आपको दीक्षित किया। गच्छनायक श्रीजिनराजसूरि ने इन्हें वाचक-पद प्रदान किया। सवत् १६६२- मे आपने
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मुलतान मे चौमासा किया और सिन्धु देशके किरहोर नगर मे अनसन आराधनापूर्वक स्वर्ग सिधारे। . .
इस प्रकार हम देखते है कि कविवर धर्मवर्द्धनजी की गुरुपरम्परा में कई विद्वान् हो गये हैं और उस विद्वत् परम्परा में आपकी शिक्षा-दीक्षा होने से आपकी प्रतिभा भी चमक उठी और १६ वर्ष जैसी छोटी आयु में श्रेणिक रास की रचना करके आपने अपनी काव्य-प्रतिभा का परिचय दिया।
धर्मवर्द्धनजी ने १३ वर्ष की अल्पायु में ही जैन-दीक्षा ले ली थी इसलिए घर में रहते हुए तो साधारण अध्ययन ही हुआ होगा। दीक्षान्तर अपने गुरू श्रीविजयहर्पजी के पोस थोड़े ही वर्षों में आपने व्याकरण, काव्य, न्याय, जैनागम, आदि मे प्रवीणता प्राप्त करली। फिर अनेक ग्राम नगरों मे विहार करके धर्म-प्रचार के साथ साथ अनुभव को बढ़ाया। आपका विहार वीकानेर, जसलमेर, जोधपुर, चन्देरी, सरसा, देरावर, रिणी, लौद्रवा, बाड़मेर, सूरत, पाटण, खम्भात, अंजार, बेनातट, नवहर, फलोदी, मेड़ता, पाली, सोजत, उदयपुर, रतलाम, साचोर, राङद्रह, याटोदी, गारवदेसर, देशनोक, अहमदावाद, पालीताणा, आदि अनेक ग्राम-नगरों मे हुआ। शत्रुजय, आबू, केसरियाजी, लोद्रवा, जैसलमेर, सखेश्वर, गोड़ी-पार्श्वनाथ आदि अनेक जैन तीर्थो की आपने यात्रा की।
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( ३४ ) आपकी विद्वता की धवलकीर्ति कपूर के सुवास की भाति शीघ्र ही चारों ओर फैल गई। फलतः गच्छनायक जिनचन्द्रसूरिजी ने सं० १७४० में इन्हें उपाध्याय पद से अलंकृत किया और अपने पास में ही इन्हें रखा। जिनचन्द्रमूरिजी के स्वर्गवास के बाद जिनसुखसूरि गच्छनायक हुए उन्हे आपने विद्याध्ययन भी करवाया था और उनके साथ ही जब तक वे विद्यमान रहे, आप विहार करते रहे। सं० १७७९ में जिनसुखसूरिजी का स्वर्गवास रिणी में हुआ, उनके पट्टधर जिनभक्तिसरि हुए। उन्हें भी विद्याध्ययन आपने करवाया था। उस समय जिनभक्तिसूरिजी केवल १० वर्ष के ही थे इसलिए गच्छ व्यवस्था भी विशेषतः आपकी देख रेख मे, होती रही।
राज्य सम्मान
जैन आचार्यों और विद्वान् मुनियों का तत्कालीन राजाओं, मंत्रियों आदि पर विशेष प्रभाव रहा है। बीकानेर के महाराजा अनूपसिंह, सुजानसिंह, जैसलमेर के रावल अमरसिंह, जोधपुरनरेश जसवतसिंह, सुप्रसिद्ध दुर्गादास राठोड़ और वीर शिवाजी संबंधी आपके पद्य भी मिले हैं। बीकानेर के महाराजा सुजानसिंहजी ने संवत् १७७५ के माघ सुदी मे खरतर गच्छ के आचार्य जिनसुखसूरिजी को पत्र दिया था जो हमारे संग्रह में है. उसमे धर्मसिंहजी की प्रशंसा करते हुए इस प्रकार लिखा है :
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धर्मवर्द्धन ग्रन्थावली :
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( ३५ ) सब गुण ज्ञान विशेष विराज, कविगण उपरि घन ज्यू गाज। धर्मसिंह धरणीतल माहि, पंडित योग्य प्रणती दल ताहि ॥ __ बीकानेर के तत्कालीन मत्री नाजर आणदराम जो कि स्वयं अच्छे कवि और विद्वान थे, आपके प्रति बड़ी श्रद्धा रखते थे। कविवर ने उनकी प्रशंसा में एक सवैया भी रचा है और उनकी दी हुई कि समस्या की पूर्ति भी की है। बह सवैया और समस्यापूर्ति भी इसी ग्रन्थ मे आगे छपी है। नाजर आणंदराम रचित 'भगवन् गीता भापा', गीता महात्म्य' 'अज्ञानबोधिनी भापा-टीका' आदि ग्रन्थ उपलब्ध है। स्वर्गवास :___सम्बत् १७७६ मे जिनसुखसुरिजी का स्वर्गवास और जितभक्तिसूरिजी की पदस्थापना रिणी मे हुई उस समय तो महोपाध्याय धर्मवर्द्धनजी वहीं थे। उसके बाद सम्भवत. बीकानेर पधारे और सम्वत् १७८३-८४ मे आपका स्वर्गवास बीकानेर मे हुआ। बीकानेर के रेलदाहाजी (गुरू-मन्दिर) में एक छतड़ी बनी हुई है, जिसके अनुमार सं० १७८४ के वैशाख वदि १३ महोपाध्याय धर्मवर्द्धन (धर्मसीजी ) की इस छत्री का निर्माण उनके प्रशिष्य शातिसोम ने करवाया था। छतड़ी के स्तम्भो पर निनोक्त दो लेख उत्कीणित है। -
[१] १७८४ वर्षे वैशाख बदि १३ दिने महोपाध्याय श्री चरमसीजी री छतड़ी प०शातिसोमेन कारापिता छत्री छ'थभी
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सदा २७ लाग। पाखाण इलाख श्री कु सिरपाव दीना वि जणाने।
[२] सं० १७८४ वर्षे मि० वैशाख वदि १३ दिने महोपाध्याय श्री धर्मवर्द्धनजी री छतड़ी कारापिता शिष्य पं० सास ..
शिप्य-परम्परा
कविवर धर्मवर्द्धन के गुरुभ्राता विजयवर्द्धन थे, जिनके रचित कई स्तवन उपलब्ध है। आप अधिकाश अपने गुरू विजयहर्षजी के साथ रहा करते । इनके शिष्य ज्ञानतिलक व्याकरण और काव्य शास्त्र के अच्छे ज्ञाता थे। इनके रचित 'सिद्धान्तचन्द्रिका वृत्ति' 'संस्कृत विज्ञप्ति लेखद्वय और कई अष्टक आदि प्राप्त हैं। इनमें १०८ श्लोक का एक "विज्ञप्ति लेख मुनि जिनविजयजी सम्पादित 'विज्ञप्ति लेख संग्रह मे हमने प्रकाशित करवाया है। इसमे धर्मवर्द्धनजी सम्बन्धी निन्नोक्त श्लोक उल्लेखनीय है ।
पठिता सद्विद्याना सन्निधिरिव सन्निधौ मुनीशानाम् । श्री धर्मवर्द्धनगणिः सत्कविरिव भासते स्वभापा च ॥३४. अलालाटिका धाटिका पण्डिताना, निराकारव चारवो ऽमीरवश्च । धियो गर्द्धना धर्मतो वर्द्धनाद्या, विभान्तूपकण्ठे सतां पाठका हि ॥१०॥
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धर्मवर्द्धनजी का स्मारक स्तूप, रेलदादाजी, बीकानेर
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( ३७ ) भवत्पूर्वजैर्गन्धहस्तित्व मुक्तं, .. तदैव क्रमादागतं पूर्वजेषु । सदा भावयन्तोऽधुनावि सभावं,
भवत्सनिधि प्राप्त शोभाविशेषान् ॥१०२॥ पाठकाः सकलशास्त्र पाठकाः शब्दशास्त्रमुरूमध्य जीगपन् । ज्ञानतस्तिलकनामक यकं पाणिनीय मन दर्पणार्पणम् ॥१०॥
धर्मवर्द्धन के शिष्य कान्हजी जिनका दीक्षानाम कीर्तिसुन्दर था। वह भी अच्छे कवि थे। - इनके रचित तिनोक्त । ग्रन्थ प्राप्त हैं।
'[२] अवन्तिसुकमाल चौढालिया-सं० १७५७, मेड़ता।
२] , मांकण रास सं० १७५७, मेड़ता। [३] अभयकुमारादि पांच साधु रास-स० १७५६,
जयतारण। [४] ज्ञान छत्तीसी-सं० १७५६ श्रावण २, जयतारण । [५] कौतुक बत्तीसी-सं० १७६१ आपाढ । [६] कल्पसूत्र-कल्पसुबोधिका वृत्ति-सं० १७६१ अक्षय
__ तृतीया (पन्न १६४ यति बालचन्दजी संग्रह-चित्तोड़ । [७] चौबोली चौपाई-स० १७६२, थानलेनगर ।
१ इनका मूल नाम नाथा था, जैन दीक्षा स० २७२६ वैशाख वदी ११ को हुई।
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( ३८ )
[८] वाग्विलास कथा संग्रह |
[C] फलौटी पार्श्वनाथ छंद - गाथा १२१
इनमे से माकण रास 'मरू भारती' मे और वाखिलास कथा संग्रह 'वरदा' में प्रकाशित किया जा चुका है।
कीर्तिसुन्दर के अतिरिक्त धर्मवद्धनजी के जयसुन्दर ज्ञानवल्लभ (गङ्गाराम' आदि और भी कई शिष्य थे | कीर्तिसुन्दर के शिष्य शान्तिसोम और सभारन की लिखी हुई कई प्रतिया बीकानेर वृहदज्ञानभडार मे है । १६ वीं शताब्दी तक धर्मवनजी की शिष्य-परम्परा विद्यमान थी ।
कविवर के प्रकाशित ग्रन्थ
प्रस्तुत ग्रन्थ मे आपकी जितनी भी लघु रचनाए संस्कृत, राजस्थानी हिन्दी मे प्राप्त हुई, उन्हें प्रकाशित किया जा रहा है । उनकी नामावली अनुक्रमणिका में दी हुई है इसलिए यहा उसका उल्लेख नहीं किया जा रहा है । यहा केवल उन्हीं रचनाओं का परिचय दिया जा रहा है, जो इस ग्रन्थ के बड़े हो जाने के कारण इसमे सम्मिलित नहीं की जा सकी ।
(१) श्रेणिक चौपर्ड
राजगृह के महाराजा श्रेणिक जो भगवान् महावीर के भक्त थे, उनका चरित्र इस ग्रन्थ मे दिया गया है । कथा प्रसंग बड़ा रोचक है साथ ही बुद्धिवर्द्धक भी । कवि ने ३२ ढाल
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( ३६ ) और ७३१ गाथाओं में इसे सं० १७१६ चंदेरीपुर में बनाया। जैसा कि पहले कहा जा चुका है यह कवि की सर्व प्रथम रचना है, जो केवल १६ वर्ष की आयु में बनाई गई थी। इसकी प्रतियाँ बीकानेर के जिनचारित्रसूरि एव उपाध्याय जयचदजी आदि के सग्रह में है। (२) अमरसेन वयरसेन चौपई ।
स० १७२४, सरसा में इस राजस्थानी चरित्र काव्य की रचना हुई है। इसकी कई प्रतिया बीकानेर के ज्ञानभण्डारों मे है। (३) सुरसुन्दरी रास
कवि ने इस रास में नवकार मंत्र और शील के महात्म्य संबन्धी अमरकुमार सुरसुन्दरी की कथा चार-खण्डो मे गु फित की है। प्रथम खण्ड मे आठ, द्वितीय मे ग्यारह तृतीय मे आठ, चतुर्थ में बारह ढालें हैं। कुल ६३२ गाथाएं है। श्लोक संख्या ६०० है। अन्य प्रति में गाथाओं की सख्या ६१६ भी बतलाई गई है। इस कथा का मूल आधार 'शीलतरगिणी' नामक ग्रन्थ का कवि ने उल्लेख किया है। स० १७३६ श्रावण सुदी १५ वेनातटपुर ( बिलाड़ा) में इसकी रचना हुई है। [४] परमात्म-प्रकाश हिन्दी टीका
खण्डेलवाल रेखजी के पुत्र जीवराज के पुत्रके लिये दिगम्बर
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( ४० )
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'परमात्म प्रकाश की हिन्दी भापा टीका स० १७६२ म कवि ने बनाई है। इसकी ३५ पत्रों की प्रति अजमेर के दिगम्बर भट्टारक भण्डार में है। [५] वीरभक्तामर स्वोपज्ञ वृत्ति ___ प्रस्तुत ग्रन्थ मे वीर-भक्तामर मूल छपा है। इससे पहले भी यह संस्कृत भक्तामर का पादपूर्ति काव्य आगमोदय समिति प्रकाशित काव्य संग्रह प्रथम भागमें छप चुका है। पर इसकी स्वोपग्यवृत्ति अभी अप्रकाशित है जिसे भीनासर के यति सुमेरमलजी के संग्रह में हमने कई वर्ष पूर्व देखी थी।
कवि धर्मवद्धन की रचनाओं से मेरा परिचय वाल्यकाल से है। उनके रचित "जिनकुशलसूरि का सवैया” में जब ८-१० वर्ष का था तभी सुनने को मिला था फिर इनके रचित कई स्तवन और सझाय मेरे ज्येष्ट भ्राता स्वर्गीय अभयराजजी की स्मृति मे मेरे पिताजी के प्रकाशित 'अभयरत्नसार' में सन्-१९२७ मे प्रकाशित हुए तबसे कवि का परिचय और भी वढा और सं० १९८६ मे जब कविवर समयसुन्दर की रचनाओ की खोज करने के लिये बीकानेर के बड़े ज्ञानभण्डार आदि की हस्तलिखित प्रतिया देखनी प्रारम्भ की तो 'महिमाभक्ति भण्डार' में ६६ पत्रो की एक ऐसी प्रति मिली, जिसमें कवि की समस्त छोटी छोटी रचनाओं का संग्रह था। इसकी प्रति की मैने राजस्थानी रचनाओ की प्रेसकापी तो स्वयं उसी समय तैयार करली और सस्कृत स्तोत्रादि की प्रेस कापी
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( ४१ ) पण्डित शोभाचन्दजी भारिल्ल से करवा ली जो उस समय वीकानेर के सेठिया विद्यालय में काम करते थे। कविवर की • जीवनी और अन्य रचनाओं की यथासम्भव खोज करके 'राजस्थानी साहित्य और कविवर धर्मवद्धन' नामक एक विस्तृत लेख तैयार किया जो कलकत्ते की राजस्थानरिसर्च सोसाइटी के त्रैमासिक शोधपत्र में राजस्थान के वर्ष २ अङ्क संख्या २ के २२ पृष्ठों में सं० १९६३ के भाद्रपद के अङ्क में प्रकाशित हुआ। उस लेख में मैने लिखा था " आपके जीवनचरित्र और कृतियों की खोज लगभग ७-८ वर्षों से चालू है। जिसके फलस्वरूप बहुत सी सामग्री संगृहीत की गई है। और उसको आधार पर विस्तृत जीवनचरित्र, आपकी लघुकृतियों के साथ प्रकाशित करने का विचार है।" अपने ३०-३२ वर्ष पहले के किये हुए प्रयास को आज सफल हुआ देख कर मुझे अत्यन्त प्रसन्नता है। इस ग्रन्थ में कविवर की समस्त लघु रचनाओं को प्रकाशित किया जा रहा है। पाच बडी रचताएं वो इस ग्रन्थ के बडे हो जाने के कारण इसमें सम्मिलित नहीं की जा सकी, उनका विवरण ऊपर दिया जा चका है। कवि का चित्र तो नहीं प्राप्त हो सका अतः उनके हस्ताक्षरो की एव स्मारक स्तूप छत्री प्रतिकृति देकर सन्तोप करना पड़ता है।
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( ४२ ) इस ग्रन्थ के प्रकाशन में मुझे मेरे भ्रातृपुत्र श्री भंवरलाल नाहटा का पूर्ण सहयोग प्राप्त हुआ है, 'वरदा के यशस्वी सम्पादक श्री मनोहर शर्मा ने इसकी भूमिका लिखने की कृपा की है,इसलिये मैं उनका अभारी हूं। ग्रन्थ में कठिन शब्दों का कोष देने का विचार था, पर ग्रन्थ काफी बड़ा हो चुका है
और उसको तैयार करने में कुछ समय लगता जिससे ग्रन्थ पूकाशन में और भी विलम्ब होता, इसलिये वह नहीं दिया जा सका है।
विनीत :अगरचंद्र नाहटा
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धर्मवर्द्धन ग्रन्थावली :
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दिवशयोविकारेदीविक्रसीदाकणिजटामा नामस्मया.रामmaneya.inमामाशाकतिपय गथव्यामसवाद नानपायनशेषत्वामशाजदति जनशारीर-मनायायेत विमत्रताप्पाins रागिने बनियानयादिपशेन्नमनायं.मोढवादमापरनिसिामनायतरामदेवपदपदोपदानुदकामदा|| AURकाधिकार:विशिष्टलिग समय कतिपदसादासानारोग्याष्टिापरवर एकापमारकास्वापकाकल गुण]]] aaनयमापaanी'लाव सत्याश्च करणाधिकारयालुटिसर्वादानिसर्वनामानिस्पार्थयात्रिनीतिश्री सिका
मोमवानदोझिदीक्षिनधिविहायोलिंगाशासननिसमागमायसिधातकामुद Jaaaai पी। मववेदकरानसिनावे प्रयोस्पामलेरनादधीमझिमबई: Aनिनवरेनीगरमा परेमेरेगनश्श्वना
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कविवर धर्मवर्द्धन लिखित "सिद्धान्तकौमुदी"
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अनुक्रमणिका -oCo
५३
५७.
संख्या कृति नाम गाथा आदि पद पृष्ठांक १ धर्मबावनी
५७ ॐकार उदार अगम्म अपार १ २ कुडलिया बावनी ५७ ॐनमो कहि आद थी १७ ३ छप्पय बावनी ५७ गुरु गुरु दिन मणि हस ३५ ४ दृष्टान्त छत्तीसी ३६ श्री गुरु को शिक्षा वचन ५ परिहाँ (अक्षर) बत्तीसी ३४ काया कुंभ समान ६ सवासौ सीख ३६ श्री सद्गुरु उपदेस सभारो ७ गुरु शिक्षा कथन निसाणी ७ इण ससार समुद्र को ८ वैराग्य निसाणी ६ काया-माया कारिमी ६ उपदेश निसाणी ७ मोह बसै केइ मानवी ७०. १० वैराग्य सज्झाय ५ जोवनियो जायै छै जी ११ वैराग्य सज्माय ११ करिज्यो मत अहकार १२ हितोपदेश स्वाध्याय १५ चेतन चेत रे चलिमा चपलाइ ७४ १३ सप्तव्यसन त्याग स०६ सात विसन नौ सग रखे करौ ७६ १४ तम्बाकु त्याग स० १४ तुरत चतुर नर तम्बाकू तजी ७८
७२.
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[
२ ]
पृष्ठाक
संख्या कृति नाम १५ रात्रि भोजन स० १६ औपदेगिक पद
गाया आदि पद ६ कर जीडि कामण कहै हो ३ ज्ञान गुण चाहै तो ३ सुग्यानी संभाल तु ३ गुण ग्राहक सो अधिको ज्ञानी ३ मूढ मन करत है ममता केती ३ ३ मेरे मन मानी साहिब सेवा ३ ३ करहु वश सजन मन वच काया २३ ३ वह सजन मेरे मन वसत ८४
३ प्रणमीजे गुरुदेव प्रभाते. • ४ सब मे अधिकीरे याकी जैतसिरी २५
३ आतम तेरा अजब तमामा ८६ ३ कबहु मै धरम को ध्यान न कीनो ८६ ३ तुं गर्व करै सो सर्व व्यथा री ८७ ५ वारू वारू हो करणी वारू हो ८७ ३ नट वाजी री नट बाजी ८८ ३ ठग ज्यु इह घरियाल ठगे ८८ ३’ कहि मे काह को नहिं कोई ८६ ३. जीव तु करि रे कछु शुभ करणी ८९ ३ कछु कहीजान नही गति मनकी ६० ३ दुनिया मा कलियुग की गति देखो ६० ३ मन मृग तु तन वन मे माती १०
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[ ३.] सख्या कृति नाम गाथा , आदि पद - . . . पृष्ठाक३६ औपदेशिक पद , ४ हुँ तेरी चेरी भई
: ३ काया माया बादल की छाया ६१
३ रे सुणि प्राणिया ३ मानो वैण मेरा
६२. ३ किण विधि थिरकीजै इण मन कु ६२' ३ कीजै कीजै री
३ घर मन धर्म को ध्यान सदाई ६३ ४३ . , धमाल ७ सकल सजन सैली मिलि हो ६४. ४४
१ अब तो सौ वरसा लगि आउसु ६४ प्रस्ताविक विविध सग्रह - ४५ सरस्वती स्तुति .४, अगम आगम अरथ उतारै ४६ परमेश्वर , ४. महि सबला निबला करे सभाला ६६ ४७ सूर्य स्तुति - ४ हुदे लोक जिण रे उदै , ६७. ४९ दीपक वर्णन १. अलग टलै अधार
८ ४६ पर उपकार .४ दुनी दाम साटै केता ६६ ५० मेह वर्णन ... १४- सबल मेगल वादल तणा सज०. ६६ ५१ मेह गीत
४ मडि झड घमड कर ईसब्रह्मडरा ६६ ५२ मेह अमृतध्वनि २ जल थल महियल करि जलद १००. ५३ सीत, उष्ण, वर्षा वर्णन ६ ठंड सबली पडे हाथ पग ठाठरे १०१ ५४ दुष्का वर्णन . ४ मन में धरता मरट १०२ ५५ सुस्त्री-कुस्त्री वर्णना ३ सुकलीणी सुन्दरी । १०३.
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१०५
[ ४ ) सख्या कृति नाम गाथा आदि पद
पृष्ठाक ५६ पुण्य पाप फल ५ सझै साली चित्र चाली २०४ ५७ प्रभात आगीप २ आलस ऊघ अज्ञान ५०५ ५८ सध्या आगीप २ सध्या वंदन साध '५६ सर्व संघ आशीर्वाद ४ परब अवसर सदा दरव खरचं २०६ ६० ढिया गे कवित ५ आया ने उपदेस
२०७ ४ अधिक आदि अनादि री १०७ ६२ माकण (जवा) छप्पय २ आठौ केड अथग्गरा
१०९ ६३ धरती री धणियाप ४ भोगवि किते भ किता भोगवसी १०९ ६४ छप्पय
२ रावण करता राज,
गुरु थी लहियो ज्ञान १०६ '६५ गोभनीय वस्तु छप्पय नरपति गोभा नीति २०६
६६ राजनीति छप्पय २ सकले गुणे सकन ११० ·६७ वरसीदान
१ अणसे अठ्यासी कोडि ६८ छत्तीस विधान छप्पय ५ गुरु गुण दिन मन हस • ६६ एकक्खर उत्तरा ४ वदे नहिं क्यु देव गुरू
७० हियाली (थापना) ४ . कुण नारी रे कुण नारी रे १११ • ७२ (मुहपत्ति) ७ कहो पडिन एह हीयाली २५२ ____७२ (मन ) ४ अरथ कहो तुम वहिलो एहनो १५२ __-७३ , (जेभ ) ४ चतुर कही तुम्हे चुप मु ११३ __-७४ आदि, मध्य अंत्यक्षर क० २ रक्षक बहु हित साधु (सकोप्टक) ११३
५.७५ सर्व गुरु अक्षर स्नुति ५ साइ नेरी सेवा सच्ची
مر
مر
مر
10
११५
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संख्या कृति नाम गाथा आदि पद
पृष्ठाङ्क ७६ सवैया
१ गग सरग के सग उरग सु ११५ ७७ यति वर्णन
५ केइ ती समस्त वस्तु चातुरी
विचार सार ११५ ७८ मान कर्यो समस्या . १- ठौर सकेत की आगे ते आडके ११६ ७६ भोजन विच्छति ४ आछी फूल खड के ११६ ९० अध्यात्म मतोया रो १ आगम अनादि के उथापी डारे ११७ ८५ गरीर अस्थिरता १ ज्ञान के अभ्यासा मिसि ११८ ८२ रुपैया , १ आपणी देह सुनेह नही पुनि ११८ ६३ चौदह गोभा १ नृपति को शोभा नीति ८४ वस्त्र शोभा
२ दूर ते पोगाकदार ११६ ८५ आशिक बाजी २ देखिवं कु दौरि दौर ११६ ९६ छः पूजनीक १ ऐसी नर देह दाता १२० ८७ समस्या (भावी न टर) ४ अटक कटक विचि १२१ ७ समस्या (गौरी ठगठोरी) १ द्वार को न गहे मौन १२३
, (पीपर के पात पर १ वाकै तुम जीवन हो , चरण देख चतुरा) १ इक दिन ख्यालहि अटकि १२४ ,, (वामन के पग ते) १ सूखत ना ववही सबही रस १२४ ॥ (हरि शृ गनि ते०) २ एक समं शिव शैल सुता ,, (आरसी मे मुख) ५ मुदर पलग पर बैठो है
,, (चप के से च्यार०) १ अति ही अनूप नाभि १२५ १५ , (ठाढे कुच देख गाढे)१ गोरी तेरी देवि गति
१२३
१२६
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संख्या कृतिनाम गाथा आदि पद पृष्ठाक ६६ , (नीली हरी विच०) २ थोरी सी वेस मे भोरी सी १२७
६७ , टेरन के मिस हेरण)२ चुप सु च्यार सखी मिलि १२७) - ___समस्या
१ अरे विधि तु विधि जाणत् थो १२८ ६६ , (कर्मकी रेख टर०) १ नीर भर्यो हरिचद नरिद ही १२८ २०० , (टारी टरै नहिं०) १ एक की एक रू दोइ न आवत १२८ २०२ , (सपूत घरी न कपूत) ५ तत्त की या धर्म सीख धरौ जु १२६ १०२ , (निसाणी घर जानकी)१ आयो जाको दूत , १२६ १०३ , (हरि सिद्धि हसे हर०)२ हनुमान हिरोल किये १३० ३०४ ., (इण जोगहु तै गृह) २ रिण देणो घणी लहणी न कछु १३१ २०५ , (चारू वेद चातुरी०) १ एक एक चातुरी सो' १३१ १०६ , (बिनामान हीरा मेरे०) ५ मित्र उदै मेरा जीव राजी है १३२ २०७ , (साहिबी नभावै ताकुं०)२ देश की विदेश की निसे की १३२ १०८ , (थारीमे यु ठहरातन)२ दूर सो दौरि मिले - १३३ १०६ , (काकै के दी०) ५ मोहन भोग जलेबीयः १३४ ११० , (यु कुच के मुख०) ५ तीय को रूप अनूप विलोक्त १३४ २२१ " (छानो रे छानोरे०) १ काम कलोल मे लोल भयो १३४ ११२ सर्वया वात करामात २ शास्त्र घोष कण्ठ शोप १३५ २२३ दोहा (भाई दुपियाराह) २ और ग पतिसाही ग्रही १३५ २२४ अध्यातमियो के प्रश्न का
उत्तर (सर्वया, श्लोक, दोहा) ३ तुम्ह जे लिखे हैं प्रश्न १३६
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[ ७ ] संख्या कृति नाम 'गाथा आदि पद
पृष्ठाक ११५ सवैया
२ उपजी कुल शुद्ध पिता हनिके १३७ ११६ सवैया
२ चंपक माझि चतुर्भुज २३७ ११७ वैद्यक विद्या (डंभक्रिया) २१ शंकर गणपति सरस्वती १३८ ऐतिहासिक व्यक्ति वर्णन ११८ अनूपसिंह सर्वया १ केई तो विकट बाट
१४२ ११६ संस्कृत १ भुज्यत इष्ट जनः'
१४२ १२० , कवित्त ४ बीकपुर तखत महाराज १४२ १२१ अमरसिंहजी सवैया१ दोहा २ तेरे तो प्रताप के प्रकाश
१४३ १२२ , काव्य १ श्रीमच्छ्रो अमरादिसिंह १४४ १२३ , अमृतध्वनि १ सबल सकल विधि १४४ १२४ गीत राउल अमरसिंह री ४ जेठ तपते तपत
१४५ १२५ कवित्त जसवतसिंह रो ४ हुतौ जसवंत ता थोक १२६ ,
४ मरुधरै देस महाराजमोटो मरुद १४६ १२७ कवित्त दुर्गादास रो ४ मोड मुरधर तणा १४७ १२८ गीत शिवाजी रो ४ सकति काइ साधना २२६ सवैयो आणदराम रो १ ज्ञायक गुण अगाह *वर्तमान जिन चौवीसी स्तवन २३० आदि जिन स्तवन ३ आज सुदिन मेरीआस फली री १५० १३१ अजित जिन , ३ प्रभु तु अजित किनही नही जीतो५५० २३२ सभव जिन, , ३ सभवनाथजी सबकु सुखदाइ १५१
१४८
५४६
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सस्या कृति नाम १३३ अभिनदन स्तवन १३४ सुमति जिन स्तवन ५३५ पद्मप्रभु स्त १३६ सुपार्श्व जिन स्त० १३७ चंद्रप्रभु स्त० १३८ सुविचिनाय स्त० ५३६ गीतल जिन स्त० २४० श्रेयांस जिन स्त० ५४३ वासुपुज्य स्न १४२ विमल जिन स्त० ५४३ अनंतनाथ स्त० १४४ धर्मनाथ स्त० १४५ गाति जिन स्त० १४६ कुथु नाय स्तर २४७ अरनाथ स्त० ५४८ मल्लिनाथ स्त० १४६ मुनिसुव्रत स्त० १५० नमि जिन स्त० २५१ नेमिनाथ स्त० १५२ पार्श्वनाथ स्त २५३ वीर जिन स्त०
[८] गाथा आदि पद पृष्ठांक ५ धन धन दिनकर उग्यो उछाह ५५१ ३ माई मेरी मुमतिकी सेवा साची १५२ ३ हृदय पदमप्रभु राचि रह्योरी ३५२ ३ सही, न तजू पार्श्व सुपास को ५५३ ३ चद्रप्रभु नी कीजिड चाकरी रे १५३ ३ कबहुं मै सुविवि को ध्यान १५४ ३ मुखदाई गीतल स्वामी रे १५४ ४ केवल वाला रे केवल वाला १५४ ३ वाह वाह वासुपूज्यनी वाणी ६५५ ३ विमलजिन विमल तुम्हारा जान ६५६ ३ अनंतनाथ रा गुण अगम अनंता १५६ ३ घर मन घरम को ध्यान सदाई १५७ ५ श्री शांति जिनेसर सोलमो जी १५७ ३ शुभ आतम हित साचि रे १५८ ३ कहे अरनाय इम अरति रति० १५८ ४ मल्लि जिनेसर तु महामल्ल १५६ ३ सवमै अचिकी रे याकी जैतश्री १५६ ३ नित नित नमि जिन चरण नमू १३० ३ करणी नेमि की
१६० ३ मेरे मन मानी साहिब सेवा १६१ ३ प्रभु तेरे वयण सुपियारे ११
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[ 8 ] संख्या कृति नाम गाथा आदि पद
पृष्ठाक २५४ चौबीसी कलश ३ चितघर श्री जिनवर चौबीसी १६१ ५५५ चौबीस जिन सवैया २५ आदि ही को तीर्थकर १५६ नवकार छद २५ कामित सपय करणं १७१ ५५७ ऋषभदेव स्तवन १६ त्रिभुवननायकऋषभजिनताहरो १७२ १५८ शत्रुजय वृहत्स्त वन २५ सत्रु नायक वीनति साभली १७५ २५६ , , १४ तीर्थ सत्रु जैजी रहिवा मन र जै ,१७७ २६० , गीत ४ सरबपूरब सुकृततीयेकिया सफल१७४ १६१ , महिमा सर्वया २ रतन मे जैसे हीर २८० १६२ , स्तवन ३ विमलगिरि क्यु न भये हम मोर १८० १६३ धुलेवा ऋषभदेव छन्द २२ सत्यगुरु कहि सुगुर रा १८१ १६४ शाति जिन स्तवन ५ सेवो भाई २ शाति जिन सेविरे १८४ १६५ चंदपुरी शाति स्त० १२ जननायक जिनवर पुहवी० १८४ १६६ नेमिराजिमती बारहमासा १४ दिल शुद्ध प्रणमु नेमि जि० १८७ १६७ , , १६ सखी री ऋतु आई सावन की १८६ १६८ , स्त०६ राजुल कहे सजनी सुनो रे १६२ १६६ सिन्धी भाषा पार्श्व स्त० ७ अज्जु सफल अवतार असाडा १६३ १७० पार्श्वनाथ स्त० ७ नैणा धन लेखं देखु १६४ १७१ लोद्रवा पार्श्व स्त० , ७ महिमा मोटी महीयले १६५ १७२ , , , , ७ लुलिलुलि वंदो हो तीरथलोद्रवे १६५ १७३ . , . , १२ पूजो पास जी परता पूरै . १६६ १४ ,
८ धन धन सहू तीरथ माहि धुरै १६८
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[ १० संल्ला कृति नाम गाथा आदि पद पृष्यक १५ गौड़ी पालत० ७ नूरति मन नी मोहनी १६६ १६ पानि स्तः त्रिभुवन माहे ताहरोहो २०० १. प्लोषी पर्व स्त० ८ सुगुन सुज्ञानी स्वानि नै जी २२१ १५८ गाडी पार्वस्त ५ बाज मलदिन मोजी २०२ १९ पर्जनाय स्त ४ लाज नै जम्हारे मन आता फ० २०३ १८० गोड़ी पार्वत ५ आणी आणी विक उनाह २०३ १८१ . : ४ जगि जाग पास गोडी २०४ १८. मलमेर पार्वस्त० ७ ज्यो वन दिन आज सफली २०५ १८३ माजी पार्वस्त ७ -भवियन भाव घरी नै भेटो २०६ १८४ पास्त०७ सहिर हे सहियर २०७ १.८५ संवेदर पर्वत० ७ महिमा मोटी त्रिभुवन माहे २०८ १८६ पानाय स्तवन ४ सुणि बरदाला सुगण निवासा २०६ १८७ .
३ नित नमिये पारसनाथ जी २०६ ९८८ .. दवावा ५ पहिले बबा जिनवर देव जु० २०६ २८६ ., स्त ७ नगा धन लेखु देखें मुख २१० #. .. . ह मह्मिा मोटी महीपले हो २११
१ मा तय स्त० ७ बाबू गज्यो रे बाबू बायो २१२ १२ हावीर जिन स्तर १३ गैर जिनेश्वर वदिये २१४ १६३ राह महादीर
स्न ५ राइ महावीर विराज१४ न्हावार जन्न गीत ४ सप्ल थल बागा थिया २१६ २६५ मतहन्दी पूजा स्त० ९ नाव नले भगवत री २१६
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[ ११ ] संख्या कृति नाम गाथा ओदि पद । पृष्ठाक १६६ बीकानेर चैत्य परिपाटी ११ चैत्य पूवाडे चौबीसटै २१८ १६७ तीर्थ कर सवैया ७ नमो नितमेव सजी शुभ सेव , २१६ १९८ चौबीस जिन गणघर ५ वन्दो जिन चौबीस २२१ १६६ सनतकुमार सझाय १६ साचा सुग्यानीध्यानीसनतकु० २२२ २०० मेतार्य मुनि स०१ राजग्रही मे गोचरी २२४ २०२ दश श्रावक
७ सूधै मन पूणमो दश श्रावक २२५ गुरुदेव स्तवनादि संग्रह २०२ श्री गौतम स्वामी स्त० ७ प्रह सम आलस तजि परौ २२६ २०३ जंवू स्वामी स्तवन ५ छोडोना जी २कञ्चन नै कामिनी २२७ २०४ वडली जिनदत्तसूरि स्त० ७ यात्रा ए वडली जास्या २२८ २०५ जिनदत्तसूरि सवैया १ बावन वीर किये अपने वश २२६ २०६ जिनकुशलसूरि देरा० स्त० १० दादो देरावर दीप
२२६ २०७ जिनकुशलसूरि स्त० ७ कुशल करण जिनकुगल जी २३०
, , ३ कुशल गुरु नामे नवनिधि पामै २३१ २०६
३ दौलति दाता द्यो सुख साता २३१ २१०
, ४ प्रेम मगधारि नितपहुर परभातरे २३२
सवैया १ राजे थुम ठौर २ २३३ २१२ , छप्पय १ सरव शोभ गुण सकल २३३ -२१३ । स्त० ३ श्री जिनकुशलसूरि गावो ग0 २३३ २१४ , , . ३ कुशल करो जिनकुशल जी २३४ २१५ जिनचन्द्रसूरि गीत ५ आज खर उदै मुदै २३४
२०८
m
२११
M
M
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संख्या कृति नाम २१६ जिनचन्द्रसूरि गीत
२१७
२१८
२१६
ܘ
૩
२.३४
17
"
11
32
$1
२२१
२२२
२२३
२२४
२२५
२२६
25
२९७ जिनमुखमूरि पदोत्सव
२२८
कवित्त
२२६
छप्पय
२३०
अमृतध्वनि
२३१
२३०
27
2
,
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52
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17
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1)
"
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17
..
11
रसाउला
सवैया
"
गहुँली
गीत
ر
21
दोहा
"
चन्द्रावला
सवैया
द्रुपद
भास
गली
[ १२ )
गाथा
४
४
४
२
४
२
ह
७
७
आदि पद
पुण्य परकाश परभात
दै दै कार करण भ्रम दाख
४
१
चद्र जिमसूरिजिनचन्द्र चढती
चावौ गच्छ चौरासिये
४
साधु आचार- सुविचार स०
४ थियाकेई दिवस मनकोडकर ०
१
वाकू दूजे पछि दूज
छाजति छबि चन्दा.
७)
घन घन दिन आज नो लेखे
राजे खरतर राजवी
वारू सरब विवेक
उदय थयो धन धन आज नो
सकल गुण जाण वखाण मुखस० २४५
सकल शास्त्र सिद्धान्त भेद
२४६
खरतर गच्छ जाणं खलक
२४६
२४७
२४८
३
२४८
२४८
३. गावो गावो री गच्छनायक भलो दिन ऊगी आज आनदसो २४६
७ सिणगार सार वनाइ सुन्दर २५०
५ सहु घरमा सिर सेहरो रे
१
गुरु जिणचदसूरि आप हाथ जिनसुखसूरि सुग्यानी
पृष्ठाक
२३५
२३६
२३७
२३८.
२३६
२४०
२४१
२४२
२४३
२४३
२४४
२४५
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[ १३ ] संख्या कृति नाम गाथा आदि पद
पृष्ठाक २३७ जिससुखसूरि गीत ७ सरस वखाण सुगुरू तणो २५० २३८ , छप्पय १ करण अधिक कल्याण २३६ जिनभक्तिसूरि गीत ६ जिनभक्ति जतीसर वन्दो २५२ २४० श्रावक करणी २५ श्री जिन शासन सेहरो २५२ शास्त्रीय विचार स्तवन संग्रह २४३ पैतालीस आगमावीर स्त० २८ देवा नापिण जेह छ देव २५५ २४२ जिन गणधर साधु साध्वी
सख्या स्तवन १६ आदीसर पहिलो अरिहत' २५८ २४३ चौबीस जिनअतरकालस्त०२६ पच परमेष्टि मन शुद्ध २४४ ६८ भेद अल्लाबहुत्व स्त० २२ वीर जिणेश्वर वदिये २४५ चौवीस देडक स्त० ३३ पूर मनोरथ पास जिनेसर २७० २४६ समवशरण स्त. २८ श्री जिन गासन सेहरो २७४ २४७ चौदह गणस्थानक स्त० ३४ सुमति जिणद सुमति दातार २७८ २४८ चौरासी आगातना स्त० १८ जय जय जिण पास जगत्र धणी २८४ २४६ अट्ठावीस लब्धि स्त० २५ प्रणमु प्रथम जिणेसरू २८६ २५० आलोयणा स्त० ३० ए धन शासन वीर जिनवरतणो २६० २५१ वीस विहरमान स्त० २६ वदु मन सुध बहरतमाण २६५ २५२ अष्ट भयनिवारण गौडी २६ सरस वचन दे सरसती ३०० २५३ श्री जिनचद्रसूरि अ० ध्व० १ रतन पाट प्रतपं रतन 30६ २५४ उपकार ध्रुपद
करणी पर उपगार की ३०६ - २५५ सप्ताक्षरी कवित्त ह गिहीकेकि के अगिहकेकि के ३०७
२६१ २६६
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३०८
३०६
[ १४ ] सख्या कृति नाम गाथा आदि पद पृष्ठांक २५६ गूढ आशीर्वाद सवैया १ घोरी के धणी के नीके ३०७ २५७ कवित्त
नुखते इकबोल कह्यो न गिनेको३०७ २५८ समस्या दोहरा हमारे देस १ एक एक ते विशेष २५४ , नैन के झरोखे बीच १ हरि सो संकेत करी ३०८ २६० सर्वतोमुख गोमुत्रिका १ अति संत गुणी २६१ नारी कुजर सवैया १ शोभतधणीजु अतिदेहको वणीहै ३१० २६२ अन्तपिका ५ आदर कारण कौन .. ३१० २६३ गील रास ६४ शील रतन जतने घरो ३११ २६४ श्रीमती चौढालिया ७२ खीर खाड मिलीया खरा ३१८ २६५ दशार्णमद्र चौपई १८ वीर जिनेसर वंदन ३२६ संस्कृत स्तोत्रादि संग्रह २६६ श्री वीर भक्तामर , ४५ राजद्धि वृद्धि भवनाद्भवने ३३७ २६७ सरस्वत्यष्टकम् ६ प्रग्वाग्देवी जगज्जनोप कृतये ३४६ २६८ श्री जिनकुशलसूर्यष्टकम् ६ यो नप्त निव सेवकानिप सदा ३५१ २६६ चनुर्विशति जिनस्तवनम् २५ स्वस्ति श्रियश्री ऋपभादि देवं ३५३ २७० व्याकरण संज्ञा म० स्त० २५ यस्तीर्थराज त्रिशलात्मजात ३५८ २५ समसंस्कृत पार्श्व० स्त० ५ संसार वारिनिधि तारक ३६१ २७२ पार्श्वनाथ लघु स्त० ७ विश्वेश्वराय भवभीति निवा० ३६२ २७३ पार्श्व जिन वृहत्स्त० १२ वाँछित दान सुद्धम तुभ्यं ३६४ २७४ चतुरक्षर पार्श्व स्त० १४ .भो भो भव्या कीर्तिस्तव्या ३६६ २७५ पार्श्व लघु स्त० ७ प्रवर पार्श्व जिनेश्वर पत्कजे ३६७
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[ १५ ] संख्या कृति नाम गाथा आदि पद २७६ पार्श्व लघु स्त०५ भजे ऽश्वसेन नन्दनम् २७७ श्री ऋषभदेव स्त० ३ जय वृषभ वृषभ वृषविहित सेव ३६ २७८ नवग्रही न्याय परीक्षा २० सख्ये सत्यपि दहनाद्रक्षति ३७० २७४ शांतिनाथ स्त० ३ स्तुवंतु त जिन
३७५ २८० गोड़ी पार्श्वषट्भाषास्त० १० प्रणमतियः श्री गौडी पार्श्व ३५ २८१ पार्श्व वृहत्स्त०
११ सर्व श्रिया ते जिनराज राजतः १३१४ २८२ नेमिनाथ स्त० २ जिगाय यः प्राज्य तरस्मराजी ३४ २८३ पार्श्व स्तोत्र ४ तवेश नामतस्त्वरा २८४ पंचतीर्थी स्तोत्र ४ योऽचीचलद्दुश्च्यवनोरसिस्थित ३१७ २८५ अष्टमंगलानि १ स्वस्तिक चारु सिंहासनम् ३५८ २८६ चतुर्दशस्वप्ना १ श्वेते भो वृषभो
२१८ २८७ श्लोक
१ गीर्वाणसिंघाबहि मगिनोबहून् ३ २८८ पार्श्वनाथ स्तोत्रम् १ प्रससत्ति पार्वेश ३७४ २८६ बीकानेर आदीश्वर स्तोत्र ३ प्राज्या चरीकर्ति सुखस्य पूर्ति ३८० २६० समस्यामय महावीर स्त० १२ श्री मद्वीरतथा प्रासीद सततं ३८१ २६१ प्रश्नमय काव्य २' के पत्यो सतिभूषणोत्सव घरा ३८३ २६२ रामे १८ ऽर्थाः १ त्व सबोघय काम केशवविधि ३८३ समस्या पदानि २६३ समस्या
४ गीर्वीणा तत्रिकका ३८४ २६४ . "
१ प्राग दुःकर्म वशान् ३८५ २६५ ,
१ भाऽऽवश्यक कार्यतः प्रवसता ३८५
-
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संख्या कृति नाम २१६ समस्या
२६७
॥
, षटकम्
२६८ २६६ ३००
( १६ ) गाथा आदि पद
पृष्ठाकः १ सावुना पुरतो मयाद्य विधिना ३८५ ४ परिणय जनताया यातियो भा० ३८६ ६ आय-त नायकं वोक्ष्य ३८७ ४ श्रीकृष्णोऽम्बुधि तश्चतुर्दिशभृश ३८७ १ हृष्टाशया वर दगानन ३८६ १ चारूश्रिया बहु विचारि. २ नमन गुणवानेव कुरुते ३८६ १ चक्र श्री पार्श्वमोली ३६० ५ सुषमा भिरनेक सूनृतः ३६० १ सखि दृगि समपात ३ उत्तमोहं सदावर्ते
३६१ १ ज्वलत् कपायीऽपि तवोपदेशाः ३६२
३०१
३८६
३०२ ३०३ ३०४
३६१
३०७
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धर्मवद्धन ग्रन्थावली :--
तकदवाना
-
मागीघएकसापोशानादामघाटेकिताकदाटेदवानादनापासाटनावाटपातिको ramश लवाटेवदाषौसीपरक बिरुदंघाशकीयांवढियोगकोडंकामानिसबलबलपनला
किटाबामाहालियाकितानकितानलिंदालसी डिटागुणनियालियोधनसायाशाजकमसला चलाउबालपक्षलादलोनारीप्रकलांगलावातकाच देनदलांबलचकनियाररीत्तलारीतलापकर
सातलाशीशांसारकोवारतमारलानसस्वाधारसमसारधीकोवदेसासाचकरिधारधमसीवशेसारमा विकगिसारपसाररदसाग्री-शंगाती सरिङदेवतादिलोकनिपारेसमुन्दसऊ'कामह। ||जानाकासिरदेवासावरीयासजसातलोसनकादिवकासूरसमनदीहोरासहसकिराधरे!
हरगंधकारसािनमंदसमतियाकसनाधागदपरतापपरताघापूरतोवरकामरविंग गाpentu |यावशायमिरहरातिपषियापंधियाज दरमासकारादहाती सोसासरीसुराम।
सुशिमिश मिररकणमाटातपडगमपारोडापेसकोतरीसुता अश्ताकरमधरमसाधा
समायकवाससम्याराडावासमारडावपगशितिरामाजी सहिसबलानिवली ॥ ॥पपुरनी करेंसतालावलिनदिसंवाशरणवालाजीवपमतबकालासावासजवातिपालामना ललदमलादामणमाकीमाबदरेंताईकणकणांडितरोवरोनिभरेंडगारतितो सध्या
१२
CHAN
कविवर धर्मवर्द्धन की स्वहस्त लिखित संग्रह प्रति का आदिपत्र। ,
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कविवर धर्मवर्द्धन ग्रन्थावली
धर्म बावनी ॐकार महिमा सवैया तेवीसा
ॐकार उदार अगम्म अपार, संसार में सार पदारथ नामी। सिद्ध समृद्ध सरूप अनूप, भयो सबही सिरि भूप सुधामी ॥ मंत्र में यंत्र में ग्रन्थ के पंथ में, जाकुं कियो धुरि अंतरयामी । पंच ही इष्ट वसैं परमिष्ट, सदा धर्मसी कर ताही सलामी ॥१॥ नमो निसदीस नमाइ के सीस, जपौ जगदीस सही सुख दाता। जाकी जगत में कीरति जागत, भागति है सब ईति असाता ॥ इन्द नरिंद दिणिन्द फुणिन्द, नमाए हैं वृन्द आणद विधाता। घोरी धरम को धीर धरा धर, ध्यान धरे धर्मसी गुण ध्याता।।२।।
मुरु महिमा
महिमा तिनकी महिमें महिमे, जिन दीनो महा इक ज्ञान नगीनो। दूर भग्यो भ्रम सौ तम देखत, पूर जग्यो परकास नवीनो। · देत ही देत ही दूनो वधै, अरु खायो ही खूटत नाहि खजीनों। एसो पसाउ कीयो गुरुराउ, तिन्है धर्मसी पद पंकज लीनो ॥३॥
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धर्मवद्धन ग्रन्थावली सर्व गुरु अक्षर सरस्वतीकी स्तुति
सवेंया इकतीसा सिद्धा रूपी साची देवा, सारै जीकी नीकी सेवा ,
रागै आए लागें पाए, जागे मोटी माई है। चंगी रंगी वीणा वावै, रागें सारै रागैं गावें ,
हाव भाव सोभा पावें, ज्ञाता जाकुं गाई हैं। हंसी कैंसी चाली चाले, पूजी वंदी पीड़ा टालें,
लीला सेती लालैं पालै, शुद्ध बुद्धिदाई है। सो है वानी नीकी वानी, जाकुं ज्ञानी प्राणी जानी ,
ऐसी माता सातादानी, धर्मसीह ध्याई है ॥४॥
सर्व लघु अक्षर साधुकी स्तुति
भझरा की चालि
धरत धरम मग, हरत दुरित रग
___ करत सुकृत मति हरत भरमसी। गहत अमल गुन, दहत मदन वन
रहत नगन तन सहत गरम सी। कहत कथन सन वहत अमल मन .
तहत करन गण महति परमसी । रमत अमित हित सुमति जुगते जति
चरन कमल नित नमत धरमसी ॥५॥
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धर्म बावनी
मैत्रीया प्रीति
सवैया तेवीसा
अपने गुण दूध दीये जल कुं, तिनकी जल नै फुनि प्रीतिफलाई । दूध के दाह कुदूर कराइ, तहा जल आपनी देह जलाई। नीर विछोह भी खीर सहै नहीं, ऊफणि आवत है अकुलाई। सैन मिल्य फुनि चैन लह्यो तिण, ऐसी धर्मसी प्रीति भलाई।।६।। आपही जो गुन की गति जानत, सोई गुनीनि को संग गहै है। जो धर्मसि गुण भेद अवेद, गुमार कहा सु गुनी कुचहै है । दूर सुदौर्यो ही आवें दुरेफ, जहा कछु चारिज वास वहै है। एक निवास पास न आवत, मैंडकु कीच कै वीचि रहै है ॥७॥ इणे भव आइ, जिणै धन पाइ, रख्यो है लुकाइ, भख्यो नहीदीनों। हाइ धंधे ही मैं धाइ रह्यो नित, काइ नही कृति लोभ सुलीनौ । कोल्हु के बैल ज्यु कोइ नहीं सुख, भूरि भर्यो दुख चिंत सुचीनो। जेण धर्मसी धर्म धर्यो न, कहा तिण मानस होइ मैं कीनो ।।८।। ईइति हैं जिण कु सबही जन, आस धरैं सब पास रहैया। पडित आइ प्रणाम कर, फुनि सेवत है सबने समझया। आइ गरज अरज करै, जु धरै सिरि आण भलै भले भैया। साच की वाच यहैं धर्मसी जग, सोइ बड़ौ जाकी गाठ रुपैया।।९।। उमगि उमगि कयों धर्म कारिज, आरिज खेत में वित्त ही वायौ। देव की सेव सजी नितमेव, धर्यो गुरु को उपदेस सवायौ। आचरतें उपगार अपार, जिणे जश सों दिगमंडल छायो। ऐसी क्रतूत करी धर्मसीह, भलैं तिण मानव को भव पायो॥१०॥
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धर्मवद्धन ग्रन्थावली
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सवेया इकतीसा ऊपर सुमीठे मुख अंतर सुराखत रोय,
देखन के सोभादार भाटु कैसी चीभ है। गुनियनि के गुन ठारि, औगुन अधिक धारि,
जौलुन कहत कहुं तौलु मन डीभ हैं। तजि के भी प्राण आप और सुकर संताप,
ऐसो खलको सुभाउ मच्छिका सनीभ है। धर्मसी कहत यार मंडै जिण वासुप्यार, __मानस के रूप मानु दूसरो दुजीभ है ॥११॥
सवैया तेवीसा ऋद्धि समृद्धि रहै इक राजी सु, एक करै है ह हांजी हाजी। एक सदा पकवान अरोगत, एक न पावत भूको (खो) भी भाजी। एक कुंदावतवाजी सदा, अरु एक फिरें हैं पईस के प्याजी । यु धर्मसीह प्रगट्ट प्रगट्ट ही देखो, वे देखो वखत की वाजी ॥१२॥ रीस सुवीस उदेग वर्ष, अरु रीस सुसीस फट नितही को। रीस सुमित भी दात कुं पीसत, आवत मानु खईस कही को। रीस सुदीखत दुर्गति के दुख, चीस करंततहां दिन ही को। यु धर्मसीह कहै निसदीह, कर नहीं रीस सोइ नर नीको ॥१३॥
सवैया इकतीसा लीयौ नहीं कछु लाज, संचे पाप ही को साज ,
नरक नगर काज, गैल रुप गणिका । अंतर की वात ओर, ठगिर्व की ठकै ठौर,
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धर्म वावनी
नित की करे निहोर, जाहि ताहि जनका। जूअनि को जालौ अग कोढ़ी महाकाली रंग ,
' ताही सुवनावै संग, धारै लोभ धनका । ऐसो कहे धर्मसीह, रहैं वासु राति दीह ;
सो तो भैया चाक हुं, बड़ा रोझ वन का ॥१४॥
सवैया तेवीसा
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लीजत ही जल कूप को निर्मल, सैंथि धर्यो दुगंध ही हूँ है । फूलिनि को परै भोग भलो, पुनि राति रहै कोई हाथि न लैहै । दूर तजो चित की तृष्णा नर, जौ लु कोऊ दिन पुन्य उदै है। यु धर्मसीह कहे कछु देहु,
दिलाउरे गाडि धर्यो धन धूरि हू जै है ॥ १५ ॥ एक के पाइ अनेक परै फुनि एक अनेक के पाइ परै है। एक अनेक की चिंत हरें, अरु एक न आपनो पेट भरै है। एक खुस्याल सुवै सुख साल में, एककुखंथ न खाट जुर है। देखो वे यार कहै धर्मसी जग,
पुन्यरु पाप परतिक्ष फुरै है ॥ १६ ॥ ऐ ऐ देखो दइ गतिया, वतिया कछु ही न कही सी पर है। रंक कुराज (उ) रु राउ को रक, पलक्क में ऐसी हलक करै है। एक विचित्र ही 'चित्र बनावत, एक कु भाजत एक घरै हैं । वात धरम्मसी वाही के हाथ,
है टार्यो न काहु को ईस टर है ॥ १७ ॥
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धर्मवद्धन ग्रन्थावली ओ जगि मूढपति जिनकी हग,आद्र सके उपमान कही है। दर्पण मे प्रगटे सब रूप त्यु, मूढ में द्रव्य दशा उमही है। सम्बगवंत मुदा दि सिला सम, और की छाह सु काज नहीं है। , दीसत एक मयूर ही नृत्यत,
त्यु चितवतके आत्तम ही है ॥ १८ ॥ उत को गेह, कुपात को नेह, रू झखर मेह जूआर को नाणो । ' ठार को तेहरूछारको लिपन, जारको सुख अनीति को राणो।। काटि कडंवर जीरण अंबर, मूढ सुं गूढ टक्यो न पिछाणौ । यु धर्मसीह कहै सुणि सज्जन,
आथि इ नाही' की साथि न जानो ।। १६ ।। अंग मरोरत तोरत है तृण, मोरत है करका अविच्छन । राति रहै डरतौ घर भीतरि, भी फिरतो फिरतो कर भच्छन । भूमि लिखे मिसले पग सु, जु अटट्ट हसै मसलै पुनि अच्छन । सोइ रहै न गहै धर्मसीख कु,
लच्छि कहां जहा ऐते कुलच्छन ॥ २० ॥ अनृप ही स्प कलाविद कोविद, है सिरदार सबै सुमति को। साहसगीर महा वडवीर, सुधीर करूर करारी छती को। सार उदार अपार विचार, सबै गुण धारि अचार सती को। एती सयान है धर्मसी पुनि,
. एक रती विनु एक रती कौ ॥२२॥ काकसी कोकिल श्याम सरीर है, क्रोध गभीर धरै मन माहिं । और कैं वालक सुधरै दोप, पै पोखत आपहीके सुत नाहि ।
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धर्म बावनी एसो सुभाऊ बुरौ उनको पुनि, एक भलौ गुन है तिन पाहीं । वोले धर्मसी वैन सुधारस,
तातें सुहात जहां ही तहां ही ॥ २२ ॥ खोदि कुदाल सं आनी है रासभ, भ पटकी छटकी जल धारै । लातन मारे के चाक चहोरी है, डोरी सं फासी सी देइ उतार कूट टिपल्ल जलाइ है आगि मैं, तो भी लोगाइया टाकर मारै। यं धर्मसी सगरी गगरी भैया,
कोउ न काहू की पीर विचारें ॥ २३ ॥ गुण रीति गहै हठ मै न रहै, कोऊ काज कहै तसु लाज वहै। कछु रीस न है सब बोल सहै, अपनें सवही कु लिये निवहै । चित्त हेत चहे पर पीर लहैं, न चलें कबहु पथ में अव है। धर्मसीह कहैं जगि सोऊ वहडौ,
जिनके घट में गुण ए सब है ॥ २४ ॥ घरराटि कर घर द्वारहि तें, घुरकै घर के पति स घर रानी। सासु को सास ही सोखि लयो, पुनि जोर कहाधुकरेंगी जिठानी। धूजत है घर को जु धनी, फुनि पाथर मारत मागत पानी। देखो धरमसी दूठी है झूठी है,
नारि किधु घर नाहरि व्यानी ॥ २५ ॥
डान मैं काहु कुआनत नाहि, गुमान सु गात चलावत गोबू । सोझै घरी घरी पाघरी पेच कु, पेखत आरसी में प्रतिबिंव । झूठो सरव्ब गरब धरावत, जौलुं न काल कहुं अजगीबू ।
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धर्मवर्द्धन अन्थावली आज धरौ नहीं हो धर्मशील पै,
ल्यौगे घणे जु तिस दिन लीवू ।। २६ ।।
सवैया इकतीसा चाहत अनेक चित्त (चीत), पाले नहीं पूरी प्रीत ,
केते ही करें है मीत, सोदौं जैसे हाट को । छोरि जगदीस देव, सारै ओर ही की सेवु ;
एक ठोर ना रहै, ज्यं भोगल-कपाट को । जाणे नहीं भेद मूढ़, ताणे आप ही की रूढ़ ;
है रह्यो मदोन्मत, जैसे भैसों ठाट को। धर्मसी कहै रै सैन, ताको कबहुं न चैन , धोबी कैसौ कूकरा है, घर को न घाट कौ ॥ २७ ॥
सवैया तेवीसा छोरि गरव्व जु आवत देखि के, आदर देइ कै आसन दीजै । प्रीति ही के रुख की मुख की, सुखकी दुखकी मिलि वात वहीजैं। दूर रहैं नित मीठी ही मीठी ही, चीज रु चीठी तहा पठइज। साच यहै धर्मसीउ कहै भैया,
चाह करें ताकी चाकरी कीजै ।। २८ ।। जो तप रूप सदा अपकै, अपनो वपु पूत पखार करेंगो। जो तप की खप पूर करें, नर पाप के कूप मे सो न परेगो। मोक्षपुरी तमु पंथ प्रयान कुं, पुन्य पक्कान की पोटि भरेंगी। धर्म कहै सब मर्म यहै,
तप तैं निज कर्म को भर्य हरेगो ॥२६॥
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धर्म वावनी
झगरा उलटा ही गहै कुलटा, कबहुं न रहै कुल की वट में। बहु लोकनि में निकसै करि लाजरू, यार कुघेरत घु घट मे। लहिहुं कव घात करू वह वात, यही घटना जु घट घट में। उनकी धर्मसीह गहै जोऊ लीह,
मिट तसु माम चट्टा पट में ।। ३० ॥ नैन सु काहू सु सैन दिखावत, वैन की काहु सौ बात वनावै । पति की चित्त में परवाह नहीं, नित की जन और सु नेह जणावै । सासूको सास जिठानीको जीउ, दिरानीकी देह दुखै ही दहावै । कहै धर्मसीह तजो वह लीह,
लराइ को सूल लुगाइ कहावै ॥३१॥ टैंटि धरै मन में तन में न नमै, नही मेलतं मीटि ही ऐसी। काहिकु आपनी जानिय ताहिकु,आनीय चित्त मैं को परदेसी। ताको न नाम ठाम न लीजिय, कीजिये आप ही तैसै सँसी । साच यहै धर्मसीउ कहै,
भैया चाह नहीं ताकी चाकरी कैसी ॥३२॥ ठीककी वात सबै चित्तकी, हितकी नितकी तिन सोज कहीजै। सो पुनि आपनसों मिलिके दिलकै सुध जो कहै सोउ कीजै । कोउ कुपात परै उलटो, कुलटौ करि चीत कु मीतसौं खीजैं। जो धर्मसीह त● हित लीह तिन्है,
मुखि छार दे छार ही दीजै ॥ ३३ ॥
सवैया इकतीसा डौलें परवार लार बैंन कहै वार वार,
हाल सेती माल ल्याहु ढीलन पलक है।
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धर्मवद्धन ग्रन्थावली
भोजन कुनाज साज, लाज काज चीर ल्याह जाहु,
जाहु ल्याहु देहु ऐसी ही गलक है। व्याहुनिकी पाहुनिकी कहा करू भैया मोहि,
ऐतें है जंजाल जेते सीस न अलक है । धर्मसी कहै रे मीत, काहे कु रहै सचीत,
दे कु है एक देव खैव कुं खलक है ।। ३४ ।।
___सरैया तेवीसा ढीठ उलूक न चाहत सूरिज, तै सँ मिथ्याती सिद्धत न ध्यावै । कूकर कुंजर देखि भसैं, पुनि त्यु जड़ पंडित सु घुररावें । सूकर जैसै भली गली नावत, पापी युसाधु के सग न आवै । लंपट चाहत ना धर्मसीखकु,
चोरकु चादणो नाहि सुहावै ॥ ३५ ॥ नहीं कोउ पाहुणोना कछ लाहणो, नाहि उराणो कहू को होवौ। गरज पर ही अरज्ज के कारण, काहुं सुना कर जोरि कै जोवो । घर की जर की पुनि वाहिर की, डर की परवाह न काहू कूरोवो। कहै धर्मसीह बड़ो सुख है भैया,
माग के खाइ मसीत मे सोवो ॥३६।। तीछण क्रोध सुहोई विरोध रु, क्रोध सुबोध की सोध न होई । क्रोध सो पावै अधोगति जाल कु क्रोध चडाल कहै सब कोई। क्रोध सुगालि कडै वढे वेढ, करोध सुसजन दुज्जण होइ। यु धर्मसीह कहै निसदीह सुणो,
भैया क्रोध करो मति कोई ॥३७॥
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धर्म वावनी
थान प्रधान लहै नर दान तँ, दान तै मान जहा जहा पाव । दान ते ह दुख खानि की हानि, जु रान मसान कहुं डर नावै । दान सु भानु विमानलु कीरति, दान विद्वान कुआनि नमावै । दान प्रधान कहै धर्मसी सिव
सुन्दरि सौं पहिचान बनावै ॥३८॥
सवैया इकतीसा देखत खुम्याल देह नैन ही मे धरे नेह,
करत बहुत भाति आदर के देवै की। नीक ही पधारे राज, कहो हम जैसो काज,
पूछ फुनि वात-चीत पानी और .वै की। ऐसी जहा प्रीति रीति चाहे हम सोइ चीत, .
___ और है प्रवाह हम कहा कछु खर्वै की। धर्मसी कहत वैन, सवही सुणेज्यो सैन, ____ मैंलपोहि दखें तहा सोहि हम जैवै की ॥३६॥
सवैया तेवीसा धंध ही मे नित धावत धावत, टूटि रह्यो ज्युसराहि को टट्ट । पारकै काज पचें नित पापमे, होइ रह्यो जैसे हाडी को चट्ट । छारे नहीं कब ही धर्मसीख कु, मुझि रह्यो है अज्ञान मखट्ट । चित ही माझि फिर निस वासर,
जैसै सजोर की डोर को लट्ट ॥४०॥ नाचत-वश के ऊपर ही नर, अग भुजग ज्यु कल तल पेटा। जोरह प्यार की ठौर परै जहा, सोइ सहै रण माहि रपेटा ।।
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धर्मवद्धन ग्रन्थावली
तैसें कहै धर्मसीह याही वात राति दीह, -
मूरख कुसीख दे के युही वैन खोयी है ।४८) लंक कलंक कुवंक लगाइ है, रावन की रिधि जावनहारी। नीर भर्यो हरिचंद नरिदं हि, कंस को वंश गयो निरधारी। मुंज पर्यो दुख पुंज के कुंज, गयो सब राज भयो है भिखारी। मीनरू मेख कहै ध्रम देख पैं,
कर्म की रेख टरै नहीं टारी ।४६। विनय विनु ज्ञानकी प्राप्ति नाहीं रू, ज्ञान बिना नहीं ध्यान कही कौं। ध्यान विना नहीं मोक्ष जगत में, मोक्ष बिना नहीं सुख सही कौं। तातें विनय ही धरौ निस दीह, करौ सफली नरदेह लही को। यार ही वार कहै धर्मसी अब,
मान रे मान तु मेरी कही कौ ॥५०॥ शील ते लील लहै नर लोक में, शील तैं जाय सबै दुख दूरै । शील तें आपइ ईलति भाजत, शील सदा सुख सम्पति पूरै । कोरि कलंक मिटे कुल कुल के, कलि में बहु कीरति होइ सनूरैं। सार यहै धर्मसीउ कहै भैया,
शील ही तैं सुर होत हजूरै ।। ५१ ॥ ख्याल खलक में देखो सनिसर, तात सूरिज सो दुन्जन ताइ । वाप निसापति ही सौं टरै नहीं, बुद्ध विरुद्ध धरै है सदाइ। केसव को सुत काम कहावत, तात सुनाहि टर्यो दुखदाइ । मानस की धर्मसीह कहा कहैं,
देवहुं के घर माहि लराइ ॥५२॥
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धर्म बावनी सत की सगति नाहि करी, न धरी चित में हित सीख कही कू। प्रीति अनीति की रीत भजी न, तजी पुनि मूढ मैं रूढ़ि गही कु। या जमवार में आइ गवार में, मारी इता दिन भार मही कु। रेसुन जीउ कहे धर्मसीउ,
गइसो गइ अब राख रही कु ॥५३।। हाथ घसैं अरू आथि नसैं, जु वसं चित्त में उदवेग क्रोधू आ। सगे सुनि कूर कियो घर दूर, दिखाइ न मूह दीयो यह दूआ। दुकै लहणात सुकै मन माहि, तकै मरिचकु वावरी कुआ। कहै धर्मसीह गहै सुख लीह तौ,
भूलि ही चूक रमो मत जूआ ॥ ५४ ॥ लंछन चद मैं ताप दिणद में, चंदन माझि फणिद को वासो । पंडित निर्द्धन सद्धन है सठ, नारि महा हठ को घर वासौ। हीम हिमाचल खार है वारिधि, केतक कंटक कोटि को पासौ। देखो धर्मसी है सबकु दुःख,
कोउ करो मत काहू को हासौ ॥५५॥ क्षमाही को खड्ग धर्यो जिण धीर, करी है तयार सुज्ञानकी गोली। सुमति कबाण सुर्वण ही वाण, हलक्क ही सुभरि मुठि हिलोली। ऐसो सज्यो ही रहै धर्मसीउ, कहा करै ताको दुरजन कोलि । सदा जगि जैत निसान घुरै,
गृदधुगृदधु करि कोडि कलोली ॥५६॥ ज्ञान के महा निधान, बावन वरन जान,
कीनी ताकी जोरि यह ज्ञान की जगावनी।
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धर्मवद्धन ग्रन्थावली संकट कोटि विकट्ट सहैं नर, पूरण कु अपनै रह पेटा। देखो धर्मसीह जोर पखावज,
चूण के काज सहेज चपेटा ॥४१॥ पंकज मांमि दुरेफ रहे जुगहै मकरद चितै चित ऐसौ। जाइ राति जु है है प्रभात, भय रवि दोत हस कज जैसो। जाउंगो मै तव ही गज नै जु, मृनाल मरोरि लयौ मुहि तसौ । थु धर्मसीह रहैं जोउ लोभित,
8तिनकी परि ताहिं अदेशो ॥ ४२ ॥ फूल अमूल दुराइ चुराइ, लीए तो सुगन्ध लुके न रहेंगे। जो कछु आथि के साथ सुहाथ हैं, तो तिनकुसवही सलहेंगें। जो कछु आपन मे गुन है, जन चातुर आतुर होइ चहेगे। काहे कहो धर्मसी अपने गुण,
बूठे की बात वटाऊ कहेंगे ॥४३॥ बोल के बोल सुबोझल वात, भइतौ गइ करू जानॆन ऐसौ। फोज अनी अनी आइवनीतौ, लुकावे कहा जब जोर ह जैसौ। प्रीति तुटै पुनि चीत फट, तौ कहा धर्मसी अव कीजै अंदेसी। देखण काजजुरे सवही जन,
नाचत पैंठी तो घुघट कसौ ॥४४॥ भाव संसार समुद्र की नाव है, भाव विना करणी सब फीकी। भाव क्रिया ही को राव कहावत, भावही तैं सब बात है नीकी। दान करौ वहुध्यान धरौं, तप जप्प की खप्प करौ दिन ही की। गतको सार यहै धर्मसी इक,
. भाव विना नहीं सिद्धि कहीं की ॥४॥
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धर्म वावनी
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सवैया इकतीसा मैरो वैन मान यार, कहत हुँ बारबार,
हित की ही बात चेत काहे न गहातु है। नीकै दिल दान देहु, लोकनि मैं सोभलेह,
सुबकी विसात भैया मोहि ना सुहात है। खाना सुलतान राउ राना भी कहाना सब,
- वातनि की बात जगि कोऊ न रहात है। ऐसौं कहै धर्मसीह, धर्म की ही गहौ लीह, काया माया वादर की छाया सी कहात है ॥४६।।
सवैया तेवीसा यह खेह के खंभ सी देह असार, विसार नहीं खिनका-खिनका । जवही कछु दक्षिण वाउ वग्यौ, तब ही हुइगी कनका कनका। कबहु तुम यार करौ उपकार, कहै धर्मसी दिन का दिन का। कर के मणिके तजि के कछु ही अव,
फेरहु रे मनका मनका ॥४७॥ रन्न मे रूदन्न जैसैं, अंधक कुदरपन्न जैसैं,
थल भूमि में मृनाल काहू चौयौ है। जैसे मुरदा की देह, भूपन कीए अछेह, ।
जैसैं कौआ को शरीर, गंगनीर धोयौ है। जैसे बहिरा के कान, कोरि कीए गीत गान,
जैसै कूकरा कै काजु खीर घीउ ढोयो है।
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ई धर्मवद्धन धावली पाठत पठत जोइ, संत सुख पावे सोइ,
बिमल कीरति होई सार ही सुहावनी। संवत सतरै पचीस, काती बदि नौमि दीस,
बार है विमलचन्द, आनंद वधावनी । नैर रिनी की निरख नित्त ही विज हरप,
कीनी तहां धर्मनीह नाम धर्म बावनी ।। ५७ ||
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कुण्डलिया बावनी
ॐ नमो कहि आद थी, अक्षर रै अधिकार । पहली थी करता पुरप, कीधौं ॐकार । कीधो ॐकार सार, तत जाणे साचौ । मंत्र जंत्रे मूल, वेद वायक धुरि वाचौ । सह काम धर्मसीह दीयें रिद्धि सिद्धि औ दोऊ । बावन आखर वीज, आदि प्रणमीजे ओ ॐ ॐनाश नमीयै मस्तक नामि ने, नमो गुरु कहि नित्त । बहु हितकारी जिण बगसीयो विद्या रूपी वित्त । विद्या रूपी वित्त, चित जिण कीधो चोखो। दावै तिम दीजता जलण जल चोर न जोखौ। - सुगरा रे सहु सिद्धि ज्ञान गुण निगुरै गमियें । सीख कहै धर्मसीह नामि मस्तक गुरु नमीय ॥न म.२॥
तृष्णा मनरी तिष्णा नहु मिटै, प्रगट जोइ पतवाण । लाभ थकी बहु लोभ ह, हैं तृष्णा हैं राण । है तृष्णा है राण, जाण नर पिण नवि जाणें । पास जुड़ या पंचास, आस सौ उपरि आणें । सौ जुड़िया तव सहस, धरै इच्छा लख धन री। ध्रापै किम धर्मसीह, मिट नहीं तृष्णा मन री ।। म..॥३॥
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धर्मवर्द्धन ग्रन्थावली
कर्म सिरजित मेट न कौसके, करौ कोडि विधि कोई। . एहवी हिज बुद्धि उपजै, होणहार जिम होई । होणहार जिम होई, जोइ धर्मसी इण जग्गे । चल्यो सुभूम चकवै, उदधि जल बूडि अथग्गे । सोल सहस सुर साथ, हुंता सेवक करता हित । ए वाले कीयो अंध, सही ब्रह्मदत्त नैं सिरजित । सि०।४। धंध करि करि जोड़ि धन, संचे राखै सुव । भागवसै केइ भोग, वले न बाहर बुब । वले न बाहर बुव, लुंबि रहै माखी लालची। कण कण ले कीड़ीया, पुज मे ले पोते पचे । मेल्यो नदे माल, कोई न गयौ लक धे। कलि में कीधो कुजस, धरम विण करि करि धंधै । ध० ।। अति हितकरि चित्त एकथौ सु विटक्यो किणहिक वार । मिलिया वले मनावता, पिण ते न मिलैं तिण वार । ते न मिलें तिण बार, ठार ओन्हो जल ठामैं। जीयैतो इ पहिल रौ, पुरुष ते स्वाद न पामैं । तोडे सांधो तुरत, गाठि रहै डोरे गुप्फित । धरि लो ते धर्मसीह हे, बैंन हुवै ते अति हित ॥ अ०।६। आरति मीठी अप्पणी, आई नमै सहु आप । गरा ने गांमंतर, बोलावें कहि बाप । चोलवें कहि वाप, आपणी आरति आवें.।
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कुण्डलिया वावनी पड़ीइ मादे पूत, वाप कहि वैद बुलावै । श्रावण में धर्मसीह, नट कहै छासा नीठी। दूध जेठ में दीय, मानि निज आरति मीठी । अ० ॥७॥ इतरौ में पिण अटकल्यो, सोचे सारी दीह । निंदा जिहा पर नी नहीं, धरम त, धर्मसीह । धरम त, धर्मसीह, जीह निज अवगुण जपै । त्रेवड़ि इण में तत्त, काइ कसटे तन कपै । तप जप निंदा तठे, हुवै नही कोइ हितरौ । निदा हुंती नरक, अम्हे अटकलीयो इतरौ । इतरो०८।
परउपगार ईख कनक उत्तम अगर, चावा ए जगि च्यार । निज सुभाउ मेट नहीं, आवै पर उपगार । आवै पर उपगार, सार रस ईख समप्पे । छोलता छेदतां दुगुण, दुति सोवन दीपे । अग्नि प्रजाल्यो अगर, सुरभि छ सहु सरीखें । अवगुण ठालि अलग्ग, एक उत्तम गुण ईखे । ईख०।। उत्पति साभल आपरी, गरवै पछै गमार । उपजेतें तें उदर में, अशुचि लीयो अहार । अशुचि लीयोअहार, वार तिण हीज ऋतु वीरिज । मुख ऊधे मल माहि, दुख सहीया दिलगीरज । तं पछताणो तरें, कीया नहीं पूरव सुकृत । साभलि तुं धर्मसीह, एह थारी छै उत्पति ।उत्प०।१०।
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२०
धर्मवद्धन ग्रन्थावली
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कर्म
आदर ऊंचे कुल अधिक, ऋद्धि घणो नीरोग । . धरम थकी है घरमसी, सैणा रो संयोग । सेंणां रो संयोग, सोग री बात न सुणिज । महिपतिबै वहुमान, गाम में पहिलो गिणीजै । सहु को बोले सुजस, फलै पुण्य वृक्ष इसा फूल । मनवाछित सहु मिलें, आइ उपजे ऊंचे कुल । आदर ।११
गर्व ऋद्धि त्यागौ रन मै रहो, रहो परीसा सर्व । तत्त सधैं नहीं की तिणे, गयो नही जा गर्व । गयो नहीं जा गर्व, सर्व तप निफल सधीया । जोइ बाहुवल जती, वप्पु उपरि खड वधीया । गरव तज्यो तव ज्ञान, तुरत हिज उपज्योतन मै । धर्ये गर्व नहीं धर्म, ऋद्धि त्यागौ रहो रन में । ऋ ।१२। . . . रोस दमन
रीस बट्टे राखीजें, तिण उपजते तागि । पले नहीं प्रगटी पछे, उन्हालै री आगि । उन्हालै री आगि, सही जाये नहीं सहणी । हुवै घणी जिण हानि, देह पिण दुखें दहणी । सैंण हुवै सहु सन्तु, फिरै जायें मन फट्टे । सुणे सैंण धर्मसीख, राखिजे रीस दब? । रीस ॥१३॥
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कुण्डलिया बावनी
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कम
कर्म
लिखिया ब्रह्म लिलाट में, लोक सकै कुण लोप । भायै सुख दुख भोगव, किसु किया है कोप । किसु किया है कोप, रोप काठलि घण वरस.। वावीहीयौ बापड़ो, तोइ जल काजे तरस । देखे सहु को दिने, अंध है घूघु अंखीया । धोखो तजि धर्मसीह, लामिजै सुख दुख लिखिया ।लि०।१४। लीजै च्यारे-तुरत लगि, चूत,द्रव्य नृपदान । , गुरू शिक्षा प्रस्ताव गुण, न करो ढील निदान । न करो ढील निदान, जाय धन हारे जुआरी । । चुगल मिलै चौ तरै, रहे वगसीस राजारी ।। गुरु पिण न दीये ज्ञान, कह्यो जौं तुरत न कीजै । . सुभ प्रस्ताव सिलोक, गिर्न तुरतज लीजै । ली० ॥१५॥ एको ह जो आप मै, कजीये काम कुटब । . तो को न सके तेहन, झगड़े भाट झुव ।। झगडे झाटे मुंब, बुब पिण लागै बहुनी । बोली एकण वध, साच माजे मा जैनी । सहुनी जिण रै फट जू जूआ, न हसु धन र नेकौ । धुरि हुंती धर्मसीह, आप मे कीजै एको । एको ।१६। ऐ देखौ ब्रहमड इण, इक इक बड़ी अचभ । धरा भार इवौं धरै, सु थभी किण विध थभ । थंभी किण विध थंभ, दंभ पिण कौ नवि दीस ।
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धर्मवद्धन ग्रन्थावली मंड्यो किम करि मेह, दडड पाड्या निस दीस । अंवर विण आधार, सूर शशि भमै सपेखो। सागी कहै धर्मसीह, ए ए अचरिज देखौ। ए०१७ ओहिज भूतल ओहिज जल, वाया एकण वेर । अंव निंब पानैं इसौं, फल में पड़ीयो फेर । फल मे पड़ीयौ फेर, मेर सरसव जिम मोटौ। स्वाति विन्दु सीप में, आइ पड़यो अण चोटी। मोती है बहु मोल, सरप मुखि विष ह सोइज । पात्र अन्तर पड्यो, उदक कहै धर्मसी ओ हिज ।ओ०१
औपध मोटो अन्न इक, भाजे जिण थी भूख । सालैं अन विण सामठा, देही माहिला दूख । देहि माहिला दूख, उख है सहु नै अन्न री। उदर पडै जां अन्न, मौज ता लगि तन मन री। आखर अन्न अंश, पलं पूरा व्रत पौपध । धीरज ह धर्मसीह, अन्न इक मौटौ औषध । ओ०१६।
स्वभाव अव कोऔ निव कोइला, लुब्या किहा इक लागि। काग भणी कहे कोइला, कोइल ने कहै काग। कोइल ने कहै काग, जाइगा कारण जाण । भूलें माणस भमर, अंग सरिखे अहिनाणे । विहु जब बोलिया, अगुण गुण लीधा अटकल । न रहै छांना नेट, अंब कौऔ निव कोकिल । अ० १२०॥
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कुण्डलिया वावनी
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पर स्त्री गमन निषेध अपणी तिय थी अवर नै, माने घणु मसंद । लखमीजी नै तजि लग्यो, गोपीयां सूगोविंद । गौपिया सू गौविन्द, इन्द्र पण तजि इन्द्राणी । अहिल्या नैं आदरी, जगत सगल ए जाणी। अतिधन है उन्मान, जाय नहीं वाता जपणी । प्राये परत्तिय प्रीति, अधिक है न हुवै अपणी । अ० ॥२१॥
आठ अंधे क्रोधी कामी कृपण नर, मानी अनैं मदद्ध । चोर जुआरी नै चुगल, आठों देखत अंध । आठे देखत अंध, अवध रस लागा धावै। तन धन री हाणि, नेटि तोइ नजरै नाचे । कुकरम कुजस कुमीचि, सोइ देखे नहीं सोधी । धरमसीख नहिं धरै, करै इम कामी क्रोधी । क्रो० ॥२२॥
कपूत खाए नै खेरू करै, सगलै घर रौ सूत । कूत न काइ कमाइवा, कहिय एम कपूत । कहिये एम कपूत, भूत जिम बोले भड़की। सखरी देता सीख, तुरत कहै पाछौ तड़की। साच कहै धर्मसीह, उणे सुत सदा अंधेरू। म खटू मौजी मन्न, करै खाए धन खेरू । खा० ॥२३॥
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धर्मवर्द्धन ग्रन्थावली
सपूत
गुरु जण सवे तज गरव, कम्मा घरि कूत । निवला नै ले निरवहै, साचा तिकै सपूत । साचा तिके सपूत, दूत जिम दौडें द्रुकै । खरा द्रव्य खाटि ने, मात पित आगलि सूक। मुखि मीठा सुभ मना, देखि सारा है दुरजण । सुपूत्र तिकै धर्मसीह, गरव तजि से4 गुरुजण । गु० ॥२४॥
सात सुख और दुख घट नीरोग शुभ घरणि, वलि नहीं रिण भय वात। सुपूत्र सुराज कटुव सुख, धर्मसीह कहै सात । धर्मसीह कहै सात, सात दुःख जाय न सहणा । दीसै घरि से दलिदा लोक वलि मांगै लहणा। . कलहणि नारी कुपुत्र, फिरण परदेस सगे फट । । । सवले दुख सातमी. घणो वृलि रोग रहैं घट । घट०।२५॥
पाडोस न रहे पाड़ोसैं निखर, करै मता घरि कूप । दुइ विढता मत देखि, भूडौ न कई भूप । भू डौ न कहे भूप, जप मत मोटा जोड़ी। झगड़ी न करें झूठ, आल न रमे धन ओडी। वैरी न करै वैद, गरथ पर नौ मत गर है । सुणे सैंण धर्मसीख, निखर पाडोसैं न रहे । न रहै । २६ ।
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कुण्डलिया वावनी
बुढापा च्यारजणानै सुणि चतुर, सोहै जरा सिंगार। राजा मुहती वैद रिपि, गरढ पण गुणकार । गरढ पणे गुणकार, सार बहु बुद्धि रसायण । विणसैं मल्ल वेसीया, गिणी तिम चाकर गायन । करै घणी जौ कला, मन्न तोइ किण न माने । कहै धर्मसी यु करै, जरा आइ च्यार जणा नै च्यार०।२७॥
बाप
छत्र करैं ज्यु छाहड़ी, तुरत हरै सहु ताप । छोरू नै गुणकार छै, बूढा ही मा-बाप । बूढा ही मा-बाप, आप जीवै ता अमृत । सखरी आखें सीख, साचवे घर में सुकृत। लाज काणि करै लोक, तरुण तिय सोह रहै तिम । धरै हित धर्मसीह, जतन बहु छत्र कर जिम । छ० ॥२८॥
जूला * सो कीधी जिका, कही न जायें काय । नल पाडव सिरखा नृपति, मूक्या हार मनाय । मूक्या हार मनाय, हार करि अलगा होवौ । कलह सोग वहु कुजस, जए साम्है मत जोओ। हासो नै घर हाणि, सुख पिण कदै न सूवै । सुणज्यो कहै धर्मसीह, जिका कीधी छै जज०।२९।.
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धर्मवर्द्धन ग्रन्थावली
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मा
माझे मल मूत्र झरे, अन तणा सहु अंश । तौ पिण खावा तरसीया, माणस पापी मंस । माणस पापी मस, अस पिण सूग न आणे । परगट्ट जीवा पिंड, जीभ स्वादै नवि जाणें । दुरगति लहिस्यै दुःख, सवल आ करणी सामे। अधरम महा असुञ्चि, झरै मल मूत्रे झाझे । मा० ॥३०॥
मदिरा - न हुवे सुधि बुद्धि नजर से, जाय लक्षण लाज । परगट मदिरा पान थी, एहा होई अकाज । एहा होइ अकाज, खान अखज पिण खावें। नावें कोई नजीक, अन्ध री ओपम आवे । इण कीधा अनरस्थ, द्वारिका नगरी दहवै। सुणै नहीं धर्मसीख, नजर मे सुद्धि बुद्धि न हवै । न० ॥३॥
वैश्यागमन टिपस करें लेवा टका, नहीं मन माहे नेह । राग करे इण सुरखे, गणिका अवगुण गेह । गणिका अवगुण गेह, छेह विन दाखै छिन में । सिल धोवी री सही, ओपमा छाजै इण मे। गया बहु लाज गमाइ, विहल हुआ वेश्या वसि । जाति कुजाति न जोडे, टका लेवा करैंटिप्पस । टि० ॥३२॥
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कुण्डलिया वावनी
शिकार
ठग वगला जिम पग ठवें, पा. जीवा पास । कुविसन रौ वाह्यो कर, आहेड़ा अभ्यास । आहेड़ा अभ्यास, प्यास भूखें तनु पीडें। मार्यो श्रेणिक मृग, नरक गयो न रह्यो नी । कहे धर्मसी इण कर्म, सुकृति ह निःफल सगला । रहै तकता दिन राति, वहैं जीवा ठग बगला । ठग०३३।
डाका चोरी डाकै पर घर डारि डर, कूकरम करें कठोर । मन में नाहि दया मया, चाहै पर धन चोर । चाहैं पर धन चोर, जोर कुविसन ए जाणो । मुसक बंधि मारिज, घणी वेदन करि घाणो। फल बीजा सम फलं, अब लागै नाहीं आके । धरम किहां धरमसीह, डारि डर पर घर डाके । डा० ॥३४॥
पर स्त्री गमन ढुढा कीधा ढाहि गढ, लक तणी गइ लाज । पर त्रीरे कुविसन पड़ या, रावण गमीयो राज । रावण गमियो सज, साज तो हुंता सवला । परत्रीय कुविसन पड़ या, पाप केइ लागा प्रवला । अपयश जीव उदेग, मान तो नहीं छै मूढा । सुणि भारथ धर्मसीह, ढाहि गढ कीधा ढुढ़ा। दु० ॥३५॥
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धर्मवद्धन ग्रन्थावली
___ सप्त व्यसन नरक रा भाई निरखि, साते कुविसन सोई। इण हुंती रहिन्यो अलग, करी रखे संग कोइ । कर रखे संग कोई, जोइ तिहा पहली जुऔ। मास खाण मद पान, संग दारी मत सूओ। आहेड़ी धन अदत्त, संग पर त्रीय साता रा। इण मे महा अधर्म, निरखि भाई नरका रा । न० ॥३६॥
तुकारा तुकारो काढ़े तुरत, मुंह मुलाजो मेट । कुल उत्तम-जन्म्या किसु, नीच कहीजे. नेट । नीच कहीजे नेट, पेट रो खोटो पापी । . तुरत ,वैण तोछड़ो, सैण नैं , कहै संतापी । चाप तणो नहीं बीज, वीज किणहिक वीज़ा रो। धिग तिण नर धर्मसीह, तुरत का? तुकारो । तु० १३७ थाका भूखा ही थका, धोरी-नर धर्मसीह ।. निज भुज भार निवाहिल्यै, लोपे नहीं शुद्ध लीह । लोपे नहीं शुद्ध लीह, दीह ल्यै ऊंचा दावें । सीह होइ. संचरै, जीह नहु भेद जणावें । आखर ते आपणा, जस्स खा हुइ जाका । धुरा भार ले धीग, थेट ताइ आणे थाका । था० ॥३८॥
सज्जनदर्शन देखो सैंणा रो दरस, मौटौ छै कोइ माल । दूर थकी पिण देखता, नयणा हुवै निहाल ।
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कुण्डलिया वावनी
२६ नयणा हुवै निहाल, हाल दे हीयो हरखें। वर अमृत बैंण, प्रीति अति ही चित्त परखै । . वि घड़ी मिलि वेसता,, लहै सुख नहीं ते लेखौ। धन दिन गिण धरमसीह, दरस सैंणा रो देखौ । दे०३६।
धनवान धनवंता री धर्मसी, आवै सहु धरि आस । . सरवर भरीयो देख सहु, पंखी वेसैं पास । पखी वेसैं पास, आस पिण पुगइ इण थी। सूको सरवर सेवता, तृपा काइ भाजे तिण थी । दीय किसुदलदरी, सवल रीझवीयौ संता। . सगलौ . ही ससार, धरै आस धनवंता । ध०४०
कृपणदान न दीये काइ कृपण नर, सहु इम कहै संसार । सात थोक कहै धर्मसी, द्य ओहिज दातार । द्य ओहिज दातार, वार' छ काठा बीडी । द्य उतर छ कुमति, पूठ छ पात्रा पीडी। धरि छ लछि नै घोर, कटुक गाल्या दे कदीये । आडौ पग छ आइ, निपट किम कहो छो न दीय न०४॥ पर हुंती तप पामिन, निपट दीये दुःख नीच । सूरिज तपता सोहिलो, पिण वेलू बालें बीच । वेलू बालैं वीच, नीच नर है बहु बोलो ।
उत्तम नर रहै अटक, गालि चतुरत ज गोलो । १ पाठान्तर-द्वार
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धर्मवर्द्धन ग्रन्थावली
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अक्ख दीयौ पद ऊंच, पीड द्य तोइ पनुती ।। धरै उत्तम नर धर्म, पापिन तप पर हुती । प०१४२।
यमराज फोजा मैं मौजा फिर, गाहण गढा गडद । फुके काल फणिंद री, उडि गया नर इन्द । उडि गया नर इन्द, चंद दिणद चकीसर । साथ न को धर्मसीह, कित वाल्हा गया वीसर । सगला तालगि सूर, जम्म आ% नहीं औ जा । है चोटी पर हाथ, मान मत खोटी मौजां । फौजा०४३।
मिष्ट वचन बहु आदर सू बोलिये, वार मीठा वैण । धन विण लागा धर्मसी, सगला ही है सैण । सगला ही है सैण, वैण अमृत वदीजै । आदर दीजे अधिक, कदे मनि गर्व न कीजै । इणा वातै आपणा, सैंण हुइ सोभ वदै सहु । मानै निसचे मीत, बोल मीठो गुण छै बहु । वहु० ४४।
भारी कर्मा भारी करमा दुरभवी, जग मे जे छै जीव । सीख न मानें सर्वथा, सहज मिट न सढीव । सहज मिटै न सदीव, टेव श्री जाइ न टलीयै । स्वान पुछि न है समी, नित भरि राखौ नलीये । कासुह्र बहु कह्या, वर्दै नहीं कदे विसरमा । -सुगुरू तणी धर्म सीख, कर नहीं भारी करमा । भा० १४५॥
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कुंडलिया बावनी
क हल मकना नेगल महा. समिधरि केहरि नह नगला इसवा सोहिला. नन इसपो सुतल । मन द्रह्मणो मुसकत्ल, चल जिगरी अति चंचल | रहे नहीं थिर दिन राति अधिक वार्यैध्वज अंचल | सिण दिलगीर खुवाल, तुरत के सीला तत्ता
कहे धर्मसी मुसकल मन्न दमणा नवमत्ता | म०॥४६॥ दान
योजन वारें जाणियै आवै गाज अवाज | दुनिया में दात्तार रौ. सगलै जस सिरताज । सगले जस सिरताज, आज लगि वलीयौ आवैं । अरवक' सदा उगता करण रौ पहुर कहा । साधु सुपात्रे सैंण, भगित करि दीजै भोजन । धरम अनै धर्मसीह, जस है फेइ जोयन ।
३१
शील राखीजें जतने रतन, खड्यां ह्र बहु खोड | सील तथा तिम धर्मसी, कीजें जतन करोड । कीजै जतन करोड, होड इणरी किण होवें । सीले सुर सेवक, जगत जस कहि मुख जोवै ।
नित सतीया रा नाम, उठि परभात अखीजै" ।
सीलै लहीजैं लील, रतन जतन राखीजे | रा०||४८||
Towns
१ सूर्य २ कहने मे आता है ।
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धर्मवर्द्धन ग्रन्थावली
तप लहिये शोभा लोक मैं, तप करि कसता तन्न । . परतखि वीर प्रशंसियो, धन्नो मुनिवर धन्न । धन्नो मुनिवर धन्न, मन शुद्ध जास भली मति । पहिलो फल ए प्रगट, कन्न सुणीय निज कीरति । रहीय तप सुं राचि, दूठ आटे कर्म दहीये । धरता इम धर्मसीख, लच्छि सिवपुर नी लहिये । ला४।।
भाव वपु शोभे नहीं जीवविण, जल विन सरवर जेम । विन पति त्रिय गृह दीप विण, तरवर फल विणतेम । तरवर फल विण जेम, प्रेम विण जेम सखापण । प्रतिमा विन प्रासाद, कहो तुस जेम विना कण । भण इण परि विणभाव, खोट सगली तप जप खपु। सोभै नही धर्मसीह, भाव विण जीव विना वपु । व०॥५॥ सीखो दाखौ शास्त्र सहु, आगम ज्ञान अछेह । साइ रे हाथे सही, मीच रिजक नै मेह । मीच रिजक नै मेह, एह छै वाता ऊंडी। कासु झू कह्यां, हाथ परमेसर हुंडी । जोइ धर्मसीह जोतिष, सोचि करि करौ सधीखो। आखर जाणे ईस, शास्त्र सहु दाखौ सीखो । सी॥५१॥
कर्म खटवाने सहु को खप, उद्यम कर अनेक । लिख्यौ है सो लाभिजे, अधिकौ रंच न एक ।
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कुण्डलिया वावनी
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अधिको रंच न एक, देखि मथीयौ दधि दोऊ । लाधि गोविद लाछि, शभु लाधो विप सोऊ । वखत तणी सहु वात, लाख करें केइ लटुवा । कोइ माटीपण कर, खपै सहु करिवा खटवा । ख० १५२।
सूम को सम्पदा सु वा केरी सम्पदा, नपुंसक री नारि । ना धर्मसील धर सके, न भोग भरतारि । न भोगवं भरतारि, कीया था पातिक केइ । इण घरवास आइ, बोइ नाख्या भव बेइ । कर फरसै रस करें, आस नहु फलें अनेरी । धर्मसी कहै धिग स, संपदा सुबा केरी । सु वा०५३।
घट बढ ह्यवर जिण घर हीसता, गज करता गरजार । किण हिक दिन तिण घर करें, पडीया स्याल पुकार । पडीया स्याल पुकार, वार नहीं सरखी वरतें । चढत पड़त हिज चलें, चंद जिम विहु पखि चरतें । चौपड़ केरै चाव, घटत बढ़ती है घर घर । सुणि तिण विध धर्मसीह, हिंसता जिण घर हयवर । ह०५४॥
- मर्यादा लघीजे नहीं लोक मैं, लाज मर्यादा लीक । जायै पाणी जू जूओ, न करीजें जो नीक । न करीजें जो नीक, लीक नहु सायर लघु ।
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धर्मवद्धन ग्रन्थावली मरयादा मेटता, सदा टालीजै संधै । वरतीजै विवहार, कदे निज रूढि न कीजे । सदाचार धर्मसीह, लीह कहो केम लघीजे । ल० ॥५५॥ क्षमा करंता कोइ खरच, लाग नहीं लगार । मिट कदा यह मूल थी, सैण हुवै संसार । सैंण हुवै संसार, सार सहु मैं ए साचो । किण सारु करें क्रोध, कुह्यो काया घट काचौ । सफल हुवै धर्मसीह, धरम इण सीख धरंता । लहै मोह लोक मे, कहै सहु क्षमा करता । नमा० ॥५६॥ अक्षर बावन आदि दे, कवित्त कुंडलिया किद्ध । धरम करम सहु मे धुरा, प्रस्ताविक प्रसिद्ध । प्रस्ताविक प्रसिद्ध, शहर जोधाण सल्हीजे । सतरसे चोतीस, भलै दिवस भा बीजै । विजयहर्ष वाचक्क, शिष्य धर्मवद्धन साखर । कीधा वावन कवित्त, आदि दे वावन आखर । ॥ ५७ ॥
इति कुंडलिया बावनी ।
-: 00:
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छप्पय बावनी
गुरु गुरु दिन मणि हस, मेघ मेरहि मुगतागण । मति दुति गति अति सोभ, वाणि मणि गुण जाकै तण । सुरग पुवसर राज, गयणधर धुरि वारिधि थिति । वासव ग्रह अति चतुर, जगत सुर पारिख सेवित । प्रभात पंकति सहित, गरजित निरमल ग्रथित गुण । बहु जान तेज केली वरिप, धरि पवित्र धर्मसीह गुण ॥१॥
गुरु वर्णन रूप ३६ विधानीक कवित - ॐकार वलि अरक, उदयगिरि उपर ऊगो। अलग गयौं अन्धार, पार इणरै कुण पूगौ। चाहे सहुजग चक्खु, उदय पूरै सहु आसा । सुर नर माने सर्व प्रसिद्ध सगले परकासा । स सार सार परतिख समै, सिद्धि रिद्धि दायक सासता। धरि बान ध्यान धर्मसीह धुरै, अधिक इणरी आसता ॥१॥
नम्रता नम्या चढे गुण नेट, नम्या विण गुण ह निःफल । तरवर नमै तिकोज, साखि फल फूलें सफल । नमता वाथै नेह, नमै सो मोख नजीकी। नमै सुजाण नीति, नम्यां सहु बाता नीकी ।
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धर्मवर्द्धन ग्रन्थावली तुरत हिज परखि धर्मसी, तुला धडी जणावै सीस धुणि । हलको तिकोज ओछो हुवे, गरुओ कहिजै नमण गुण ।।२।। मन मे न धरै मैल वर्दै वलि मीठा वायक । देह आपसु दमै, गरव विण सहु गुण ज्ञायक । आदर पर उपगार, सत्यवादी सन्तोषी। न करे निंदा नेट, चलें निज कुलवट चोखी। न्याय रीति तिण दिसि नजर, देखे नहीं स्वारथ दिसा। धर्म सील विनय सूधौ धरै इण जुग के विरला इसा ॥३॥ सिला सेज सूवणे, वले वन धगहने वासा। नगन गगन गुण मगन, अगनि जग ने अभ्यासा। जटा धरै केई जूटा, मुड के घुरड मुडावै । बहुली केइ बभूत, लेइ अगे लपटावै । जिण जिणै रूढि झाली जिका, तपौ तपावौ कष्ट तन । साच हूँ मन्न धर्मसी सफल, मन झूठ सहु झूठ मन ।। ४ ।। धंध धरे करि द्वप, वात मे हेत वितौड़। ' आप कियो ते अवल, वले पर किया विखौड़े। ' छत्ता गुण छावर, अगुण अछत्ता ही आखें ।
कोइ हितरी कहै, रीस मन माहै राखें । वलि लहै सुख परक विघन, काम पगे पग कूड रौ। धर्मसीय कहै तिण रे धरम, बोल्यो खातौ बूड रौ ॥ ५ ॥ अटकलि कुल आचार, शोभ अटकलि सक जाइ । विद्या अटकलि वित्त, देह अटकलि दे खाइ ।
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छप्पय बावनी
त्रिय अटकलि सुविशेप, आठ गुण वीदह अटकल । परणा पुत्रिका इत, मावी तउ सिंकल। वल ती जिकाइ सम्पति विपति, निवौं सवलैं नखतरी । किण ही न दोस धर्मसी कहै, बात पर्छ सहु वखतरी ॥६॥
धर्मलाभ आ खा जो बहु आऊ काउ, चिरजीव कहिजे । पुत्र वधों परिवार स्वान शूकर सलिहिऊँ। दाखां बहलो द्रव्य हुवे अधिको कुल हीणो। चल पामो अति वहुल प्रवल हुइ सरपे पीणो। सुत वित्त जोर जीवित सकल आशा पूगै धरम इण । असीस एक सहु में अधिक भलौं वैण धर्मलाभ भण ।। ७ ।।
विद्या बुद्धि इक नीरोगी अङ्ग वले, गुण युद्धि वखाणो। वलि साचविजै विनय अधिक गुण उद्यम आणो । शास्त्र राग सुविशेप पिंड थी ए गुण पाचे । पाचे वलि परतख सही वाहिज गुण सन्चे । पंडित प्रथम पुस्तक पर्छ, सुधिर वास साथी सध । तिम नहीं चित भोजन तणी, विद्या दस थोके वधै ॥८॥ ईहै स्वाद अनेक आलसू, जे वलि अगे। दुहरी न कर देह, सुखी विपयारस सगे। नित रोगी बहु नींद, रग वाता रो रसीयौ । रामनि मे मन रहै, ताकिल्य सहु रौ तसियो।
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धर्मवद्धन ग्रन्थावली
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लालच दाम खाटण लुब्ध, दुसमन शास्त्रारा उसे। कर इता दूर धर्मसी कहै, विद्या भणिवा ने वसे ॥६॥
अष्ट मद उच्च जाति मद एक महा कुल मद स माती। लाभ तणे मद लोल, तेम तप मद स ताती । रूप मद वलि रसिक, बहुल बल मद पिणं वाहे । विद्या मद वलि विविध, अधिक अधिकार उच्छाहे । मद आठ ईय मत 8 मसत, अस्त उदय रवि अटकली। आविया देखि करीवा अमल, प्यादा जमराए पली ||१||
कुपात्रप्रीति अगतै अरकरी मडी तव छाया मोटी । दोड पहुर मै देखि, छीजती छिण छिण छोटी। त्यु कुपात्र की प्रीति, आदि-बहु आगे ओछी । सजन प्रीति सुरीति, सही धुरि होइ सकोछी । वधता विशेष धर्मसी वधे, वलत छाह जिम विस्तर । प्रांत ग्ण सज्जण दुजण, परखी देख पटतर ॥१॥
कर्मगति ऋतु ग्रीष्म रान मे, तृपो मृग दव थी बाठो । पडियो पासी पाउ नेट साइ तोडे नाठे ।
ओ कुडि उलंघि, आयो जिण दिसि आहेड़ी । . तेण चलायो तीर, फाल माहि टाल फंफेड़ी । नासता कूप आयो निजर, निस मेटण पड़ियौ तठे। कर्म गति देखि धर्मसी कहै, कहो नाठौ छूट कठे ।। १२ ।।
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छप्पय बावनी
३६
कर्म रीस भर्यो कोइ राक, वस्त्र विण चलीयौ बाटे । तपियौ अति तावडौ, टालता मुसकल टा” । बील रुख तलि बसि, टालणो माडयो तड़कौ । तरु हुती फल बेटि, पडयो सिर माहे पड़कौ । आपदा साथि आग लगी, जाय निरभागी जठे । कर्मगति देख धर्मसी कहै, कहो नाठो छुट कठे ॥ १३ ॥
लक्ष्मी किणहीक लाभि, खरची दीधी वली खाधी। कहीं नहीं कारण किणे, बहसि किए के बाधी । दातारै धुरि देखि, दान रो लाधो दद्दो । सुव ननौ संग्रहै, माहरै इण सु मुद्दो । दातार घर दिन दिन ददौ, नित-सु बा घर ननौ । बिहु जणा जाणिं बहसे बहसि, पालैं इण परि पडवनो ।१४)
लीजें पर गुण लागि, लागि नै अन्त न दीजै । दीजै ऊंचौ दाव, दोप अणहुत न दीजै । कीजे पर उपगार, कार निज लोप न कीजै । खरै हित खोज जै, खोट वाते मत खीजै । भीजे सुसाम (१) धीजै भला, पीजै जल छाण्या पर्छ । ' धर्मसीख सुबुद्धि मनमें धरें, इतरा थोके अवगुण अछ.।।१।।
एक एक थी एक एक थी
अधिक सबल सूरा संग्रामे । अधिक नकल ने ठाह' नामे ।
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धर्मवद्धन ग्रन्थावली
एक एक थी अधिक चुप सगली चतुराइ । एक एक थी अधिक कला विद्या कविताइ । व्याकरण वेद बदक विविध, भला उदर सहुको भरौ । धर्मसीह रतन बहुला धरणी, कोई गरव रखे करौ ॥ १६ ॥ ऐ वेलि एकरा, उपना तुवा आवै । साधु तणी संगते, पात्र री ओपम पावै । विलगा जिके सुवंश, गुणी संगि मीठो गावें । गुण सं जे गुथिया, तरै निज अवर तरावें। एक एक माहि बलती अगनि, चेढंता लोही चुसे । उपजै बुद्धि धर्मसी इसी, वास आइ जेहवं वस ।। ७ ॥ ओछो नर ओहिज, नजरि तलि बीजां नाणे । " , ओछी वल आप वखाण । ., ., , कडा दाक्षिण्य न राखे । " , आप म्हे परन्तु आखै । दूहवं कवण मुख कहि दुरस, आचरणै सहु अटकले। पारखा देखि जल घट प्रगट, ओछो ते हिज अलें ॥ १८॥
अवगुण ह आलमू. अवल थिरता गुन आणे । चपल होई चल वित्त. बडी उद्यमी वखाण । महा नुक है मुखे तो मने नहीं चोल म घोला। न्यु कहता क्यु महै. भला छ मन रा भोला । पात्रे कुपात्र बन चं प्रगट. बड दाता धन ज्युवर । धर्ममीह देग्यि परमाद धन, अवगुण ही गुण आचरं ॥ १६ ॥
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छप्पय बावनी
आज के मित्र
आखि लाज करि आज, रीति रस री रुख राखें। हसते लातें सहीये, भेद सुख दुख रा भाखै । अलगा हुवा अॅस, नेह तिल मात न आण । जुदा न गिणता जीव, जीव परदेशी जाण । आजरा मीत बहुला इसा, कोइ गिणे नहीं हित कीयौ। कही इस मित्र धर्मसीह कहै, हे0 किम विकसहियौ ॥२०॥
स्वार्थ
अफल रुख अटकले, परा उड जाये पंखी। सर सूको स पेख, कोइ न हुवे तसु कंखी। वले पुहप विणवास, भमर मन माहि न भावै । दव दाधो वन देखि, जीव सहु छोडि जावै । निरधना वेस नाणे नजरि, किणरौ वलभ कवण कहि । म्वारथै आवी सेवे सहु, स्वारथ रौ संसार सही ॥ २१ ॥
कहै पाखा सुणि केकि, कत तुझ लागि केडे । करि कु मया तु काइ, फूस ज्यु अम्ह पा फैडै । सुन्दर माहरे सग, कहै सहु तोने कलाधर । नहीं तर खुथड़ो निरखी, नेट निन्दा करसी.नर । अम्ह घणी ठाम बीजी अवर, धरमी आदर करि धरै। माहरै सुगुण सोभा मुगट, श्रीपति पिण करसी सिरै ॥२२॥
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धर्मवद्धन ग्रन्थावली खिसता निज खाण थी, रयण कहै साभलि रोहण । अठं अम्है उपना, महिर थारी मन मोहण । करिजे तु कल्याण, इसी मन मैं मत आणे । ठाम चकवे ठिक्क, ठहरसी किसे ठिकाणे। वास मे जाइ जिग रे वसा, घर री पुण्य दशाधिरै। माह र सुगुण शोभा मुगट, श्रीपति पिण करसी सिरै ।।२३।।
धन गर्व निषेध गरथ तणें गारवे, हुऔ गहिलो विण होली। नेट करें निवलरी ठेक हासी ठकठोली। मन ही मन जाणं मूढ, मूल ए किण री माया । साच कहैं धर्मसीह, छती छवि वादल छाया। उलटी सुलट्ट सुलटी उलट, ए थिति आदि अनादिरी। घडी माहि देखि अरहट्ट घड़ीभरि ठाली ठालीभरी ।। २४ ।।
परोपकार
घडी घडी घड़ियाल, प्रगट सद एम पुकारें । - अवर भर्व ऊंघता, जगिज्यो मनुष्य जमार। दुखिया रे सिर दड, घड़ि घड़ि आयु घटता । काठ सिर करचती, किती इक वार कटंता । तिण हत चेत चेतन चतुर, धर्मसीख सविशेष घर । सह बात सार संसार मे, कोइक पर उपगार कर । २५।। इड़िया जिम गछली, खाइ बैठो मन खौटे। . गिल ढी हीया गोढ, छेहडै आदर छोट ।
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छप्पय बावनी मुहडै सुपिण मिलै, नाक सु अधिक नाते । बिहु मुहड़ौ बोलतो, खत्त पत्त गिणे न खाते । , व्यवहार शुद्ध व्यापार थी, तजियो सहु लोके तिणै । बोलेंन कोइ इण सुबहुत, इड़ियो फल सरिखा गिण ॥ २६ ॥ चातक नु छै चतुर, सीख सुणि वयणे साचे । पिउ पिउ करे पोकार, जलद सगला मत याचे । के जल थल इक करें, उणा थी पूगै आसा । मरड फरड केइ गरजि, नेटि उडिजाइ निरासा । लहणीये जोग आफे लहिसि, पुरालब्धे पुन्य पापरी । धर्मसीउ कहै धीरज धरे, ओ ही मत छ आपरी ॥ २७ ॥ छात्र तिकौ छावर, दोष गुरु निजरा देखे । पाचा माहे प्रसिद्ध, सुजस बोले सुविशेष । छाप धरै सिर छती, ग्राहकी होइ गुणारो । विद्या तसु वरदायी, उदय वलि होइ उणारो । छल छिद्र ताकिल्ये छीटका, छानो कहै अछती छती । पाचमै तास ऊधी पडै, गुर लोपी सो दुरगति ॥ २८॥ जो हालाहल जों, जोइ मन्मथ रिपु ते । भाल नैत्र महि भर्यो, वले वन अनल वदीतै । शकर ऐही शकति, होइ तोइ रजवट हालण । ससि गिरजा सुर सरित, पास राख तिहुं पालण । तिण रीति सुबुद्धि धर्मसी तिको, धुरा दृष्टि ऊडीधर । जल वालि पालि वाधं जरु, काज रजनीति हि करै ।। २६ ॥
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धर्मवर्द्धन ग्रंथावली
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झडी पडी झुपडी, किया दर उदर कोले । गंधीला गूदड़ा, खाटपिण वंधण खोले । कामणि सोड कुहाड़, कलहणी काली काणी । करती जीमण कर, धान सगलौ धूड धाणी । रोगियो आप माथै रिणो, रोज दुख सुख नहीं रती। मोहनीदेखि धर्मसीमहा, जाणं तोइ न हुजै जती ॥३०॥ बनीयो कहै हुँ निवल, नाम किण ही में न पर्छ । छिप्पो वरग रै छेह, देखि तोइ कहै मुम दुपडु। झगड़ा झाटा माझ झझी सहु वाते झूठौ । पहिली ते हुं पछे, एह किम न्याय अपूठौ । दीस नन्याय भोगवि दसा पड़छो सुदि वदि पख रौ । देखे – साच दाखें दुनी, खाड़ो चादी ए खरौ ।
गर्व
टीटोडी निज टाग, सही ऊंची करि सौवें ।
औ पड़तो आकास, दुनी ने रखं दु खौवं । थाभसि हुं विण थंभि, इसो मन गारव आण । कूअति मो मैं किसी, जीउ मे इतो न जाणं । मोहनी छाक परबसि मगन, ससारी ऐ जीव सहु । ओछो न कोई मन आपरें,
किण किण ने नहीं गरव कहु ॥ ३२ । ठिक्क वचन ताहरौ भली हितकारी भाखें । प्रसिद्ध वर्षे परतीत जास सहु कोड राखें ।
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छप्पय बावनी
मर कौँ कोइन मरें, जीव कहै कोइ न जीव । तोइ खारो जल तजे, प्यार करि अमृत पीवै। गाठिरोकोइन लगैगरथ, सिगलाहुइ जिण थी सयण । धर्म नै कर्म सहु मे धुरा, बडी वस्तु मीठौ वयण ॥ ३३ ॥
डाहो हुइ सो डरै कोइ मत भू डौ कहसी । घर डर कुल डर घणो, सुगुरु डर डाकर कहसी । माण तणे डर मुदै लाज डर करणो लेखें । मावी ता डर मानि, सामि डरकर सुविशेषे । दुरगते दुख परभव डरै, जाण करैं डर नव जिको । धर्मसीह कहै सहु धर्म को, तत्व सार जाणे जिको ॥ ३४ ।
ढीली वात मढाहि पुण्य रो कारिज पडता । ,, , , न्याय सुधो नीवडता । ढीली बात मढाहि बहस सु पडिये बोले । ,, , , ढमकीए वाहर ढ़ोले । सहु कर पूछि आगे सुजस, ढीली तठे न ढाहिजे । आविय दाव औठभता, कुल धर्मसीह कहाइजै ॥ ३५॥
अपनी अपनी
नर मादी निरखि ने, वैद कफ वात वतावे । जो पूर्छ जोतसी, लार ग्रह केइ लगावें । भोपो कहै भूत छ, लोभ वीमासणि लीधौ । जंत्र मत्र रा जाण, कहै कोइ कामण कीधौ ।
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धर्मवद्धन ग्रन्थावली
सभल्ल
मंदवाड़ एक नव नव मता, मूल न जाणे को मरम । कहै साधु अशुभ पूर्व करम, धरि सुखकारी इक धरम ।३६। तीन कोडि तरु जाति, आणि वलि लाख इक्यासी । सहस वार एकसौ, भार इक संख्या भासी । आठ भार ते इसा, फल्या लाभ फल फूलै । भार च्यार विण फले, भार पट लता म करि शास्त्र साखि धर्मसी कहै, भार अढार वनस्पती। विणलीया सुस खाधा बिगर, छह ऋतु मे हिसा छती ।३१ थिर दीसै थि गति, अलग आकाशं उद्धि । पिण पल पल पवन सु, गुडथला खाय गुड्डि । जिण रो न चले जोर, डोर परहत्थ दवाणी । पर सिद्ध कीध पुकार, नेट किण ही मन नाणी । नू न डोर छटै न तिम, ऊची तलफ आफलें । प्राणी इम परवस पड्या, गमियो नर भव गाफिले ॥३८॥
उद्यम
दृहिजे उद्यम दृध, जतन करि दही जमावे । वलि परभात विलोड, उदिम सेती घृत आवै । करि उद्यम सहु कोइ, भला नित जिमें भोजन । खवरि आणे खेपीयौ, जाइ नै के भोजन ।
- अडमहि कोडि सहि लख सतर वलि सहस्स ।
. उपरि मेलौ आठ सौ भार अठार वणम्स । १ ।
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४७
छप्पय बावनी
४७ व्यापारि विणज विद्या विभव,
ज्ञान ध्यान धर्मसीख गिण । सहु काज करण उद्यम सिरै,
विणौँ सहु इक उद्यम विण ॥३६॥ धरिजें मन धीरज हाणि हम करे हा हा । लागा वहै ज लार, हांणि दुख त्रोटा लाहा । भाति अनैं ऊभत्ति प्रगट दिन राति 'पटतर । ऊरौं वलि आथमै निरखि रवि चंद निरन्तर । ग्रह राह परब आयो ग्रसै, परगट देखि पारिखा । किण हीक देइ धर्मसी कहै, सहु दिन न हुवै सारिखा ।४।। नारी विरहणी निरखि ताम कोकिल कुहकी धन । चद त्रिविध पुनि पौन, मदन अति व्यापि लयौ मन । वायस राहु भुयग रुद्र च्यारु अरि लख । तिन कौ करि है नास बहुरि इक बात विशेपें । कोकिला कठ शशधर बदन पौन स्वास पुनि मदन मन । मेरेहु पहुं जिन ज्यान हुइ, लिखि-२ मेटण इण जतन ।। ४१॥ पुण्य पाप पातिसाह चाउ सहु दिसि पग चल्ले । साच झूठ हुइ सचिव, हुस आछु दिसि हल्ले । ज्ञान ध्यान भ्रम गरब, पील चल्ले चिहु पट्ट। शम दम छल बल अश्व, अढी पग फिरै उवट्ट । चखु चलण ऊठ कोणे चलें,
प्यादा गुण मद पग्ग पगि ।
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४८
धर्मवर्द्धन ग्रन्थावली सतरज सजण दुजण सजे,
जोड ख्याल धर्मसीह जगि ॥ ४२ ॥ फल किहा थी विण फूल, गाम विना मीम न गिणजे । गुरु विण न हुवै ज्ञान, विगर पूजो किम विणजे । पिया विना नहीं पुत्र, बुद्धि विण शास्त्र न बूझ । भीत विना नहीं चित्र, सुष्टि विन वस्त न सूम। विण भाव सिद्धि न हुवै, रस विण न कर कोई रुख । शोभा न काइ धर्मशील विण, सतोपह विण नहीं सुख ।।४३॥
२० वर्ण ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य शुद्र, चिहुं वरण सभाली । कदोई कुम्भार कठी मरदनीया माली । तंबोली सुथार ठीक भैसात ठठारू । नव नार इण नाम कहै हिव पाचे कारु । गाछा सुनार छीपा गिणौं, मोची घाची इण महि । धर्मसीह कहै निज निज धरम, समझौ वरण अढार सहि ॥४४॥
धन को सार्थकता भाया भीड भाजता, पोखता उत्तम पात्रे । प्रिया हुंस पूरता जावता तीरथ यात्रे । वीवाहे विलसता दुजण जड़ काढण दावै । संतोष तां सैंण कविय मुख सुजस कहावै । इण आठ ठाम खरच्यो उत्तम, मत चीहा पैं आप मन । साधिजे काज सु क्रियार था, धनधन धर्मसीह सोइज धन ॥४॥
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छप्पय वावनी
४६
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मित्र मिलता मुहा मुह, हेज हियै मिले हीस । पल एक फेरया पूठ, नेह तिल मात न दीसै । आरीसा जिम आज, मीत बहुला जग माहे । कलि चातक जिम कोइ, नेह राखें निरवाह । मेह नै देखि पिउ पिउ मगन पिउ पिउ कहै पर पूठ पिण। कीजीय मीत धर्मसी कहै, गुणवतौ कोइक गिण ॥ ४६ ॥
याचना यश रस सिद्धि बुद्धि सिरी, सदा ए पाच सनूरें । देह वस देवता, दे कह्या नास दूरैं । शोक अने सन्ताप, पिंड आवै परंसेवो । भय कपणि गति भंग, निसत निज लाज न सेवो । ताणतौ माण ताके तिको, ऊंधे मुख सु आगणो । लेखवौ दुरस सगले लखण, मरण सरीखो मागंणो ॥४७॥
IP
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दान
राजा राखें रजा वांगिया प्रसिद्ध वधाएँ । वैरी न करें बुरो, सेवक सहु काम सुंधारै । भाइ सहु है भीर, गुणी जन कीरति गावें ।' स्वासणि छ आसीस, सासरै रह्यो सुहावै । सहु भूत प्रेत ग्रह है समा, सुपात्रे ह धर्मसी सही । देखियो दान दीधौ थकौ, नेट कठे निष्फल नहीं ।। ४८॥
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धर्मवर्द्धन ग्रन्थावली
बुढापा
ल्ये हाथ लकड़ी, लाल मुखि पड़े अलेग्वे । लिच पिचती कडि लाक, लाज मन माहि न लेखें । साभलता धर्मसीख, धीर्य विण माथो धुण । को न गिणे कायढो, खाटले पड़ियो खुण । लघुनीति लोभ लिग लिग लहरि, लाल लीख वलि लाल्हरा। ले आइ साथि साते लला, जिका काइ कीधी जरा ॥ ४६॥
बढना बुरा वैर वध्यो हिज बुरौ, अधिक उपद्रो ह आगे । वध्यो वुरौ वासदे, लाय जिण सेती लागे । व्याधि वधी हिज बुरी, छिजे देही जिण छिण छिण । वाद वध्यो हिज बुरी, खसा खेधौ ह खिण खिण । वधियो रोज सगलौ विसन, धर्मसीख धरिजो धुरा । करिज्यो विवेक ज्युह कुशल, ववा पाच वधिया बुरा ॥५॥
नोति सैं मुख गुरु रै सुजस, प्रसिद्ध कीजे परसंसा ।'' सगा सणेजा सँण, बरणवो पूठा वासा । सेवक री परस स, काम सिर चढया केडे । सहु भाइ परस स, छिद्र कहावण केई छेडे । पूत री परसंस न करें प्रगट, प्रशंम त्रिय धकिया पहें । धर्मसीह राजनीति हिवरे, न्याय विना वाता न छे ।। ५१ ।।
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छप्पय बावनी
खल खल न तजे मन खार, जरा हुई बूढी जोइ । पीलो हुवो पाकि, तूस खारौ फल तोइ ।' बूढी हुओ विलाड़, मूपका तौ पिण . मारे । सखरी द्यां धर्मशीख, धेख जे ,अधिको धारे 1 विष में मिठास न हुवै वली, दूधा ही सू पुट दीया । हठ ताणि आप न गिण हितू कासू तिण सूहित किया॥५२॥
मावटि सीरख सेज, पुजि घर आणे पाणी । धोइ सहु वासण धरै, रुडा चूल्ह रंधानी । पीसण खांडण प्रसिद्ध वले गो दूहि विलोवे। जीमण राधि जिमाव लाज सु जिमैं लुकोवै ।' सिर गुथि विनय संतोयणी, सासू जिठाणी सहू। कुल धर्मशील शोभा करण, बड़े कष्ट जीवें वह ॥ ५३॥
जल हुवै पिंड जल हुता, बेल जल ही ज वधारै । जल सहु रो जीवन्न, सहु ब्रह्मड सुधारै । नीर तहा ही ज नूर, आब तिहा आवादानी । सरस सुभिक्ष सुकाल, प्रघल वरसे जिहा पाणी । धर्मसीह सरब कारण धुरा, अम्बर पृथ्वी पवन अगि । पचभूत माहि अधिको प्रगट, जल उपरात न कोइ जगि ॥ ५४ ॥
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धर्मवद्धन ग्रन्थावली
गृह प्रवेश निषेध लपट तजि प्रौलीयौ निगुण प्रभु नीलज नारी । चौकीदार ज चोर, जोर वर जोध जुआरी । ठिक विण वाभण ठोठ भ्रमी मित्र कायथ भोली। वलि रीसट वाणीयो, दूत बोले डमडोलौ । विन सिद्धि वंद जोसी जडौ, धर्मसीख विण धारण । मानि जो बैंण आणौं मता, बारै ही घर बारणें ॥ ५५ ॥ क्षमावत सौ खरो, सकज हुइ गाल्या सासैं । . नेही तेहिज नेट, बिछड़या मूरै वासैं । पडित तेहिजे परखि, शास्त्र अरथ समझा। ज्ञानी तेहिज गिर्णी, वस्तु पहिली ज बताव । सांकड़े आइ पंडिया सही, सैंण सोइ राखै सरम । दातार छतें ऊंतर न द्य, धीर सोइ न तजें धरम ॥ ५६ ॥
सतरे से सवत, वरस तेपनौ वखाणाँ । श्रावण सुदि तेरसैं, जोग तिथि शुभ दिन जाणा । राजै बीकानेर, सूरि जिणचन्द सवाइ । भट्टारक बडभाग, गच्छ खरतर गरवाइ । श्री विजयहर्ष वाचक सुगुरु पाठक श्री धर्मसी पवर । बावनी एह प्रस्ताव बहु, कीधी छप्पय कवित्त कर ।। ५७ ।।
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दृष्टान्त छतीसी
श्रीगुरू को शिक्षा वचन, दिल सुध धरि निरभ । हितकारण सबकु हुवै, अड़वडताँ औठंभ ॥ १ ॥ हितूआ हितकारी हुवे, वाकी ही कोइ वैण । पारिख रतन परीखता, निरखें वाकी नैण ।। २ ।। . दूपण दीधैं दुरजणे, ओपे कवित असल्ल । लूअ झलक लागते, आवै स्वाद अवल्ल ॥ ३ ॥ दूजा नै सुख देखिने, निपट दुखी ह नीच । सूकै जव्वासो सही, वरिपा जलरइ वीचि ॥ ४ ॥ ध्रमसी कहै वधते धने, त्रिसना वधै अथाग । धुरथी अधिकी धग-धगइ, ईधन मिलिया आगि ॥ ५ ॥ स्वारथ अपणो ना सधे, मित्र धरेता मेलि । माली फल पाम्या पर्छ, काटे पर ही केलि ॥ ६ ॥ मोटारी पिण पाति मै, नान्है काज कराय । काम पड्ये क्यु कोडिया, नाणा में न गिणाय ॥ ७ ॥ बल इकवीस विश्वा-वधइ, एका बीय आइ । पातें बैसै पाधरा, तोइ बारा बल बोलाय ॥ ८ ॥ मुखी सलामत पातिमै, तो सकजा बोले सर्व । तिण ठामै है सून्यथा, तो गयौ सहूनौ गर्व ॥ ६ ॥
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धर्मवर्द्धन ग्रन्थावली पग मेल्हीजें पाधरा, वधीयौ जो बहु वित्त । निज निंदा थी कीध नृप, चीतारी दृढ चित्त ।। १०॥ गुरू निदा करणी नहीं, माठी देखे मग्ग । सेलग गुरू मदवसि सूों, पथग चाप पग्ग ॥ ११ ॥ पाप किया जाये परा, जो पछतावै जोइ । गौसालौ स्वग गयौ, अत समै आलोय ।।१२।। दूजा दिपावै दीप ज्य , आप धरै अधार । पहुचाया शिवपाचरौ, खदक पोते ख्वार ॥१३॥ वल सगलौ बैठी रहै, देव हुवे दुख देण । बारवती नगरी बलै, निरखें केसव नैंण ॥१४॥ करि हितनै पीडा कर, ते तो पुण्य तरक्क । स्वर्ग गयो श्री वीररा, खीला काढि खरक ।। १५ ।। अवसर सभा अटकले, वायक वंद्या संवाद । दूहा दे जीतउ जती, वृद्धोवादी वाद ॥ १६ ॥ सबला री लै पूठि सिरि, निबला रौ रहै नीर। ' चमर शक साम्ही चढयौ, वासौ राखण वीर ॥ १७ ॥ कोप वस कारिज करै, वलि सोचें मतिवत । इन्द्र दौड़ि लीधौ उररौ, बज्र भगति भगवंत ।। १८ ॥ धरम्यानै पिण तजि धरै, सहु वखतावर सीर । इन्द्र चेडा नै अवगिणी, भयौ कोणिक री भीर ॥ १६ ॥ जतन करें जो देवता, कर मिटै नहि कर्म । वीर श्रवण मैं कील के, महापीड हुइ मर्म ॥ २० ॥
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दृष्टान्त छतीसी मोटा ही ध्रम काम मै, अधिकौ करें अदेख । दसारण री रिधि देख नै, शक्र सज्यो सुविसेष ।। २१ ॥ मोटा रे पिण कष्ट मे, जतन नेह सहु जाय । रात रमणी रान मै, नाखि गयौ नलराय ॥ २२ ॥ राज लण माहे रहै, वडा तणी मति वक्र । भरत मारण भ्रात ने, चपल चलायौ चक्र ।। २३ ॥ दान अदान दुहूं दिसी, अधिक भाव री ओर । नवल-सेठ ने फल निवल, जीरण नै फल जोर ।। २४ ।। धरमी जे धरमैं धरे, निसचौ न त नेट । चद्रवतसक ना चल्यो, थिर दिवालगि थेट ।। २५ ।। दिढता धरमै देखिने, भलौ करै सुर भाव । हित जयू देवी हण्यौ, प्रभवा तणौ प्रभाव ॥ २६ ॥ प्रापति हो3 पुण्यरी, वखत खुलै तिण वेल । सगम पायस सग मे, मुनिवर संगम मेल ॥ २७ ॥ दान सराहै देवता, चेला दीध विशेष । मूलदेव नै राजपद, देवै दीधो देखि ॥ २८ ॥ पापी न दुख पाडिजै, तो इ पाप न तजत । 'कालकसूरे कूप मैं, मन सौ मारे जंत ॥ २६ ॥
आप कष्ट अंग आगमै, पडित टालै पाप । सुलस दया पाली सही, पग पोता रो काप ॥ ३० ॥ मुनीसरा सिरि मोहरा, ताजा वाजें तूर । अगज मृति आख्या भरी, श्री शय्यभवसूरि ॥ ३१ ॥
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धर्मवद्धन ग्रन्थावली पण अपणौ नहि पालट, धरमी धीरिज धार । । लाडू हरि लवधइ लह्या, तजिया ढंढण त्यार ॥ ३२ ॥ वृत लीधौ ही वै वृथा, करम उदय अधिकार । ' वरस चौवीस गृहे वस्यो, मुनिवर आद्रकुमार ॥ ३३ ।। पतित थका ही परभणी, गुणी करै उपगार । नर दश दश नंदषेण नित, बोधे वेश्या वार ॥ ३४ ॥ . काम विपम न सधै किम्ही, सो ल्यै शील सुधार । चालणीय करि सीचीयौ, नीर सुभद्रा नारि ॥ ३५ ॥ रे कलियुग गज मत गरज, हुं हिज आज अबीह । तुझ मद उत्तारण तपै, सकजौ जिन भ्रमसीह ॥ ३६ ॥
इति श्रीसदगुरु शिक्षा दृष्टात पत्रिंशिका ।
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परिहां ( अक्षर बतीसी) वतीसी
काया काचे कुंभ समान कहैं क कौ । धाखे घेखी काल सही देसी धको । करवट वहतां काठ ज्यु आउखो कुट। परिहा न धरै तोइ धर्मसीख जीव नट- ज्युनट ॥१॥ खमिर्जे गालि हितूनी इम कहै ख खौ । रीस करी कहै तेह' कहीजे हित रखो । आणा सैंणा वैण सु आख्या उपरें । परिहा धर्म कहै सुख होइ धूों ही धूप रे ॥ २ ॥ गरथ पामी गुण कीजे इम -कहे गगो। साहमी साधु सुपात्र संतोषीजै सगो। लाधि छै जो लाछि कहै धर्म लाहल्यौ । परिहा सची राख्या सैंण अपान स्वाद सौ ॥३॥ घड़ि माहे घडिजाहे, आयु कहै घ घो। अमर न दीठौ कोई जीव अठा अघौ। पहिली को दिन च्यार दिन को पछै । परिहा आखर क़है धर्मसीह सही चालणो अछ ॥ ४ ॥ नेह वधै नहीं नेट, हुए अंगुल ढीहीयै । लुलि नमीयौ तो कामु लोक लजालीये ।
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धर्मवद्धन ग्रन्थावली
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गाठिहीय धर्मसी कहै सुख मतां गिणौ । परिहा औ गुण इणहिज ड डि यो आमण दूमणौ ॥ ५॥ चकवा ज्युचल चित्त, न हूजे कहे चचो । पर वसि प्रीति लगाइ तलफि के क्यु पचो। सिरज्यो है सम्बंध किसु हा हा किये। परिहा धीरज धर धर्मसीह रखे हारे हीये ।। ६ ॥ छक देखि खेलीजें एम कहो छ छै। पछतावो जिण काज सही न हुवे पर्छ । आखर जे धर्मसीह हुवै उतावला । परिहा विणसाडे निज काज सही ते वाउला ।। ७ ।। जोवन जोर गिणे नहीं केह. कहै ज जो। गरव चलें ता सीम हुवे देही गजी। धीरो रहे धर्मसी कहै हासी होइसी। परिहां जोबन बीते कोइ न साम्हो जोवसी ॥ ८ ॥ झगड़े म करै झूठ, कहै छै युझ में। द्य नहीं कोई साखि दुखे देही ढझे। कूडे की परतीत न, साचो ही कहै । परिहा रागा बिना धर्मसी कहै चेजो क्युरहे ॥ ६ ॥ न धरो तिण सुनेह, मिले नहीं जे मुखै । दुपडौं दीस दूर, अनें बोले दुखै । आखर एह अछे जो इणहिज वेतरो। परिहा चीतारै नहीं कोई बबयो भाट चुलेतरो॥१०॥
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परिहा (अक्षर बतीसी) बतीसी ५६ टलिये नहीं विवहार, ग्रही निज टेक रे। वात सहु नौ दीसे एह विवेक रे। निखरौ ही धर्मसी कहे ल्यो निरवाह रे। परिहा महादेव विप राख्यो ज्यु गल माहि रे।। ११ ॥ ठाम देखि उपगार करो कहियौ ठठे। . तत्त तणी तू बात म नाखि जठे तठे। कीजै नहीं धर्मसी उपगार कुजायगा। परिहा सीह नी आखि उघाड्या सीह ज खायगा ॥ १२ ॥ डेरा आइ दीया दिन च्यार कहे डडौ। गयो हस तब काय बलो भावै गडौ । वाय वाय मिल जायें, मट्टी मट्टीया। परिहा खूब किया धर्मसीह, जिणे जस खट्टीया ।। १३ ।। ढंढो ढाढस लागि, दोस मिस कहै ढ ढो। " पारद गोली पाक करौ पोथा पढ़ो। जंत्र मत्र बहु तत्र जोवो जोतिष जडी। परिहा घाट बाध धर्मसीह न होइ तिका घड़ी ॥ १४ ॥ नहु लघीजै लीह, एक मावीत री। राखीजे वलि लीह सदा रज रीति री। ईस तणी इक लीह धरो धर्मसीह अखी। परिहा राणे आखर न्याय त्रिणे रेखा रखी ॥ १५॥ तत्त जाणी इक बात तिका कहै छ त तो। माया. संचै सुव तिको खोटी मतो।।
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धर्मवर्द्धन ग्रन्थावली
खाडि गाडि राखी ते कोइ खायसी। परिहा थेट नेट धरती में धूड़ ज थायसी ।। १६ ।। थिर न रही जगि कोइ इसो बोले थ थो। फोगट फिरि फिरि काइ माया जालें फथो । टलै केम धर्मसीह कहै आयौ टांकड़ो। परिहा माडी आप जंजाल उलूधौ माकडौ ।। १७ ॥ देइ आदर दीजें दान कहै द दी। माणस ( धर्मसी कहै आदर सुमुदौ । पाणी ते पिण दूध गिणो हित पारखी। परिहां आदर विण साकर ही काकर सारिखी।। १८ ।। धरौ सीख मोटानी एम कह्यो ध धै। वालक जीव्या हंस पड्या घाजे वधै। शुकै दीधी सीख कढ़ी काना तलै । परिहा राज गमाइ गयो बलिराइ रसातले ।। १६ ।। न करो मन मे रीस कह छै युन नौ। मानी छै जो रीस तोइ वइगा मनो। ताण्या अति धर्मसीह कहै तूट तणी । परिहा राइ पड्यां मन मोती जाइ न रेहणी ॥ २० ॥ परदेसी संप्रीति म करि कहीयो प पे । जोरै उठी जाय तठा सं तन तपे । बार बार चीतारै धर्मसी बत्तियां । परिहा छटै नयणा तीर भराय छत्तिया ।। २१ ।।
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परिहा (अक्षर बतीस) बतीसी फल दीध फल होइ कहै छै युफ फौ । निफल पहिली हाथ किसुं आणे नफो । सेवा कीधा ही ज सही कारिज सरै। परिहा दाखै धर्मसीह दिल्ल ठरें तो द्वाफुरै ॥ २२ ॥ बोल्या मोटा बोल किसुं कहियो बवे । दीसें आयौ दाव तठे नचो दबै । साच नहीं जिणरें मन तिणसं सरम सी । परिहा धैठे माणस सुं हित केहो धर्मसी ॥ २३ ॥ भलपण कीजै काइक एम कहो भ भौ । लोका माहे जेम भली शोभा लभौ । जीव्या रौ पिण सार इतौ हिज जाणीय । परिहा उपगारे धर्मसी कहै काया आणीय ॥ २४ ।। मित्राइ रो मूल कहै धर्मसी म मौ । नयणे देखौ मित्र तरै पहिली नमौ । दीजे लीजे कहीजे सुणीजे दिल्ल री। परिहा खावै तेम खवावै प्रीति तिका खरी ॥ २५ ॥ या यौ कहै यारी करि तिण हीज यार सु। पडीया आपद मॉहि बुलावे प्यार सु । पूरी प्रीतो ते जे तलफ तिण पगा। परिहा सुख मे तो धर्मसी हुवे सहु को सगा ॥ २६ ॥ रक राउ इक राह चलै बोले र रौ । द्वेष राग धर्मसी कहै एता क्यु धरौ ।
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६२ धर्मवर्द्धन ग्रन्थावली
एता नव नव रग बणाव अग सु। परिहा राख सहुनी होस्यै एकण रंग सु॥ २७ ।। लोभ गमावै शोभ कहै छै यु ल लौ । भाख लोक सहु को लोभी नहीं भलौ । लालच वसि धर्मसी कहै थोडो लग्गीय । परिहा मान महातम मोह रहै नहीं मग्गीय ॥ २८ ॥ वात घणी वणसाड हुवे कहै छै व वो । निखरी नीकलि जाइ उदेग हु भयो । बहु गुण छै धर्मसी कह थोड़ो बोलीय । परिहा थोडी वस्तु सदाइ मुहगी तोलीय ॥ २६ ॥ शीख न माने सुआलारी को सही । कलियुग माहे बँडै री पृथ्वी कही । आंकत्रीयो ते लाठी ले ने उरडियो। परिहा मान्यो अखरा मे पिण शशियो कोठा मुरडियो॥३०॥ क्षेत्र सहे खण धार खरै रिण नाखिस । खेले खीले वास खले खेत्रे खन । पेट काज धर्मसीह इता दुख पाडीयं । परिहा फाड्यो पेट सुन्याय ख खे फाडीय ॥ ३१ ॥ सत्त म छाडौ सैंण कह्यो छे यु समै । कष्ट पडे ते ईस कसोटी मे कस। जोवो सत्ते सिद्धि हुइ विक्रम जिसी । परिहा साको राखे सोइ सही कह धर्मसी ॥ ३२ ॥
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परिहा (अक्षर बतीसी) बतीसी हरखै हियो जिण नै देखि कहै ह हो । पूरव भव री प्रीति कइ तिणसें कही। हेत कहै धर्मसीह - छिपायौ ना छिपै । परिहा चुवक मिलिया लोह तुरत आवी चिपै ।। ३३ ॥ संवत सतरसार वरस पेंत्रीस (१७३५) में । जोड़ी अखर बतीसी श्री जोर में । विजयहरष जसवास सुलोका मे लहै । परिहा करि कंठ प्रस्तावी, धर्मसी जे कहै ।। ३४ ॥
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सवासो सीख
श्री सदगुरु उपदेश सभारो, धर्मसीख ए सुबुद्धि धारो । विधि सह माहि विवेक विचारो, सगला कारिज जेम सुधारोश प्रथम प्रभाते शुभ परिणाम, नित लीजे श्री भगवंत ना नाम । धणी रा स्वामिधरम मे रहिजें, कथन न मुख थी झूठ कहिजै ।। धरम दया मन माहे धार, अधिको सह मै पर उपगार । वात म करि जिहा वसिवौं वास, वैरी नौ म करे विश्वास ॥३॥ वरजे सन स ठामि व्यापार, चालें अपणे कुल आचार । माइतारी आण म खंडै, मोटा सेती हठ म मंडै ॥४॥ झगडे साख म देजे झूठी, आप वडाइ न करि अपूठी । म लडे पाडोसीसु मूल, अपणा सु होजे अनुकूल ॥॥ सजि व्यापार तु पुजी सारू, अटकलि ठाम देइ उधारू । रखे वधारे ऋण नै रोग, लखण लीजै ज्यु हसै न लोग ॥६।। वसती छेह म करिजे वास, पापी रै मत रहिजै पास । ऊचौ मत सूए आकाश, वित्त छतै म करै देखास ॥७॥ दिल रो स्त्री ने भेद न दीजै, कदे ही साम पंथ न कीजे । सुत भणावे डर डाकर साधे, म चाढे लाड म मारै माथै ॥८॥ नान्हा ते मत जाणे नान्हा, छिद्र पराया राखे छांना । अधिकारी म करे अदिखाइ, भंभेरे मत भूप भखाइ ।
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सवासो सीख राजा मित्र म जाणे रंग, सुमाणस रो करिजे संग । काया रखत तपस्या कीजै, दान वलै धन सारु दीजै ॥१०॥ जोरावर सु मत रमे जुऔ, करिजे मत घर माहे कुऔ । वढा सुमत करजे वैर, गालि बोले तो ही न कहै गैर ॥११॥ नारि कुलक्षण नै धन नास, हलकौ पडीयो पाम्यो हास । अति पछतावै चित्त उदास, पच मे पाचे मत परकास ।।१२।। अमल न कीजै हो. अधिका, दरा करीजै घर मे विधिका । गरथ परायौ तुमत गरहे, निखरै पाडोसै पिण न रहे ॥१३।। दोड विढ़ता एकलौ मत देखे, धणीनै बुरौ म कहिजे घेखे । जूपे मत मोटा नी जोड़े, छोकरवाद री रामत छोड़े ॥१४॥ गाम चलता सुकन गिणीजे, हणतौ विण किणही न हणीजे । विण ग्रहण दीजे मत व्याज, निश्च वरस नो राखे नाज ॥१५॥ दुसमण ने दुसमण मत दाखै, रीस हुवै तोही मन राखे खत्त लिखावै मत विण साखे, माण पोता नौ गालि म नाखे ।१६। लाज न कीजै नामै लेखे, वद्धार परतीत विशेषे । धरिजे मेल ज गाम धणी सु, इकतारी कर अपणी स्त्री सु॥१७॥ चलता वसता सहु ची चीतारे, वाल्हा सैण मता वीसारे । जवाव करतौ रातै जागै, न हु सुइजै अगे नागे ॥१८॥ जे करतो हुवै चोरी जारी, उण सु अति नहीं कीजै यारी । वसत न लीजे चोरी वाली, लू वै मत तुनिबली डाली ॥१६॥ दे फुका म वुझावै दीवौ, पाणी अणछाण्या मत पीचौ । . छीक कीया कहिजे चिरजीवो, रुस्यौ मनावे फाटो सीवी ॥२०॥
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धर्मवद्धन ग्रन्थावली
म करे रवि साम्हो मल मूत्र, लखण म करिजे लावा लूत्र । पाप तजे तु सकले पूत्र, सांभलिजे शुभ शास्त्र मूत्र ॥२१॥ मुंडा सुपिण करे भलाइ, परिहरि पाचे जेह पलाइ । वैठा बात करें वेइ जी, तेड्या विण तिहा म हुवे तीजी ।।२२।। कारिज सोच विचारी कीजे, खता पड़या ही अति मन खीजे । सुधयं काम कहे सावास, न करे याचक निष्ट निरास ।।२३।। न करे मूल किण हि री निंदा, छावीजें वलि गुरु रा छंदा । नाम लोपी ने न हुनें निगरा, नवि थापीजे कीड़ी नगरौ ॥२४|| आदर दीजे माणस आये, जिहा नहीं आदर तिहां मत जाये ! हसजै मत विण कारण हेत, कपड़ौ पिण म करे कुवेत ।।२५।। बहु विषमे आसण मत बेस, परघल अणजाण्या मत पेसे । पाणी अति ताणीय न पीजै, सारौं ही दिन सोइ न रही।।२।। वाधे मत मल मूत्र अवाधा, खाजे मत फल जीवा खाधा । वसत पराइ मतिय विछोड, छानी पर नी गांठ म छोड़ ॥२७॥ जिमिर्ज अगले भोजन जरीय, शत्रु न हुजै कारज सरीय-। , पेने मत अण कलीय पाणी, तोडे प्रीति अता मति ताणी ||२८|| . घर मे मत खा फिरतो घिरतो, न कहे मरम बोलीजे निर तौ। तारुसु मत तोड़ तिरतो, वडा र काम म थाए विरतो ! पंथ टल तब लीजें पूछ. मोटा साम्ही म मौडे मुंछ। तुच्छ वचन स कहै तुकार, मत वेमै वलि ठासणी मार ॥३०॥ , भोजन उपमा म कहे मुडी, अपनी जाति विचारे ऊंडी। जिग साभलतां उपजे लाज, एहो म कहे वैण अकाज ||३||
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सवासो सीख
कीजे नहीं पग पग कचाट, अणहुँतौ उपजे ऊचाट । माहिला सु न हुजे मन मठुइ, हाणि न कीजे अपणे हळु ॥३२॥ टेढ़ा न हुजे जंगी टट्ट, ललचाये मत थाए लट्ट । पडित मूरख कीजै परिखा, सगला ने मत कहिजे सरखा ॥३३॥ न कहें फिर फिर अपणो नाम, ठिक सु बेसे देखी ठांम। सुब नो नाम न लेइ सवारौ, कोई हुसी अणहुँतौ कारो॥३४॥ वरजे पर ही वेट वेगार, आप वसे जिहा है अधिकार । दुटपी वात कहै दरबार, सहु नौ समझीजैं तत सार ॥३१॥ सीख सवासो (१२५) कही समझाय, साचवता सहुनै सुखदाय । थिर नित विजयहर्ष जस थाय, इस कहै श्रीधर्मसी उवमाय ।।३।।
गुरू शिक्षा कथन निसाणी
इण संसार समुद्र को ताक पेलो तट्ट ।
सुगुरू कहे सुण प्राणीयां तु धरिजै धर्म वट्ट ।। १ ॥ सुगुरू कहै सुणप्राणिया, धरिजै धर्म वट्टा ।
पूरव पुण्य ' प्रमाण तें मानव भव खदा।। हिव अहिलौ हारे मता, भाजे भव भट्टा ।
लालच मे लागै रखै, करि कूड कपट्टा ॥ २॥
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धर्मवद्धन ग्रन्थावली उलमैं नौ तु आप सु ज्यु जोगी जट्टा ।।
पाचिस पाप संताप मे ज्यु भोभरि भट्टा । भमसी तुं भव नवा नवा नाचे ज्युनहा ।
ऐ मंदिर ऐ मालिया ऐ ऊचा अट्टा ।। ३ ।। यवर गयवर हींसता, गौ महिषी थट्टा ।
लाछ टु लीपी झं वका पहिंग सु घट्टा । मानिक मोति मदड़ा परवाल प्रगट्टा ।
आइ मिल्या है एकठा जैसा थलवट्टा ॥ १ ॥ लोभे ललचाणा थकी, मत लागि लपट्टा ।
काल तक सिर उपरै करसी चटपट्टा ।' ले जासी इक पल में ज्यु वाउ छलट्टा ।
राहगीर सध्या समै सोवे इक हट्टा ॥ ५ ॥ दिन उगो निज कारिजे जाये दहवट्टा ।
त्युही कुटंव सर्व मिल्यौ मत जाणि उलट्टा । एहिज तो कु काढिसी करि वेस पलट्टा ।
साथि जलैगे बपड्ड दुइ चार लकुट्टा ॥ ६ ॥ स्वारथ का संसार है विण स्वारथ खट्टा ।
रोग ही सोग वियोग का सवला संकट्टा । दान दया दिल मे धरो दुख जाइ व्हट्टा ।
धरम करो कहै धरमसी सुख होड सुलट्टा ॥ ७ ॥
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वैराग्य निसाणी
काया माया कारिमी, चिहुं दिन तणी चट्टकि,
इण माहे तु आत्मा, उलझे रखे अटक्कि ॥ १॥ इण माहे तु आतमा उलझे न अटक्कि,
पहिली तो पोता तणी, करि शोध घटकी। कूड़ धूड़ री कोथली मद मैल मटकी,
झाली मूढे पंडिते, झझेडि झटक्की ॥२॥ जोध विरोध वृथा करै, कन्है काल कटकी,
मान मछर मन जाणि मत, मृति नैण मटकी। . ठग माया झूठी ठटें खल रूप खटक्की,
फोगट जाइस फु कि तुस जाइ फटकी ।। ३ ।। एकणि लोभै आवता छए जाय छटकी,
धरम सरम हित धीरता गुण ज्ञान गटकी । मन मातै मृग ड्यु भमै, व्रग साथि वटक्की,
पर निंदा क्षेत्रे प. हिव राखि हटकी ॥४॥ नाच्यो वेसे नव नवे धरि रीति नटक्की,
पुण्य नर भव पामियो भवे भव भटक्की। सुगुरू वचन सहकार री लुलि लुवि लटक्की, .
इण विलग्या सुख फल अवल त्रुटे न टक्की ॥५॥
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धर्मवर्द्धन ग्रन्थावली
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नंदे माया मेलवी पिण नेट न टिक्की,
वाविसु क्षेत्रे ज्यु बले व रीत्ति बटक्की । श्रीधर्मसी कहै ज्ञान री अमृत गुटक्कि,
पीयां दुख जाये परा, सुख होई सटक्की ॥ ६ ॥
उपदेश लिहाणी मोह बसे केइ मानवी, माड्या घोलमघोल,
गमियो तर भव गाफिले, वयविन धरम विटोल १|| विण घरमे ते जीवड़ा, वय सर्व विटोली,
दस मासां थिति उदर री, बहु दुख से बोली। कोडि अठावीस कट तें खमिया इण खोली,
जनम्या दुख हुंता जिके, मूल्या भ्रम भोली ॥ २ ॥ मातां धोतां त्रमल, मुलरायो झोली,
हालरि हुलरावियौ, हीडोल हिचोली। बलि रमीयौ अठ दस बरस तु बालक टोली,
परणाची तु नइ प, दयिता हुइ दोली ॥३॥ मगर पचीसी मांणतो, करै काम कल्लोली.
गाहड मे वुमे घगु . गिलि मफरा गोली।
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वैराग्य सझाय
७१ धन खाटन धपटै धरा, धंधै धमरोली,
- लेता देता लालचे लुब्धो लपचोली ॥४॥ मावीता ही ना मनै दुख द्य ढंदोली, '
गरदै न सरे का गरज नाणे विण नौली। परहा सडिया पान ज्यु तजीया तंबोली,
पूता नवा नव पान ज्यु पाले पपोली ॥५॥ . छहु रितु मद मातौ छिल, छवि छाका छोली,
अफल गमावै आउखो, ठाली ठग ठौली। उडिसी सास अचाणरौ डिगसी डमडोली,
आभ्रण सगला ले उरा कर काया अडोली ।६।। फूक्यो लकड़ फूस मे, होइ जाणे होली,
' विण झाने इण जीव री, वय सगली बोली। आदर पर उपगार हिव मन आणि इलोली,
सुखदाइ धर्म सीख सुणि तत लीजै तोली ॥ ७ ॥
वैराग्य सझाय ढाल-मुरली वजावै जी आवो प्यारो कान्हजोवनीयो जायै छै जी लेज्यो काइक लाह। परवत थी उतरतौ पाणी, कहो फिर चढ़े न काह जो० ॥१॥
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___ ७२ धर्मवद्धन ग्रन्थावली चित्त धरज्यो धर्म चाह, यौवनीयौ ॥आकणी।। च्यार दिना री एह चटक छै नेट नहीं निरवाह जो यौवन रूप अथिर ए जाणौ, ज्यु वीजली जल वाह ॥जो॥२॥ भव इण जो तुकरिस कमाइ, (भलाइ) तौ सहु करिस्य सराह । बल चलिस्य नहीं आये बूढापा, रोक चंद ज्यु राह ॥जो॥३॥ पाको पीलो पान पीपल नो, थिर न रहै इक थाह जो०।। ज्यु आया त्यो सगला जास्, सिरखा रंक पतिसाह ॥जो॥४॥ रग पतंग तणे मत राचौ, काचौ घट कलि माहि ॥जोगा कहै धर्मसी भलपण करिवा, आदर करज्यो उमाह ।।जोकाशा
वैराग्य सझाय
करिज्यो मत अहंकार ए तन धन कारिमा,
हिव लही नर अवतार तु आले हारि मा। बावरीयउ नहीं हाथ जिणड इण वार मा,
माणस हुइ ढस मासे मारी भार मां ॥ १ ॥ आचरिज्यो उपगार तरुण वय आज री,
दिन दिन जास्ये देह जरा ये जाजरी। उठणन हुस्य आय काय किण काजरी,
सत्त नहीं नहीं स्वाद ज्यु बोदी वाजरी ॥२॥
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वैराग्य सझाय ठगै काल आउ धन किम करि ठाहरै,
सिंहा री जिम छानो माखण साहरैं। कोइ जाणे नहीं ले जास्यै काह,
बैगा होइ चढो हिव किण हिक बाहरै ॥ ३ ॥ दोइ दोइ तरवार कटारि दावता,
जोरावर जोधा करै जे जावता । करता मौजा फौजा माहि फावता,
. सुभट तिकौ पिण काल न राख्या सावता ॥४॥ जड़ीयउ कुविसन जीवज्यु तणीए ताकड्डी,
फैलैं लोका माहि कुजसनी फाकडी। पापै तो पिण राचि रह्यौ हठ पाकड़ी,
पीती दूध बिलाड़ मिणे नहीं लाकड़ी ॥५॥ जीव जंजाले उलझ्यो ज्यु जोगी जटा,
पाचें पाम मझार ज्यु भोभर मे भटा । नाणे मन में धरम कर साटा नटा,
घेरी जास्य काल जेम वाउलि घटा ॥६॥ भव भव भमते परंवसि प्राणी बापडे,
__ कोडि सह्या जो कष्ट सूजी वसि कापडै । विलवे जीव घj ही तलफ तापडे,
आखर अपणी कीध कमाइ आपडे ॥ ७ ॥ परने वचे सचे पोते पापरो,
ए तु पोखे पिंड नहीं ते आपरौ ।
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७४
धर्मवद्धन ग्रन्थावली खोटो चोर वसे जिण मै मन खापरी,
तप हथियारे तोडि तुतिण रो टापरौ ॥ ८ ॥ सुहिणा माहे राक हुऔ राजा सही,
मन माहे खुसीयाल हरष मा- नहीं । मोजे पहिल्या माणिक मोती मुदडा
__ जागी जोवै गोढ़े घर रा गूदड़ा ॥ ६ ॥ जुड़ियौ तिम संवध सहु सुहिणा जिसौ,
वीखरता नहीं वार गरथ गारव किसौ । देइस जोतु कान सुगुरू वचना दिसौ, .
तो दुख नहीं जिण ठाम लहिस थानकतिसो १८ क्रोध मान माया वलि लोस मता करो,
दान शील तप भाव अमल मन में धरौ। विजयहरप जसवास सु लोकां मे वरो,
धरमसीह कहै एक धर्म मन से घरो ।। ११ ।।
हितोपदेश स्वाध्याय
राग सामेरी चेतन चेत रे चलि मा चपलाइ, सुगुरु कहै छ साची । संबल काइक लेजो साथे, काया घट छै काचौं । चेतन । १ ।
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हितोपदेश स्वाध्याय पूर्व पुन्यइ नर भव पायौ, उत्तम कुल पिण आयो। सगली बात विशेष समझ्यौ, सुक्रत सच सवायो। चे०१२॥ बहै जीव वलि झूठौ बोले, राखै पर धन राचैं। मैथुन सवे परिग्रह मेले, परिहरि आश्रव पाचे । चे०३। च्यार कपाय तिके चकचूरौ, बंधन बोडो बेही । कलह कलंक न करि तु निंदा, करै अरति रति केही । चे०।४।। परिहरि तु परही पिसुनाइ, माया मोस म धारै। मन माहे मिथ्यात न आण, ए छै पाप अढारै । चे०।५। म रमे जू आमिष मदिरा, बलि वेश्या नी वाते । आहौडौ चोरी पर स्त्री, सबला कुविसन साते । चे०। ६ ।. बाइ माइ आई वावउ, संहु संसार सगाई। स्वारथ काज सिल्या छै सगला, साथै धरम सखाइ । चे०१७॥ सामइ भेला आइ सराहइ, हेकण हाटइ हूया। परभाते पौताने पथे, जाय सहु को जूआ । चे०। ७ । जोरै रीस रहै छै जलतो, तल तौ छाती ताती। जोता जोता में जलि जासी, वीतइ तेलइ वाती । चे०।६। सींग माडइ छइ सहु सु साम्हा, ऊंची रहै छै ऊडी। तूटी झोरि किहा ही पडसी, गुडथल खाती गूडी । चै० । १० ॥ मोस लोक घणा करि माया, वगलौ होइ अबोलो। दोलै ताकि रह्यौ छै दुस्मण, सीधे हाथ गिलौलौ । चेक लोभ लागौ खाय नै खरचै, राक मनै लछि राखी। घाटो मिलीयां हाथ घसेलौ, महु त्रुटै जिम माखी । ०। १२ ।
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धर्मवद्धन ग्रन्थावली जतने राखीजै जीवाणी, पाणी छाणे पीजै । सहु ठामै परिणाम दयारा, रूडी विधि राखीजै। चे० । १३ । दया धरै ते न हुवै दुखोया, विनय किया जस वारू । सद्गुरू सीख कहै छै सखरी, साचवणी तुम्ह सारू । चे० । १४ । सहु ससार अथिर समझी ने, कोई प्रमादम करिजो। विजयहरप सुख साता वंछो, धरम सीख चित्त धरिज्यौ ।चे०१५॥
सप्त व्यसन त्याग सझाय
ढाल-चतुर विहारी रे आतमा सात विसन नौ संग रखे करौ,
सुणि तेहनो सु विचार । विवेकी । सात नरक ना भाइ सातए,
आपइ दुख अपार । विवेकी सा० ॥ १ ॥ प्रथम जूआ नै विसन - पड्यां थका,
पाडव पाच प्रसिद्ध । विवेकी । नल राजा पिण इण विसने पड्यां,
खोइ सहु राज ऋद्धि । विवेकी सा० ॥२॥ वीर्जे मास भखण अवगुण घणा,
करि पर जीव संहार। विवेकी ।
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सप्त व्यसन त्याग सझाय
महाशतकनी नारि रेवती,
- नरक गइ निरधार। विवेकी सा० ॥३॥ तीजी मदिरापान व्यसन तजि,
चित्त धरी वलि चाहि । विवेकी सा०। दीपायन ऋपि दूहव्यो जादव,
द्वारिका नो थयो दाह । विवेकी सा०॥४॥ चौथे विसने वैश्या नै वस,
लोक में न रहे लाज विवेकी। कयवन्नादिक नौ गयौ कायदौ,,
कुविसन विणशै काज । विवेकी सा० ॥५॥ पाप आहेडे कुविसन पाचमै,
प्राणी हणिय प्रहार । विवेकी । मारी मृगली श्रेणिक नप गयौ,
पहिली नरक मंझार वि० सा० ॥६॥ छठे चौरी नै कुविसन करी,
__ जीव लहै दुख जोर । वि० । मूलदेव राजाये मारीयौ, ।
चावौ मंडक चौर । वि० । श० ॥७॥ परत्रिय सगत कुविसन सातमै,
हाणि कुजस बहु होइ । 'वि० । राणे रावण सीता अपहरी,
- नास लंका नो रे जोय। वि० । सा०।८।
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७८
धर्सवर्द्धन ग्रन्थावली
इम जाणी भव्य प्राणी आदरो,
सीख सुगुल नी रे सार । वि० । इण भव पावइ आणद अति घणा,
, कहै धर्मसी सुखकार । वि० । सा०॥६।।
--- - तस्वाक त्याग सहाय
ढाल-अाज निहेजो दोसै - तुरत चतुर नर तम्बाकू तजी, इण से दोग अनेक । विरती करौं पाछौ मन वालिने, वारू धरिय विवेक ।। तुरत स्वाद नहीं इण माहै सर्वथा, माहै नहीय मिठास । दूपण देखे तो पिण नवि तजे, पडियौ विसन नै पास ।२। तुरत० कुटर एह अछी छकायनौ, सुस करौ मन शुद्ध । पोत पुण्य हुवै तो तुम पियौ, दही घृत साकर दूध ।३। तुरत० होठ विन्हे दात काला हुवं, वलि मुखि भुडी वास । वले तम्बाकू तिम छाती बलै, सोपाय तिम स्वास ।४। तुरत० नइ एठी मुख घालै नविगिणे, काइ जात कुजात । पर नौ थूक तिको मुह मे पड़े, विसन तणी ए बात ५तुरत?
___ढाल (२) कम परिक्षा करण कु वर चल्यो । राहनी। सूक्ष्म पाचे काय संसार में रे. ठावा सगली ठाम । धुझे करिने तेह धुखाइये रे, अधिकी हिंसा छ आम । तुरत०
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तम्बाकू त्याग सझाय वनस्पति फुलणि वरसात मे, उत्पति जीव अपार । पाणी तम्बाकू नौ जिहा पडरे, सहुनो होइ संहार । तुरत चिलम भरै हाथा सुचोली नै रे, अंधारा में आइ। केइ कीड़ा माखी कथूआ रे, माहि घणा मसलाइ ।८। तुरत जाण नहीं छै तुहिव जीवड़ा रे, प्रकट करै छै पाप । वैर पौतानी ए सह वालिस्य रे, ए दुख सहिस तु 'आप हा तु० तोवाक छै नाम तेहनै रे, तंबाखू वलि तेम । नाम तणौ पिण अरथ भलौ नहीं रे, कहौ पीवे गुण केम ।१०। तु० बजर पीय ते बजर हीयो हुवै रे, वज्र करमी कहिवाय । । बज्रलेप लेपाय ते वली रे, नाम दियौ वज्र न्याय ।११तु० पर न आदर करि नै पावता रे, पापै भरियै रे पिड । आरंभ ते पिण लागै आपने रे, पछइ अनरथ दड 1१२॥ तु० पुन्य सयोगे नर भव पामियौ रे, श्रावक नौ कुलसार। . विसन तम्बाकू नो तुम्है वारज्यौ रे, इण मे पाप अपार ।१३।तु० एसाभलि नै कांइक ओसर रे, जेह हुवै भव्य जीव । धर्मनी सीख धरौं कहै धर्मसी रे, ज्यु सुख लहौरे सढीव ११४/तु०
--:०:३:०:
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रात्रिभोजन सझाय
ढाल-केसरीयौ हाली हल खड़े हो कर जौडि कामण कहै हो, कंत भणो सुखकार । भोजन रात्रि नहीं भलो, इण माहे हो इण में दोप अपार । पिउ रात्रिभोजन परिहरौ हो,
सहु माहे हो सहु मे ए धर्म सार पि० वलि मन सु हो मन सु जोइ विचार । पिउ ।। १ । आहार मांहे आवता हो, जीव इता दिन ज्यान । कीड़ी तो निरवुद्धि करे,
बलि माखी हो माखी वमन विधान । पि० ॥२॥ कोड करें कुलियातड़ो हो, जुअ जलोदर जेह । कांटी फाटो काकरो, तिम वीधै वीधै हो तालुओ तेह पि०॥३। आवी चाल गले अडै हो, साद रहै ग्रहै सोप । जोवी थे निस जीमता, ए तो दीसे हो दीसे
परतिख दोष । पि० ।। ४।। पंच महाव्रत पाखती हो, ए छट्ठो व्रत अन ।। पालै जेह भली परे, जगि जाणो हो जांणो ते शुद्ध जैन विकास शिव पिण ते चौमास मे हो, जीमैं नहीं निशि जाण । इण व्रत लाभ घणो अछ, इम अधिकै हो अधिको हिज
फल आण । पि०॥६॥
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औपदेशिक पद साभलिय शिव शासनै हो, सहु मान्या नहीं सु स । वनमाला लखमण भणी,
इण सुसै हो दीध विदा भली हूस । पि०।७।। सूरज आथमिय ही हो, अभख समौ अनपान । व्रत पाले मन वालि नै सुख पामै मोक्ष प्रधान । पि०।८। हितकारी सहु मे हुवे हो, एह भलौ उपदेस । श्रीधर्मसी कहै साभलौ,
ग्रहि लेज्यो हो लेज्यो ड्युगुरू सेस पि०।६।।
औपदेशिक पद
( १ )
राग--ौरवी ज्ञान गुण चाहै तो सेवा कर गुर की ,
घृत नाली जैसी जाकी गाली धुरकी। • कोउ पढौ हिन्दुगी को कोऊपढौ तुरकी , इक गुरू संगकुलफ खुलै उर की। १ । ज्ञा० । जानतौ न अच्छर सो जान वानी सुर की , प्रगट वचनसिद्धि सिद्धि शिवपुर की। २ । ना०
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धर्मवद्धन ग्रन्थावली
दिन सुध भजि तजि सुर का दुर की। धर हित धारि घरमसीख धुर की । ३ । जा० ।
राग-वेलाउल
सुग ग्यानी सभालतु अव आप्पा अप्पणा ; निसनेही सु नेह सौ विनु त्रेहै वपणा । स्वारथ को संसार है सुख जैसा सपना , च्यार घड़ी की चटक है ज्युतिलका तपना । २ । सु० । धीरज आऊ छिन छिन ज्यु करवत कपना ; धरि सुबुद्धि श्रीधरमसी थिर शिव पद थपना ।। सु०।
राग-वलाउल
गुणग्राहक सो अधिको ज्ञानी, अवगुण ग्रहिवो सोइ अग्यानी अवगुण गुण रहइ एकहि आश्रय,
पिण विष तजि करि अमृपान । १ । गु० । परनिंदा करिके तु प्राणी, मल सुमुख क्यों करे मलान , अपनी करणी पार उतरणी,
तु क्यु फोगट करैय तोफान । २ । गु० । दूर सु ड्रगर वलती देखें, पग तल जलती क्यु न पिछान , धर्मसीख जो इतनी धारै, तो हुइ तेरै कोडि कल्याण । ३ । गु० ।
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औपदेशिक पद
( ४ )
राग वेलाउल, अलहीयउ मूढ मन करत है ममता केती। जासुतु अपणी करि जाणत, साइ चल नहीं सेती । १ । मू० । माया करि करि मेलत माया, काणी करत कुवेती।। देखत देखत आए परदल, खाइ गए सब खेती । २ । मू०। पल पल पवन सुउलट पलटसी, रहत न थिर ज्यु रेती। धर तुरिद्धि घरमवरधन की, या सुखकारक जेती। ३ । मूछ।
राग-रामकला मेरे मन मानी साहिब सेवा । मीठी और न कोइ मिठाइ, मीठा और न मेवा । मे० । १। आत(म) राम कली ज्यु उलसे, देखण दिनपति देवा । लगन हमारी यों सो लागी, रागी ज्यु गज रेवा । मे०।२। दूर न करिहुं पल भर दिल तें, थिरयु मुहरी थेवा । श्रीधर्मसी कहै पारस परसैं, लोह कनक करि लेवा । मे०३।
राग-ललित करहुं वश सजन मन व काया। और मसकीन हो, वश की न होवत कहा,
ए महा मत गज कवन नाया। १। क०।
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धर्मवर्द्धन ग्रन्थावली
तुरग ज्यु चपल अति उरग ज्यु वक्रगति,
ठगत जिन जगत आया ठगाया। वचन बहु वंचन सत्य जहाँ रंच न,
कंचन कामिनी लोभ लाया । २१ क० खह की गेह इण देह सुनेह खिण,
छिन ही वदलात ज्युबदल छाया । आप प्रभात प्रभात प्रगट्यो प्रगट,
उदय धर्म-शील उपदेश आया । ३ । क०।
राग-वसत वह सजन मेरे मन वसत,
उनके गुण सुनि अग उलसंत । व० । तजि क्रोध विरोध हित त्रसंत,
पर निंदाने परहा नसंत । १। व०। खलता करि कोऊ कैसे खसंत,
हठता शठता तजि कहै संत । व०। प्रभुता अपणी नही प्रशसत फंतु,
आफि सीयाद. मेना फसंत राव० शुभ ध्यान, विज्ञान माहे धसंत,
वाणी अमृत रस वरसत । व०। करि विनय विवेक ' काया कसत,
साचा श्रीधर्मसी उहिज संत ३०व० -
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औपदेशिक पद
( ८ )
राग-प्रभाति जाति प्रणमीजे , गुरु देव प्रभाते,
बोलें मत दिन विकथा वाते । १।प्र। मूझे मत त्यु पच पच मिथ्याते,
समकित धर गुण पंच संघाते । २। प्र० । दिल शुद्ध धरि धर्म-शील दयाते,
सहु विध थाय सदा सुख साते । ३ । प्र० ।
( ६ )
राग जैतश्री सब मे अधिकी रे याकी जैतसिरि,
काहू और न होड करि । १। स०। आठौ अंग योग की ओटें
उद्धते मार्यो मोह अरी । स० । अंतर वहि तपतेज आरोवे,
जोर मदन की फौज जरी । २। स०। ज्ञानी हनी. ज्ञान गुरजा सु,
ममता पुरजा होइ परी । स०। अनुभौ बलसु भव दल भागे,
फाल फते करि फौज फिरी । ३ । स०। श्री धर्मसी आतम नृप दाता,
देत लदाना मुक्तिपुरी । ४ । स० ।
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धर्मवद्धन ग्रन्थावली
( १० )
राग-आशा आतम तेरा अजब तमासा । खलक सुं खेलं बणावे खोटा,
खिण तोला पुनि खिण में मासा आ० परणी अपनी तजि यारी,
और सु अधिकी आसा । पद्मनी छोर संखनी परचे,
एक तो दुःख अरु दूजा हासा |आ० दीपक बुझाइ अधेरे दोडे,
___ फंद विचे पग फासा । आ० । परच्या धर्म-शील सु पाव.
अविचल सुख लील विलासा ।।आ०) ( ११ )
राग-प्रसा कबहु मे धर्म को ध्यान न कीनो। आर्त रौद्र विचार अहोनिश,
दुर्गति घर करिव थर दीनो । क०।१।। - दीप ज्यु और न पथ बतायो,
आप ही लागि रह्यो तमसीनी । मेरे तन धन कहि सुख मान्यो,
। मणि परखे पिण अतर मीनौ । क०१२।
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औपदेशिक पद
७
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परमारथ पथ नाहि पिछान्यो,
'स्वार्थ अपनो मानी सगीनो। सुगरु कहे धर्मसीख न धारी,
निष्फल गयो नर जन्म नगीनो । क०।३।
( १२ )
राग-तोडी तुकरे गर्व सो सर्व व्यथारी। स्थिर न रहे सुर-नर विद्याधर,
। ता पर तेरी कौन कथारी । तु०।१। कोरिक जोरि दाम किये इक ते,
जाके पास विदाम न थारी । उठि चल्यो जब आप अचानक,
परिय रही सब धरिय पथारी । तु०।२ संपद आपद दुहु सोकनि के,
फिकरी होइ फंद मे फथारी। सुधर्म शील धरें सोउ मुखिया,
मुखिया राचत मुक्ति मथारी । तु० । १३ ।
( १३ )
राग-मारू वारू वारू हो करणी वारू हो । पामै सुख दुख प्राणीयो, सहु करणी सारू हो । क० । १ ।
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धर्मवद्धन ग्रन्थावली
एका रै धन मिल, मोटा थल मारू हो । एक एकही टंक न, अन्न आणे उधारू हो । क०।२। मोटा माणस इक मुदै, एक काजर कारू हो । के नीरोगी काय के, नित रीव नारू हो । क०।३। दौलति लहीये दान, सील सद्गति सारू हो। जागे तख की जाम की, उड जाय दारू हो । क०।४। भावना मन शुद्ध भाविय, सहु बात सुधारू हो। धन धर्म-सील जिके घरे, ते भव जल तारू हो । क०।५।
( १४ )
राग-नट्ट
नट बाजी री नट बाजी, संसार सवही नट बाजी। अपने स्वार्थ कितने उजरत, रस लुब्धो देखन राजी । स०।१। छिकरी ककरी के करत रुपये, वह कृढत काठ को बाजी। पख ते तुरत ही करत परेवा, सवही कहत हाजी हाजी सवार। जानी कहै क्या देखे गमारा, सवहीभगल विद्या साजी। मगन भयो धर्मसीख न मानत.
जो मन राजीतो क्या करे काजी । स०।।
गा-तेहागडो ठग ज्यु इहु धरियाल ठगे। घरि घरि जातु है रहट घरी ज्यु लेखेन कोड लगें।। ठग ज्युः ।
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औपदेशिक पद इण खिण पिण न मिले आउखो, मोल दये मुह मगे। खरु होत है औसौं खजीनो, जीवन तौहि जगे । २ । ठग०। ठग काल सुजोर नहीं काहुको, देत ही सबहिं दगै । धर्मसीख कहै इक ध्यान धर्म को, भय सब दूर भगे । ३ । ठग० ।
( १६ )
राग केदारौ
कलि मे काहु को नहीं कोइ । तामे मूरख अधिक तृसना, तजे नाही तोइ । १ । कलि० । काहू सो उपगार करिवो, सार जग मे सोइ।। जीव रे तु चेत जोलु, देखव की दोइ । २ । कलि० । काल दुस्मन लग्यो केरै, जागि के तु जोइ । धर्मसी इक धर्म सबकु , हित हित को होइ । ३ । कलि० ।
( १७ )
राग--गोडो
जीव तु करि रे कछु शुभ करणी।।
और जजाल आल तजि जो तु,मुक्ति गौरी चाहे परणी ।शजी। मात तात सुत भ्रात सकल तजि, तज दूरे घरणी । जास सग पापानि प्रकटत, आक अनै ज्यु अरणी ।२। जी० । जौ लु स्वार्थ तौलुसगपण, नहीं तर आवत लरणि । ऐसो जाणी पाप गज भजण, धर्म सिंह धरौ सरणी । ३ । जी।
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धर्मवद्धन ग्रन्थावली
( १८ )
राग-गौडी कछु कही जात नहीं गति मन की। पल पल होत नई नइ परणति, घटना सध्या घनकी । क०।१।। अगम अथग मग तु अवगाहत, पवन के धज प्रवहण की। विधि विधि वध कितेही वाधत, ज्यु खलता खल जनकी ।क०२) कबहु विकसत फुनि कमलावत, उपमा है उपवन की । कहै धर्मसीह इन्है वश कीन्हे, तिसना नहीं तन धन की का।
( १६ )
राग--सामेरी दुनियां मा कलयुग की गति देखो। किह पाई काई अधिकाई, उणको करेय अदेखो। १ । दु । अनुचित ठौरें खरच अलेखें, लेत सुकृत में लेखो । माननि कह्यो साच करि मान्हो, घर पित मात सुघेखो ।।दु। करि बहु प्यार पढाइ कियो है, सुविज्ञानी सुविसेषो। कहे धर्मसीह करे ताही सु, पीछी फेरि परेखो । ३ । दु ।
• राग-- सामेरो मन मृग तुतन वन मे मातौ। केलि करे चरै इच्छाचारी, जाणे नही दिन जातो । मन ! १ । माया रूप महा मृग त्रिसना, तिण में धावे तातो। आखर पूरी होत न इच्छा, तो भी नहीं पछतातो । मन । २
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औपदे शक पद
६१
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कामणी कपट महा कुडि मंडी, खबरि करे फाल खातो। कहे धर्मसीह उलंगीसि वाको, तेरी सफल कला तो । मन । ३ ।
( २१ )
राग-कल्याण
हु तेरी चेरी भई, तु न धरे हेत रे । • एक पखी प्रीति कौसौ, आइ वण्यो वेतरे । १ । हु.।।
दूर छोड जाइ के, सदेसहु न देत रे। लोक लाज काजहुँ न, मेरी सुधि लेत रे । हुं । २।। तुठौर ठौर करै । और सु सकेत रे। । रंग बिना सग करै, तामे परो रेत रे । हुँ ।३।
तोही सु सचेत मे तौं, तो बिन अचेत रे। मेरो धर्मसील रहै, तोही सु समेत रे । हु०। ४ ।
( २२ ) राग-जयवती
काया माया वादल की छाया सी कहातु है। मेरो बैन मान यार, कहत हुं वार वार । हित ही की वात चेत, कहा न गहात है। का०।१। नीकै दिल दान देहु, लोकनि मे सोभ लेहु । सुंव की विसात भैया, मोहे न सुहात है। का० । २।। खाना सुलताना, राउ राना ही कहाना सव । वातनका बात जग कोऊ न रहात है।
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१२.
धर्मवद्धन ग्रन्थावली ऐसो कहै धर्मसिंह, धर्म की गहो लीह । काया माया वादर की छाया सी कहात है। का०।३।
( २३ )
राग-सौरठा रे सुणि प्राणिया, लही गरथ अरथ अनेक, म करे गर्व रे। वहि जाइ, एकैजहि प्रवाहै, सवल निवला सर्व रे । सु० । १ । चंद सूर ही राहु चिगल्या, प्रगट जोइ तु पर्व रे । नर असुर सुर सहु काल नाख्या, चवीणा ज्यु चर्व रे । सु०।। मृढ धी पुदगल पिंड मैलें, अरथ अर्व ने खरवरे। सुजान सु धर्मशील सुखियो, देखि आत्तम दर्व रे । सु०।३।
( २४ )
राग-काफी मानोवण मेरा, यारो मानो वयणा मेरा । सेंन तु मोह निद्रा मत सोवे, है तेरे दुस्मन हेरा । यारो ॥१॥ मोह वशे तु इण भव माहे, फोगट देत है फेरा । चार विचार करो दिल अंतर, तु कुण कौन है तेरा । यारो।।२।। कीजे पर उपगार कछु इक, लीज लाह भलेरा । धर्म हितु इक कहै धर्मसी और न कछ अनेरा । या० ॥३॥
राग-धन्याश्री (कबहु मैं नीके नाथ न ध्यायो) किण विध थिर कीजे इण मनकु । 'वचन कर वशि मौन ग्रहैते, त्योथिर आसन तनकु । किन |१||
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औपदेशिक पद
मन उद्धत इन्दिय सु मिलकै, घूरि करें तप धनकु ं ।
यह चचल शुभ क्रिया उड़ावे, ज्यु ं वायु मिली घनकु |कि० ||२|| मन जीते विन सवही निःफल तुस वोए तजि कनकु । मन थिर कु धर्म सीख बतावर,
शिष्यजनकु । कि० ||३||
सुगरु कहै ( २६ )
राम - धन्याश्री ( आयो २ री समरता दादौ आयो )
६३
कीज कीजै री, मन की शुद्धि इण विध कीजे ।
आलस तजि भजि समतारसकु, विपयारस विरमीजैरी |०||१|| राग नै द्वेप दुहुं खल कैं बल, मन कसमल मल भीजे दे उपदेश दुहुं दुस्मन को, ताथइ संग तजीजैरी । म० ॥ २ ॥ शुद्धातम कइ ध्यान समाधि हि, परम सुधारस पीजे ।
1
श्रीधर्मसी कहै थिर चित कारण,
I
कारिज अलख लखीजै री | म० ॥३॥
( २७ )
धन्याश्री
धर मन धर्म को ध्यान सदाइ ।
नरम हृदय करि नरम विषय मे, करम करम दुखदाई |० ||१|| धरम थी गरम क्रोध के घर में, पर मत परम ते लाइ ।
परमातम सुधि परमपुरष भजि, हर म तु हरम पराइ | ध०||२|| चरम की दृष्टि विचर मत जीउरा, भरम रे मत भाइ । सरम वधारण सरम को कारण, धरमज धरमसी ध्याइ |०||३||
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प्रस्ताविक विविध संग्रह
सरस्वती स्तुति अगम आगम अरथ उतारै उर सती,
वयण अमृत तिके रयण ज्यु बरसती। हुअइ हाजर सदा हेतु आ हरसती,
सेविजे देवि जै सरसती सरसती ॥ १॥ विद्या दे सेवका विनौ वाधारती,
__ अडवड्या साकडी वार आधारती । इंट नरिंद जसु उतारे आरती
__ भणा तुझ नै नमो भारती भारती।। २॥ वेलि विद्या तणी वधारण वारदा,
हुआ प्रसन्न सहु पामिजे द्वारदा । प्रसिद्ध सकल कला नीरनिधि पारदा,
शुद्ध चित्त सेव नित सारदा सारदा ॥३॥ अधिक धर ध्यान नर अगर उखेवता,
व्यास वाल्मीक कालीदास गुण वेवता। सुबुद्धि श्री धर्मसी महाकवि सेवता, ___ दीयह सहु सिद्धि श्रुतदेवता देवता ॥४॥
परमेश्वर सहि सबला निवलां करें संभाला,वलि नहि ईस विसरण वाला। जीव पडें मत बहु जंजाला, प्रभु साचा सहुचा प्रतिपाला ||१||
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६७
प्रस्ताविक विविध संग्रह मेगल लहै मलीदा मण मण, कीडी उदर भरै ताइ कण कण । जितरौ वरौ जियरें जण जण, पूरे तितो ईस आपण पण ||२|| चूण दियें सहु ने विधि चंगी, हसती गज रंज हीनंगी। अति अदोह धरें मत अंगी, साहिब आस पूरै सरवगी ॥ ३ ॥ ध्रविजै सदा चूरमे धिधंगर, चीटी चख इक चेण लहै चर। धर्मसीह मन चित मता धर, पूरण आस सहु परमेसर ।। ४ ।।
सूर्य स्तुति • हुदें लोक जिण रें उदै,
मुदै सहु काम? पूजनीका सिरे देव पूजौ । साचरी बात सहु साभलौ सेवका,
देव को सूर सम नहीं दूजी ॥ १ ॥ सहस किरणा धरै हर अंधकार सही,
नमै प्रहसमै तिया कष्ट नावै । प्रगट परताप परता घणा पूरती,
अवर कुण अमर रवि गमर आवै ॥ २ ॥ पडि रहै रात रा पखिया पथिया,
हुवै दरसण स को राह हीं । सोम चढे सुरा सुरा असुरा शिहर,
मिहर री मिहर सुर कवण मीढ़ें ।। ३ ।। तपे जग ऊपरा जपै सहु को तरणि, . .
सुभा अशुभा करम धरम साखी । रूड़ा ग्रह हुवइ सहु रू. ग्रह राजवी,
रूडा रजवट प्रगट रीति राखी ॥ ४ ॥
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धर्मवर्द्धन ग्रन्थावली
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धमाल ( वसत वर्णन )
ढाल-कागती सकल सजन सैली मिली हो, खेलण समकित ख्याल । ज्ञान सुगुन गावै गुनी हो, खिमारस सरस खुस्याल ॥१॥ खेलो सत हसत वसंत मे हो,
अहो मेरे सजना राग सु फागरमत । खे० ॥२॥ जिनशासन वन माहे मौरी विविध क्रिया वनराय । कुशल कुसम विकसित भये हो, सुजस सुगंध सुहाय । खे०॥३॥ कुहकी शुभमति कोकिला हो, सुगुरु वचन सहकार ।। भइ मालति शुम भावना हो, मुनिवर मधुकर सार । खे० ॥४।। प्रवचन वचन पिचरका वाहै, यार सु प्यार लगाई। शुभ सुण लाल गुलाल की हो, झोरी भरी अतिहि झुकाइ ॥५॥ वर महिमा मादल बजे हो, चतुराइ मुख चग । दया वाणी डफ वाजती हो शोभा तत्व ताल संग । खे०॥l, राग सहित जिनराज आलाप, दौलति सुनिसदीह । सव दिन विजयहर्प सुख साता, धमाल कहै धर्मसीह ॥णा
उपदेश
अव तो सब सौ वरसा लगि आउसु,
तामे तो आध गयौ निसि सूता । चौंस गयो रस रामति रौंस,
'खट गृह धध के धुस मे खता ।।
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औपदेशिक पद
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केस भए सब सेत तु चेत रे,
देख दिखाउ दियो जमदूता। जाते सधैं अपनी कछु स्वारथ,
सो भ्रमसील धरौ रे सपूता ।।१।।,
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६८
धर्मवद्धन ग्रन्थावली
दीपक-छप्पय अलग टलै अंधार, सार मारग वलि सूझ । जीव जंतु जोइ नें, सरव विवहार समूझइ ॥ मन संशा सहु मिटै, वलि पुस्तक बाचीजै । दिल सुद्ध गुरूदेव नैं, रूप दरसण राचीजै ।। वलि लाछि आइ वासौ वसइ, सुख पावै सहु सेवता । सहु लोक माहि दीस सही, दीवी परतिख देवता ॥ १ ॥
पर उपकार-घरण कटु सागोर दुनी दाम खाट केता केइ दाटे दरव,
नाट नाटे घणा साट बाट पाडै तिकौ काल वाटै वहै,
खट्यो सो पर कजू विरुद खाट ॥ १ ॥ कीया चढि चोट गढ कोट कवज किया,
वहस छल वल प्रबल किया बीया । हालिया किता ने किता वलि हालसी,
' जिया गुण किया तियां धन जीया ॥ २ ॥ हुकम सुहल चला उथल पथला हला,
करौ अकला गलां वात काइ। चहल वहला चलें चट्टक-दिन च्यार री,
भला री भला एक रहसी भलाइ ॥ ३ ॥ भार कोठार भडार लोभै भर्या,
वार सहु सारखी। कठे वहसी ।
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प्रस्ताविक विविध संग्रह . साच कर धार 'धर्मसी' संसार में,
रिधू जग सार उपगार रहसी ॥ ४ ॥
मेह ( वर्षा ) सबल मेंगल वादल तणा सज करि,
गुहिर असमाण नीसाण गाजै । जंग जोरै करण काल रिपु जीपवा,
आज कटकी करी इंद राजै ॥१॥ तीख करवाल विकराल वीजलि तणी,
घोर माती घटा घर र घालै । छोडि वासा घणी सोक छाटा तणी, .
__चटक माहे मिल्यौ कटक चाले । तडा तड़ि तोव करि गयण तडकै तड़ित,
महाझड़ झड़ि करि झूम मंड्यौ । कडा किडि कोध करि काल कटका कीयौ,
खिणकरें बल खल सबल खंड्यौ ।। ३ ॥ सरस वांना सगल कीध सजल थल,
प्रगट पुहवी निपट प्रेम प्रघला । लहकती लाछि वलि लील लोको लही,
सुध मन करें धर्म-शील सगला ॥ ४ ॥
मैह,( वर्षा ) गीत • मंडि झड़ घमड कर ईस ब्रह्मण्डरा तुझ घर माहि किण बात त्रोटा।
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१००
धर्मवद्धन ग्रन्थावली सार इतरी गरज परजरी अरज मुणि,
मेह करिमेह करि धणी मोटा। खेत कुम्हाइजै रेत उडै खरी, हेति हिनूआ गया चेत हारे। बैंत एहै धरौ नितरी वीनती, ध्रवौ करतार जलधार धार ।।२।। घणै धन होइ धन धान धीणा घणा,
पाल्हव भार अड्डार प्रामा । दरद मन रा मिट मिट जगरा दलिद,
जलद वरसाइ जगदीस झाझा ॥३॥ सफल करि आस अरदास धर्मदासरी,
तुरत तिण दीस जगदीस तृठा । हुआ उमाह उछाह सगला हुसी,
वाह हो वाह जलवाह बूठा ||४||
मेह ( वर्षा ) अमृतध्वनि जल थल महियल करि जलद, सहु जग होइ सुभक्ख । इक घण तो अण आवतें, दिखै खलक सु दुख ॥ १ ॥ दिखै खलक सु दुख खिजि खिजि,
सुख खिण नहीं दुख खिण खिण भुख । खल हल करव खद्धिय, चख खड विण पख खय पशु । कु ख खु ह वसि तुख खुटि खुटि, लुख खजि कजि । लख खिजमति अखं खलक अरज्ज ।।१।। जल थल महियला
दोहा जग सगलैं जगदीसरी, पूरण कृपा प्रसिद्ध । घण वरण्याहरख्या घण, सिद्ध धरि सहु रिद्ध ॥ १॥ .'
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प्रस्ताविक विविध सग्रह
१०१
चालि सिद्धद्धरि सहु सिद्धि, धन धन किद्ध, द्धरणिय वृद्धि द्धन्नह । खुद्ध द्धम, गय लद्ध धीरज, भृद्ध चि पुणि दद्धि द्धिप्पिय । रिद्धि द्धण भर वद्ध दामह दिद्ध द्धन रिण, बुद्धि धर्मसी शुद्ध द्धरि हित सज्ज ॥२॥ जग सगळं जग०
सीत उष्ण वर्षा काल वर्णन ठड सवली पर्डे हाथ पग ठाठरें,
वायरो उपरा सवल वाजै । माल साहिव तिकै मौज माणे मही,
भूखियइ लोक रा हाड भाजै ॥ १ ॥ किडकिडे दात री पात सीसी करै,
धूम मुख ऊखमा तणा धखिया । दुरव सुगरव सौ जाणि गुजें दरक,
___टरव हीणा सनै लौक दुखिया ॥ २ ॥ सौडि विचि सूइजे तापिजें सिगडिए,
सवल सी माहि पिण सद्रव सोरा। एतिण वार में पाण ती ओजगी,
दोजगी भरै निसदिस दोरा ॥ ३ ॥ झाड उन्हाल री झाड @ झाखरा,
___ जल तजे पालि पाताल जावें। साधन वैठा पिय मालिए सरवता,
निधन नइ पिण नीर हाथ नावें ॥४॥
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१०२
धर्मवनमाली
feat atara उन्हाल. छुटो सुख दुख त
आवियै जेण संसार है.
बात से नेहा ॥ ५ ॥
थुरा जलवर वै धान श्री रा.
सरस मानेसर नको सख्या । फसल फल फूल री हंस सगले फले.
बडी ऋतु सरित माहि वरिषा ॥ ६ ॥ दुरदर्शन
मन में धरता मरट घर जिम भू भू.
मेले घर गया मऊ भटकि सूआ पर भूमैं । टाने मा बाप बेचि द्य जीमण वेड,
लतां रिगता करें ॥ १ ॥
कोइ काल महा दुस्मण कहा, आखा देस उजाड़ीया । ए दैव बरस इकाव, पडते वह नर पाडिया ॥ १ ॥ पण धरि घण पोखता निहोरे कण पिण नाप,
कवल एक कारण वहस एवं बेटा बाप | हीओ माइ हारि नै छोआ उभा छोडे,
ऊच कुला आवसी आइ नीचा कर जोडे । गति मत्ति उगति भूलें गड, गिन को आभौ गितो,
कोई आप पाप प्रगट्यो यवल एवो वरल इकावनी ॥२॥ दुनियां दीवौ दुख वरस इण इकावने,
पहुती जाय पुकार इन्द्र सांभलि विण अन्ते ।
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प्रस्ताविक विविध संग्रह
१०३
आप कहायौ इन्द धीरज मन माहे धरिजो,
बहु वरषा वावनो करिस सखरौधर्म करिज्यो। धन धान घमंड धीणा घणा, परजा बहु सुख पावसी। सहु थोक भला होसी सरस, उमगि वावनौ आवसी ।। ३ ॥ इकावन्ने आइ दुनी दुरभख डुलाइ,
कान्यौ सौ कूटि नै भीर वावनै भाइ। वावना वाहिरी त्रिपट पड़ीयो तेपन्नो,
दातारे तजि ददौ, निपट करि झाल्यो नन्नो । काढिस्याँ सोइ जिम तिम करें, मत चिंता आणइ मनइ सत झालि काल्हि सखरइ सुभिख, चहचंद होसी चोपनैं ॥४॥
कुस्त्री-सुस्त्री वर्णन सुकलीणी सुन्दरी मीठ वोली मतिवती,
चित चोखे अति चतुर जीह जीकार जपती। दातारणि दीपती पुन्य करती परकासू,
हस्तमुखी चित्त हरणी, सेवि संतोपे सासू ॥१॥ सुकलीण शील राखें सुजस, गहै लाज निज गेहनी । धरमसी जेण कीधो धरम, तिण गुणवत पामी गेहिनी ।। २ ॥ गुण हीणी गोमरी वडक बोली बहुरंगी,
चचल गति चोरती अधिक कुलटा ऊधंगी। सत विहुणी सुंबनी दूत जिती दुरभासू,
करणी घर में कलह, मूकतीजाय सासू । नाहरी नारी गूजे निपट, धूजे नित घर रो धणी । धरमसी जेण न कियौ धरम, पामी इण परि पापणी ॥२॥
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१०४
धर्मवर्द्धन ग्रन्थावली पुण्य पाप जल कथन
गोत ससरी। समै साली चित्रसाली ढाली पौडे के सुहाली सेज,
खंटाली कूटी में एक उखराली खाट । दिखाली विना ही भाली सुखाली दुखाली दसा,
नेह पाप पुण्य वाली विचाली निराट ॥शा सोना थाली माहे के आरोगै लाली दाली,
सुखी वीया के हथाली, जिमैं पीय बृक । एकां लील लाली लाली पाली, धंधाली जंजाली एक,
सड़ाली अढालीवार कमाइ सलूक ॥२॥ एका उन बाली छाली झाली न दीखें एकां,
धुंभाली क्रमाली हेकां दूसैं काली थाट । सदारा सुगाली एक दुकाली किताक दीसै,
वंसाली कमाइ चाली वाली जायें वाट ॥३॥ सम्भाली ल्यै वडा सोह, सुचाली कलत्त सुत्त,
स्या करै कलाली नाली अनाली कपूत । वाणी के रसाली वर्दै रिसाली एकां वात,
- कली कालि उजवालि आपरी करतूत ।।४।। दाहाली बाढाली बंधै रंढाली करतां दौड़,
मान नहीं मच्छराली, मझाली मरम्म । उद्दाली उलाली जन्नि, ताली दियं जायै आउ.
धारी हितवाली बात, संभाली धरम्म ॥५॥
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प्रस्ताविक विविध संग्रह
१०५
प्रभात प्रासीस-छप्पय । आलस ऊंघ अन्नान, तमस तस्कर पिण त्रसीया । श्रावक साधु सुपात्र, वले धर्म करणी वसीया ।। पडिकमणा पचखाण, गुणे गुरूदेवा गावै । सुणीज झालर संख, सुकवि आसीस सुणावै ॥ भलैं भाव कमल विकसै भविक, महिमा जिन धर्मरी मुदै । सु प्रताप सयल मंगल सदा, अरक ज्योति धर्मसी उदै ॥१॥ जब ऊगे जग चक्ख तिमिर जिण वेला त्रास । प्रगट हसै जब पद्म, इला जब होइ उजासैं । चिडीया जब चहचहै, वहै मारग जिण वेला । धरम सील सहु धरै, मिलै जव चकवी मेला ॥ धुम धुमै माट गोरस घणा, पूरण वंछित पाईये । जिनदत्तसूरि जिनकुशल रा, गुण उण वेला गाईये ।।२।।
सध्या आसीस-छप्पय सध्या वढन साध, सज्ज सावधान स कोइ । विवेकी श्रावग सजे, पडिकमणा सोई॥ चौवीहार दुविहार ग्रहै, व्रत करि निज गरहा । सारे दिन संचीया, पाप नासै सहु परहा ॥ धर्म ध्यान साधु श्रावक धरै, धोरी धर्मरथ ना धुरी । सुखकरण सघ धर्मसी सदा, सकतिरूप संध्या सुरी ॥१॥ धुरि देवल धर्मसालि, पंच सद सुणिजै प्रामा । झालर रा झणकार, देवगृह' दीपक झाझा ।।
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१०६
धर्मवर्द्धन ग्रन्थावली पशु पथी पंखिया, आपणी ठामै आवै । आरंभ किया अलग, सको थिर चित्त सुख पावं ।। आकास चंद तारा उदें, दिन चिता अलगी दुरी । सुखकरण संघ धर्मसी सदा, सकति रूप संध्या सुरी ॥२॥
सर्व सघ आशीर्वाद परव अवसर सदा दरव खरचे प्रघल,
गरव न करें करइ सरव उपगार । धरवि जलधार जिम दान वरसै धरा,
जगतपति संघ रौ करौ जयकार ॥१॥ सूध मन सेव गुरू देव री साचवें,
___ सखर समझ अरथ सूत्र सिद्ध त । दिये बहु दान मन शुद्ध पालइ दया,
भलो नित संघ रौ करौ भगवंत ॥ २ ॥ राय - साधार वदिछोडि मोटा विरुद,
साह पतिसाह सम मौज महिराण । संघ सुप्रसन हुआ भवे निध संपजै,
करौ प्रभु संघ रौ सदा कलियाण ॥ ३ ॥ वरण अढ़ार ने जिकै दिये वरा,
खरा द्रव्य खटिन करें धर्म काज । कहै धर्मसीह सुकवि लोक सहि को कहैं,
महाजन तणो उदो करें महाराज ॥ ४ ॥
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प्रस्ताविक विविध संग्रह
१०७
दुढिया रो कवित-छप्पय आया नै उपदेस, प्रथम प्रतिमा मत पूजौ। . वादौ मत अम्ह विना, दरसणी यति को दूजो । दीजै नहीं बलि दान, भवे बीजे भोगवणा । आगम केइ उथपे, लोह सु जड़ीया लवणा । सीख द्यौ लाख न हुवै समा, खोटी जड रा खुढीया । पारकी निंद करताप्रगट, धरमी किहा थी ढुंढिया ॥ १ ॥
अधिक आदि अनादि री मातवटि उथप,
देवपूजा तणा सुस दीधा । देखि अन्याय आचार अंदेस मैं,
__ काल नैं चाल जगदीस कीधा ॥ १ ॥ प्यास मरता पसू पखिया पथिया,
पाप है पावज्यो मता पाणी । भरमिया भल भला लोक एहै भरम,
धरम कियौ तिणें धूल धाणी ॥ २ ॥ गिणइ नहीं शास्त्र वलि मूलगा देवगुरू,
लाज विण लोक इण कुमति लागे । ऊबली रीति ऊधा तिके ऊठीया,
ऊठिसी ई ए उतपात आगैं ॥ ३ ॥ मेलि परवान मान महाराज कीधा मन्है,
__ लोपीयो हुकम करतूत लहसी। हुइ सहुको कहै. हाकमैं हाकमी,
रैत वर वैत दुष्ट दूर रहसी ॥ ४ ॥
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__१०८
धर्मवर्द्धन ग्रन्थावली
माकरण ( जवा) छप्पय आचैं केइ अथग्गरा, हलवे हलवे हेर । माकण माडे मामला, मेवासें रा मेर । मेवासे रा मेर, झरे कोचर मे, झाझा । रतिवाहा चराज, प्राछ करि जायइ प्राझा । छलबल करि छेतरै, चूसैं लोही चटकावें । चावा चिहु दिसि चोर, नींद कहो किहाथी आवै ॥१|आवै०
सर्वेयो खाट में पाट मे हाट मे त्राट में आसन वासन थिर थानें। आवत जावत भी चटकावत, नावत हाथ छिपै कहुं छाने । रैन मे नैंन मे नींद पर नही, धौंस ही रूस भरै दुख दानें। गउ न राक न को गिनै हाकन, माकण काहु की साक न माने।
धरती री धणियाप किसो __ भोगवि किते भू किता भोगवसी, माहरी साहरी करइ मरें ।
ऐंठी तजि पातला उपरि, कु वर मिलि मिलि कलह करें ।१।। धपटी धरणी केतेइ धुसी, धरि अपणाइत केइ ध्र वै । धोवा तणी शिला परि धोबी, हुं पति हुं पति करै हुवै ।।२।। इण इल किया किता पति आगैं, परतिख किता किता परपूठ । वसूधा प्रगट दोसती वेश्या, झूम भूप भुजग सु झूठ ॥३॥ पातल सिला, वेश्या, पृथ्वी, इण च्यारा री रीति इसी । ममता कर मरै सो मूरख, कहै धर्मसी धणियाप किसी ॥४॥
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प्रस्ताविक विविध संग्रह
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छप्पय रावण करता राज, लीक लका ते लागी । जीवतें किसन जी, द्वारिका नगरी दागी ।। चावा रवि चंद नइ, राह आवी नै रोके । पाडव कौरव प्रसिद्ध, सहु पडिया दुख शोकै ॥ सकजो न कोइ मो सारिखौ, बहु मुरख गर्वे बके। धर्मसीख धारि धोखो म धर, जीती कुण जाइ सके ॥१॥
छप्पय गुर थी लहियं ज्ञान, शास्त्र सहु तत्त सिखावइ । वलि सगली ही वस्तु दोष निरदोप दिखावें । चूल्हा रौ जे चंद कर, तिण काज कला धर । गुरू सेवा कर गिण्या, नहीं उसरावण को नर । वलि अलग टालि छठउ वर्ग, अधर होठ अलगारहै। त्यु रहै अलग निंदा तठे, कवित सीख साची कहै ॥ २ ॥
“शोभनीय वस्तु"-छप्पय नरपति शोभा नीति, विनय गुणिजन त्रिय लज्जा। दपति दिल संतोष, शोभ गृह पुत्र सकज्जा । वचने शोभा साच, बुद्धि शोभा कविताइ । वपु शोभा विज्ञान, शान्ति द्विज शोभ बताइ । * सकज की शोभ अधिकी क्षमा, शोभ मित्र राखें शरम । गृहवास शोभ संपति सुधन,
सबहि शोभ निज निन धरम ॥२॥
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धर्मवद्धन ग्रन्थावली
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राजनीति-छप्पय कवित्त सकले गुणे सकज्ज, पाच दस परिखा पुहती। आण्यो म्हे इतवार, मन शुद्ध थाप्यो मुहती। सहु आगै कहै सांन, बान इम अधिक वधारे । तिणरौ वाधैं तोल, सही सहु काम सुवारे। प्रभु काज साधि पोते पर्छ, काज प्रजा रा पिण करें। परसिद्ध भली परधानरी, राज काज सगला सरें ।। १ ।। पुखतौ गुणे प्रधान, कदे नहीं मन में कावल । पिण काइ पर कृति, साम नहीं मन में सावल। कहै म्हेइज सहु करा, मंत्रि रो कह्यौ न माना। म्हा थी बीजी ठाम, छेतरावी मत छाता। सहु नै इकात इम सीखवें, अदेखाइ आण इसी। -अधिकार तणो जिंहा नहीं अमल,
कही तिणमें वरकत किसी ॥ १ ॥ ।
वरसी दान त्रणसे कोडि अठ्यासी कोडि,
असी लाख उपर वलि जोडि । इतरा सौनइया नौ मान. दे सहु अरिहत वरसीदान ॥१॥
छप्पय छत्तीस विधान रो। ' गुरु गुरु' दिनमणि हंस, मेघ मंदर" मुगता गण ।
मदि दुति गति अति सोह, वाणि मणि गुण जाके तण ।।
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प्रस्ताविक विविध संग्रह ' १११ सुरेग पुव्व' सर राज', गयण धर५ धुरि वारिध थिति । वासव' ग्रह अति चतुर, जगत सुर" पारिख सेवित ॥ उचह'प्रभात'कति सहित, गरजित निरमल प्रथित गुण। वहुजान तेज केली वरिस, धीर"पवित्र ध्रमसीह भण ॥१॥
एक्कक्खर उत्तरा वंदे नहीं क्यु देव गुरु, विकै न वस्तु विवेक । छोड़ें औठों अन्न क्यु , उत्तर निहुं रो एक ॥१॥ भाव नहीं। दूधै केम स्वाद नहीं, दीधे किम फिर दिद्ध । दाडिम कण ज्यो पोस्तकण, जुदा नहीं किण विद्ध ।।२।थर नहीं हाथी जनमि किसौं न है, वैद दिये किम पत्थ । नर आदर किम ना लहै, उत्तर त्रिहुं इक अत्थ ॥३॥ जर नहीं देशै नीपति क्यु नहीं, क्यु न घडै लोहार । 'किम वसता मुहंगी विक, उत्तर एक प्रकार ॥४॥ घण नहीं
होयालिये
कुण नारी रे कुण नारी रे, पंडित कहौ अरथ विचारी रे।' ___ चतुराइ बुद्धि तुम्हारी रे, सहु कोइ वखाणे सारी रे ।कुण॥१॥
मन मोहन सुन्दरि माती रे, रहै पच भरतारे राती रे। सखरी पहिरै ते साड़ी रे, तौ पिण सहु अंगै उघाड़ी रे ।कु०।२॥ आइ वैसे मुजरे ऊंची रे, तिण घरि नहीं ताला कुची रे । दिन उगै घाहडी उठी रे, पल में जइ बैसे पूठी रे ॥कुण० ॥३॥
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धर्मवर्द्धन ग्रन्थावली
बूढी पिण वाली भोली रे, तनु केसर चंदन खोली रे। कहै धर्मसी एह हियाली रे, मति करज्यो वात विचाली रे।
कु० ॥४॥ (थापना)
ढाल-गाठलदे सेतु जे हाली कही पंडित एहीयाली, मत करिज्यो वात विचाली रे कहो निरखी सुन्दर नारी, धरमी आदर करि धारी रे कहो।। नव नव विधि कूर्दै नाचे, पिण सहु वखाणे साचै रे ।कहो०३। करें घुघट पिण तिण च्यारे,
__ सकुचें पिण नहीं किणहीक वारै रे ।'कहो।।४|| फिरती रहै सहु अंग माथै, हिरद ने वैसे हाथै रे ।कहो० ॥॥ वोलता आड़ी आवै, पिण तेहनो भेद न पावै रे कहो० ॥६॥ निदै ते भारी करमी, धर्मसी कहै धरस्यै धरमी रे ।कहोगा।
(मुहपत्ता)
ढाल-चतुर बिहारी रे प्रातम राहनी । अरथ कहो तुम वहिलो एहनौ, सखर हीयाली रे सार । चतुर नर एक पुरष जग माहे परगड़ो, सहु जाण संसार चतुला? पग विहुणो पिण परदेसे भमै, आवै तुरत जाय। वैठो रहै अपणे घरिवापड़ो, तो पिण चपल कहाय । च०अ०२ कोइक तो तेहन राजा कहै, कोई तो कहै रंक ।च०
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प्रस्ताविक विविध सग्रह
, ११३
साचौ सरल सुजाण कहै सहु, बलि तिण गाहे रे वक।च०अ०३। पोते स्वारथ सुपाचा मिल, आप मुरादौरे एह । च० धन तिकै नर कहै श्री धर्मसी, जीपै तेहने रे जेह ।च० अरथ ।४।
(मन)
( ४ )
ढाल-नायक मोह नचावियो चतुर कहौ तुम्है चुप सु, अरथ हीयाली ऐहो रे । नारी एक प्रसिद्ध छै, सगला पास सनेहो रे । चतुर ॥ १॥ ओलै बैठी एकली, कर सगलाई कामो रे। राती रस भीनी रहै, छोडै नहीं निज ठामौ रे । चतुर ॥२॥ चाकर चौकीदार ज्यु, बहुला राखें पासो रे।। काम करावं ते कन्हा, विलसै आप विलासो रे । चतुर ॥३॥ जोड़े प्रीति जणे जणे, नोडे पिण तिण बारो रे। करिज्यो वस धर्मसी कहै, सुख वाछौ जो सारो रे । चतुर ॥४||
. (-जीभ)
आदे अक्षर, मझखरी, अतखरौ नैं वलैं ममखरौ सर्व एक कवित्त माहे सांगठा ही ज प्राण्या छ ।
कवित रक्षक बहु हित साधु, राति सूरज दिन नक्खत । सहु भोजन कटु जीह, नहींय सुचि पीड़ा दुखित ।। वृद्ध अछेह धन वयण पहिल हिव सुसते तूने । रिसि छोरू पति तेज, याम रिधि दुखित धुनें ।।
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धर्मवर्द्धन ग्रन्थावली
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__लखमी सुवुद्धि तारण सरव रयण पुन्य निरजर सुधर ।
धुरि मझ अंत मम अक्खरै, पारसनाथ प्रतापकर ||१||
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च्यार वार अक्षर दसे, एक कवित्त मैं ऑणि । कवि माहे धर्मसी कहै, तो कहुं तौकु जाण ॥१॥ ..
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प्रस्ताविक विविध संग्रह।
सञ्जया-सर्वगुरू प्रक्षर देवाधिदेवस्तुतिः । साई तेरी सेवा सच्ची, दूजी काया मायकची, साता दाता माता भ्राता, तु ही दूजा दमा है। मोटा ही ते तुही मोटा, मैं तो छोटा ही में छोटा , तेरी ओटा धोटा ज्यु मै लेट्या ही का लंभा है। तेरै पासा खासा दासा, पासा वासाहि का प्यासा , मेरी आसा वेलि फैली तु ही इछ या अंभा है । दूजा को है तेरै दावै, ज्ञानी लोका तोकु गावैं , राते प्रातें धर्म ध्यावै तेरा ही ओठभा है ।। १ ॥
सनैया-तेवीसा गग तरंग के सग उरग ‘सु, मतु विना बहु जंतु मारे । ताहि समै विनता सुत ताहि जु, जाति विरोध संभारि संहारें। सौ मरि के अहि होइ चतुर्भुज, ताहू के ही सिर आसन धारै । अहो अहो यों सुखी सरिता सु तो, पानी के संग ही पार उताएँ ।१।
यति वर्णन-सौया केइ तौ समस्त वस्तु चातुरी विचार सार,
चैंन भी दुरस्त वर्दै अँन सरस्वती है। केइ तो प्रशस्त काव्य भापा गुण चुस्त करें,
और कवि अस्त होत एतौ दिव्य दुती है।
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धर्मवद्धन ग्रन्थावली
केइ राग रंग मामि रस्त गुस्त होत जात,
केइ तर्क विद्या मे विहस्त शुद्ध मती है। . हस्त सिद्धि धर्मसीह वादि हस्ति गस्त होहि,
जैन मे जवरदस्त ऐसे मस्त जती है ॥१॥
समस्या-भान कर्यो के पतिद्रत पार्यो ठौर संकेत की आगैते आइ कैं, नायक सेज को साज सुधार्यो । आइ तिचा तव आई गइ रितु, है के उदास विलास विसायो। वैठि सकोचि सलज्ज न बोलत, नायक केतौ निहार कै हार्यो । साच कहौ अब क्यो न मिलौं तुम,
___ मान कों के पतिव्रत पार्यों ॥ १ ॥
भोजन विच्छती-सवैया इकतीसा आछी फूल खड के, अखंड से जो लड्डु होइ ।
ताकै संग ताजै ताजै खाजै फुनि खाईये ।। पैडनि सुप्रीति पूरी, लापसी तो थोरी थोरी ।
सी के स्वाद काज बूढा कुं बुलाईये ।। हेसमी की भइ हुंस, सावूनी को नहीं सू स ।
घी के भरे घेवर जलेबी यु अघाइये ।। फूल हुं ते झीणी फीणी, सब ही में खाड चीणी। ।
धर्मसी कहत कीनी पुण्य जोग पाईये ।।१।। चोखे नान्है कैर चूर्णं, चोखे छमकारे चणें । ,
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प्रस्ताविक विविध संग्रह
११७ . आछे से अथाने घने और भी कु बोल है । चीरडी पटीरडी सीरावडी बड़ी पुड़ी।।
हरद सौं जरद आछे भुजिया को झोल है। सागरी निरोग फोग राइ खेलरा के जोग ।
भाजी भली भाति की मे, नीबू को निचोल है। -एकली मिठाइ तो धिठाइ कहै धर्मसीह । सालणा के साथ सु वोलावे कैसी बोल है ।।२।।
सगैया तेवीसा दाख वदाम अखो. सिंघोडे, गिंदोडे सौं जोडै सबे ही सुहावै । खारक खोपरे याही के भेट, छुहारी गिरी है पै न्यारी कहावै ॥ पूछहधौं गुजरातिय लोक, निवात भिलें निमजे भलै भावै ।। मेवे इते नितमेव लहै, सु कहै धर्मसीह भैया पुण्य प्रभावै ॥३॥ चटपट में पकवान चलावत, खावत है खीर खाड भी खाते । तो से चाउल दाल तजै नहीं; पालि करै फुनि घीउ की घात ।। सुधारी धुगारी पीयें फुनि छाछहि, पाछै कै जाइ चलू किये पाते। वचै सु लुकाइ कैदेण की देरहि, ताली युदेत दिखावत दाते ॥४॥ __
- :अध्यात्ममतीया रो --सवैया इकतीसा आगम अनादि के उथापी डारे आपै रुढ़ि,
अबके बणाए वाल - बोध मानै संमती। जोगी जिंदे भक्तनि पैं, दूरहुं ते दोरे जात,
देखे न सुहात ताहि एक जैन के यती।
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११८
धर्मवद्धन ग्रन्थावली ऐसो उदै क्रोध मान, दूर कीए क्रिया दान,
ऐसे पछिपाती गुण काहू को न ल्य रती। बावन ही अच्छर कुं, पूरे से पिछाने नाहि ,
कैसे कै पिछानें कहां आतमा अध्यामिती ।। १ ॥
शरीरं अंस्थिरता--सनैया इकतीसा ज्ञान के अभ्यासा मिसि, आवत उसासा सासा,
__ छिन न विसासा तहा कहां दिन मासा है। पग्यो प्रेम पासा, तामैं मानत विलासा खासा,
देख जो विमासा घरि हानि लोक हासा है। आसा तो अकासा जेती, खेलत दुवासा सेती, केती है उजासा घन बीजुरी का वासा है। अतर प्रकासा कर धर्मसी सुवासा धर, पानी में पतासा जैसा' तन का तमासा है ॥ १ ॥
रूपैया-सवैया तेवीसा आपणी देह सुनेह नहीं पुनि, जानत खेह के गेह छिपैया । मोह नहीं मन में धन मे, वन मे तन में तप ताप तपैया ।। लोक वडे वडे पाय लगे, जु सवै गुण सोभत लोभ लुपया । वाटन को नउ उझाटन को डर, सौइ बड़ौ जाकै माठ रूपैया।। कोइ तो पाइ छिपाइवा धन, धारे नहीं धर्मसीख कहैंया । सुब कहाइ खवाई ने खाई, भखाइ लगाइ लरावत भैया ।। कौन कहै तिनकुंजु बडौ है, मडौ सब ही सु करै है लडैया । वाट वंटाइ उडाइद्य फाट तें, सोइ वडौ जाकै झाँठ रूपैया ।।
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प्रस्ताविक विविध संग्रह ११६
१४ शोभा-सवैया इकतीसा नपति' की शोमा नीति, गुनिन' की विनैं रीति, दपति के प्रीति जो निवाहे धुरि छेह की । ललना की शोभा लाज, वचन' की शोभा साच, बुद्धि शोभा कविताइ, पुत्र शोभा गेह की। गृह की हैं शोमा वित्त, मित्र की चितारै चित्त, सकज' की क्षमा यु, कला विचित्र देह की। द्विजन २ कीशोभाशांति, रवन' की शोभा कांति, साधुन ४ की शोभा धर्म, शील कै सनेह की ॥ १ ॥' '
वस्त्र शोभा-सवैया इकतीसा दूर तै पोसाकदार, देखियत सिरदार
देखिकै कुचील चीर है है कोऊ बपरा ॥ सुन्दर सुवेश जांण, ता को सहु वैन माने,
'बोलै जो दरिद्री तो लवार कहै लपरा ॥१॥ पीताबर देख के, समुद्र आप दिनी सुता,
दीनौ विष रूद्र कु विलोकी हाथ खपरा , धर्मसी कहै रे मीत, ऐसी है संसाररीति,
___ एक नूर आदमी हजार नूर कपरा ॥२॥
आशिकबाजी–सनैया इकतीसा देखिवैकु दौरिदौर, ठाढौ रहै ठौर ठौर,
बाध्योप्रीति रीति डोर किधौं नाथ्यौ बई है।
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१२० धर्मवद्धन ग्रन्थावली आस पास वास चहै, भूख दुख प्यास सहै,
दास सौं उदास कृक' लासकी सी नई है।। १।। नैंन बान लगै मह, हई सौ जरद भयो,
मोह मद छदि कि, सीतांग की सई है। हैं कोई न को हकीम, धारे धर्मसीम नीम,
आसिकी के दर्द आग और दई गई है ॥२॥
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छ जनो को दुख न देना
सवैया इकतोसा सी नर देह दाता, पूजनीक पिता माता,
इनकु असाता दे असाता बीज वावैगो । देत गुरूदेव जान, या कुं मन शुद्ध मान,
इनके बुरे च का न निगुरौ कहावेगो ॥ साचा सगा वाल्हा सैन इणो सेती दगा दैन,
वात बुरी करें सो कुपात खाक खावेंगो । आपकुजो चाहै सुख, मानो धर्मसीख मुख,
छ जना कु दुख दे सौ विशेप दुख पावैगौ ॥१॥
कि र का टोया री रामति
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प्रस्ताविक विविध सग्रह
१२१
आणदरामजी नाजर की दी हुई समस्याओ की पूति - समस्या--भावी न टरे रे भैया भावे कछु कर रे
सौया इकतीसा अटक कटक विचि झटक निझाट मांकि,
___ एक ट्रक होत जात एक कु न डर रे । आधन मैं मुंग ऊरे करडू रहै हैं कोरे -
कीनो है, जतन किनि देखि भावी भर रे। करै एक करतार कहन को विवहार,
होत सब भावी लार, धर्मसीख धर रे । . भावी को करणहार सो भी भम्यो दश वार,
भावी न टरत भैया भाचे कछु कर रे ।। १॥ श्रवण भरें तो नीर, मार्यो दशरथ तीर,
ऐसी होनहार कौण मेटि सके पर रे। पाडव गये राज हार, कौरव भयो सहार,
द्रौपदी कुदृष्टि मार्यो कीचक किचर रे। केती धर्मसीख दइ, सीत विष वेलि वइ,
रावन न मानि लइ जावन कु घर रे । भावी कौ करनहार, सो भी भम्यौं दश वार,
भावी न टरत भैया, भावे कछ कर रे ॥२॥ मच्छ कच्छ होइ पी, वनको वराह भयौ,
नरसिंह एक पिंड दोइ रुप डर रे। वामन परशुराम राम कृष्ण बौद्ध रूप, .
केते ही चरित्र कीने एते रूप धर रे ।
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१२२
धर्मवर्द्धन ग्रन्थावली
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दसमौ कलंकी नाम, है हैं कहुं ही न ठाम,
___ अजहुँ अधुरौं काम देखि भावी पर रे । भावी को करणहार, सो भी भम्यौ दस वार,
भावी न टरत भैया भावे कछु कर रे ॥ ३ ॥ यंत्र मंत्र तत्र जाल, झफि धु हुताश झाल,
पैठ धौ पताल वीचि, बैठ भावै घर रे। देसते विदेश जाहु, देखि मेख मीन राहु,
भटकी सवेर साझि, सिंधु माम तर रे। जैसे ही संयोग योग, भोग रोग सोग भावी,
धर्मसी सुवुद्धि धार, भावी लार नर रे। भावी कौ करणहार, सो भी भम्यौ दश वार,
भावी न टरत भैया, भावें कछु कररे ।।४।। फासी तें निकास ग्रीव, देत फाल पर्यों जाल,
जाल को जंजाल तोरि, पड्यौ आगि झर रे। जीवन जरी के जोर, जर्यो नाहि मर्यो रान,
___ वागुरीनि डार्यों वान टार्यो सोऊ सर रे। कहै धर्मसीह मृग, केते ही मिटाइ कष्ट,
भावी आगे पर्यो कूप माझि रह्यो मर रे। भावी को करणहार, सो भी भन्यो दस वार,
भावी न टरत भैया, भावै कछु कर रे ॥५॥
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प्रस्ताविक विविध संग्रह
- समस्या
सवैया इकतीसा द्वार कौं ने गहें मौन कहै मैं हुं नीलकंठ,
करहुँ मिगौर कला देखि जलधार कु । सूली न बढ़ाउ रीस चोर कु चढ़ाउ सीस,
ईस हुँ बढ्या दहै खाट के अधार कु । मैं तो हु ईशान सोहै प्राची उदीची के वीचि,
___ रुद्र हुँ कपाली जाहु प्रेत वन छार कु। लीनौ महाव्रती लील धारै क्युन धर्म शील, . गोरी ठग ठोरी करै- असे भरतार कु ॥ १ ॥
- सवैया इकतीसा वाकै तुम्ह जीवन हो, जीवन तुम्हारै वह,
दुहुँ एक जीउ देह देखवे कु द्वै धरी। देव प्रतिकूल होत, होत प्रतिकूल सब,
ऐसी अनुकूल ही सौं कैसी तुम्ह या करी ॥ आप रहै कहुं झूलि भामिनी वकत भूलि,
अजहुं न आए सो तौ मोही सु मन,धरी। तजि के अमूल तूल सूलज्यु विडारी फूल,
पीपर के पात पर च्यारो पात पापरी ॥१॥
--10:
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१२४
धर्मवर्द्धन ग्रन्थावली
समस्या-चरण देख चतुरा हसी इक दिन ख्याल हि अटकि, अरध निशी प्रीतम आयो । नींद माझि तिय निरखी, लेइ महावर पगि लायौ। वहुरि गयो वाजार, बहुत विधि देखी बाजी । पुनि आयौ परभात, रसिक कोतक चित्त राजी ।। निसनेह नाह तुम मोहि तजी, डुसक डुसक रोवइ डसी । अध दृष्टि इतइ अलतै अरूण, चरण देखि चतुरा हसी ॥१॥
समस्या-वामन के पगतै जु वची धरि जानत है विरलो जग कोऊ ।
धरि जानत है विरलो जग कोऊ। सूखत ना कवही सब ही रस,
जागत है वरपा विनु जोऊ। जोर करै त लाइ नहिं जातु,
है है पुनि नाहि गहै विधि दोऊ ।। पावत पार न को धर्मसी कहै,
शेप उपारि सके नहीं सोऊ। - वामन के पगत जु वची धरि,
जानत है विरलो जगि कोऊ ॥ १ ॥
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प्रस्ताविक विविध संग्रह १२५
समस्या-हरि शृगनि ते असूआ टरि आइ । । । एक समै शिव शैल सुता रति रीति रसै विपरीत वणाई । संभु डस्यौं अधरा अध तैं तिण पीर पीया हग नीर बहाइ । भाल के चंद परी वहुं बिंद धरी है कुरंग के शृग सखाइ ।। ऊठत ईस ही सीस धुण्यों ।
हरि शृंगनि ते अंसूआ ढरि आइ ॥१॥ वनमें मृग एक मृगीकै वियोगहि, - -
बैठि रह्यो निज ठौर निसाइ । तब ही दोइ पथक वात कर,
अधरात भइ हरिणी सिरि छाई आनन ऊरध के चितयौ,
मृग देखत व्योम प्रिया नहीं पाई। दुख तै मुख ऊरध रोवतही,
हरि शृगनित असूआ ढरि आई ॥२॥
-20:
. समस्या-'पारसी मे मुख देखौ मुख ही मै आरसी' सुन्दर पलंग पर बैठौ है चतुरवर,
आग आइ वैठी प्रिया देव की कुआरसी। ताहि समै प्यारी प्रिया देखि आपु दार्पणक,
पीउ कु दिखावें भावें कीनै मनुहारसी। देखत हौं तेरौ मुख मैं तो अति पाउं सुख,
वीचि धरी आरसी तौ लागत है आर सी।
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१२६
धर्मवर्द्धन ग्रन्थावली मेरौ रूप तेरि नैन कहा तु कहत बैंन,
___आरसी मैं मुख देखौ मुख ही में आरसी ।। .
समस्या-वप केसे च्यार फल फूले ही रहतु है। अति ही अनूप नाभि रूप कूप उपरितै,
____ मोतिनि की माला घटमालासी वहतु है। नूर नीर ऊर पूर रभ थंभ बाहुलता,
__ आनन कमल स्वास सौरभु गहतु है। नाक कीर भौंहि भीर आली की सुहाग वाग,
साचौकरि देख्यो है पैं धर्मसी कहतु है। आंखनि उरोजनिकी एती अधिकाइ पाइ,
चंप के से च्यार फूल फूले ही रहतु है ॥१॥
. सगस्या-ठाढे कुच देख गाढे प्राण अकुलात है । गोरी तेरी देखि गति दूर हु विसारि मति, .
- देखत न कैसे मन ठौर ठहराति है। चुंघट की ओट माझि नैननि सो चोट करे,
जाकै लागै सो तो लोट पोट होइ जाति है। सोनै सु सुधारे सारे आधे से उघारे भारे, काठ तौ चोगान के 'निसान से कहातु है। कहै धर्मसीह कसे ऊभै पोरीय से ऐसे , ठाढे कुच देखें गाडै प्राण अकुलात है ॥ १ ॥
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प्रस्ताविक विविध सग्रह । १२७
समस्या-नोली हरी विचि लाल ममोला - थोरी सी वेस में भोरी सी गोरीसी,
गोरी चलावति नैन गिलोला। जाकै लागै ते डिगै मुन ही, मनहि महि मारत मार झलोला। मोहै सबै मन मौहैं अचंभजु, कौहै कही यह रैन अमोला। हसै घट चुंघट ओट में आनन
नीली हरी विचि, लाल ममोला ॥ १ ॥ एक समे वृषभान कुमारि, सिंगार सजै मनि आनिइ लोला। रंग हर्ये सब वेस वणाइ कै, अंगुल काइ लए तिहि ओला।' आए अचाण तहा घनश्याम, लगाइ झरी करें केलि कलोला । घु घट मे एकयों अधरा मनु, नीलहरी विचि लाल ममोला। '
समस्या पूर्ति--टेरण के मिस हैरण लागी चंप सुंच्यार सखी मिलि चौक में, गीत विवाह के गावन लागी। , गौख ते कान्ह को साद सुण तें, भइ वृषभान सुता चित रागी। जाइ नही चिंतयौ उत ओर, सखीनि कै बीचि में बैठी सभागी। उतें कर कौ सुकराज उडाइ कै, टेरण के मिसि हेरण.लागी ॥२॥
भानि मै वद ज्युगोए के वृद में, बैठे है नद के नंद सोभागी । , एते मैं आइ घटा घुरराइ, घनाघन की बरसै झर लागी।
आधि कै राधिक कान के अंग, आलिंगनु काजु भइ अनुरागी। आइ के गाइ वताइद्यौ कान्ह यौ, टेरण के मिसि हेरण लागी ।।२।।
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१३०
धर्मवर्द्धन ग्रन्थावली
सवैया–समस्या, हरिसिद्धि हस हरि यो न हस हनुमान हरौल किये चढे राम,
तयों निधि सनिधि लक ध्वसे । ऋरि रौद्र संग्राम लकेश कु मारि,
कियौ सुखवास की नास नसे ॥ शिव चिंत्यो त्रिलोक को कंटक सोऊ,
नमावती मो पद सीस दसे । उत दैत्य हसे उत देव हसे,
हरि सिद्धि हसे हर यौं न हसे ॥ १॥ अपणे भुज भार पहार उपारि,
गोवर्द्धन धार जो धार जसे । तिण माखण ले मटकी पटकी,
अपराध ते कौल के नाल कसे ॥ अब खोल दे गात जसोदह मात,
न माखन खाऊं न जाऊ नसे । उत दैत्य हसे उत देव हसे,
हर सिद्धि हसे हरि युन हसे ॥२॥
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प्रस्ताविक विविध संग्रह
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समस्या-योग, भोग पर रिण-देणो घणो लहणी न कछ,
गहणी घर मे कर एक छलौ है । इत भूतसौ पूत कुपात है तीय, .
कहा' कहि बात में जात ललौ है ।। नित गेह के नेह में देह दहै,
न गहै ध्रमसीख न तत्त तलौ है । नहिं जानत है चित मे इतनौ,
इण भोग हुते जति जोग भलौ है ॥१॥ कहै नाम अत्तीत अनीति धरावत,
पावत लोक अलोक गिलो है।' विह साव सौ वेप धरै बहु घेख,
अलेख कहै पें, अलेख ललौ है ।। न सरें जब काज गरें जु पर,
' झगरें बहु सु पकर जु पलो है। कही साध्यौ कहा इण जोग गहे,
इण जोगहु ते गृह भोग भलौ है ॥२॥
समस्या-चतुराई पर एक एक चातुरी सौ अकल नकल आनें,
सकल सयाने लोक सुनि के थगतु है।
२--कलहा, कलहि, बालत, जालत'
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१२८ धर्मवर्द्धन ग्रन्थावली
सया ( समस्या) अरे विधि तु विधि जाणत थौ पुनि,
एक विचार कहा यह कीनी । गोरी करी पतरी करि की कुच,
के उच को पुनि बोम ही दीनौ । जो कबहु बहु पौन वसै करि, ।
दूटि जैहैं करि के जु करीनौ । ता तव ऐसे ही कैसे वणावेगो,
धर्म को वैण ते मोनि न लीनी ॥ १ ॥
समस्या-कर्म नो रेख टर नही टारी नीर भर्यो हरिचंद नरिंद ही, कंस को वंस गयो निरधारी । मुज पर्यो दुख पुंज के कुंज, गयो सब राज भयो है भिखारी। लंक कुवंक कलंक लगाइ है, रावण की रिधि जावण हारी। मीन रु मेख कहै धर्म देख प, कर्म की रेख टर नहीं टारी ||शा
समस्या-टारी र नही कर्म की रेखा
छप्पय
एक को एक रु दोइ न आवत, एक कर केई लाख के लेखा। एक के रासभ ही नहीं एक कै, द्वार हजार करै हय हेखा । कोऊ सुखी जगि कोऊ दुखी जन,
काहे कौं काहू को कीजै अदेखा। कोडि उपाय करौ धर्मसी कहैं,
टारी टर नहीं कर्म की रेखा ।। १ ।।
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प्रस्ताविक विविध संग्रह
१२६
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समस्या-सवैया तेईसा
तत्त की या धर्मसीख धरौजु, कहा बहु गल्ल कथा विस्तारौ । मोल न हूँ मणि की मणिहारीय, अमृत बिंद न कृपक खारौ ॥ चद उद्यौत करें सबहुं दिशि, तारक कोरि छतें ही अधारो। सारकी होडि कहा करै टार, सपूत घरी न कपूत जमारौ ||१|
समस्या-निसाणी घर जानकी सवैया इकतीसा आयौ जाको दूत जमदूत को सौं पौनपूत, या तो देखौ वावि की प्रसिद्धि लोक वानि की। कीनों उतपात पात, पात सौ आराम कारि, बैठो है आराम करि, कैसें 'लंक थान की। मदोदरी कहै राज, मदौ दरीखांनी: आज, धारौ वर्म सीख पैं न, धारी सीख आनि की। . कानि कानि फैली बात, कानि तैं न कही जात, , आनी बरि जानकी, निसाणी घरि जान की ॥ १ ॥
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धर्मवर्द्धन ग्रन्थावली एक तो विचित्र चित्र शत्रु मित्र जंत्र मत्र,
राग रंग रस माझि जावता जगतु है ।। कर्म कला करण में धर्मसीख धरणे मे,
चातुरी तें भूपण है दुख न भगतु है । रे वेद पाठी ते चातुरी कु चित्त चाहै,।
चारू वेद चातुरी के चेरे से लगतु है ॥ १ ॥
समस्या—मान पर मित्र उ मेरा जीव राजी ह राजीव सम,
जासुमन मेल सो तो दूर ही नजीक है। प्यार धरि सीख सो मे मान कुल लीकजैसी,
ग्यार विन सीखसो मो लागति अलीक है। हित मुदे तिनको सो मोतिनि को हारमानु,
हेत विनु हार सोऊ तिनिके की सीक है। मान को तो वीरा मेरे हीरा के समान मानु,
बिना मान हीरा मेरे वीरा के सी पीक है!
समस्या-साहिबी न भावें ताकु साहिबी फकीरी है । देश की विदेश की निसे की न चिंता कछु,
हीनता न दीनता न काई तकसीरी है। सगकी न जग्गकी न ढग्ग की न चाहि काहि
काहू की प्रवाहि ना न कोई दिलगीरी है । सोच को सकोच को न पौच की आलोच मत्र,
आप है म्वतंत्र काहू जोर न जंजीरी है। .
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प्रस्ताविक विविध संग्रह १३३ साहिब के नाम धर्मसील गह्यो एक टेक,
साहिवीन भावे ताकुसाहिवी फकीरी है ।।१।। मन के महल मांमि समता प्रिया के सग,
अनुभौ के अंग रंग सुखनि की सीरी है। ममता न मोह द्रोह रमता है आपा राम,
__ ज्ञान गुन कलाधारीध्यान दशा धीरी है। काहू की न सक वंक तेसो राउ राना रक,
सवही कु मान सम कुंजर सुकीरी है। मदिर रुचे न जाहि कंदर को वास ताहि,
साहिबी न भाव ताकुसाहिबी फकीरी है ॥२॥
-::
समस्या-थारी मे यु ठहरात न पारौ । दूर सौ दौरि मिलै छिन मे, छिन मैं गहि लेत है एक किनारी। भौर से खात फैलात चहुं दिसि, नकु अट नहीं होतनि नारी। एक न ठौर कही ठहरात, ग्रह्यो नहीं आवत हाथ अतारौ । यु तृष्णामैं भमै चित्त चंचल, थाली मे ज्यु ठहरात न पारौ ॥१॥ मैं हर वीरज धीरज कारण, गौरी को प्राणनि होते पियारी। मैं कियौ कारितिकेय कुमार, कर उपगार'स धातु सधारी। कासी में होडगी हासी हमारि, निकारि बतातलि पीसही डारी । 'त्रिधातु त्रिकूट विजाती मैना रहु, थारी मैं यु ठहरत पारौ ॥२॥
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धर्मवर्द्धन ग्रन्थावली
समस्या-काकै के दोठे कुटब ही दीठी। मोहनभोग जलेबीय लड् अ, घेवर तामै कही कहा मीठौ । वाद भयौ धर्मसी कहै नागर, न्याउ कु जंगल जट्ट प्रतीठौ । सौ कहे वूरै के पूर भये सब, ताकौ भाइ गुड लाल मजीठौ । सो गुट दीठौ है में अति मीठो तो,
काके के ढीठे कुटम्ब ही दीठौ ॥ १ ॥
समस्या-युंकुच के मुख स्याम कीये है। तीय को रूप अनूप विलोकत, लोकनि के लख मोहि लिये हैं। कोऊ कहै कुच कंचन कुंभ धु, श्रीफल मंगल रुप ही ए है। लगे जिनु दृष्टि विचारि विरंचहि कजल के दुइ बिंदु दीयें है। बात को मर्म कहै कवि धर्म जु, यु कुच के मुख
स्याम किये हैं ॥ १ ॥
समस्या-छानोरे छानो रे छानो रे ,या । काम कलोल मे लोल भयो, पिऊ तीय करै ओहि ओहि रेया। नेकु हर हर मानि वुलाइ ल्यो, कोउ सुणे जिनु लोक पर्छया । सेज के उपर नुपर के सुर, वाल जग्यो लग्यो रोवन मैया । दै तेरे बाप कै थाप डरें जिनु,
छानु रे छानु रे छानो रे' छैया ॥ १ ॥
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प्रस्ताविक विविध संग्रह
सौयो बात करामात शास्त्र घोष कंठ शोष पंडिताई कर पोष,
पूछयौ होत राग दोष रोष न समात है। एक ही बचन कला दूझै कामधेनु तुला,
याही कला आगॅऔर सवे कला मात है। माने सुलतान खान रीमै सब राउ रान,
पावै दान मान थान हित की हिमात है। सव कु सुणै सुहात मुख की है मुलाखात,
धर्मसी कहै रे भ्रात वात करामात है ॥१॥ चोरनि की करामात, चाहत अधारी रात,
साहिनि की करामात घर मैं विसात है। बालनि की करामात, पास अपणी है मात,
पछनि की करामात जागत प्रभात है। जोगिनि की जाति मे जमात करामात कहीं,
गणिका की करामात सुन्दर सुगात है। सवहु कुसुण्यै सुहात मुख की है मुलाखात, __ सव ही कु धर्मसीह बात करामात है ॥२॥
दोहा ओरंग पतिसाहि ग्रही, दहवटि करि दाराह । रज पियारा रज्जिया, भाइ दुपियाराह ।। १ ।। स्वारथ मिट्ठा सब ही कु, विण स्वारथ खाराह । रज्ज पियारा रज्जिया, भाइ दुपियाराह ॥ २ ॥
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१३६
धर्मवर्द्धन ग्रन्थावली मुलतान रै अध्यातमीये प्रश्न पूछाया रो उत्तर, सनैया १ काव्य २ दूहो १ नवा करिने मुक्या, दुरस्त बात जाणी ने खुशी थया ।
सगया इकतीसा
तुम्ह जे लिखे है प्रश्न, ताके भेद भाव झे,
__ तुम ही सौं नाहिं गुझे सुझे है सुदच्छ सौं। मानो "परमात्मा-प्रकाश" 'द्रव्यसंग्रहादि'
और न प्रमाणौ ग्रन्थ ताणो आप पच्छि सौं। ता ते और आगम के उत्तर न आवै चित्त,
लिखि कै बतादें केते हेतु युक्ति लच्छ सौं। दुर हुँते ते भ्रम होड, सैली नाहि कहै कोइ,
बात तो वण जो ज्ञान (होष्टि हूँ प्रतिच्छ सौ ॥१॥
श्लोक युष्माभिलिखिता विचित्र रचना प्रभाः परीक्षार्थिभिः । केचिच्छास्त्रभवाः सुबोध विभवा केचित्प्रहेलीमया । ते वो नो मिलनाहते नहि कृते भ्रांतहतेवः क्षमा। स्तत्प्रत्युत्तर जाल मंगन मनो मीनी धुनानीयते ॥ १॥
दोहा
तजै नाहि व्यवहार कु, भजे नाहि पछपात । तत्व धरें दूपण हरें, सोइ सुन कहात ||१||
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प्रस्ताविक विविध सग्रह
१३७
सनैया उपजी कुल शुद्ध पिता हनि के, फुनि शुद्ध भई करि दोप विलें । करि सग पितामह सुप्रसयौ, पित आप कुवारि कै खेल खिलें।। जग मित्र जिवाइ चरित्र वणाइ पवित्र भलै धर्मसील भिलै । कहि कौन सखी पित कैं पित सु , विछुरै दुरिकै फुनि जाइ मिली।
सवैया-तवीसा
चम्पक माझि चतुर्भुज राजत, कुंद मे आप मुकुद विराजै । केतकी माझि कल्याण वसैं नित, कूजकै कू च में केसव छाजै ॥ मालती माधौ मुरारी जु मोगरे, गुलाव गुपाल सुवास सुसाजै। कान्ह वसै कल्पतरु माझि, नरायण फुलनि हुं कु निवाऊँ ॥१॥ केतकी में केसव, कल्याण राइ केवरा मै,
कज मैं जसोद सुत कुद में विहारी है। । मालती मैं मुकुन्द मुरारि वास मोगरे,
गुलाब मे गुपाल लाल सौरभ सुधारी है । जूही मैं जगतपति कृपाल पारजात हु मे,
पाडल मे राजे प्रभु पर उपगारी है। चप मे चतुर्भुज चाहि चित्त चुभि रह्यो,
सेवत्री मे सीताराम स्याम सुखकारी है ॥२॥
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वैद्यक विद्या (डम क्रिया)
॥
शंकर गणपति सरस्वती, प्रणमु सब सुखकार । वैद्यनिके उपकार कुं, अग्नि कर्म कहुं सार ॥१॥ जो चरकादिक ग्रन्थ में, विविध कह्यौ विस्तार । वागभट्ट ते मे कहु, भापाबंध प्रकार ॥२॥
रोग सख्या सग्रह ताप सन्निपात जाणी अतीसार सग्रहाणि,
फीही विध राल पाडु गोला सूल खैन है। हीया रोग सास खास रुधिर प्रवाह रूप,
सीस पीड रोग अरू जेतें रोग नैन है॥ और उन्मादवात कटीवात सीत अंग,
मृगीवात कंपवात सोफोदर अन है। जलोदर अंडवृद्धि धनुप चोवीस रोग, ताकि कहै दभक्रिया वंद्य ग्रन्थ वेन है ।।३।।
दोहा संनिपात ज्वर नाश कु, डभ वतावै च्यार। प्रथम तालव दीजिये, दंभ गोल परकार ॥ ४ ॥ दूजो लंबो ग्रीव परि, जहा धरिज जोत । दो लवणे द्यौ वतला, च्यारे इहि विधि होत ॥५॥
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वैद्यक विद्या
१३६
अतीसार ग्रहणी विर्षे, दम बतावे पच । नाभि चिहुं दिसि च्यार दयौ, कूरम पद के सच ॥ ६ ॥ त्रय अंगुल फुनि नाभि तजि, अधोभाग शुभ ठाण । लंबो अगुल च्यार को, पचम डंभ प्रमाण ॥ ७॥
परिहा पूठि दशा सु आणि उदर कर सु ग्रहै, .
फीहा की जहा पीर आगुली अग्र है । दीजै तिहा दोइ डंभ एक एक उपरै,
परिहा, एहि विधि वैद सुजाण तुरत वेदन हरै ।। ८ ।। डभ तीन विध राल तहा विधि सु कर,
___ लाबो आगुल च्यार एक तिहि उपरै । दूजी हिरदौं मूल दंभ वत्तुल धरौ, ' परिहा, पूछ जहा बहु पीर, तहा धरि तीसरौ ॥ ६ ॥
चौपाई पाडु रोग सोफोदर सही, तीजो रोग जलोदर लहि । च्यारे डभ चिकित्सा जाणि, ज्युकीजै त्युकहु बखाणि ॥१०॥ हृदे मूल वत्तुल इक होड, दुहु कुखे लाबा दयौ दोइ । इक अगुल तजि नाभि प्रकार, चउथौ डंभ चूड़ी आकार ॥१२॥ फीहै जो विधि कहु बखाणि, गुलमरोग पिण सो विधि जाण । पेट सूल जो होइ अगाध, सूल डंभ ते नासे व्याध ॥१२॥ प्रबल होइ जब खैन प्रकार, बोली दभ क्रिया तहा बार। एक तालवै दीजै गोल, दूजौ ग्रीवा जोत्रं ओल ॥१३।।।
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ऐतिहासिक व्यक्ति वर्णन
बीकानेर नरेश
अनूपसिह सवैया केई तो विकट वाट लंघत अलघ घाट,
बीते है मुहीम में वरस बीस त्रीस जू । केइ उमराउ राउ चाकरी चपल कीन,
___ भी. बरसाति गति दौर निस दीस जू । तेऊ सिरपा कु उपा करे कोरि भाति,
तो भी ताक नानति है दिल मे दिलीस जू । धन्य महाराज श्रीअनूपसिह तेरौ तेज,
बैठे ही कंपातिसाह भेजे बगसीस ज ।। १ ।।
सस्कृत
भुज्यत इष्ट जनैः सह मृष्ट मऽवे हि तदेव हि भोजन मिष्टं ॥ स्मर्यत एव परोक्षतया किल वयंम ऽजयं मथेह विशिष्टं । ज्ञान गुणत्व मिदं भुवि वर्णय यत्र हि कर्म वचश्च न दुष्ट ॥ छद्म विना द्रियते रूचिरं शुभ धर्म विधान महोउपदिष्टं
कवित-( स० १७२६ मध्ये मात्र मासे कह यौ ) बीकपुर तखत महाराज मोट वखत,
बजे सुजसा तणा जास बाजा।
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ऐतिहासिक व्यक्ति वर्णन १४३ बड़ो उमराव दिल्लेस वखाणियो,
रूप भूपा अनूपसिंह राजा ॥१॥ कहर अरि कटकी काटि काने किया,
विरूद मोटा लिया आप बाहे। करण तण आपणौ सुजस सगले कियौ,
सही परसंसियो पातिसाहे ॥२॥ पाट बैठा प्रथम हरप हुयो प्रजा,
___दसो दिस भूपते भेट दीधी। सूरहर आप सुलतान साराहि ने,
कुजरा धना बगसीस कीधी ॥३॥ हिन्दुआ मौड राठौड़ मौटे हसम,
पुहवि पत्ति माहि परताप प्राझौ । अनूपसिंह राजवी अटक कटके अडिग,
आप श्रीजी करै जास आझो ॥४॥
अमरसिह जी सनैया ।
तेरे तो प्रताप के प्रकाश त्रास पाइ अरि
नास सरण की आस डोलत घराघरी। तेरे ही नि देस देस नेस न प्रवेस कहुं
वन मैं निवेस काज धर की धराधरी। सिंह न कौ डर डारि कन्दर के अन्दर ही
चैरि हीये तेरौ भय भयौ हैं खराखरी ।
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१४०
धर्मवर्द्धन ग्रन्थावली
ग्रहणी रोग बताये पंच, तिण विधि सुदेणा तिण संच । पंच उदर हिरदै प्रकार, इहि विधि द्वादश डंभ विचार ।।१४।। . हिरदै रोग स्वास अरू खास, डंभ क्रिया तिहा पंच प्रकास | हुदै लीक अरू वर्तुल च्यार, दंभ अस्थि के मध्य विचार ।।१।। रूधिर वहै नासा मुखि जब, सीस डंभ वर्तुल इक तवै । डंभ कह्या सन्निपाते जोड, सीस रोग सीतागै सोइ ॥१६।।
परिहा
मृगी धनुप वात जव जाणिय,
दीजै खट खट डंभ क्रिया पिहिचाणियें । दो लवणे दोइ पाय एक पुनि तालवे,
परिहा गुदड़ी उपरि एक इणै विध चालवें ॥११॥ कटी वात जव जाइ न ओपध गोलीयें,
कटि नीचे दोइ डंभ वणावौ चूलीय । अंड वृद्धि जब होइ दंभ इक दीजिये,
परिहा, पाय अंगुली पास समझि विधि लीजिये ॥१८॥ वामी दिसि जो होइ कुरंड विथा घणे, -
दक्षिण दिसि द्यौ दभ तुरत पीड़ा हर्ण । 'पद अंगुल दश जाण तहा दश दंभ है,
परिहा, पंच पच दोइ जानु सधि विचि थभ है ।।१६।।
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वैद्यक विद्या
१४१ नेन पीड अति ही जन औषध औसरे,
दो लवणे द्यौ दंभ, तुरत पीड़ा हरै। अग्नि क्रिया के श्लोक वागभट ग्रन्थ में,
परिहा, कही भाषा सुसरल वचन के पंथ मै ॥२०॥ सतरे चालीस विजयदशमी दिन,
गच्छ खरतर जगि जीत सर्व विद्या जिनै। विजयहर्प विद्यमान शिष्य तिनके सही,
परिहा, कवि धर्मसी उपगारै दभक्रिया कही ।।२१।।
..
-:०:१०:--
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१४४ धर्मवद्धन ग्रन्थावली राज श्री अमरसिह नाम सिंह सम है पै
मूरापन कैसे सिंह करिहै बरावरी ॥१
दोहा खड लाराखेसि, अमरेसे लीधी उरा। राख्यो नही बहु रोस, दोइ आखर बगसे दीया । १ । अमरेसे बाहयो सु असि अटक्यौ अरि उर आइ । तिण अरि धार बाधी तुरत, जोयौ मन्त्र जगाय ॥२॥
काव्य श्री मच्छ्री अमरादिसिंह भवता नूनं रणे बैंरिणा। वामत्तारित मित्थमत्रमयकावाकिं वदंत्या श्रुता । मन्ये नाह मिति त्वया त्वति तरां तत् स्त्रीयु सिक्तंदकं । नोचेन्निर्जरवत् साद प्रवहति स्त्री दगंभः कथं ।। ४ ।।
अमृतध्वनि सबल सकल विधि सबल सुत, गढ़ जेसाण गरिद ।
अमरसिंघ इल में अखी, सोभत जाणि सरिंद ॥ १ ॥ चालि-तौ सोभ सुरिन्द दुतिहि दिणंद इंविण धनबहानसमंद) ,
दुथिय दरद दलित दरिद ढसहि दिशिंद। दृधितां हद देव विरूढ दल बलरूह ढ्ठ द्धिरह दिढ़
असि वृन्द । द् दुदभि नव दुसह सब दुयण दह्द दहवट दढ । दूर सिस हद हिल विहसद्द दुनिय कुमुदद् ददीपति चन्द ददेखि नरिंद दिन कविंद
धे जयसद् द्दीरघ आउख तास ||२|| स० ।।
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ऐतिहासिक व्यक्ति वर्णन
१४५
गीतराउल अमरसिहजी री - बलोचारा माडला रौ सवत १७२६ जेठ माहे श्री जैसलमेर मे कयौ ।
कवित्त
जेठ तपते तपत जीव जगरा जिके,
आपणी ठाम सहु रहै अटकी । छोडि सहु काम ताके सहु छाहडी,
कीध तिणवार अमरेस कटकी ॥२॥ साभली वात बउलोच सीमा हुता,
धपटिया धेगुआ करे धाडौ । खलकती लूअ मैं खण्ड करिवा खला,
आवियो अमरसिंह तेथि आडौ ॥२॥ काटि खग झाटि अरि धाटि दहवाटि करि,
अधिक जस आपरे तखत आयौ। भलभली भेट भूपा तणी भोगवे,
सबल तण आज प्रतपै सवायौ ॥३॥ दौलति परजि सहु एम आसीस द्य,
जीपिया जग तिम वले जीपौ। दूथिया पाल सु दयाल दायाल हर,
दीपते सूर जिम सदा दीपो ||४||
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१४६
धर्मवर्द्धन ग्रन्थावली
कवित्त जसवन्तसिहजी (जोधपुर महाराज ) का स० १७३६ रे पोस माह मध्ये कयौ महाराजा जसवन्तसिहजी देवलोक हुआ पछलौ । देहरा पड्या तिरण समीय रो। हुतौं जसवंत ता थोक सगला हुंता,
हुती हिन्दुआं तणे वात हाथै । देखसी असुर कवण तजि देहरा,
सलकिया देव जसवन्त साथै ।।१।। पड्ये जिण जोध पौकार सगलैं पड़ी,
धरै नहीं अरज पातिसाह धीठौ। राह बंधी हुइ रखे कोइ रोकसी,
देवं जसवंत रौ साथ दीठी ॥२॥ हुतौ हिंदुआ तणौ धरम सूरा हरौ,
सबल चिता पड़ी देस सारें। दुख मरूवर तणा रखे हिव देखस्या,
ललकिया देव जसवंत लारें ॥३॥ सुणी सुर लोक में वात गजसीह रें,
हुसी हिदुवा तणी रखे हासी । आपण वीज निज अंश अवतारिया,
आवियो आप हिव देव आसी।४। कवित्त न० २ (जसवन्तसिहजी रा समईया पछलो ) मस्थर देस महाराज मोटी मरुद,
कड़ नहीं परज ने चित काइ ।
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ऐतिहासिक व्यक्ति वर्णन
१४७ असुर सुबीहत इन्द्र आलोचि नै,
भीर नैं तेडियो जलू भाइ ॥१॥ जाइ सुरलोक मैं अमल कीचौ जसु,
असुर सहु नाति मृतलोक आया। कसर सहु आपणी मूलगी काढ़िवा,
__ लागते जोर जजाल लाया ॥२॥ लोक सगला कन्है जीजीया लीजिये,
देहरा ठाम महिजीद दीसै। थरहर गाय इण राव इन्द्रसी थका,
हियो इण राज सु केम हीसै ॥३॥ खुदिजै परज चिहु पाखती खोसिजें,
सहु कहै लोक इम केम सरसी। धरौ मन धीर सुख हुसी हिंदू धरम,
कुअर जसराज रा राज करसी ।४!
कवित्त दुर्गादासजी का (महा) मौड सुरधर तणा खला दल मौडता,
दौड पतिसाह सु कर दावा। रोड़ रमता थका चौड रिम्म चूरता,
ठौड ही ठौड राठौड ठावा ॥१॥ छात ढलतें जसू हुइ नाका छिली,
साक -तजि साह सु कर साका । दाव पाला कीया सुजस डाका दिया,
जोध वाका करै नाम जाका ॥२॥
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१४८
धर्मवर्द्धन ग्रन्थावली
-
आगला भूप श्री अजीतसिंह आगला,
डागला दौड़ज्यू दिली कति दूर । भागलै भुजा बल खला करि खागले,
सागलैं कीध जस सूर हर सूर ।।३।। खीजीया यवन ल्यै जीजीया खूटिवे,
खेचला वीजीया रैत खाखी । प्राण जोधाण रै पाजीया पी जीया,
रेख दूर्गदास राठौड़ राखी ||४||
गीत श्री शिवाजी रो श्री सूरत मध्य कह्यौ स० १७३३ आसाढ माहे । सकति काइ साधना, किना निज भुज सकति,
वड़ा गढ़ धूणिया वीर वाकै । अवर उमराउ कुण आइ साम्ही अडे,
सिवारी धाक पातिसाह साके ।। १ ।। खसर करतां तिके असर सहु टुंदिया,
जीविया तिके त्रिणौ लेहि जीहै । शब्द आवाज सिवराज री साभले,
विली जिम दिल्ली रो धणी वीहे ।। सहर देखे दिली मिले पतिसाहस,
___ खलक देखत सिवौ नाम खारै। आवियो वले कुसले दले आपरे,
हाथ घसि रह्यौ हजरत्ति हारै ॥३॥
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ऐतिहासिक व्यक्ति वर्णन
१४६
कहर म्लेच्छा शहर डहर कन्द काटिवा,
लहर दरियाउ निज धरम लौचै । हिन्दुओ राउ आइ दिली लेसी हिवे,
सवल मन माहि सुलताण सोचे ।४।
नाजर पानदरान जी रो सङ्गयो ज्ञायक गुण अगाह, न्याय को करै निवाह,
आलोची वडी अथाह धीरज को धाम जू । सज्जन फल्यो उमाह, दुज्जना के हिये दाह,
पुण्य को सदा प्रवाह जाको शुभ नाम जू । चित्त मे धरते चाह नित्त ही उडीके राह,
पूज्यौ इष्ट देवताह कीनौ इष्ट काम जू । सब ही कर सराह वाह वाह वाह वाह,
आयो तो भयो उच्छाह श्री आनन्दराम जू । १।
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वर्तमान जिन चौवीसी
१ आदि जिन स्तवन
राग भैरव आज सुदिन मेरी आस फली री || आज०॥ आदि जिणंद दिणद सो देख्यो,
हरख्यो हदय ज्यु कमल कली री । आज सुमा। चरण युगल जिनके चितामणि,
मूरति सोइ सुरवेनु मिली री। नाभि नरिंद को नंदन नमता,
दूरित दशा सव दूर दली री ।। २ ॥ प्रभु गुण गान पान अमृत को,
भगति सु साकर माहि मिली री । श्री जिन सेवा साइ धर्म सीमा,
ऋद्धि पाइ साइ रंग रली री ॥३॥
२ अजितनाथ स्तवन
__राग-ौरव प्रभु तू अजित किन्हीं नहिं जीतो,
सोभत रवि ज्यु तेज सदीतो। अधिको को नहीं तोहि अगीतो,
तेरी महिमा जगत जगीतो ॥ प्रभु० ॥ १॥
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चोवोसी
१५१
सुर नर सब मे अनग अजोतो,
काम कठिन सो ते वश कीतो । जल सब अनल बुझाइ वदीतो,
पानी सोइ वडवानल पीतो ॥ प्रभु० ॥२॥ विन प्रभु दरसण काल बितीतो,
भवभय भमीयो बहु भयभीतो । गुणवत तेरी सेव ग्रहीतो,
श्री धर्मशील सुशील लही तो प्रभु०॥३॥
३ श्री सभव स्तवन
राग-सोरठ सेवा बाहिरो कइयै कोइ सेवक (ए देशी ) ॥
मभवनाथ जी सब कु सुखदाइ, किम ए विरुद कहावै । इहा आछी दीसैं अपणांयत, सेवै ते सुख पावै॥ सभव ॥१॥ खिजमत करि कर जोडि खिजमत, आप नरीमैं औजाह । मोल दिये पिण मसकित माफक, मोटारी नहीं मौजाह ।।२।।स ।। भगति करै त्या राखै भेला, कठे न फेरै कबही। श्री धर्मशील कहै सुणजो साचो, स्वारथ राचै सबही ।।स।३।।
४ श्री अभिनन्दन स्तवन
राग-वसत धन धन दिनकर उग्यो उछाह,
अभिनन्दन जिन वदन उमाह ॥२॥
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१५२ धर्मवद्धन ग्रन्थावली सब तमस मिट्यौ प्रगट्यो सराह,
वयो शुभ ज्ञान प्रकाश वाह ।।२।। चित कोक विलोकव करत चाह,
सव सुर नर जिनकी करत सराह ॥३॥ फरस्यौ शुभ यश परिमल प्रवाह,
लुलि नमता समकित रतन लाह ॥४॥ इनके गुण गण महिमा अथाह,
गावइ धर्मशी गुण गीत गाह ॥५॥ ५ श्री सुमति जिन स्तवन
राग--वैलाउल मेरे माई सुमति की सेवा साची। जिनके नाम प्रसाद-जयी है, राधा आप सुराची ॥१॥ वादी कुबुद्धि किए बहु कामण, नटवी ज्युबहु नाची। दूर निकार दइ बहु दूती, तृष्णा मारी तमाची ॥२॥ सुनानी के परप्यारी सु, करनी प्रीति सुकाची । सुधर्म शीलवती सखदाइ, युवती याहीज राची ।।मेरे॥३॥
६ श्रीपद्मप्रभु जिन स्तवन
राग-तोडो हृदय पद्मप्रभु राचि रह्यो री । मंगल सकल हर्प भयौ मेरे, लाभ अनोपम रतन लह्योरी ॥१॥
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चौवीसी
१५३
-
काम क्रोध प्रवेश न पावृत, गेह सुज्ञानी आप गयो री। दुश्मन सकल निकल गये दूरे, सबल प्रताप न जाइ सह्योरी ॥२॥ अव अपने घर साहिब आयौ, चरण न छोड़ चित्त चटौरी। शासन बगस्यौ जिन धर्म सीमा,
करिहों में पिण आप कह्यौरी ॥३॥ह० ॥
७ श्री सुपा जिन स्तवन
राग-सारग-वृन्दावन सही, न तजु पार्श्व सुपास कौ ॥१०॥ सकल मनोरथ पूरण सुरमणि, सुरतरु लील विलास को ||न०॥२॥ सुरनर और की करि करि सेवा, हुइ थानक कुण हास को। अधिकौ लही साहिब को आदर, दास हुवे कुण दास कौ ॥२॥ शुद्ध समकित धर जिनवर सेवा, करण पातिक नास कौ । श्री धर्मसीह कहै मोमन मधुकर, प्रभु पद पद्म सुवास कौ ॥३॥
८ श्री चद्रप्रभु जिन स्तवन
राग-मारु चदप्रभु नी कीजइ चाकरी रे, चित चोखे हित चाहि । सूधी कीधी सेवा स्वामिनी रे, लीधौ तिण भव लाह ॥१॥च० चाकर होइ रह्यो जसु चंद्रमा रे, लछन मिशि पग लाग । स्वामीनै सेवक उपमा सारखी रे, जुगति नहीं इण जागि ॥२॥च० प्रम नी ठामै प्रभु एहवौ पढ्या रे, योग्य अर्थ ए जाण । श्री धर्मशी कहै सूधो समझिये रे, पंडित कहै ते प्रमाण ॥३॥
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धर्मवर्द्धन ग्रन्थावली
६ श्री सुविधि जिन स्तवन ।
राग-प्रासा
कबहु में सुविवि को ध्यान न कीनउ । आरत रौद्र विचार अहोनिश,
दुर्गतिघर करिवै घर दीनौ ॥ १॥ दीप ज्यु औरनि पंथ दिखायौ,
आपहि लाग रह्यो तम लीनौ । मेरो तन धन करि सुख मान्यौ,
मणि परखी पिण अन्तर मीनौ ।।२।। परमारथ पथ नाहिं पिछाण्यो,
__ स्वारथ अपणो मानि सगीनौ । मुविधि कही धर्म सीख न धारी,
निकल गयो नर जन्म नगीनौ ॥३॥ १० श्री शीतलनाथ स्तवन ।
राग--कान्हरौ सुखदाइ शीतल स्वामी रे, शुभ सुमता रस विशरामी रे । उपकारी गुण अभिरामी रे, नमीय एहने शिर नामी रे ॥ १॥
के क्रोवी कपटी कामी रे, खल केइ केहि में खामी रे। __ अज्ञानी अगुण अथामी रे, कर तनु सेवा किण कामी रे ॥२॥
जिनवर जग अन्तर्यामी रे, गुण गावै ते शिवगामी रे। ध्याचे वर्मशी धर्म धामी रे, पुण्ये प्रभु सेवा पामी रे ।।३।।
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• चौवीसी
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११ श्री श्रेयास जिन स्तवन
राग--सामेरी
केवल वाला रे केवल वाला, कोउ मिलि है केवल वाला। ताको पूछ कब तूटेगा, जन्म मरण दुख जाला ।। के० ॥२॥ भव २ ममते पार न पायो, मोह रहट की माला । पावु ज्ञानी तो अब पूछु , कब यह मिटय कशाला ॥२॥ धन अपने की शोध न धारी, मद आठ मतवाला । सो दिन सफल वचन सद्गुरु के, पीयु अमृत प्याला ||३|| श्रेय भयौ लह्यौ श्रेयास साहिब, आया समकित आला। सब सुख कारण अनुभव सानिधि, सु धर्मशील संभाला ॥४॥
१२ श्री वासुपुज्य जिन स्तवन
वाह वाह वासुपुज्य नी वाणी, वासव पण आप वखाणी। आवइ भावइ आफाणी, उवारणा लेइ इन्द्र इन्द्राणी रे ॥१॥ मधुर ध्वनि गाज मंडाणी, योजन लगि सर्व सुणाणी रे। सुर नर तिरि सहु समझाणी, अतिशय पैंत्रीस आणी रे ॥२॥ वैर वाता सहु विसराणी, पशु ए पिण प्रीति पिछाणी रे। धर्मशील सूधा सचाणी, शिवरमणी तणी सहनाणी रे ॥३॥
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१५६
धर्मवर्द्धन ग्रन्थावली
१३ श्री विमल जिन स्तवन
राग-- पल्हार
विमल जिन विमल तुम्हारा ज्ञान ।
परखै लोक के सकल पदारथ, पट् द्रव्य नीकी खान ||१|| वि मिथ्या, अविरती योग कषायै, बंध सत्तावन जान । अ कर्म, इक सौ अट्ठावन, प्रकृति तजी पहिचान ||२|| वि० आपहि आप सुरौं आप पिछाण्यौ, परगुण नाहिं प्रमाण | चरि धर्म ध्यान पिछान सुक्ल पथ, थिर बैठो शिव थान ||३||वि
१४ श्री अनंतनाथ स्तवन
राग - सोरठ
सहु संता ।
मतिमंता ||१||
अनंतनाथ रा गुण अगम अनंता, साभलजो रयणायर में गिणती रयणे, मुनि न कहै मध्य अनंतानंत छयें में, थोवा सिद्ध अनंता । एक निगोढ़ी जीव अनंता, वलिय वनस्पति वंता ॥२॥ काल पुग्गल आकार अनुक्रम, अधिक अनंतानंता । श्री धर्मशी कहै ए सर्दहिजो, साखी सूत्र सिद्धता ॥ ३ ॥
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चौवीसी
१५७
१५. श्री धर्मनाथ स्तवन
राग-धन्याश्री घर मन धर्म को ध्यान सदाइ। नरम हृदय करि नर म विषय में, कर म करम दुखदाई धर।१।। धरम थी गर्म क्रोध के घर में, परमति सरमति लाई। परमातम शुद्ध परमपुरुप भज, हर म तु हरम पराई ॥२॥ चरम की दृष्टि विचर मती जिवड़ा, भर म भरम मत भाई। शरम बधारण शर्म को कारण, धर्म ज धर्मशी ध्याई ॥३॥
१६. श्री शान्ति जिन स्तवन राग-वेलाउल अलहियों
शान्ति जिननिर्मलो, पूजै समावो धरि
श्री शान्ति जिनेश्वर सोलमौजी, शान्तिकरण सुखदाइ। नाम प्रसिद्ध जस निर्मलो, पूजे सहु सुरनर पाय हो ॥
श्रीशा आयउ शरण उबारियौ जी, पारेवो धरि प्यार। दान दियौ निज देह नौ, इम मोटा ना उपगार हो ॥श्री॥२॥ उदरे आवी अवतर्याजी, अधिकाई करी एह । मरको उपद्रव मेटियौ, हष्यों - सहु देश अछेह हो ॥श्री॥३॥ भव एके हिज भोगवी जी, दीपत पदवी दोय। चावौ चक्रवर्ती पाचमौ, सोलम जिनवर सोय हो ॥४॥ समरथ ए लह्यो साहिबौ जी, कमणा नहीं हिवै काय । सेव्या वाछित हुवै सदा, इम कहै धर्मशी उवझाय हो ॥श्री०॥५॥
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धर्मवर्द्धन ग्रन्थावली
१७. श्री कु थुनाथ स्तवन
राग--पंचम
शुभ आतम हित साधि रे साधि,
उलझयौ परसु म करि उपाधि ॥शु०॥ तु हिज राजा तुहिज रंक, सुणि दृष्टान्त ज्यु होइ निशक ॥१॥ करि नव नव भव कीडी कुथु, क्रमि सर्वारथ सुर जिन कुथु ।। छठी चक्रवर्ती साधी छः खड, पदवी दोइ पाई परचंड ॥२॥ इण हिज वलि दे उपदेश, केई तार्या टालि कलेश । आप तुअतरदृष्टिसुईख, साची धर सदा गुम धर्मशीख ॥३॥
१८ श्री अरनाथ स्तवन
राग-कज्यो
कद अरनाथ इम. अरति रति क्यों करी,
आथि अरहट बडी एम आखी। भरिय खाली हुवे लाई खाली भरी.
सूर्य शशि भमड इण बात साखी ।। १ ।। मग मन ठाम नै काम पिण वम करो,
घरह मत द्रुप मत मान धागे। काल रक गव ने केद्धि फिरतो रहे.
बहे मरिची नहिं कोड वारी ॥1
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चौवीसी
१५४
सुणौ अरनाथ अरदास सेवक तणी,
स्वामी कही एह धर्म शीख साची । तेह पलिस्य नहीं तोइ तरिसु तिणे,
राज री भगति में रहिस राची ॥३॥
१६. श्री मल्लिनाथ स्तवन
राग-सिन्धु
मल्लि जिनेसर तु महामल्ल, हणिया मोह मदन हैं ठल्ल । पिता तणी पिण चिन्ता पल्ल, सगला दूर किया अरि सल्ल ||२|| अहो अहो ताहरी अथग अकल्ल, आपणै रुप रचाइ अवल्ल । करि जीमण इक एक कवल्ल, भरय तिहा भोजन भल भल्ल ॥२॥ आपणा जे अरि मित्र असल्ल, एकान्ते धरि एक एकल्ल। जुगति देखाई तें भल जल्ल, दुगंध नासै भूत दहल्ल ॥ ३ ॥ तिण सु अपणइ केहो तल्ल, चारित्र लीधौ चोखी चल्ल । अरिहन्त पद धर्म शील अदल्ल, पाली पहुतो मुगति महल्ल॥४॥
२०. श्री मुनिसुव्रत्त जिन स्तवन
राग-जैतश्री
सब मे अधिकी रे याकी जैतश्री, काहू और न होड करी ॥सका आठों अंग जोग, हैं, उद्धत मार्यो मोह अरी ॥१॥..
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धर्मवद्धन ग्रन्थावली
अन्तर वहि तप जप आरा वे, जोर मदन की फौज जरी। बानी हनी ज्ञान गुरजा स, ममता पुरजा होइ परी ॥२॥ अनुभव वल सु भौदल भागे, फाल फतह करी फौज फिरी। कहइ धर्मशी मुनिसुव्रत दाना, देत सदाइ मुगतिपुरी ॥३॥
२१. श्री नमि जिन स्तवन
राग--श्री राग नित नित नमिजिन चरण नमुं। मनहि मनोरथ उपजत मेरे, भमर होइ प्रभु पास भमु ॥१॥ न नमु और कौ तव सब निंदा, खलक करौ तोइ वचन खमु। लालच लोस किही नही लागु, राति दिवस जिन रंग रमू ।।२।। गुण गण गान इन्हों के गावु, दुर्गति के दुख दूर गमू। श्री धर्मशी कहै इण सें राचु, दूजा इन्द्रिय विपय दमू॥३॥
२२. श्री नेमिनाथ स्तवन
राग-वसत करणी नेमिकी, काहू और न कीनी जाय । क०
तरुण वय परणी नहीं हो, राजिमती यदुराय ॥१॥ जीव पुकार सुणी जिणे हो, करुणा मन परिणाय । गज रथ तजके पुनि गयौ हो, शिलाग रथ सुखदाय ॥२॥ ममता वादी-मूकि के हो, सुमता ली समझाय । सिद्ध वधु विलसै सदा हो, प्रणमैं धरमसी पाय ॥३॥
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चौवीसी
१६१
२३ श्री पार्श्वनाथ स्तवन
राग-रामगिरी मेरे मन मानी साहिब सेवा। मीठी और न कोड मिठाइ, मीठा और न मेवा ॥१॥ आतम राम कली ज्यो उलसें, देखत दिनपति देवा।। लगन हमारी यासुलागी, रागी ज्यु गज रेवा ॥२॥ दर न करिहुं पल भर दिल ते, स्थिर ज्यु मुदरी थेवा । श्रीधर्मशी प्रभु पारस परस, लोह कनक कर लेवा ॥३॥
२४ श्री वीर जिन स्तवन
राग-वेलाउल प्रभु तेरे वयण सुपियारे, सरस सुधा हुं ते सारे। समवसरण मधि सुणि मधुर ध्वनि, बूझति परषद वारे ।। मुनत सुनत सव जन्तु जन्म के, वैर विरोध विसारे ॥१॥ अहो पैंतीस वचन के अतिशय, अचरज रूप अपारे। प्रवचन वचन की रचना पसरत, अब ही पंचम आरे ॥२॥ वीर की वाणी सवहि सुहाणी, आवत बहु उपकारे। धन धन साची एह धर्मशी, सब के काज सुधारे ॥३॥
२५ चौवीसो कलस
राग-धन्याश्री चितधर श्री जिनवर चौवीसी।। प्रभु शुभ नाम मंत्र परसादे, कामित कामगवीसी ॥१॥ रागवन्ध दुपद रचनापे, माहै ढाल मिली सी। रोटली गहुँ की सब राजी, मागे स्वाद कुमीसी ॥ २ ॥ सतरंस इकहत्तर गढ जेशल, जोरी यह सुजगीसी, श्री सघ विजयहर्प सुख साता, श्री धर्मसीह आशीशी ॥३॥
११
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चौवीस जिन सवैया आदि ही को तीर्थकर, आदि ही कौ भिक्षाचर,
आदि राय आदि जिन च्यारौं नाम आदि आदि । पाचमा रिपभ नाम, पूरै सब इच्छा काम,
कामधेनु कामकुभ कीने सब मादि मादि । मनसौ मिथ्यात मेट, भाव सौं जिणद भेट,
पावौ ज्यु अनन्त सुख, गावो गुण वादि वादि । साची धर्म सीख धारि, आदिहि कुं सेवो यार,
आदि की दुहाई भाई जो न बोलैं आदि आदि || राजा जितशत्रु संग राणी विजया मुरंग,
खेले पासा सार पै. तमासा कैमी बात है। आप भूप हारि आई, पटराणी जैत पाई,
या तो अधिकाई गर्भ अर्भ की हिमात है । गुण को निपन्न नाम 'धाम को 'सहस्र धाम,
अंसो है अजित स्वामी, विश्व मे विख्यात है। दूसरे जिनंद जैसो, दसरौ न देव को,
ध्यावो एक यौही धर्म सीख जो धरातु है ॥२॥ १ तेज २ सूर्य
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चौवीस जिन सवैया संभव को अनुभौ धरि जाते मिटे ममता समता रस जाग। पाप सताप मिटें तब ही जब आपसुआपही की लय लागे । धगै प्रम सील लही निज लील, जहाँ गुण ग्यान अनंत अथाग। मंभव मभव भाव भले भज, सभव लौ भव के भय भागें 11511 पिता कहें नंदन नीख सुनी, जु चलो अभिनन्दन वन्दन हेते। नन्दन संबर की सुध सवर. 'यंदन धारन है मिवम्वेत । कंद के द निकंदन इंदन, जा ननु कुन्दन की छवि देत । पदन चद मोह जन उजल, चोमो जिनन नमो सुभ चेत ।।४।। मेघकी अंगज मेघनाजन, वाणि वखांणि मुजांण सुहाता । चोतील आपके है अतिर्न, अधिक इक एकही वाणी विख्याता । जैन के बन महाजग मंगल, न्याय तु मगल मंगला माता । पीयपई ईख धरी धमनीव, भजोड गुमत्ति मुमत्ति को दाता ५ आज फल्यो सुर को तम अंगण, आज चितामणि सो कर आयी काम को कुभ धत्वी निज धाम, सुवा मनु पान कराइ धपायो । आज लो ग्लना रस को फल, जादिन तें जिन कोजस गायो। आज मुदही उद ध्रम सील, भयो पदमप्रभु साहिव पायो ।।३।। पारस फास प्रसग कुपाय, भयो है कला यस कंचन जाची । नो भी मिट नहि छेदन भेदन, बंधन तातै सब गुण काची। जन कुमट मिथ्यात कु मेटि, ज्यु केवलज्ञान ही के रंगराची । न्याय मकार धस्यौ धुर नाम के, पारस हुँ ते सुपारस साचौ ७ चंद की सोल कला सबही, वदि पलमे मद दसा मढती है। चाके तो चौगुणी ची दुगुणी' पुनि, वान विसेप सदा वढती है। १ सवर को रथ २ बहत्तर कला
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धर्मवर्द्धन ग्रन्थावली
ग्यान प्रकास कहै श्रमदास, सदा जसवाम दुनी पढ़ती है। लछन चन्द करें नित चाकरी, चद्रप्रभू की कला चढती है ।।८।। वाने है अनादि काल 'योनि के जजाल जाल,
चोरासी की फासी सहै तू भी ताकै मधिकौं । पुण्य के प्रकार अवतार आयौ मानव के,
पायो है जिहाज सोड जन्म जलनिधिको । यारी समतासी जोरि ममता सो ताता तोरि,
__ आप ही धणी है तू तो आपणी ही रिधिको । ध्यावौ धर्म सील ध्यान पावौ ज्यु अनंत ग्यान,
सुविधि बतायौ असौं मारग सुविधि कौ ॥६॥ क्रोच विरोध सवे मिटि जात है, धारत है मति राग न घेखें। मूलते सात मिटात है घातक, आवत सम्यक भाव अलेखें। ताप सन्ताप मिटं भवके सव, दंड दसा कबहुं नहि देखें। शीतल को मुख देखत ही मुझ, "हीतल शीतल होत विसेपैं ॥२०॥ पाय श्रेयास जिणिद के पाय, उपाय श्रेयासि ५अपाय मिटाए । मातही विष्णु पिता पुनि विष्णु, वडे दुहं के इक नाम वताए । इन्वाकु के वस वृपें अवतंस है, उच्चकै चन्द सबै ही सुहाए। इग्यारमे साहिब की लही सेव, इग्यारमीरासि सवे ग्रह आए ११ ५ गेरासीलाख जीवायोनि २ चार अनतानुबंधिया, तीन गोहिनी एवं
सात
३ कलह ४ हियो ५ विचन
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चौवीस जिन सवैया
केईतो 'कैलास की रहास करि बैंठि रहे,
___ काहू को तो वास है बबूल 'बोधितरू को । कोऊ जल-राशि सेप नाग पास सोवत है,
काहू को रहास कामधेनु पूछ खुरको । कौऊ तो अकास अवकास माहे भटकत,
कोऊ कहै मेरौ मेर मैं हूं धणी धुरको। केवल प्रकासी अविनासी हैं अनैंसी ठोर,
तहाँ कीनौ वास वासपूज सिधपुरको ।।१२।। विमल विसेप ग्यान विमल कला निधान,
विमल विचार सार मुद्ध साधु मगमे । केते करे उपगार तारे भव्य नर नारि,
बूडते ससार वार अबुधि अथग मे । एक तेरी करी सेव सब ही मनाए देव,
सबही के पग पैंठे एक गज पग मे । सुद्ध धर्म सील साथ, असो देव कौन आथ,
जैसी है विमलनाथ तेरो जस जग में ।।१३।। आदि के "अनंतानत, सिद्ध सवे जीव सत,
दुसरें निगोढ जीव तीजै 'वनरास है।
१ महादेव २ कृष्ण वासौ बौधतरु, पीपल ३ समुद्र ।
४ सिद्धा निगोय जीवा, वशस्सई काल पुगला चैव । सव्वमलोगनह पुण, तिवगाऊ केवल ग्गामि ॥ २ ॥ ५ वनस्पती
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धर्मवर्द्धन ग्रन्थावली चौथो काल को सरूप, पंचमी पूगल रूप ।
छछो भेद वेद त अलोक को आकाम है। इण के त्रिवर्ग मान, केवल दरस ग्यान,
अस धर्म सीख ध्यान अतर प्रकास है। आप तू अनतनाथ, नाम है अरथ साथ,
पाचु ही अनंत कहे, ते भी तेरे पास है ।१४। पुल के संग सती, पुदल ही आई मिल,
___ ज्ञान दृष्टि जनी नाहि लगी दृष्टि चर्म चर्म । आतम अनंत ज्ञान सोई धर्म थान मान,
और ठौर दौर दौर, कर सोइ कर्म कर्म । विश्व मे रहे है व्याप, प्राणी करें पुन्य पाप,
आपकु न जाने आप, भूल्यौ फिरे भर्म भर्म । व्यावौ प्रभु धर्मनाथ, शुद्ध धर्म शील साथ .
धर्म की दुहाई भाई, जो न बोलें धर्म धर्म ॥१५॥ छोरि पटखड भार, चौसठि हजार नारि ,
छन्नू कोरि गाम छोरि तोरि नेह तंत तत । वाजे वाजें तीन लाख, लाख लाख अभिलाप,
तजिकै चौरासी लाख, तेजी रथ दति दति । चित्त मे वेराग धारि, वित्त के भडार छारि,
भीनी उपशात रस, कीनी मोह अत अंत । चाके गुण है अनन्त, धर्मसी कहै रे संत ।
संति की दुहाई भाई, जो न वोलें संति सति ।। १६ ।।
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चौवीस जिन सवैया
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जल के उपल जैसे करणे यथाप्रवृति,
कर्म थिति तुच्छ के परस देस ग्रंथ ग्रंथ । कीनो हे अपूरवकरण अनुभौ प्रमान,
ज्ञान के मथान सु मिथ्यात मोह मथ मथ । करण अनिवृति आयो, धर्मसील ध्यान ध्यायो ।
पायो है उढं सरूप समकित को पंथ पथ ।
कुथ कुथ सम लीनी, चक्रि पद हेय कीनी,
कुथ की दुहाई भाई, जो न वोले कुथ कुथ ॥१७॥
सुदर्शन गात सुदर्शन तात है, देवीय मात माहा जसनामी । लह्यो अवतार भयो चक्रधार, तिथंकर है पदवी दोइ पामी। जाकै प्रताप मिटै सब ताप, जपो जप ताप स अन्तरजामी। तरी भव पाथ' सदा सुख साथ, नमो अरनाथ अढारम
सामी ॥१८॥
जिनकै मुर कु भसौ कु भ पिता पुनि, मात प्रभावित पुन्यकी पोपी सुपने दम च्यार लहै सुविचार, भयौ जिनको अवतार अदोषी कितने नृप तारि किए उपगार, लह्यौ सिव द्वार भवोदधि सोपी मति को मतभेद कहौ कोऊ कैसे हुं, मल्लिकी चल्लि असल्लिकी
चोखी ।।१।।
१
जल
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धर्मवर्द्धन ग्रन्थावली मात के कूखि लह्यो अवतार, भयौ व्रत्त को अभिलाख अमदौ' तात कियौ व्रत्त उच्छव देस में, सेस प्रजाहु यही परिछंदौ । मोटी भई तप की महिमा मुनि-सुनत नाम कीयो निज नदी। तीनहु लोक को नाथ तिथंकर, बीसमौ बीम विसे करि
वंदी ॥२०॥ आलस' मोह-कथा' अवहीलन, गर्व 'प्रमाद निद्रा
भय भ्रांमी। तद्धनता पुनि सोग अग्यांन'', विषय ' कुतूहुल'' रामनि
कांमी। त्याग छ सातक घातक काठिए, धारि भली ध्रमसीखसु धामी। अनाथको नाथ नमो नमिनाथ, सनाथ किए सवही सिर
नामी ॥२॥ राजीमती सती सेती नवा भवाहु को प्रेम
तोत्यो पुनि जोस्यो भाव प्रेम न अप्रेम प्रेम । अँसौ महा ब्रह्मज्ञांनी, शुद्ध धर्मशील ध्यानी,
यासौ निकलंक कोहैं. सोहै सम हेम हम । धन्य सिवादेवी मात, जार्के सोलै अंग जात,
महा सत्य दृढ शुभ रिष्ट पांचौ नेमि नेमि । छठ्ठी रहनेमि नामी, तारे सब नेमि स्वामी,
नेमिकी दुहाई भाई, जो न बोले नेमिनेमि ॥ २२ ॥ देवलोक दसमे ते आप अवतार आयो,
__ पायो धुरि दसमी जन्म पोस मास मास । १ डोहलो २ अधिको ३ परिवार ।
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चौवीस जिन सवैया
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कासी देसवासी पुरी दुरी नाहि वानारसी,
आससेन पिता, माता वामा जसवास वास। जैन धर्मसीह जानें, पाप दुख पील भागें,
जाके आगें देवनिके, देव भए दास दास । पूरै सब ही की आस, पदमा निवास पास,
पास की दुहाई भाई, जो न बोलें पास पास ॥ २३ ॥
गुण को गंभीर खीर, सोनेसो सरीर वीर,
___ असो देव महावीर, धीरनि में धीर धीर । दान को उदो उदीर दुनी कीनी दवा गीर,
___ दीनौ सवा लाखहु कौ, देवदुष चीर चीर । मारे मोह द्रोह मीर ग्यानी गुने गंगनीर,
तारे तकसीर वारे, पायौ भवतीर तीर । साचौ जैनधर्म सीर वीर मे वीराधिवीर,
वीर की दुहाई भाई, जो न बोलै वीर वीर ॥ २४ ॥ साधु भला दस च्यार हजार, हजार छतीस सु साधवी वदी। गुणसट्ठि सहस्स सिरै लख श्रावक, श्रावकणी दुगुणी दुति चढौ चौवीसमे जिनराज को राज, विराजत आज सबै सुखकंदी। श्रीध्रमसी कहै वीरजिणिंदकी, शासनधर्म सदा चिरनदो।।२।। इति चौवीस तीर्थकरा रा सर्वया संपूर्ण ।। ५० सामजी लिखत बीकानेर मध्ये सवन् १७८१ वर्ष मिती आसाढ सुदि ह दिने ।
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नवकार छंद
कामित संपय करण, तम भर हरणं सहस्स कर किरण । पणमसि सद्गुरु चरण, वरणिस नवकार गुण वरण ॥१॥ वरणिस नवकारं सहु तत सारं, एहिज आतम आधार । अनादि अपार इण ससारं, जिन शाशन में जय वारं ।। इण पचम आर इण अवतार, श्रावक कुल लहि श्रीकार । सहु मंत्रे सारं सब सुखकार, नित चित धारं नवकार ॥२॥ सहु में सिरदार, अगम अपारं, अक्षर मे जिम ॐकारं । ध्याने चित धारं विपमी वार, अड़वढ़िया नै आधारं ॥ राखे इकतारं अति हितकारं, परभव पण ए उद्धारं स०॥ ३॥
पद पच मझारं पंच प्रकारं, पंच परमेष्ठि अवतारं । वरतं इण वारं केवल धारं, बोल्या अरिहत गुण बार ।। कर्म अप्टक्षयकारं मुगति मझारं, सिद्धगुण आठे सभार ||साथ
गुण दुगुण अढारं धुरि गणधारं, आचारज शुभ आचार | उवझाय उदार सुत्र सुधार, गुण पचवीसे आगार ॥ भल तप भंडारं ए अणगारं, इण गुण दउढा अढारं ॥सहुवा।। शिव नाम कुमार, कष्ट मझारं, ठग वसि पड़ियो इकतारं । तिहागुण नवकारं खड़ग प्रहारं, नाखि कड़ाहे निरधार ॥ नलि कीध तयारं सीधोसार, सोवन पुरिसौ श्रीकार ॥सहुला।
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नवकार छद
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पति कीध विचार जिन मति नारं, श्रीमति मारवीय धार । घटथी पुफभारं आणि अवारं, तिय किय घट कर संचारं ।। फीटी अहि फार, हुवउ हार, धन ए जिनमत जप धारं ।।साणा वलि विणठी वार साझ सवारं, दडाकार कातार । शात्रव सिरकारं सिह शिकार, दावोढार दरवार । गिण वंठि वेगार कारागार जय सहु ठामे जयकार |सहु०८ विणजे व्यापार वलि विवहार, लक्ष्मी आप वहै लारं । परिवल परिवार पुण्य प्रकार, बोले बहु जस बाजार ॥ वाई इम वार कुशल करार, करे सहु उपरि कण वारं ॥सहुनाह इम बहु अधिकारं गुण विस्तारं, पामें कहता कुण पार । धुरि ॐ ही धारं सौ हजार, जपता हुवै जय जेतार ।। पूरव दस च्यार सूत्रे सार, दोउ भवसुख दातार ।।सहु०॥१०॥ नित चित धरि नवकार, जप्या दुख दूरे जावे । नित चित धरि नवकार, परवल संपति सुख पावै । नित चित धरि नवकार, शत्रु भय न गिणं साकौ । नित चित धरि नवकार, वाल पिण न हुवे बाकौ । तिम रोग शोक चिन्ता टलै, सकट जावै दूर सही। हुवै सकल सुख विजयहरख, कवि धर्मशी उवझाय कही ।।११॥
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ऋषभदेव स्तवन
ढाल---सफल ससारनी त्रिभुवन नायक ऋषभ जिन ताहरौ,
सुजस साभलि मन ऊमह्यो माहरो। तारण तरण नहीं को तो सारीखो,
पुहवि सहु सोभि ने ए लह्यौ पारिखौ ॥२॥ वलि सुणौ आदिजी माहरी वीनति,
तुम्ह सेवा तिका लहीय निधि तीन ती। त्रिकरण सुद्ध इकतार तोसुं कीयौ,
हिव विशेष करी हरखियौ मुझ हियो ।।२।। भगवन माहरै तुहिज साहिब भलौ,
__ तुं किम लेखवै नहीय मोसु तलौ ॥ विरुद्ध धारो विया चाल बीजी चलो।
पूछस्य हुँ पिण जाव पकड़ी पलौ ॥३॥
"धरिय सहुनी दया प्रथम महाव्रत धरौ,
अरि हणी नाम अरिहंत किम आढरी। व्रत बीयौ धी मृषावाट तजियौ वली,
तुहिज कहै बात अणदीठ अणसांभली ।।४।। दाखवै काइ लीजै नहीं अणदिय,
लालची तु हिज जिण तिण तणा गुण लियें ।
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ऋपभदेव स्तवन
जाणि नववाड़ि शुद्ध शीलवत जोगवे,
___ पंच अंतराय हणि भोग सहु भोगवै ॥५॥ घरि परिग्रह तजी की इच्छा घणी,
सहस चौरासी शिष्य लाख त्रण शिष्यणी । मुखि कई कोई सेवक नहीं माहरे,
अणहुतै कोड़ि इक देव सेवा करै ।।६।। नयण निरखौ नहीं श्रवण ना साभलौ,
अंश पिण जीभ सुस्वाद नां अटकलौ ।। ‘क्रिणही इन्द्रिय सु काइ जाणौ नहीं,
तोई सर्वज्ञ रौ विरुद धारौ सही ॥णा क्रोध अलघौ करी कीध कोमल हियौ,
किण विधै काम रिपुहणिय दहवट कियौ। कीजे नहीं मान उपदेश एहवा कही,
नेट तुकिणही नै शीश नामें नहीं |८|| कपट नहीं कोय तो भगत किम भोलवी,
अवगुण पारका देखि किम ओलवौ। किणहि बातें कदे लोभ जो ना करो,
धरिय ऋण रतन ने केम जतने धरौ।।। भिक्खु अणगार निज नाम मन शुद्ध भणौ,
तीन गढ छत्र त्रिण राज त्रिभुवन तणौ । वचन गुप्ते वली नाम वाचंयमा,
योजन वाणि सुं गाजे च्यारुगमा ॥१०॥
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धर्मवर्द्धन ग्रन्थावली
कनक आसण ग्रहै कहै अकिंचणा,
बींजवे चमर ने वलिय निर बीजणा । समिती तीनज धरौ तौ इ साचा यति,
पास राखौ नहीं ओघी ने मुहपति ।।११।। पर भणी कही मत थाओ परमादिया,
काइ राइ प्रायश्चित आप न करो क्रिया । जाब हसावरा जुगति मु जाणम्यो,
आखर महिर मो उपर आणिस्यौ ।।१२।। विहुं मुखे बोलतो लोक निन्दा लहे,
___ केवली होइ नै चिहु मुखे तु कहै। भला भला भव्य नोइ साच करि सर्द,
जन तणी रात जाया तिके जस लहै ||१३।। प्रकृति म्हारी इसी काइ छ पापिणी,
ओछी अधिकी सही ना सकु आपणी । वडिय ताहरी क्षमा बात तिण सहु वणी,
ध्यान हिव ताहरौ तु हिज माथै धणी ॥१४|| अवगुण माहरा ते सहु अवगणी,
भगवन देव सेवक करो मो भणी । स्वामी सेव्या विजयहर्प शोभा घणी,
___ वृद्धि वलि थाय जिन धर्मवर्द्धन तणी ॥१५॥
॥ कलश ।। इम विलसी श्राअरिहंत पदवी, धन्य जगगुरु जगधणी, हिव सिद्ध हुवा आपरूपी जाव न दीये पर भणी। इण गुण प्रशंसा माहि निंदा काइ जाणी आपणी,
आपजो अमनै उरि पहिज अरज श्री धर्मशी तणी १६||
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शत्रुजय वृहत् स्तवन
( आलोयणा पचीसी) सै–जै नायक वीनति साभलौ, श्री रिपहेसरु स्वाम । दीनदयाल तुम्हाने दाखिवु, अतर बीतग आम ॥ सै० ॥११॥ नटवानी परि भव भव नाचता, विविध वणाया वेश ।
म वसे करि भमते मैं किया, केइ पाप किलेश ।। सै० ॥२॥ केवलज्ञानी तुम्ह आगल किसु, देखावीजै दाख। पिण आलोयण लीजै आपणी, श्री अरिहतनी साख ॥सै०॥३।। पाप टलै नही आलोयण पखै, कहै ज्ञानी सहु कोय । परही मुक्या सिरनी पोटली, हलवी गावड़ी होय ॥सै०॥४|| अरिहत देव सुसाधु गुरू इसा, जैन धरम तत्त जाण । समकित साचौ एनविसर्दयौ, अधिक मिथ्यामति आण |सं०।५।। पहिले आश्रय हिंसा प्राण नी, कीवी केइ प्रकार । जयणा कायनी जीवनी, पामिस किम भव पार ।। सै० ॥६॥ कूड कपट कलि विकला केलवी, कीजइ छै केड काम । मृपावाद पगोपग मोकलौ, सी गति थासी स्वाम || सै० ॥७॥
अधिको लीजै ओछो दीजिये, रीति इसी दिन रात । __ अदनादान घणा लागै इसा, तरिस किण परि तात || सै011
तीन विधेड सुर नर त्रियच ना, मैथुन सुं मन लाय । काम विटवन केम कही सकुं, जाणं तु जिनराय ।। सं० ।।६।।
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१७८
धर्मवद्धन ग्रन्थावली नयणे करि निरखो जी, हियडै वलि हरखौ । सत्रु जय सरीखो जी, पुहवि न को परखो ।।३।। मद मच्छर छोड़ी जी, जिन सु मन जोडी। केइ सीधा कोडी जी, ठावा इण ठोड़ी ।। ४ ।। सूत्र सिद्धान्ते जी, भाख्यो भगवते । अनादि अनंते जी, भटङ तजि भ्रते ॥५॥ भवसमुद्र तिराज जी, परवत नी पाजे । जाण्यो चढीय जिहाजै जी, सिवपुर ने साजे ॥३॥ सिद्धक्षेत्र समीप जी, पाप न को छी । देहरा अति दीप जी, जग चखने जीपै ।। ७ ।। जिण पहिलउ जाणी जी, प्रतिमा पहिचाणी । आसति बहु आणी जी, पूजौ भवि प्राणी ।।८।। बावन देहरिया जी, परिदखणा परिया । वंद त्रिण वरिया जी, धर्म ध्यानइ धरियां ॥६॥ रायणि तलि पगला जी, आदि तणा अगला । संघ वादै सगला जी, धरम तणा ढिगला ॥ १० ॥ शिववारी दिस ही जी, वलि खरतरवमही। अदबुद ऊलसही जी, सबला विव सही ॥ ११ ॥ सूर कुंड सवाइ जी, देख्या सुखदाइ । चेलणा' तलाइ जी, उलकाझूल आई ॥ १२ ॥
५ चंदणा
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१७४
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शत्रुञ्जय तीर्थ स्तवन सिद्धवड़हि सदाई जी, दीप सुर दाई। प्रगटी पुण्याई जी, जिण यात्रा पाई ॥ १३ ॥ सहिनाण संभार्या जी, श्री धर्मसी धार्या । जिण आइ जुहार्या जी, तिण आतम तार्या ॥ १४ ।।
शत्र जय गीत
सरव पूरब सुकृत तीये किया सफ्ल,
__ लाभ सहु लाभ में अधिक लीया । सफल सहु तीरथा सिरे सैंत्रुज री,
यात्रा कीधी तिया धन्न जीया ॥१॥ सुजस परकासता, मिले सघ सासता,
शास्त्र सासता विरुद सुणिजे। ऋषभ जिणराज पुडरीक गिरि राजीयो,
__ भेटिया सार अवतार भणिजे ॥२॥ काकरै काकरें कोडि कोडी किता,
साधु शुभ ध्यान इण थान सीधा । साच सिद्धक्षेत्र शुद्ध चेत सु सेवता,
कीध दरसण नयन सफल वीधा ॥३॥
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शत्रुजय वृहन् स्तवन केड उपाय करी मेलण करू, परिग्रह विविध प्रकार । विरति करू पिण मन न रहै वलि,
तौकिम हुवै भव पार (निस्तार) |सै०॥१०॥ . इन्द्रिय पाचे आप मुराहिदा, अधिक करे उन्माद । सवर भाव न आवै सर्वथा, पड़यो जे प्रमाद । सै० ॥११॥ कोइ स्वभावे रेकारो कहै, चटकी तुरत चढंत । क्रोध विरोध वधारू केतला, आवै किम भव अंत ||सै॥१२॥ आपणा जाणपणा नै आगलै, गिणुन केहनै गान । विनय वेयावच्च नहींय विवेकना,
अति मोटो अभिमान सिंगा१३॥ मीठी मीठी बात कहुं मुखे, जीजी करे मिलि जाइ। पाइ पसार पसी पेट मे, माया सगी ज्यु माइ ।।सै॥१४॥ महारो महारो करि धन मेलवु, लोभ वसे लयलीन । नरक तणा घर द्यछ नव नवा, इण मे मेख न मीन।सिग॥१५॥ मन तो खिण पिण वस नहीं म्हारो, झामो वचन मखाल । काय चपलता कहिये केतली, जासी किम भव जाल।स०॥१६॥ अछता पण गुण वर्गु आपणा, परनिन्दा परकाश । अवर अदेखो आणु अति घणी, एहवौ मूल अभ्यास ॥स०॥१७॥ राजकयादिक विकथा राग सु, वारु कहुंअ वणाय । समता धरि न करी मन शुद्धसु, सूत्र सिद्धान्त समाय ॥१८॥ काणी आधौ दृष्टौ कूबड़ौ, देखि हंस निशदीश। आखिर कर्म उदय ते आविस्यै, जाणे ते जगदीश ॥१॥सैग।
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शत्रुञ्जय तीर्थ स्तवन
१७७
पनर कर्मादान न परिहत्या, आदर्या पाप अठार । निस्तारौ वीजु थासै नहीं, तु हिव मुझ नै तार ॥२०॥सै०|| जीवायोनि चौरासी लाख जे, दीधा तेहनै दुःख । वाद न वास भेलो कहो क्यु बणे, मुझ नै दे हिव मुक्ख ॥
२०॥ जाण अजाण किया जिक, सहु भमता ससार । देइ मन शुद्ध मिच्छामिदुक्कडं, आलोऊ बार बार ।।२२।।सैग। तारण तरण विरुद छै ताहरौ, अशरण शरण आधार । आयौ आश धरी तुझ आगलै, समकित दे मुझ सार ।।२३।।सैक। समकित ताहरौ आया साहिवा, परहा जाय पाप । राति अधारो किम करि रहि सके, उगें सूरज आप ॥२४॥सै॥ इम सकल सुखकर विमल गिरिवर आदि जिनवर आगलै। आलोवता मनशुद्ध इण विधि सफल सहु आशा फल ।। शुभ गच्छ खरतर सुगुरु वाचक विजयहर्ष वखाणए । उवझाय कहै श्रीधर्मवद्धन धर्म ध्यान प्रमाणए ॥२॥
शत्रु जय तीर्थ स्तवन
तीर्थ सैजे जी रहिवा मन रजे, (सेवकना) भव भय भंजै मल पातक मंजरे ॥१॥ सिद्धाचल सीमैं जी यात्रा करि जीमे,
निश्चय इन नीमैजी भमय न भव भीमइ ॥२॥ १२
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१८०
धर्मवर्द्धन ग्रन्थावली
तासु दुरगति न है नरक त्रियच री.
सुगति सुर नर लहे सुगति सारी। विमल आतम तिको विमलगिरि निरखसी,
धनो धन श्री धर्मसील धारी ॥ ४ ॥
सिद्धाचल महिमा वर्णन रतन मे जैसे हीर नीरनि में गंगा नीर,
फूलनि की जाति मे अमूल फूल केतकी। सब ही उद्योत मे उद्योत ज्यु प्रद्योतन को,,
ज्योति मे सुज्योति ज्यु मुदै है ज्योति नेतकी ॥५॥ सब ही सुशीख मे सुधर्म सीख हेत की है,
तेजनि तूरिने टेक राखी जेसे रेतकी। योजन पैताल लक्ष सिद्धनिके खेत है प,
सेजेजे विशेष रेख राखी सिद्धखेत की ||५|
विमलगिरि स्तवन राग-मल्हार
विमलगिरि क्यु न भये हम मोर । सिद्धवड रायण रुख की शाखा, झलत करत झकोर वि०१ आवत सव रचावत अरचा, गावत धुनि घन घोर । हम भी छत्र कला करि हरखत, कटते कर्म कठोर विका मूरति देख सदा उल्हसै मन, जैसे चद चकोर । श्री रिषहेसर में श्रीधर्मसी, करत अरज कर जोर । वि०।३
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धुलेवा ऋषभदेव छन्द
दोहा
सत्य गुरू कहि सुगुर रा, प्रणमु मन शुद्ध पाय। हुता मूढ ते पिण हुआ, पण्डित जासु पसाय ॥ १ ॥ सेवा लहिजै सुगुर री, पुण्य उदै परतख । ज्योति अधिक दीधी जिण, चावी तीजी चख ॥२॥ जिकौ न पूरौ जाणतो, ठठौ मींडी ठोठ । वाचै अविरल वाणी सु, पुस्तक भरिया पोठ ।।३।। दीपक जिण हाथै दिय, गुरे बतायो ज्ञान । धरम करम माहे धुरै, धरिजइ तिणरो ध्यान ॥ ४ ॥ प्रथम नमी गुर जिण प्रथम, गाउ तसु गुण ग्राम । कविजन कंठ शृंगार कु, दीपै मोतीदाम ।। ५ ।।
मोतीदाम छन्द दिप गुण निम्मल मुत्तियदाम,
से मन शुद्ध तिको हिज स्वाम । सुरासुर सर्व करै जसु सेव,
दिय सुख वछित ऋपभदेव ।। ६ ।। केइ जगि देवल देवा कोडि,
हुवै नहीं कोइ इयें री होडि ।
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धर्मवर्द्धन ग्रन्थावली
नमैं नर नारी सको नितमेव,
दियें सुख वंछित ऋपभदेव ॥७॥ पूरै प्रभु आस सदा परतख,
वढा सुरकुंभ किना सुरवृक्ष । बहु जिण दान दिपाया वेव,
दिये सुख वछित ऋपभदेव ॥ ८॥ छती छती देखि पवन छतीस,
जपे सह ध्यावं जेम जतीस । भजे इक चित्त लह्यो जिण भव,
दियै सुख वंछित ऋषभदेव ॥६॥ खलका मालम देश खडग्ग,
जप ए तीरथ तेम अडिग । धुनो धन धन्नहि गाम धुलेव,
__ दियँ सुख वछित ऋषभदेव ॥ १० ॥ उदपुर हुती कोस अढार, ए ओ वाट विपम अपार , सल - गात्र सजैव, दिये सुख वछित ऋपभदेव ॥ ११ ॥ पुलै पगवट्ट उजाड पहाड़, दहुं दिशि केइ कराड़ दराड़, भराड़ झागी राझाड मुकेव, दियं सुख वंछित ऋषभदेव ॥१२॥ पुढाणा खाला नाला खाड, चिहुं दिसि ताकै चोर चराड़। निकेवल जात्र्या नाम न लेव, दियै सुख वंछित ऋषभदेव ।।१३।। किता केड मारग माहि कलेस, आवै केइ यात्री लोक अशेप । सरै छै काम तिया सतमेव, दीये सुख वंछित ऋपभदेव ॥१४॥
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१८३
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धुलेवा ऋषभदेव छन्द दुर हु देवल शोभा देख, वटै वाह वाह प्रकाश विशेष । रह्यौ रवि भूमि विमान रचेव, दीयें सुख वछित ऋषभदेव १५ तिलक्का तोरण धोरण तत, भला चित्त चोरण कोरण मंत। वहु हुं वखाण किताक अवेव, दीयै सुख वछित ऋषभदेव ।१६। जिणेसर विंब झिगामिग ज्योति, अहोरति आठ जाम उदोत । विजोडी देहरी बावन वेव, दीये सुख वंछित ऋषभदेव ॥१७॥ घसीजै केसर चदन घोल, रची पूज सदा रग रोल। अवल्ले फूले धूप उखेव, दीयें सुख वंछित ऋषभदेव ॥१८॥ जाणौं तिण वेला जोवों जाय, भला केइ जात्री आइ भराय । हजारै गानै लाभे हेव, दीयें सुख वछित ऋषभदेव ।। १६ रहै नहीं नामै कोई रोग, वली सहु जायै सोग वियोग । सदा हुवै भोग संयोग सबेव, दीयै सुख वछित ऋपभदेव ॥२०॥ सही सहु तीरथ में सिरदार, इणै इहरत्त परत्त उधार । टली अन्तराय भली सहु टेव, दीयें सुख वंछित ऋषभदेव ॥२१॥
कलश
अलग टली अतराय, प्रगट सफली पुन्याइ । गणधर गुरू गच्छराज, सूरि जिणचन्द सवाइ। गच्छ खरत्तर गहगाट संवत सतरै से सट्ठिम, (१७६०) वसत ऋते वैसाख, अवल उजवाली अट्ठम ।। जातरा कीध सखरी जुगति, वडा साध साथै वडिम । सुख 'विजयहरष जिण सानिधे, आखै श्रीधर्मसीह इम ।। २२ ॥
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धर्मर्द्धन ग्रन्थावली
श्री शाति जिन स्तवन
सेवो भाई सेवो भाई शाति जिन सेव रे।
दूजो नहीं कोई ऐसो देव रे ।। १ ।। क्रोध विरोध भर्या सुर केवि रे।
निकलंक निरदोप यहु नित मेव रे ॥२॥ हाथ रतन आयो छै हेव रे।
काच तजो पाच गहो परखेव रे ॥३॥ केशर चदन पूज करेव रे।
लाहो नरभव इह विध लेव रे ||४|| कहै ध्रमसी जोडि कर बेव रे।
तुझ सेवा मुझ याहीज टेव रे ॥५॥
चन्द्रपुरी शाति जिन स्तवन
__ जग नायक जिनवर पुहवी माहे प्रत्यक्ष ।
सोलम संतीसर सुखदायक कल्पवृक्ष । जसु यात्र करवा लोक मिले तिहा लक्ष ।
दरसण देखत ही आणद पावै अक्ष ॥१॥ दों दो दो दप मप द्राग्डिदिक दमके मृदंग।
झण रण रण में मैं झाझरि झमकित झङ्ग ।।
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शान्ति नाथ जिन स्तवन
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ठम ठम पाय ठमकति घमकति घूधरि सग।
ताकिटि ताकिट थेइ थेइ नृत्य करत मन रग ।।२।। केसरि करि पूजत छीजत अशुभ जे कर्म।।
भावन भावता भाजै भव नौ भर्म ।। नित नाम जपें जे निजमन करि अति नर्म।
हरखै ते पहुंचे मुगति रमणि ने हर्म ॥३॥ छाक्यो रहे छहुं रितु मस्त महा मतवाल ।
हाथी झरणा जिम झरती मद असराल ।। परवत सम सवलौ पूठ पड्यो सुन्डाल ।
ततखिण जिण नामें अस कर नहीं आल ||४|| दुकारव करतो, वाघ महा विकराल ।
नहरा अति तीक्ष्ण, जिम करवत दताल । पुछा छोट करतौ फदकल्यै तीजी फाल ।
प्रभु नाम प्रसाद, सींह भगै ज्यु स्याल ॥५॥ दावानल वलतो झलहल नीकले झाल ।
बहु वृक्ष सघन वन वले पसु पखी वाल ॥. किण हीक कारण नर आयौ अग्नि विचाल ।
जिण नाम जलै अगि ओल्हाय तत्काल ॥६॥ फु फु फण करतौ धरतौ कोप कराल ।
रहै आख्या-राती काजल सम महाकाल ।। एहवौ उरंडतौ देखी दो जीहाल।।
तुम नामै साँप ते जाणं फूल री माल ||णा
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१८६
धर्मवद्धन ग्रन्थावली सबल संग्रामै भिडंता भूप भूपाल ।
अति राता ताता वहै गोला हथनाल ।। खडकै तलवारा खलके रुधिरा खाल ।
__ तिहां पिण जिण नामै न हुवै वाको वाल ॥८॥ दरीयो जल भरीयो ऊंडो जेह अपार ।
उछलता तरंगा सुणि जलधर गरजार ।। वाहण विचि लिवि पिवि बूडण नै हुवो त्यार।
ते पिण जिण नामै पहुचे पेले वार ।।६।। गड गुबड फोडी हीया होडी तेह ।
खैन खाजनै खासी हरस सहित जन जेह ।। सोलह कोढादिक उपज्या रोग अछेह ।
प्रभु पद फरसत ही दिनकर दुति हुइ देह ॥१०॥ जन सांकल जडीयौ पडीयो बन्दीखाण ।
भय आठ भाजे न रहे पलक प्रमाण !! सिर संती जिणेसर सेवत ही सुख खाण |
इणभव लहै लीला परभव पद निरवाण ।।११।।
ब्लग संवत्त सतरै बरस वीस मास मिगसर जाण ए।
चन्द्रापुरी थी संघ चाल्यौ, चढी जात्र प्रमाण ए।। गणि विजयहर्प पदारविडे, भ्रमर ओपम आण ए।।
कहै 'धर्मवर्द्धन धर्मवद्धन, संघ कुशल कल्याण ए ||१२||
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नेमि राजुल बारहमासा
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॥ नेमि राजिमती बारहमासा ॥
दिल शुद्ध प्रणमं नेमि जिनेसर परमदयाल,
रोक्या जीव ते मूक्या तोरण थी रथ वाल । राजिमति सती नेह वश किय विविध विलाप,
तो पिण तसु तणु नाइ सक्यो विरहानल ताप ॥१॥ श्रावण मास में विरहणि जामनी जाम न जात,
सजि आडंबर जबर दामिणी मिले वरसात। मुझ वर गयो हरिणाखी नाखी दीध निरास, विल विल राजुल आखीय भरि भरि नाखी निरास ।।२।।
भादव मे गयो यादव मुझ हिया दव लाय । पावस जल पड़ताल प. पिण ते न बुझाय । मा. मोर भिंगोर कर पपियो पीउ पीउ । पीर विरहै थइ पीड़ ते जाणे माहरी जीव ॥३॥ आलू मे सासूनी अंगज ते गया अग जलाय । चद नी चादणी देखत चौ गुणी पीड़ज थाय । निरमल सरवर भरीया नीझरणे झरै नीर । नयणा नीर तिये पिण माड्यौ जिण सुसीर ॥४॥ माती खेती पाती नीपनी काती मास ।। कातीय विरहणि छाती मे काती वहै नहीं जास । दीप दीवालीय वलिय सुहालिय नैं पकवान । खलक रचे पिण मुझ नैं न रूचै खान नै पान ॥५
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१६०
धर्मवद्धन ग्रन्थावली सखी री करसणीयां फलियो काती, निपजी सब खेती पाती। हिल मिलि सब करत है बाती,
पीड विणु मोहि फाटत छाती हो लाल ।४। सखी री अव मिगसर महिनौ आयौ, सब ही की नेह सवायो। भोगीजन के मन भायौ,
गयौ छोरि शिवादे को जायौ हो लाल । रा०५ ।। सखी री आयौ महिनो अब पोसो, रगै रमै सहु तजि रोसो। दीनी मुझ जादव दोषो,
सबलौ तिण कारणि सोसो हो लाल ॥रा०६॥ सखी री अति शीत परतु है माहे, सव सोवत माहोमाहे । देही मुझ विरह की दाहै,
न मिट विनु आय नाहे हो लाल रा०७१ सखी री फागुण पकवान नैं पोलीभरि लाल गुलाल की झोली। खैले नर नारी की टोली,
पिउ विन में न रमें होली होलाल रा०८। सखी री सब मिलि नर नारी संतो, चतै धरि हरष हसतौ। खैलें अति ही उलसतो,
वालंभ विनु कैसो वसंतौ हो लाल । रा०६ । सखी री कोइल बोले वैशाख, भरता करता बैसाखें । पहिले कीनो आसाखें,
दू® आगै अव साखै हो लाल । रा० १०॥ सखी री जल शीतल पीजै जेठो, पीउ नायौ अजहु घेठौ । जाण्यौ कुण करिहै वेठी,
नाणी मुझ नजरा हेठौ हो लाल रा०११॥
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नैमि राजुल बारहमासा सखी री आयो अव मास असाढ़ो,
कालाहणि ऊंची काढो । वालंम हित बन्धन वाढ़ो,
वैरागै मन कियौ गाढो हो लाल ।रा०१२ । सखी री मिलि अरज करत है आली,
कहा वात करत है काली । नवली कोइ कुमर निहाली,
तुम परणावा ततकाली हो लाल । रा०१३ । सखी री अव राजुल बोली एमौ,
इण भव मुझ प्रीतम नेमो । दूजी परणण अब नियमों,
न तजु नवभव को प्रेमौ हो लाल ॥१४॥ सखी री योगी नहीं नेम सौ कोई,
राजल सम नारि न होइ । संसारी दुख सब खोई,
सिवपुरी सुख विलसे दोइ हो लाल रा० १५।। सखी री मन धारे बारेमासा,
___ आणौ वैराग उलासा । गुरू विजयहरष जस वासा,
वधतधर्मशील विलासा हो लाल ।।१।।
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धर्मवर्द्धन ग्रन्थावली
मगसिर मासि गामातरै मगसिर हुआ लोग । हु पिण छोडी मग सिरनी हिवें लेस्यु जोग । धरै सहु निज मंदिर में खल खेत्र ना धान । हूं पिण धरिस निश्चल मन मे नेमि ध्यान |६|| पोस मे ओस पड़े निस रूढन कर वनराय । दोस विना पिट रोस करें ते सोस ज थाय । धंहरि पडय अथाह ते विरहानल नो धम। वैगा जावो कोइ पिघलावी प्रिय मन मम || माह मैं माहट माड्यो मेह ते आहट रूस । तौ पिण माहरॆ नाह न पूरी माहरी हुस । जो कोई आइ वधाइ छ आयौ पति जदुनाथ । नाथ धरू इक नाक नी आपु सगली आथि ।।८।। फागुन फरहरै वात प्रभात नौ सीत अपार। नाह सु फाग रमें बहु राग सुहागणि नारि। चंग अनै मुख चग बजावै उडावै गुलाल । लालन जे तजी ललना तिण को कवण हवाल || जे तरू झाड़िया मोर्या ते तरु चेतर मास । वास सुवास प्रकासीय मधु करै रे विलास । बोले रे कागा आगा जागा वेसीरे ऊंच। पायुपीउ तौ तुझ भरावु चुर मैं चूंच ॥१०॥ मौरीय दाख वैसाखै पसरीय वेल प्रलंव । ऊ चिय साख विलंथिय, कोयल कुहकै अब । भौग● रवि सक्रात बसत मे मीन नैं मेख । तो पिण मुझ पीउ तजि गयौ इण मे मीन न मेख ।।११।। जल कर सीतल हीयतल जेठ मै ए ठहराय ।
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नेमि राजुल बारहमासा
१८६
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जो ठिक जोतपी ते कहौ कदि मिलै जेठ को भाय । यादव कुल ना सेठ नै जेठ कहौ समझाय । नाणी ठे नै हेठते मोमैं कवण अन्याय ॥१२॥ वलीय कौलाहणि काढि आसाढ़ मे वलियो मेह । नेमजी नाह विसार्यो (न सार्यो) नव भव नेह । मुझ नै विलखत छोड़ी वहि गया बारै मास । पिण हु न तजु एह नैं बसिस्या एकण वास ॥१३।। धन धन राजल साज ले दीक्षा नौ तजि धाम । केवल लहिन पहिली हिज पहुंती शिव ठाम । जोगीसर नेमीसर सिव सुख विलसै सार । श्री धर्मसीह कहै ध्यान धस्या सुख है श्रीकार ॥१४॥
॥ नेमि राजिमती वारहमासा ॥ सखी री ऋतु आइ सावण की, घुररंत घटा बहु धन की। बानी सुनि सुनि पपीहनि की,
निशि जाय क्यू बिरहनि की हो लाल ॥१॥ राजुल वालभ जपती, इकतारी नेमि सुकरती। धन सील रतन नै धरती, तिम विरह करि तनु तपती हो लाल । सखी री भादु मैं भर बरसाला, खलकै परनाल नै खाला। बिजुरी चमकत विकराला,
जादु विनु मोहि जंजाला हो लाल । रा०२।। सखी री आसू सब आसा धरीया, निरमल जल सुसर भरीया। रात्यौं शशि किरण पसरीया,
पिउ विनु क्यों जात है घरीया हो लाल ३।
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१६२ धर्मवद्धन ग्रन्थावली
नेमि राजिमती स्तवन राजुल कहै सजनी सुनो रे लाल
रजनी केम विहाय हे सहेली। अरज करी आणौ हहा रे लाल,
साहिवियौ समझाय हे सहेली ॥२॥ मोहन नेमि मिलाय दे रे लाल,
नेह नवी न खमाय हे सहेली। दिन पिण जाता दोहिलौ रे लाल,
जमवारो किम जाय हे सहेली ॥२ मोहन ।। इक खिण खिण प्रीतम पखे रे लाल,
वरस समान विहाय हे सहेली। पाणी के विरहै पड्या रे लाल,
मछली जेम मुरमाय हे सहेली ॥३ मो० ॥ चकवी निस पिउ सु चहै रे लाल,
त्युमुम चित्त तलफाय हे सहेली। कोडि विरख तज कोइली रे लाल,
आवा डाल उन्हाय हे सहेली ॥ ४ मो० ॥ अधिको विरही अंग मे रे लाल,
ते किम दूरे थाय हे सहेली।। जमवारी जलमे वसै रे लाल,
चकमवि अगन उल्हाय हे सहेली ॥५ मो० ॥ कंत विणा कामिनी तणा रे लाल,
भूषण दुषण प्राय हे सहेली !
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सिंधी भापा पार्श्व स्तवन
१६३ फल फूलै ढाली थकी रे लाल,
छाव छदाम विकाय हे सहेली ॥ ६ मो० ॥ ऊ ची अधिक चढाय नै रे लाल,
नाखी धरि ध्रसकाय हे सहेली। प्रीतम क्यु मुझ परिहरी रे लाल,
अवगुण एक बताय हे सहेली ॥७ मो॥ मुगति कामिणी कामण कीया रे लाल,
तो मुझ न तजी न्याय हे सहेली। सिव नारी देखण सही रे लाल,
आप गइ उम्हाय हे सहेली ।। ८ मो० ॥ मुगति माहे बेहु मिल्या रे लाल,
विलसैं सुख वरदाय हे सहेली। प्रणमें पंडित धरमसी रे लाल,
नमता नव निधि थाय हे सहेली । मो० ॥
सिधी भाषामय पार्श्वनाथ स्तवन
ढाल-अमल कमल राहनी। अज्जु सफल अवतार असाड़ा, दिठ्ठा पारस देव ।
बुट्ठा मेह, अमियदा, तुट्ठा साहिब सत मेव ॥ १॥ सयाने साइ असाड़ा वे, अरि हा पियारे पास जिणंदा वे आ०। अरजू हूदा तैडै अग्गै, अखदा हा इक गल्ल ।
सुख दैदा है सभनि कु चोखीच तुसाड़ी चल्ल । स०२।
१३
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१६४
वर्मवद्धन ग्रन्थावली
नंटरे नींगर दे ज्यु अम्मा, त्यु मैडै तु साम,
जौलु अन्दर जेद हैं, नहीं भुल्ला तेडा नाम । स०३। सच्ची एक तुसाडी सेवा, दूजी गल्ल न दिल्ल,
आस पूरी हुण दास दी, करंदा हो काहे ढिल्ल ।स०४। देव अवर दी सेव करंदै, दिट्ठा मै दोजग्ग।
हुण उण उज्जड ना भमू, मन मान्या तैड़ा मग्ग ।स० ॥ रज्या होइ सु कित्थु जाणे, भुक्खादा दिल दुक्ख ।
नाही देंदा न्याय तु, सिवपुरदा मैनु सुक्ख ।स०६। नव निधि सिद्धि तुसाडे नामै, दौलति हदा दीह,
विजयहरष सुख सपजै, धरे ध्यान सदा ध्रमसीह । स० ७ ॥
पार्श्वनाथ स्तवन नैणा धन लेखु देखू, देखु मुख अति नीको, जीहा धन जाणु गावु , गाईंजस जिनजी को। धन धन मुझ सामी, तु त्रिभुवन सिरि टीकौ ॥ १ ॥ चित सूधैं करि हु नित सुणिवा, चाहूं तुझ उपदेस अमी को ।।२।। देवल देवल देव घणा ही दीसे, तुझ सम जस न कही को ।।३।। पुन्य करि प्रभु साहिब पायो मोई, पायौ मे राज पृथी को ||2|| कीजै मया मुभा सेवक कीजैसाची, कीजो मत अवर हथीको।५। म्प अनुपम तेज विराजे तेसौ, सूरिज को न ससी को ।।६।। यास जिणेसर सहु मनवंछित पूरै, साहिब श्री 'ध्रममी को ।।७।।
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लोद्रवा पार्श्व स्तवन
१६५ लोद्रवा पाश्र्व जिन स्तवन । महिमा मोटी महियलै, प्रगट चिंतामणी पासो रे । सफलौ नास करें सदा, आफै वछित आसौ रे ॥ १॥ अधिक सफल दिन आज न. भेट्यो श्री भगवतो रे। कहीजें जीभ केतला, एहना सुजम अनतो रे ॥२॥ मोटो जेसलमेर ए, मेर ज्यू- महीयलि मोहे रे। तीरथ लौद्रपुरो तिहा, शुभ नदनवन सोहे रे ॥३॥ दिन दिन दीपं देहरा जिहा श्री पास जिणदो रे । साथ ले सुधरम सभा, आयौ जाणे इन्दो रे ॥ ४ ॥ सुन्दर त्रिगढा सम विच, वृक्ष अशोक बिराजै रे । सागी जाणे सरग नौ, कलपवृक्ष हित काजे रे ॥५॥ सहसफणा विहु साम नौ, सौहे रूप सवायो रे। थिर जस ते कांधो थिरू, वित दस क्षेत्रे वायो रे ॥६॥
सतरसे गुणत्रीस (१७२६) म, मिगसर मास मझारो रे। यात्रा करी जिनवर तनी, धर्म शील चित्त धारो रे ॥७॥
लोद्रवा पाश्र्व स्तवन ।
लुलि लुलि वदो हो तीरथ लोवो, अधिकी आसति आणि । सजन जन जिनवर नी पामीजें जोतरा, पुण्य तणे परमाणि ।। शकादिक दूपण छोडो सहु, समफित धारो रे सार । स०। अरची भाव धरी अरिहत नै, पामौ जिम भवपार ॥ स० ॥२॥
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धर्मवर्द्धन ग्रन्थावली नयणे पाच अनुत्तर निरखेवा हवं मन माहे जो हंस । स०। तौ पहिज तीरथ भटो तुम्है रचना तिण हिज रूस ॥ स०।३। धन जेसलगढ जिहा धर्मात्मा सघनायक थिरूसाह । स०। जिण प्रासाद कराया जिनतणा, आणी अधिक उमाह ॥ ४ ॥ सुन्दर महसफणे करि सामली, दीप मूरति दोइ । स० । मेघ घटा ने देखी मोर ज्यु . हरखित मुझ मन होइ ।स०१५॥ पास सदा चितामणि नी पर, आप बंछित आस ॥ स० ॥ नाम गुण करी माची नीपनी, प्रगट चिंतामणी पास स० । है। सतरैसे त्रीसें मिगसर सुदे, बारस बहु संघ साथ । वाचक विजयहरप हरपे करी, प्रणम्या पारसनाथ । स०। ७ ॥
लोद्रवा पार्श्व स्तवन राग-सोरठ
पूजौ पास जी प्रभु परता पूरै, चितनी चिंता चूरै । सहसफणा शोभंत सनूरैं, दरसण थी दुख दूरै ॥१॥ सुणता कान कीरति सारी, परसिद्ध लोद्रपुरा री। जिन मूरति हिव नयण जुहारी, साचा गुण सुखकारी ॥२॥ नीलकमल सम मूरति निरखी, सहसफणा वे सरिखी। पास चिंतामणि साचा परखी, हिव सेवो मन हरखी ॥३॥ सुन्दर तिलको तोरण सोहे, मंडप पिण मन मोहे। ऊंची धज आकाश आरोहै, कही मुझ समवड को है ॥४॥
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१६७
लोद्रवा पार्श्व स्तवन च्यार प्रासाद चिहुं दिशि राजै, विच मे एक विराजे । कोरणी झीणी केम कहाजे, पेख्या मन पतियाजै ॥ ५ ॥ रचना पाच अणुत्तर रयणे, गमविण ऊ ची गयणे । विधि साभलता जे गुरु वयणे, निरखी तेहिज नयणे ॥६॥ अष्टापद जे सुणता आगी, सो विधि दीठी सागी । त्रिगडो देखि मिथ्यामति त्यागी, जिन धर्म महिमा जागी ।। जिन प्रतिमा जिन हीज सरूपी, पौतै जिनज प्रम्पी । सेवे ते शुद्ध समकित रूपी, अज्ञानी ए उथूपी ॥ ८ ॥ अधिकै भाव यात्री आवै, गुण जिनवर ना गावै । रागे बहु विधि पूज रचावै, प्रभु सानिध सुख पावै ॥ ६ ॥ गावते गीत मन गमती, राग धरम ने रमती। नर नारी नी टोली नमती, भावधरी छ भमती ।। १० ।। प्रशोभा जेसलमेर सदाइ, श्री खरतर सुखदाई । करणी जिर्णोद्धार कराइ, संघपति थिरू सवाई ॥ ११ ॥ कलशः-सवत गुण युग तुरग धरणी चंत्र वदि छठि दीस ए। श्रीसघ श्री जिनचन्द सानिध, सफल यात्रा जगीस ए॥
भु पास नामै आस पामैं, जपे जे जस जीह ए । गुरू विजयहरप सुसीस पाठक, कहै श्री धर्मसीह ए ॥ १२ ॥
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१६८
धर्मवन ग्रन्थावली
लोद्रवापार्श्व स्तवन
विलसे ऋद्धि समृद्धि मिली -राहनी
धन धन सहु तीरथ माहि धुरै, पर सिद्ध घणी श्री लोद्रपुर । भले भावे आवे यात्र वगा, सुखदायक सेवो सहसफणा ॥ १ ॥ केवल जिम दूर थकी दीसै, हीयडौ जिन देखण ने हीं । वाखाणै सहु विश्वाविमै यात्रा दीधी ए जगदीस ॥ २ ॥
वीसम श्री जिनराज तणी, फलदायक प्रतिमा सहसफणी । घनस्याम घटा जिम शोभ वणी, वाह वाह अगी छवि अंग वणी ३ चउ जिणहर चउगइ दुख चूर, पंचम पंचम गति सुख पूरें । अष्टापद त्रिगढे शोभ इसी, कुण इण समओपम कहुंअ किसी ||४|| केसरि चंदन घनसार करी, धोतीय अछोती अंग धरी । पूज्यां मिथ्यामति जाय- परी, शुभ पामे समकित रतन सिरी || प्रणम्यां सहु पीड़ा दुरि पुलं, छल छिद्र उपद्रव को न छलै । दुख दोह्ग ढालिट दूर ढलें, मन वंछित लीला आइ मिलै ||६|| ॥६॥ जेसलगढ गुरु गच्छपति जाणि, तिहा आया श्री संघ मुलताणी । संघ तिण मु श्री जिनचन्द, प्रणम्या प्रभु पास नवल नूरै || सतरं चम्मालै चैत्र सुढे, महिमा मोटी तिथि तीज मुदै । खरतर गुरु गच्छ सोभाग खरै, पाठक धर्मसी कई एण परे ॥८॥
?
- १०:
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गौडी पार्श्व स्तवन
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गौडी पार्श्व स्तवन राग-मल्हार
मरति मन नी मोहनी सखि सुन्दर अति सुखदाय । नयन चपल है निरखिवा, सखी भ्रमर ज्यु कमल लोभाय रे ।। दीठा हिज आवे दाय रे, कीधी तकनीर न काय रे । जोता सगला दुख जाय रे, थिर मन ना वछित थाय रे ॥१॥ मुनै प्यारो लागे पास जी ।। कुण वीजा नी हर को सखी, प्रसु ए समरथ पामि । हाथ रतन आयौ हिवे सखी, काच तणौ स्यो काम रे। नित समरू एहनो नाम रे, सह वाते समरथ स्वाम रे। हिव पुगी हिया नी हाम रे, औहिज मुझ आतमरामरे ।२। मु० स्वामि कल्पतरू सारिखौ सखी, बीजा बावल वोर । मनवछित दायक मिल्यो सखी, न करु अवर निहोर रे॥ दिल बाध्यो इण विण डोर रे, मेहा नै चाहे मोर रे। चंदा ने जेम चकोर रे, जिन सु मन लागो जोर रे ॥३॥ मु नै० कमल कमल चढती कला सखी, सोहे रूप सुरंग । एहन रूपनी ओपमा सखी, आबि न सके अग रे। उलसै मिलवा नै अंग रे, सही छोडण न करू सगरे । एहवौं मन मे उच्छरग रे, अविहड मुझप्रीति अभग रे ।४|मुनै० हुंस घणी मिलवा हुंती सखी मन माहि नितमेव रे। ते साहिब मिलीया तरे सखी वहु हित पग गहुं वेव रे ॥
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२००
धर्मवर्द्धन ग्रन्थावली हरख्यो मुझ हिवडी हेवए, साहिब नी न तजु सेव रे। दिल सुध मुझ एहिज देवए, टलिस्यु नहीं ए लही टेवरे ।५) मुन० इण मन मोहन ऊपर सखि हुंवारी वार हजार । देस विदेशे दिल्ल मे सखी साभरिस्य सौ वार रे ।। इक इण हिज सुइकतार रे, हीयो नो अतर हार रे। कदे ही नहिं लोपिस कार रे, बात सी कहिये वार वार रे ।मु० गाजे नित गौड़ी धणी सखि अकल सरूप अवीह । भवना भय गय भाजिवा सखी सादूलो ए सीह रे ।। लोपे कुण एहनी लीह रे, जपतां जस सफली जीह रे । द्य विजयहरप निसदीह रे, धरि हेत कहै धर्मसीह रे । ७ मुनै।
पाव जिन स्तवन
ढाल-धारा ढोला रो त्रिभुवन माहे ताहरौ हो,
सुजस कहै सहु कोइ । जिन रा राजा । देव न कोई दूसर हो,
होड़ जे ताहरी होइ । जिन रा राजा। सुनिजर कीजे हो सुजान, सेवक कीजै दीजै दिन दिन वछित दान मन रा मान्या ॥१॥ आकणी देवा मांहे दीपती हो, तुपरता शुद्ध पास । सोहे तारा श्रेणि में हो, एकज चन्द आकाश ॥ २ ॥ जि० सु०॥
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श्रीफलोधी पार्श्व स्तवन
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पाम्यो में तुमने प्रभु हो, सेवु अवर न साम । सूरिज उगै साहिवा हो, केहो दीपक काम ॥३॥ जि० सु०॥ सवक नै तु सासता हो, ये छै वछित देव तौ सेवे छै ते भणी हो नर नारी नितमेव ॥४॥ जि० सु०॥ चूकी हु तुझ चाकरी हो, इतरा दिवस अयाण । गुनही तेह रखे गिणो हो, मोटा होइ महिराण ॥५॥ जि० सु०॥ मो उपरि पिण करि मया हो, आपो सुक्ख अछेह । सगले रूखे सारिखा हो, महियल वरसै मेह ॥ ६ ।। जि० सु०॥ त्रिकरण शुद्ध इण ताहरौ हो, एकज छै आधार । करज्यो तुम धर्मसी कहै हो, अवसर नौ उपगार ॥७॥ जिप्सुक
श्री फलोधी पार्श स्तवन
सुगुण सुज्ञानी स्वामि ने जी, स्यु कहियइ समझाइ । पण प्रभु सुविनती पच जी, नेट ए काम न थाइ ॥ १ ॥
परम प्रभु सुण फलवधिपुर स्वामि । साहिब हीय. मुझ सही जी, नित ही तुम्हारौ नाम ॥२॥ आवंता सहीया अम्हे जी, सर तावड़ त्रिष भूख । तुम्ह दरसण दीठो तरै जी, दूर गया सहु दुख ॥ ३ ॥ मन मोहन तुम्ह सुमिल्या जी, उपजे सुख मुझ अग । आवै मन माहे इसी जी, सही न छोडु सग ॥ ४ ॥ परदेसे पिण प्रीतड़ी जी, अधिकी दिन दिन एह । -मन तुम पासे मोहियो जी, दूर रहै छै देह ।। ५।
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२०२ धर्मवर्द्धन ग्रन्थावली अधिक उपाय कर अछ जी, सेंटण श्री भगवत । जोग जुडै नही जुगति सुजी, ग्वरीग रहै मन ग्यन ॥ है।। अमन जाणी आपणौ जी, मेली दे महाराज। तुम मिलिया विण अमतणा जी. किम करि फलिन्य काज || पाय तुम्हारा परमीयं जी. दोलति हतिण दीह । विजयहरय वछित फलं जी. ध्यान धरे धर्मसीह ।।८।।
गाँडो पार्ता स्तवन आज भलै दिन उगी जी, अधिक धरम उदै । प्रगट मनोरथ पूगो जी अधिक धरम उदें । पास जी नो दरसण पायो जी अधिक धरम उदै ॥ १ ॥ एवं पाचम आर जी अधिक वेवीसम जिन तार जी । अ०। देव इसौ नहीं दूजो जी अधिके पास जिनेसर पूजो जी ॥२॥ गुण गौडी ना गावोजी अ०, नरक निगौ नावो जी अ०। भावना मन शुद्ध भावी जी अ०, पंचम गति सुख
पावो जी अ०॥३॥ चाक मिथ्यामति छोड़ो जी अ०,जिनवर संहित जोडो जीअम जिन प्रतिमा जिन जेही जी अ०, कही इहा शका
केही जी अ०॥४ सुन्दर सूरति सौहे जी अ०, मूरति जन मन मोहे जी अ०। सुख विजयहरप सवाया जी अ०, गुण धर्मसी मुनि
गायाजी अ०॥
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गौडी पार्श्व स्तवन
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श्रीपार्श्व स्तवन राग-खभायती
आज नै अम्हारै मन आसा फलीया । नग्नणेपार्श्वजिनेश्वर निख्या, हरख्या मन हुइ रंग रलिया ॥२॥ त्रेवीसम जिन त्रिभुवन तारण, मनमोहन साहिव मिलिया। मो मन जिनगुण लागे मीठा, जिमै दूध साकर मिलिया ॥२॥ विहसत मरति नयण विराज, कोमल कमल तणी कलिया।' दरसण दीठे पाइ दौलति, दुख दोहग दूरै दलीया ॥३॥ समकित दायक लाधो साहिब,मुह माग्या पासा ढलीया । धरमसीह कहै धरमी जन ने, सुख थाय जस साभलीया ।।४।।
गौडो पार्न स्तवन ढाल-सु बरदेरा गीत री।
आणी आणी अधिक उमाह भवियण भावी हो
भावन श्री भगवतनी रे। लीजै नर भव लाह, कीरति कहीजै हो
एक मना अरिहत नी रे ॥१॥ - मन थी दुविधा मेट अडिग आणीजै हो,
अधिकी मन में आसता रे। नामै एहने नेट पातक पुलायै हो,
थायइ शिव सुख शासता रे ॥२॥
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२०४
धर्मवद्धन ग्रन्थावली राचौ समकित रंग साचौ ने सदाइ हो
सेवो जिन वौसमौ रे। माचौ मत मद संग, काचौ न कहीजे हो
___ काया घट ए कारमो रे ॥३॥ किणहिक पुण्य प्रकार प्रगट पाम्यो हो,
नरभव पंचेन्द्री पणो रे। आरिज कुल अवतार तिम वली लाधो हो,
शासन तीर्थकर तणो रे ॥४॥ इण भव जिणवर एक अवर न सेवुहो
आसत मन माहे इसी रे। विजय हरप सुविवेक, धरि बहुभावै हो
गावै गुण इस धरमसी रे ॥५॥
श्री गौडी पार्न गीत गीत सपखरौ जाति
जगि जागे पास गौडी लोक दोडी दोडी आवै जात । कोडी लाख देखो देव जोडी नावै कोइ । सारिखा घणा ही नाम तिणे काम सरे न को। जैन मोटी आरिखा सौं पारिखाले कोइ ॥१॥ विकट्टे प्रगट्टे थट्टे निपट्ट उवट्ट व? सकट्टे निकट्टे दुखा चूरण समाथ ।
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जैसलमेर पार्श्व स्तवन
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आपे आप हाथो हाथ ईहना अथग्ग आथ, नामथी करै निहाल अनाथां रो नाथ ॥२॥ एही एक देव पास, पूरवें उलास आस, तेज को प्रकास वास जास त्रिभुवन्न । पास साम पास साम नामचे प्रणाम पामें, माम काम ठाम ठाम माणं सुक्ख मन्न ॥ ३ ।।
ओपियो इखाग वश आससेण अग जात, वामा विखियात मात जात आवै वृन्द । एकीह अवीह सीह लोपें कुण लीह एही जाप धरै धर्मसीह गौडीची जिणद ॥ ४ ॥
जैसलमेर पार्श्व स्तवन ढाल-दादेरे दरबार चापो मोह्य रह्यो
उगी धन दिन आज सफलौ जन्म सही री । सफल फल्या सहु काज, जिनवर यात्रा लही री ॥१॥ जगगुरू पास निणद, भेट्यौ भाव धरी री।। इण ससार समद, तारण तरण तरी री ॥२॥ जिनवरजी ने जाप, परहा पाप पुलै री।। उगै सूरिज आप, किम अधार कलै री॥३॥ भयभजण भगवंत, जेसलमेर जयौरी। उपगारी अरिहत, दरिसण दुक्ख गयौरी ॥४॥
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धर्मवर्द्धन ग्रन्थावली द्रव्यत भावत दोड, पूजा विविध परै री। हित करि करता होड, समक्ति शुद्ध तर री ।।५।। हंत धरी नन माहि, मूरत जेह नमै री। लाधो नर भव लाह, भूला अवर रुमे री ॥ ६॥ सानिध प्रभु सुविलास, लीला अधिक है री। विजयहरप जसवास, कवि 'धर्मसीह करी ॥ ७ ॥
श्री मगसी पार्श्वनाथ स्तवन ढाल-अदरजीव क्षमा गुण
- भवियण भाव धरी ने भेटो, नगसीपुर महाराज जी। - जेहनो मन सुद्ध नाम जपता, सहीय मिले सिवसाज जी भ० ॥ त्रिभुवन माहे ए जिन तारण, वारण दुख वन चन्हिजी आपण कर जे जिनवर अरच, धरणी ते नर धन्न जी । भ०।२। पाये अवर सुरा ने पाड्या, मदन महामणिमत्थजी । तिण ने पिण जिण खिण मे जीत्या, सहु मे ए समरत्थ जी।भ०३। सोवन सिंहासण ऊपरि सोहे, श्याम वरण तनु मारजी। गुहिर हेम गिरू परि गाजतो, जाणे करि जलधार जी । भ०।४। अवर देव सेवा तजि अलगी, पूजी नित प्रति पास जी।। भव दल सगला दृरे भांजी, विलसौ मुक्ति विलास जो भ०१५॥ आखें दिन सुर गुर गुण गावै, आवें नहीं तोइ अंत जी । कर भरि नीरसमुद्र थी काव्या, जलनिधि ओछ न जतजी भि। - नवनिधि थाय प्रभु ने नाम, विजयहरप विलसंत जी। . धर्मसीह नित आजा धारइ, अमल मने एकंत ज।। भ० । ७।
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पर्श्वनाथ स्तवन
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श्री पार्श्वनाथ स्तवन ढाल-नणदल री
सहियर हे सहियर आवो मिलो हे उतावली,
सुन्दर करि सिणगार । स० । जिनवर देव जुहारिवा, आज सफल अवतार । स०॥ १।। मनडो जिनवर मोहीयो ए। पहिलो देइ प्रदिक्षणा, त्रिकरण शुद्ध त्रिणवार । गुण जिनवर ना गाइये, आणी हर्प अपार ॥ २ ॥ मरति अति रलियामणी, निरखण चाहै नैंण । जेह करावै जातरा, साचा ते हिज सैण ॥३॥ सुखदायक मुख मोहतो, कुंडल वेऊ कान । भाल विसाल मुगट भलौ, दिन दिन वधते वान ॥४॥ जिम जिम मूरति जोइये, मन तिम तिम मोहाय । प्रभु दरसण दीठा पछी, दूजी नावं दाय ॥५॥ प्रीति करी इक पास सु , रहियो मो मन राच । पाच रतन ने परिहरी, कही कुण झालै काच ॥ ६ ॥ धन बन ते नर धरणीय, जेहनी सफली जीह । जम कह पास जिणट नौ, सह भाव धर्मसीह ।।७।।
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धर्मवर्द्धन ग्रन्थावली
श्री सवेश्वर पान स्तवन ढाल-विलसै रिद्धि समृद्धि मिली
महिमा मोटी त्रिभुवन माहे, आवै यात्रा जग उमाहै । कल्पतरू फलियो हितकामी, सुखदायक सखेश्वर स्वामी ।१॥ धुरि बदइ पूजड ध्यान धरै, कर जोड़ी सेवा जेह करें। गुण गावै तेह मुगति गामी, सुखदायक संखेश्वर स्वामी ॥२॥ विपमा दुख वैरी जाय विलैं, महिला जिम कमला आइ मिलें । जप जाप जपो अन्तरयामी, सुखदायक सखेश्वर स्वामी ।३। जदुसेन जरा मूर्छित जाणी, सज कीध पखाल तौँ पाणी। ठावा जस एहवा ठाम ठामी, सुखदायक संखेश्वर स्वामी ||४|| काम कुम्भ चिंतामणि कल्पलता, छाजै ए उपमा काज छता। पिण इण सम काइन आसामी, सुखदायक संखेश्वर स्वामी ॥शा सतरैसे सतट्टि पोस सुदी, सातम श्री पाटण संघ मुदी। परतिख प्रभु नी यात्रा पामी, सुखदायक संखेश्वर स्वामी ॥६॥ धन जिनसुखसूरि धर्म शील रस्तइ, सुविवेक कियो वेलजीवस्तइ । जिनराज जुहार्या जस नामी, सुखदायक सखेश्वर स्वामी ॥७॥
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श्री पार्श्व स्तवन
२०६
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श्री पान स्तवन सुणि अरदासा सुगण निवासा अमची पूरउ आसा राजि ।। देखि उदासा अपणा दासा, दीजै कछुक दिलासा राजि ॥ १।। चाढी चटकी भव मइ भटकी, नाच्यो हुं विधि नटकी राजि । हिव मन हटकी आपसौं अटकी, लागौ तुम्ह पाय लटकी ॥२॥ तइ अम्ह टाली मुगति सभाली, प्रीति अम्है हिज पाली राजि । एक हथाली बागी ताली, बात अचभा वाली राज ॥३॥ तु उपगारी पास तुहारी, सेवा सहु में सारी राज । तत्त विचारी शुध मन धारी, श्री धर्मसी सुखकारी राज ॥४॥
__ श्री पाश्र्न स्तवन
राग-सारग वृदावनी नित नमियै पारसनाथ जी। मनमोहन ए रतन चिंतामणि, हिव आयो छै हाथ जी ॥१॥ सेवो स्वामि सदा मन सूधे, आपै वछित आथ जी। पुण्य उदै करि ए प्रभु पायौ, सिवपुर मारग साथ जी ॥२॥ महियल माहि अधिक जसु महिमा, सेवै सघ सनाथ जी। ध्यावौ एक मना कहै धर्मसी, एह' अनाथा नाथ जी ॥३॥
पाश्र्वनाथ वधावा गीत .. पहिलै वधावै जिणवर देव जुहोस्या,
सफलौ हो सफलौ जन्म हुऔ सही। वीजे वधावे समकित रतन सुलाधी,
दिल में हो संकादिक दूषण नहीं जी ।।१।।
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२१०
धर्मबर्द्धन ग्रन्थावली
अगणी वधावइ श्रावक पदवी पाइ,
देसे हो देसविरति धर्म आदर जी। . चौथइ वधावै हो 'चारित लाधो,
तिणथी हो तिणथी भव सागर तरूंजी ।।२।। मंगल पहिलो अरिहंत मानु
बिजी हो वीजो हो सिद्ध मंगल वली जी। तीजइ मंगल साधनी सेवा,
चउथे हो धर्म कयौ जे केवली जी ॥३॥ जिन शासन वरतौ जयवन्तौ,
भावित हो भावित बधावा मंगल भाखिया जी। च्यार लोगुत्तम एहिज चावा,
___ सूत्रे हो सूत्रे हो सरणा एहिज साखिया जी ॥४॥ पारसनाथ' तणे परसादै माहरै,
हो माहरै हो जैन धर्म मुदै जी।. मन शुद्ध श्री धर्मसी कहै माहरड,
आज्यो हो आज्यो हो ए भव भव उदै जी॥५॥ इति श्री पार्श्वनाथ लघु स्तवन । उपदेशे गेयंच ।।
श्री पार्श्वनाथ स्तवन नणा धन लेखु देखें देखु मुख अति नीको। जीहा धन जाणुगायुगायु जस जिनजी को॥ धन धन मुझ स्वामी तु त्रिभुवन सिर टीको ।। १ ।। नैणा०
१ होजो चरित्रचोखो २ जिणद
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श्री पार्श्वनाथ स्तवन
२११ चित्त शुद्धे करि हुं नित सुणिवा चाहु,
तुझ उपदेश अमी को ॥२॥ नै० देवल देवल देव घणा. ही दीसे,
तुम सम जस न कही को ॥ ३ ॥ नै० पुण्यै करि प्रभु साहिब पायो, ।
सोइ पायो मे राज पृथ्वी को ॥ ४॥ नै० कीजै मया मुझ सेवक कीजै साचो,
कीजो मत अवर हथी को ॥५॥नै० रूप अनूपम तेज विराजै तैसो,
सूरिज को न ससी को ॥६॥ नै० पास जिनेसर सहु मन वंछित पूरे,
साहिब श्री धर्मसी कौ ॥७॥ न०
श्री पार्श्वनाथ स्तवन
महिमा मोटी महियल हो, परगट जिनवर पास।
सुरनर नित सेवा करै हो, आणीय अधिक उलास ॥१॥ "जगनायक जिनवर गुण जपो हो, जसु जपतां दुख जाय ।
थिरे धरि नवनिधि थाय ॥२॥ ज० मन मोहन मूरति भली हो, सब ही काज सुहाय । चरण कमल सुख चाहती हो, मुझ मन भमर मोहाय ॥३।। ज० सिर उपर मुकट सुहामणो हो, कुण्डल दोन कान। झिगमि (ग) तेजे झलकता हो, सूरिज तेज समान ॥४॥ ज०
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२१२
धर्मवर्द्धन ग्रन्थावली चोखा चोवा चंदना हो, घसि केसर घनसार। अद्भुत मृगमद अरगजे हो, अरचता सुख अपार ॥५॥ ज० नित ही नाटक नव नवा हो, दो दो दमकै मृदंग । झमकित झाझरि भालरी हो, मोहत मन मुख चंग ॥ ६ ॥ ज० तत नक ताथेड ताथेइ तटक दे तोडत तान । फढक दे अति भली देत है फेरी, गावत विचि विचि ग्यान ७० पूजा यु करता प्रभुजी की, सहीय मिले सुख साज । दस दिस साहे वहु जस दीप, परभवि सिवपुर राज ॥ ८॥ ज० पूरण वंछित पास जी हो, पुहवी माहे प्रधान । वाचक विजयहरप सुख वाधे, धरमसी धरत हीध्यान हाज०
श्रीआबू तीर्थ स्तवन
आबू आज्यो रे आबू आज्यो २ आबू आज्यो वहिला थाज्यो। मानव नौ भव सफल करौ तो, यात्रा काजे जाज्यो। वामानंदन वंदन वहिला, अचलगढे पिण आज्यो॥१॥ हा रे म्होरा सयणा साचा वयण सुणेज्यो, अधिको तीरथ आबू, सहु पातक मल साबू, भल भल २ देवल जोज्यो। देवल जोज्यो हरखित होज्यो, धुरि पातक मल धोज्यो। सहु सुखदायक तीरथ नायक, ज्योवा लायक ज्योज्यो ।।२॥ हा रे सयणा नयणा सफल करेज्यो, दूरथी देवल ढीस, हीयडौ तिम तिम हीसै। लुलि लुलि लुलि लुलि सीस नमाज्यो,
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श्रीआबू तीर्थ स्तवन २१३ सीस नमाज्यो गुण गवराज्यो वलि श्रीफल वधराज्यो। धन धन वेला धन ए घडीयां, धन अवतार धराज्यो ॥३॥ हा रे सयणा छवि गिरवर नी छाजे।
काइ लूबा आ लहकै, केतक कपक महकै । मह मह मह मह परिमल लेज्यो,
परमल लेज्यो दुख दलेज्यो, देहरै भमती देज्यौ । तोरण धोरण चितनी चोरण कोरण अनुमोदेज्यो ॥४॥
हां रे सयणा विमलवसी वादेजो। केसर भरीय कचोली, माहे मृगमद चोली। घन घन घन घनसार धुलाल्यो धुलाज्यो,
भाव मिलाज्यो आसातना टलाज्यो। नव नव रगी अंगी चगी अंगी अंगि रचाज्यो ।।५।।
हा रे सयणा खेला पात्र नचाज्यो सरिखे वेस समेला, भमती रमता भेला। थिग मिग थिगथिग थेइ थैइ, थिग मिग थेइ २ तत नंक ताथेई ॥ शिव मग सन्मुख थाज्यौ, धप मप दों दो, भर हर भौं भों मादल भेर वजाज्यो ।। ६ ।। हा रे सयणा अचलगढ़े अरचाज्यो । चारे विव उत्त गा, सोवन रूप सुचगा। झलहल मिगमिग ज्योति सराज्यो, ज्योति सराज्यो, भाव भराज्यो । यात्रा सफल कराज्यो, विजयहर्ष सुख साता वाछो, शुभ 'धर्मसीख' धराज्यो ।।७।।
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२१४
धर्मवर्द्धन ग्रन्थावली
श्री महावीर जिन स्तवन
वीर जिणेसर वंदिय, इण सम नहीं कोइ और, म्हारा लाल । परता पूरण परगडी, माची प्रभु साचौर न्हा० ॥१॥ आज इण पंचम अरै, सासग एहनो सार न्हा० । जिन धरम वरते जगत में, ए एहनौ उपगार म्हा०॥ २ ॥ गौतम सुधरम गणधरू, शिष्य गहना श्रीकार म्हां०। सूत्र सिद्धान्त जे उपदिस्था, नित सुणता निस्तार म्हा०॥ ३॥ अतुलित बली ए अवतों, जिण सुर कीधा जेर म्हा० । संका मेटी शकनी, मही कंपायो मेर न्हावा४॥ अठ वरसी बालक इण, महुकम एकंण मुट्टि म्हा० । रामति आमल की रम्या, देव हरायो दुट्टि म्हा॥ ५॥ लेसाले ले आवता, अधिकाइ करी एण म्हा० । उतर आप्या इन्द्र ने, जौड़ी व्याकरण जेण ॥ ६॥ म्हा०
वरस त्रीसज गृह वसी, ले लिखमी नो लाह म्हां० । आपो आप आदर्यो, चारित चित्तनी चाह म्हा॥७॥
तप जिण सहु निरजल तया, बार वरस धुरि मु न म्हा। तिण मे पारण दिन तिकै, ऊठसै मै इक उन म्हा०॥ ८॥ सूलपाणि चडकोशियौ, गौसाला गुणहीन म्हां। तिण तीना ने इण कीया, उपसम समकित लीण म्हा०॥६॥
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श्री राडद्रह महावीर स्तवन २१५ मठो ही जे झगडीयौ, जम्माइ जम्माल म्हा० । तार्यो पनर भवे तिकी, प्रभु सहुना प्रतिपाल म्हा०॥१०॥ पामी केवल थापीया, गणधर जेण इग्यार म्हा० । सहस चउद शिष्य साधु ते, साध्वी छतीस हजार म्हा०॥ ११ ॥ पुहता जिणवर सिवपुरे, ल्यै आठे गुण लाह म्हा० । जिन प्रतिमा जिनवर जिसी, अरचौ अधिक उछाह म्हा०॥१२॥ भाव जिन गुण भावना, गावइ बलि गुणगान म्हा० । धन ते कहै श्री धर्मसी, पामै सुख परधान म्हा०॥ १३ ॥
श्री राऽद्रह महावीर स्तवन
राड़धूइ महावीर विराजै, भय सगला दूरे भाजे रे । रा० । सहु विधि सुख सपति सार्जें, नित सेवक काज निवाजैरे।। रा० सासन एहनो इण आरै, वरतै सुधरम विचार रे । रा०। सुन्दर मूरति अतिसारी, नित नमण करे नर नारी रे । २।रा० देवल वलि निर्मल दीप, जसु तेज तरणी से जीपें रे । रा० सुरतरु ए फल्यो समीप, पातक दुख पास न छीपै रे ।३ । रा० धन धन जे धर्मसी ध्यावे, प्रभु सानिध सहु सुख पावैरे। शुभ भाव धरी जे सेवे, दिन दिन.मन बंछित देवे रे । ४ । रा० सितरै वर्षे सुखदाइ, पुण्ये प्रभु यात्रा पाइरे। श्री जिनसुखसूरि सदाइ, श्री संघ धर्मशील सवाई रे ।५ । रा०
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धर्मवर्द्धन ग्रन्थावली
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श्री महावीर जन्म गीत
सफल थाल वागा थिया धवल मगल सयल
तुरत त्रिभुवन हुआ हरष त्यारा। धनद कोठार भडार भरिया धने,
जनमियो देव बधमान ज्यारा ।। वार तिण मेरगिरि सिहर न्ववरावियो,
भला सुर असुरपति हुआ मेला। सुद्रव वरपा हुई लोक हरष्या सहु,
बाह जिनवीर री जनम वेला ।२।। मिहर जगि ऊगतें पूगते मनोरथ,
जुगति जाचक लहै दान जाचा । . मंडिया महोछव सिधारथ मौहले,
सुपन त्रिसला सुतण किया साचा ।३। करण उपगार ससार तारण कलू
___ आप अवतार जगदीस आयो । धनो धन जैन धर्म सीम धारण धणी,
जगतगुर भले महावीर जायो। ४ ।
सतरह भेदो पूजा स्तवन भाव भले भगवंत री, पूजा सतर प्रकार। परसिद्ध कीधी द्रोपदी, अंग छठे अधिकार । १ । करि पीछी मुखकोश करि, विमल कलश भरि नीर । पूजा न्हावण करौ प्रथम, सहु सुख करण सरीर ॥२॥
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सतरह भेदी पूजा स्तवन
२१७
केसर चदन कुमकुम, अंगी रचो अनूप । करि नव अगे नव तिलक, पूजा वीय प्ररूप ॥३॥ वसन युगल उज्जल विमल, आरोंपें जिन अंग । लाभ ज्ञान दरसण लहै, पूजा तृतीय प्रसंग ।।४॥ करपूरै कसतूरिये, विविध सुगन्ध वणाय । अरिहंत अंगै अरचतां, चौगइ दुख चूराय ॥५॥ मन विकस तिम विकसता, पुहप अनेक प्रकार । प्रभु पूजाए पंचमी, पंचमगति दातार ॥ ६॥ छठी पूजा ए छती, महा सुरभि पुष्पमाल । गुण गुथी थापो गले, जेम टलै दुख जाल ॥७॥ केतक कपक केवड़ा, सौभे तेम सुगात । चाढो जिम चढता हुवै, सातमीयं सुख सात ॥ ८ ॥ अंगै सेल्हारस अगर, पूरौ मुखै कपूर । अरिहंत पूजा आठमी, करम आठ कर दूर ।। ६ ॥ मोहन धज धरि मस्तक, सूहव गीत समूज । दीजै तिन प्रदिक्षणा, परसिद्ध नवमी पूज ॥ १० ॥ प्रभु सिर मुगट धरौ प्रगट, आभरण सुघट अनेक । वाहै सोहै बहुरखा, विधि दशमी सुविवेक ।। ११ ।। फूलहरौ अति फावतौ, फू दे लहकै फूल । महकै परिमल फल महा, इग्यारमी पूज अमूल ।। १२ ।। पुहप सुरभि पाचे वरण, वरषा करण विशेप ।। . अधो बध मुख ऊरधे, द्वादशमी विधि देख ।। १३ ।।
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धर्मवर्द्धन ग्रन्थावली
चित चोखे चोखे करी, अठ भगल आलेह । अरिहत प्रतिमा आगलै, तेरम पूजा तेह ।। १४ ।। गंधवती मृगमद अगर, सेल्हारस घनसारु । धरि प्रभु आगलि धूपणो, चवदम अरचा चारु ।। १५ ।। कठ भलइ आलाप करि, गावौ प्रभु गुण गीत । भावौ अधिकी भावना, पनरम पूजा प्रीत ॥ ६ ॥ कर जोडि नाटक करै, सजि सुन्दरि सिणगार । भव नाटक ते नवि भमै, सोलम पूजा सार ।। १७ ॥ तत वन श्रुपि रे आन धे, वाजिन चौविध वाय । भगत भली भगवंतरी, सतरम ए सुखदाय ।।१८।। जुदी जुदी विध जाणिवा, सख्या पिण समझाय । दोहे इक इक दाखवी, इम धर्मसी उवमाय ॥ १६ ॥
बीकानेर चैत्य परिपाटी स्तवन , चैत्य प्रवाडे चौवीसटै, करता दरिसण सहु दुख कट। घणा महाजन मिलिया घेर, वंदो जिनवर बीकानेर ।॥ १ ॥ शक्रस्तव पाचे सुविचार, जुगते जिनवर देव जुहार । भावै वावै भुंगल भेर, वंदो जिनवर बीकानेर ॥२॥ -नित नित वीजै देहरै नमो, वासपूज्य जिनवर वारमो। अलग टल अनान अंधेर, वंदो जिनवर बीकानेर ॥ ३ ॥ तीजो देवल तिणहीज तीर, वंदो जिन चौवीसम वीर। जिण सहु सुरवर कीधा जेर, वदो जिनवर बीकानेर ॥ ४॥ .
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सवैया . २१६ भाडेसाह करायौ भलौ, तीरथ ए सहु मैं सिर तिलौ। मोटी ओपम राजे मेर, वंदो जिनवर बीकानेर ॥५॥ सुमतिनाथ जिण पंचम सार, चौमुख २ जिन च्यार च्यार। ऊपरि ऊपरि सुजस उचेर, वंदो जिनवर बीकानेर ॥ ६॥ नमि आगे तिहा थी नमिनाथ, इकवीसम आप सिव आथि । हालौ जीव जयणाए हेर, वन्दो जिनवर बीकानेर ॥ ७॥ वलता देवगृह सुविधान, मन सुध वदु श्री वर्द्धमान । फिरतां शुद्ध प्रदिक्षणा फेर, वंदो जिनवर बीकानेर ॥८॥ आदिसर प्रासाद अनूप, राजै मूरति सुन्दर रूप । चिहुं दिसि बिंब घणा चौपखेर, वंदो जिनवर बीकानेर ।। १ ।। अजितनाथ बीजो अरिहंत, भय भंजन भेट्यौ भगवंत । खाट्यौ समकित पाप खखेर, वदो जिनवर बीकानेर ।॥ १० ॥ परसिद्ध ए आठे प्रासाद, प्रणम्या जिनवर तजी प्रमाद । श्री धर्मसी कहैं साझ सवेर, वंदो जिनवर बीकानेर ॥ ११ ॥
तीर्थ कर स्तुति-सवैया
नमो नितमेव सजौ शुभ सेव, जयो जिनदेव सदा सरसै। दुति देह दसैं, अति ही उलस, दुख दूर नसै जिनकै दरसै ॥ असुरेस सुरेश अशेष नरेश, सबै तिण वंदन कुतरसे । धर्मसीह कहै सुख सोऊ लहै, जोऊ आदि जिणंद नमै हरसै ।।।
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२२० धर्मवर्द्धन ग्रन्थावली
सवैया तेवीसा तू उपगार करै जु अपार अनाथ अधार सबै सुखकंदा । जिते जगदेव करै तुझ सेव जिनेसर नाभि नरेसर नन्दा ॥ देख मुख नूर मिटै दुख दूर नसै अंधकार ज्यु देखि दिणंदा । श्री धर्मसीह कहै निसदीह उदौ करि संघ को आदि जिणंदा ।। दान दियो जिण आपणी देह को, लीनो परावत जीव लुकाइ । आवत ही अचिरा उदरै सब देस मे शाति जिणे वरताइ ।। पाल्यौ छ खंड को राज जिणे जिनराज भयौ पदवी टु पाइ । सेवहु भाव भलै धर्ममी कहै शांति जिणंद सवै सुखदाइ ।। ३ ।। प्रगट्टा विकटा उमटाति घटा सघटा विछटात छटा घन की। इक ताल में ताल रु खाल प्रणाल वहै इक ताल उतालनि की। चिहुं ओर चकोर सजोर सु भोर करै निसि सोर पहोरनि की। विनती करै राजमती पिउ सुअव वात कहा धर्मशीलन की॥४॥' ताल कंसाल मृदंग वजावत, गावत किन्नर कोकिल कूजा। ताइ ताथेइ थेइ भलै हित, नाचत है नर नार समूजा । कुडल कान झिगामग ज्योति, सु दीपत चंद दिनंदही दूजा । यौं धर्मसीह कहै धन दीह, वनी मेरे पास जिणंद की पूजा ।। जानत बाल गुपाल सबै जसु, देस विदेस प्रसिद्ध पडूरै, नाम ते कामित पामत हैं नित, देखत जात सबै दुख पूरैं। मोहन रूप अनूप विराजित, सोभत सुन्दर देह सनूरै, ध्यान धरौं हित सु धर्मसी कहै, पारसनाथ सदा सुख पूरै ।।
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स्तुति-सवैया
२२१
जाकौ परता पूर देखे दुख जाइ दूर,
__ हाजरा हजूर जगि जानें प्रभु पास जू । मूरति विराजै नित चतुर के मोहे चित्त,
पेखै वधै नैननि की अधिक पियास जू ।। कीरति सुनी है कान, दीनौ कहा लु कै दान,
धरिके तुम्हारौ ध्यान आव लख पास जू । कहत है धर्मसीह गहत ही ताकौ नाम,
लहत अनंत सुख तूटै दुख पास जू ॥
चौवीस जिन गणधरादि सख्या छप्पय
वंदो जिन चौवीस चवदसे बावन गणधर । साधु अठ्ठावीस लाख सहस अडतीस सुखंकर ॥ साध्वी लाख चम्माल सहस छयालिस चउसय । श्रावक पचपन लाख सहस अडताल समुच्चय ॥ श्राविका कोडि पच लाख सहु,
अधिक अठावीस सहस अख । परिवार इतो संघ ने प्रगट,
श्रीधर्मसी कहै करहु सुख ।
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२२२
धर्मवर्द्धन प्रन्थावली
सनत्कुमार सझाय ढाल -त्यागी दौरागी मेघा जिन सगझाया,
अथवा उडरे बाबाकोडल मोरी रहनी
साचा सुग्यानी ध्यानी सनतकुमारा,
कारिमी काया माया कुण अहंकारा । सा० इण महामुनिना ए अधिकारा, नित साभलता ह निसतारा ।१ एण भरतक्षेत्र चउथा आरा. हथणाउर सुरपुर अणुहारा सा० । आससेण सहदेवी कुखि अवतारा, भोगवे चक्रवर्ति
पदवी भारा । सा०।२ विधि विधिऋद्धि तणाविस्तारा, पालैं राज छखंड पडारा सा एकदाइन्द्र प्रशंसै अपारा, ए अतिसुन्दर रूप उदारा । सा० । ३। तिहा विजै विजयंत देवअतारा,
इन्द्र वचन आणअदेखारा । साथ 'विप्र नौ वेशरची तिणवारा, देव दोआवैदेखणदीदारासा०४। पइसण देवनहि प्रतिहारा, आपन्हवण करै अग उघारा |सा। अम्हे दरसणआया अलगारा, विचिरोकण ना नही
व्यवहारा । सा०५ मुजरो कीधौ गेहमझारा, कुण इणआगै देवकुमारा । ता०६ दीपइरूपजाणे दिनकारा, सक्रवचन ते साच संभारा ।सा०६ इम सुणि नृप आणं अह कारा, सभा विराजभला सजि
शृंगारा सा
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. सनत्कुमार सज्झाय - २२३ वलिआवै देखें दरबारा, पिण शिरधुण्यौ केण प्रकारा ।सा।०७ विप्र पूछयते कहय विचारा, एतुम्ह विणस्यौ रूप अबारा ।सा। धिग ए तनु अभिमान धिकारा, नरनीकाय तिका नाछारा । ८॥ अदृश हुआ सुरते अचंभारा, सहु देखतां लोक सभारा । सा०। विणट्ठी कायारोग विकारा, चक्रबरति रा पिण नहि चारा ।। असुचि अपावन अथिर संसारा, गरब करै ते मूढ गमारा।सा भरिया तजि कोठार भंडारा, आप चक्रीहुआ अणगारासा।१० दिल वहु हेत सुनदा दारा, पूठइ विलपै ले परिवारा । सा० । लगि छम्मास फिरीतसुलारा, ललच्यौनहितोईचित्त लगारा ११ अरस विरस मुनिल्य आहारा, उपज्या साते रोगअपारा ।सा। कडू ज्वर सासकास करारा, स्वरभग अखियाउदर विथारा ।१२। सातसैं वरस सह्या असातारा, इंद्र वखाण्यौ वले दृढ
आचारा सा सुरकहै वेस करे सथुआरा, साधु समाधिकरूतुझसारा सा०।१३ . मुनि कहै अतरग करम आम्हारा, तिहाकोईजोर न चलें
तुम्हारा सा परचें थूक लगाइ पोतास, अगुलीकीध सोवन आकारा ।सा।१४ भरियो मुनिवर लब्धिभडारा, वन धन एहचलें खगधारा ।साण सुर परससि गयौ श्रीकारा, आऊ त्रिण लखवरप आधारा १५ समेतशिखरै मास सथारा, सरगतीजै गया सनतकुमारा सा विजयहरप गुरु सुगुर विद्यारा, बंदे श्रीधरमसीह वारोवारा।१६
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मेतार्थ मुनि स्वाध्याय राजग्रही में गोचरी, विहरतौ शुद्ध आहार । सोनार नै घर संचर्यो, सुमति गुप्तिइ रे साचवतौ सार ।१॥ सुज्ञानी साधु धन मेतारिज धीर ।। सजि समता रे तजि ममता सरीर सुधन०२। सोना तणा जव तिण घड़ी, तिण घड़ी, कीध तैयार । सोनार तिण साधुन वहिरावा, गयो गेह मझार सु०३। पूठा थकी कुच पखियइ तिहा, चुग्या सहु जव तेण । सोनार आइ संभालता, कह्यौ माहरा रे जव लीधा केण ।सु०४। नर कोइ बीजो इहा नहीं, सहु लिया जव इण साध । तिण रीस भरिय तेहनौ, सीस वीटयौ रे लेइ नीले वाध (सु०॥ जाणियौ मन मे तिहा यती, जौ कहुं गिलिया कं च । तौ एह हणिस्य तेह नै, साधु बोल्यो रे नहीं इणसंच ।सु०६। अति घणी वेदन ऊछली, सूकतै वाधइ सीस । पीड थी हग छिटकी पड्या, दया पाली रे तोइ बिस्वा वीस ७१ भली अनित्य अशरणभावना, धरि चित्त चढ़ते ध्यान । कर्म चूरि अतगड़ केवलि, थइ पहुंतौ रे मुनि शिवथान सु०८ अणगार एहवा उपशमी, प्रणमियँ तेहना पाय । सुख विजयहरप हुवै सदा, इम भाखइ रे धर्मसी उवमाय ।सुई
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दश श्रावक
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दश श्रावक सज्झाय
सूधै मन प्रणमौ दश श्रावक मोटी ऋद्धि बारें व्रत धार । वीर जिणंदइ एह वखाण्या, सातमे अंग तणे अधिकार । सू०।१॥ वाणीय गाम नगर तिहा आणंद, बारह कौडि सोनईया सार । दस गौ सहस तणो इक गोकुल, एहवा गोकुल जेहनै च्यार ।सू०।२। कोडि अढ़ार सोवन छ गोकुल, चंपापुरि कामदेव जगीस। तीजी चुलणीप्रिया बनारसी, आठ गोकुल धन कोडि चौवीस ।३। 'सुरादेव वाणारसी नयरइ, चुलशतक आलभीया सार। कंपिल्ले नय% कुडकोलिक, छ ब्रज कोडि अढ़ार अढ़ार सू०४ पोलासुपुरि सदालपुत्र सत्तम, तीन कोडि धन गोकुल एक । आठमौ महाशतक राजग्रही, कोडि चौवीस वजआठ विवेक। नवमो नदणीप्रिया सावत्थी, दशमौ लेतीया पिया निशाना वार बार कोडि धन बिहुन, च्यार च्यार गोकुल अभिराम । व्रत पाली अणशण करि पहुंता, पहिलै देवलोक परधान । च्यार च्यारपल्योपम आयुष, धर्मसीह धरै धर्म ध्यान सूपण
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श्री गुरुदेव स्तवनादि संग्रह
श्री गौतम स्वामी स्तवन
प्रहसम आलस तजि परी, चौखोचित्त करो रे, गचो एक रंग। गौतम गुण भणी रे || आंकणी ।। सेवो मन शुद्धे करी, भावे भरी रे. आणंद होवे अग |गौ०१|| नामे नित नवनिध मिलें संकट टल रे, दालिद नासे दुर । ध्यान धर्या धन है घणा,
न रहे मणा रे, पामे सुख भरपूर ।। गौ ॥ कामधेनु कल्पतम, चितामणि वन रे, नाम में तीन रतन्न । लब्ध अठावीस जेहनें,
गुण गेह नै रे, ध्वावे ते धन धन्न ।। गौ०३ ।। जिण दिनकर किरणा ग्रही, मन गहगही रे, चढ्यौ अष्टापद सोड। जिणवर विंब जुहारिया ,
। दुख वारियारे, च्यार आठ दस दोह ।। गौ०४॥ प्रतिवोध्या तापस वली, मन नी रली रे, पनरस ने तीन। एकणि पात्रे पारणो,
भव-तारणउ रे, लब्धि अंगूठ अखीण | गौ०५॥
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गुरुदेव स्तवनादि
२२७ जे एहवा मुनिवर जप, तसु दुख खपै रे, तूटै सगला कर्म । लीला अधिक लहै सदा,
सुख संपदा रे, भाजे भव नौ भर्म । गौ०६ ॥ आठ सिद्धि हुइ आगणे, घरि धन घणे रे, विजयहरष जशवास । धरमसीह मुनिवर इम कहै, .
- ते सुख लहै रे, एह भणे जे उल्हास ।।गौ०७ ॥
श्रीी जबूस्वामी स्तवन
छोडो ना जी २ कचन नै कामिनी छोडौ ना जी।
सुणि जंबु स्वामी छोडो ना जी । आणि हाँ। सुधरम स्वामी तणि सुणि वाणी, इमदिक्षा मन आणी। तरुणी परणी तुरत तजौ ते, तोड़ो मति अति ताणी ॥छो० १ ॥ दायज मे सोनइया दीधी, नवला कोड़ि निनाणु। . परिहरि नै पाछै पछतास्यौ, तुम सु स्यु अति ताणु छो०२१ प्रीतम कहै सुण देवानुप्रिये सुख थोड़ा दुख बहुला । मधु बिन्दु दृष्टाते मानी, सग तजु छ सगला ॥ छो० ३॥ सुन्दर आठे श्वसुरा सासु, मातु पिता हित माथै। प्रभवो पचसया प्रतिबोध्यो, संयम ले सहु साथै ॥ छो०॥४॥ सुधरम शीश हुवा ए सहु, सुधरम शील आचारी। सुत्र प्ररुप्या शिव पद पहुंच्या, आज जिके उपकारी ॥छो० ॥
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धर्मवर्द्धन ग्रन्थावली
वडली जिनदत्तसूरि ( यात्रा ) स्तवन
यात्रा ए वडली जास्या, गुरुदेव तणा गुण गास्या हो। जिहा जिनवर मूरति राजइ, वलि जिनदत्तसूरि विराजें हो ।११ पाटण अणहलपुर पासइ, एह कीजै यात्रा उल्हासइ हो। सुणि तीरथ महिमा सारी, आवइ भाव नर नारी हो ।।२।। पूज्या सहु इच्छा पूरइ, दुख दालिद नासे दूरै हो । जिण चौसठ योगिनी जीती, वरतइ ए बार वदीती हो ॥३॥ वीर बावन पिण वसि कीधा, जगगुरू एहवा जस लीधा हो । साकिणी डाकिणी उपशामइ, न पडै विजली जसु नामै हो ।।४।। घर पुर वलि वाटइ घाट, दुस्मण भय दूरै दाट हो। खरतर गुरु इम जस खाटइ, वरतै जे सुधरम वाटै हो ॥५॥ पारिख गुल्लाल पुन्याई, जेहनइ सुत यात्र कराइ हो । श्रीपूज जिनसुखसूरि साथइ, लाभ लीधौ लालचंद नाथइ हो।६।। सतरइ सतसठ्ठ वरीसइ, मिगसर वदि दुतीया दीसइ हो। सहु संघ मनोरथ साध्या, इस कहै धर्मसीह उपाध्या हो ॥७॥
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गुरुदेव स्तवनादि
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जिनदत्तसूरि सवैया चावन वीर किये अपने वश, चौसहि योगिनी पाय लगाइ। डाइण साइणि व्यंतर, खेचर, भूत परेत पिसाच पुलाइ । बीज तटक्क भटक्क कट्टक, अट्टक रहै पै खट्टक न काइ। कहै धर्मसीह लंघे कुण लीह, दीयेजिनदत्त की एक दुहाइ ॥१॥
५ श्री जिनकुशलसूरि ( देरावर यात्रा ) स्तवन दादी देरावर दीप, जसु सेवक सुजसै जीपै हो ।
___ सद्गुरु सुखदाई। श्रीजिनकुशलसूरिन्द, कलिजुग माहे सुरतरु कंदो हो ॥१॥ महिमा इण जग माहे, आवै बहु यात्र उछाहे हो। परतिख परता पूरें, चित्तनी सहु चिंता चूरे हो ॥२॥ विपमी वेला वाट, करता समरण दुख काट हो। छाजहडा कुल छाजै, गुरु महिमा अधिकी गाजै हो ॥३॥ परसिद्ध जिणचंद पाट, खरतरगुरु शोभा खाट हो। सानिध करण सदाइ, वड नामी गुरु वरदाई हो ।।४।। धुंभ घेणा ठाम ठामै, पाय पूजे ते सुख पाम हो। थिर देरावर थान, मुनिवर सहु आसति माने हो॥शा मन मोटे मुलताणी, आदर यात्रा मन आणी हो। राखी राखेचे रेख, सघ कीधो तिण सुविशेष हो।।।
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धर्मवद्धन अन्धावली
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जेसलगट गन्नराज, जिणचदपि गुणे जिहाज वदण संघ तिहा आव. वित्त साते क्षेत्र वाव होगा सघ आदर समज, आया बाग श्रीपूज हो। मोटो संघ मुलताणी. हित मरोटी हाजीवाणी हो |८|| जलालपुरे जस लीयो. गीतपुर उच वंचित मीधो हो । ए सघ यात्रा आया. श्रीपूज श्रीलब सवाया हो ॥६॥ सतरसे पैंतालीसें, माह सुदि तीर्ज मुजगीस हो। यात्रा करी जयकारी. श्री धर्ममी कहें, सुग्यकारी हो ||
कुशल करण जिन कुशल जी. दादोजी परसिद्ध देव रे लाल । परगट परता पूरव, शुद्ध मन करतां सेव रे लाल ॥१॥ पृथ्वी माहे परगड़ी, सिवीयाणो गढ सुखकार रे लाल । जेलागर मत्री जेहां, नामे जयतश्री नारि रे लाल ||२|| तेरे सैत्रीसैं समै, जायौ शुभ दिन जयकार रे लाल । संतालै सयम लीयो, सहु अथिर गिण्यौ संसार रे लाल ॥३॥ सदगुरु जिनचंदसूरिजी. सघले गुणे देखि सुघाट रेलाल । शुभ महोरत सत्योत्तरे, पाटण मे दीधो पाट रे लाल ||४|| गिरुवो खरतर गच्छ धणी, जिण शासन में जसवास रे लाल ! देरावर पुर दीपती, निव्यासीय स्वर्ग निवास रे लाल ||
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गुरुदेव स्तवनादि . २३१ सकट माहे समरता, दादोजी करें दुख दूर रे लाल । बेडी राखी बूडती, परसिद्ध ए विख्द पडूर रे लाल ॥६॥ सेवता सुरतरु समौ, दिन दिन दौलतिदातार रे लाल। विजयहर्ष वंचित दीय, वंदै धर्मसी वारंवार रे लाल ॥७॥
कुशल गुरु नामे नवनिधि पामै, ध्यावै जेह सूधै मन सदगुरु, दिन दिन शुभ परिणामै ॥१॥ भर दुक्कर अटवी वलि घाट, वैरी जूथ घणामे। कुशल खेम कुशल परसादै, ते पहुंचे निज ठामै ॥२॥ परता पूरण संकट चूरण, चावौ चौरासी गच्छा मैं। धर्मसीह कहै ध्याया धावै, करिवा सानिध कामै ॥३॥
दौलति दाता द्यौ सुख साता, सहुजन मन्न सुहाता राज। जे दिन राता तुझ गुण गाता, ते रहै राता माता राज ॥१॥ दादा दादा जग जस वादा, मोह्या सहु नर मादा राज । टलइ अल्हादा सहु विषवादा, कुशल कुशल परसादा
राज ॥२॥ प्रवहण तार्या कष्ट निवार्या, अटवी माहि उबार्या राज । विरुद संभार्या धर्मसी धार्या, सेवक काज सुधार्या राज ॥३॥
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धर्मवर्द्धन ग्रन्थावली
प्रेम सन धारि नित पहुर परभात र,
विविध जसवास गुण रास वादौ । अमल अखीयात विख्यात एणे इला,
दीपतौ देव जग मांहि दादौ ॥१॥ घाट रिपु थाट जलवाट ओघट घणे,
हणे सहु आपदा हुइ हजूरै । सूरि सिरदार छ सकल सुख सेवकां,
पूर नित कुशल जिनकुशल पूरे ॥२ अधिक घण झाड उझाड अवंगाहता,
__ लसकरा तसकरा पड्या लार। , धींग गच्छराज रो ध्यान मन ध्यावता,
विकट संकट सहु निकट वार ।।३।। वडकती भाजती चूडती वेडीया,
पार उतार जिण विरुद पायौ । ___ तूस सेवक तणा दुख भाजै तुरत,
घरमसी कुशल गुरु नाम ध्यायौ ।।४।।
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गुरुदेव स्तवनादि
२३३
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सवैया
राजै थुभ ठौंर ठौर ऐसो देव नाहीं और,
दादो दादो नाम तें जगत यश गायो है। आपणे ही भाव आय पूजै लख लोक पाय,
प्यासनिक राण माझि पानी आन पायो है ।। वाट घाट शत्रु थाट हाट पुर पाटण में,
देह गेह' नेह सौं कुशल वरतायौ है।' धर्मसीह ध्यान धरै सेवका कुशल कर,
__ साचो श्री कुशल गुरु नाम यो कहायो है ॥११॥
(७) कुशल सूरि छप्पय
सरब शोभ गुण सकल, साधुपति आपै साता ।
सिरवंता सिरि सिखर, सील शुभ सीख विख्याता ।। सुद्ध चिन्त सुखकार, सूरि जिनकुशलसूर दुति ।
सेवहि सेवक कोड़ि, संव मत वात शैल पति ।। सोभंति अधिक सोभा जगति, सौम्यरूप सौजन्यवर । संघ नै सुख संपति दीयण, सदा सेव धर्मसी सधर ।।
( ८.) श्री जिन कुशल सूरीश्वरु गावो गच्छराया।
शुद्ध चित्त नित समरता सुख होय सवाया। श्री १॥
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२३४
धर्मवडून ग्रन्थावली सेवै कुण सुर अवर कु , परिहरि प्रभु पाया।
आलिंगे कुण आक कुं, छंडि सुरतरु छाया ।२।। मन शुद्धे जपतां मिले, मन वंछित माया।
तेणि धर्मवर्द्धन धर्यो, गुण जिण ही गाया ॥३॥
( 8
)
कुशल करो जिन कुशल जी दुख दूर निवारौ। द्यौ मन वछित दिन दिनै, विनती अवधारौ ॥कु० १।। तो समरथ साहिब छतें, दास दीन तुम्हारौ। शोभा न वधै स्यामीया, एह वात विचारौ ॥२॥ भेट्या में हिव तुम्ह भणी, थयौ सफल जमारौ। धर्मवर्द्धन कहै माहरा, मन वछित सारो ॥३॥
श्रीजिनचन्दसूरि गीत
जाति-सपखरो आज खरै उदै मुदै सारा गच्छा माहि
साहि पातिसाहि मे सराह वाह वाह । जाग्यौ जैन चंद सागी, सोभागी रागी जैन धर्म,
वैरागी पुण्याइ जागी अधिक उछाह ॥१॥ रूडा रुडा उपदेश दे दे वड़ा वड़ा भूप
कीधा, धम्म रूप, खड़ा तडा सैवै पाय ।
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गुरुदेव स्तवनादि
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वाणि रा किलोल लोल वखाणे इलौल ऑणि,
सूत्र रा अरत्थ सो गरत्थ छ वताय ॥२॥ सूरि मंत्र साधना सवाइ पाइ अधिकाइ
आसति अगम्म आइ साची हाथ सिद्धि । साचो जत्त तत्तसार औहटी विषमवार,
वार तीन च्यार पाई पारिखा प्रसिद्ध ॥३॥ उजाडै पहाडे झाडे आया चोर धाडै आडै,
राख्यौ साथ ओट जाणे कीध लोह कोट । जास वयण सिद्धि योग सेवका रा रोग सोग,
वाय ज्युवातूल तेम जायें चढी चोट ॥४॥ साधी पंचनद जेण लाधी सिद्ध जैनचंद्र,
जैनसिंघ जैनराज रतन अबीह । ओप एण पाट धम्मवाट साधा गज्ज घाट,
पूज मोटे पुन्न धन धन्न धर्मसीह ॥२॥
नं०-२ जाति कडखो -
पुण्य परकास परभात प्रगट्यौ प्रगट,
भेटता भरम भर तिमिर भाजै । देखि खरतर सुगुरु एम दाखै दुनी,
- रवि तणे तेज तुझ भाल राजै ॥१॥ अधिक ऊच्छाह सोइ दिवस उगो इला,
दुरित अधार सहु दूरि डोलैं ।। ,
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२३८
धर्मवर्द्धन ग्रन्थावली
(५) रसाउला चावौ गच्छ चउरासिये, भट्टारक वडभाग । गणधर श्री जिणचद गुरु, एओ सोभ अथाग ||१|| ए अत्थग्गरा, पूजरै पग्गरा,
यात्र चीजग्गरा, आवै उमंगरा। साधरै संगरा, अग उपागरा,
सूत्र सुचंगरा, भेट अभङ्ग रा। गंग तरंग रा, राग नै रगरा,
पापन पुण्य रा, दाखवें दिन्न रा। संसै आसन्न रा, मेटियें मन रा,
गम्म आगम्म रा, ज्ञान रै गम्म रा। आखवे तत्त आगम्म रा,
धोरी श्री जिन ध्रम्म रा। पूजतां पाय गुरु प्रम्म रा,
जायें पाप जनम्म रा॥१॥
(६) सवैया वाकं दूजे पछि दूज वंदत है कोऊ एक,
याको नित ही नरिंद वदत अशेष हैं। चाकी तो निशा की वेर, अथिर सी जोति होत,
याकै ज्ञान को उदोत भानु सौं सुपेख हैं।
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२३६
गुरुदेव स्तवनादि वाकै सब सोल कला, सो भी दिन रैन छीन,
__याकै तो छतीस दृन, दून रूप रेख हे । धर्मसी सुबुद्धि धार गुणसौं विचार यार,
___ चंदसु तो जिणचद केते ही विशेष हैं ॥१॥ जैसे राजहसनिसौं राजै मानसर राज,
जैसे विंध भूधर विराजै गजराज सौं। जैसैं सुर राजि सुजु सोभ सुरराज सार्जें,
जैसैं सिंधुराज राजै सिन्धुनि के साज सौं॥ जैसे तार हरनि के वृन्द सौं विराजैं चंद,
जैसे गिरराज राजै नद वन राज सौं जैसे धर्मशील सौं विराजे गच्छराज तैसे,
राजै जिनचदसूरि सघ के समाज सौं ॥२॥ ___ तैसो ही अनूप रूप भावें आइ वदै भूप,
चातुरी वचन कला पूरी पडिताइ है। तैसो ही अडिग ध्यान आगम अगम ज्ञान,
साचो मूरि मंत्र को विधान सुखदाइ है ।। तैसी है अमल बुद्धि, साची है वचन सिद्धि,
तैसों गुण जान तैसी सोभा हु सवाइ है। और ठौर गुण एक तो मे सब ही विवेक,
- ऐसी, जिनचन्दसूरि तेरी अधिकाइ हैं ॥३॥ जिणचंद यतीश्वर वदन को,
नर नारि नरेसर आवत है।
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२३६
धर्मवर्द्धन ग्रन्थावली
सुकवि गच्छराज नैं निरखि उपम सजे,
। तरणि जिम ताहरौ वखत तोलें ॥२॥ धर्म शोभा सकल तेज वरते धरा,
हारि नाठी तमस हेक हिलकै । सूरि जिणचंद संपेखि सगला कहै,
किरणधर जेम तुझ भाग किलकै ॥३॥ प्रगट परताप जिनरतन रो पाटवी,
सकल सुख देण कवि कहै धर्मसीह । भालियल तेज किरणांल जिम भालता,
दलिद मेट करै दौलति दीह ।।४।।
__ नं०-३ दे देंकार करणे धर्म दाखै,
अधिको आणिंद र्दै अधिकार ।। नाम न ल्यै जिणचद् न ना रो,
नाठो तिण रूसे नाकार ॥२॥ सुवे सात प्रियां रे साह्यो,
गिणि पूरवलौ वस गिनौ । पूज त, पिण धरता पगला,
न सकै रहि तिण ठाम न नौ ॥२॥ राजै नगर जिणे गच्छराजा,
दे देकार घणा तिण देस ।
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गुरुदेव स्तवनादि न नौं कोइ मुखें न लगावै,
परहौं नासि गयौ परदेस ॥३॥ धरि हिव अरज रतन पाटोधर,
साच कहै धर्मसीह सही। माग्यौ देसि आफरती मुनें,
___ना कारौ तुझ पासि नहीं ॥४॥
न० ( ४ ) चद जिम सूरि जिणचंद्र चढती कला,
सोम आकार सुखकार सोहै । अधिक आणंद उद्योतकारी इला,
महीयले मानवा मन्न मोहै ॥शा. आय नर राय जसु पाय लागै अडिग,
देखता दलिद्र दुख जाय दूरै । प्रगट जसु पुहवी परताप जागै प्रबल,
पवर गच्छराज सुखसाज पूरै ॥२॥ धरत धर्मवाट मुनि थाट सोभा धरा,
रतन रे पाट गहगाट राजें। जुग्गपरधान जंगम्म तीरथ जगै,
दौलति दिल्ल चढते वाजै ॥३॥ सकल गुण धार सिरदार सोभा सधर,
- सवल सौभाग संसार सारै। . धरमवर्द्धन धरै नाम धन धन रा,
__ - अभिनवौ कल्पतरु एण आरें ॥४॥
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२४०
धर्मवर्द्धन ग्रन्थावली
वर मादल ताल कंसाल बजावत,
के गुरुके गुण गावत है। बहु मोतीय तन्दुल थाल भरे,
__नित सूहव नारि वधावत है। धर्मनीउ कहै गच्छराज कु वंदत,
पुण्य उर्दै सुख पावत है ॥४॥
(७) सलैया काजति छवि चंदा मुख सुख कंदा
__अमल अमंदा अरविंदा । भाजति भय मुंढा शोभ सुरिंदा,
फेटत फंदा दुख दंदा । दुति जाणि दिणंदा, सैवहि वृदा,
___हाजर वंदा राजिन्दा। कहै धर्म कविंदा अति आणंदा,
जगति जतिंदा जिणचंदा ॥१॥ शोभत सुखदानी श्री गुरुवाणी,
सकल सुहानी सुनि प्राणी। कलि कमल कृपाणी, सिव सहिनाणी,
गुणिजन जाणी हित आणी ।। बुधजनहि वखाणी ग्रन्थ लिखाणी,
रस कर सानी दुख हानी। धर्मसीह सुजानी पुण्यप्रधानी,
कुशल कल्याणी महिमानी ।।२।।
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गुरु गीतादि संग्रह
२४१
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(८) गहुली धन धन दिन आज नो लेखै, वलि हरख्या सघ विशेपैं। अंग उलट धरिय अशेषै ॥ १॥ पाटोधर पाटीय पधारो, अम्हची विनती अवधारौ । आ०।। चौपड़ा गणधर कुलचन्द, सहसकरण सुपीयारदे नंद । खरतर गच्छ अधिक आणद ॥ २॥ पाटो०॥ सदगुरु जिनरतनसूरिद, पाट थप्यौ अभिनव इद । चढती कला श्री जिणचद ।। ३ ॥ पाटो० ॥ हियडौ नयणा अति हर्षे, दुख जाय परा सहु दरसै । तुम्ह देखण नै सहु तरसै ।। ४ ।। पाटो० ।। सुणता उपदेश तुम्हारौ, अति हरख्यौ चित्त अम्हारौ । तुम्ह दरसण मोहनगारौ ।। ५ ।। पाटो० ॥ पूज वदन नी मन रलीया, सहु कोइ श्रावक मिलीया । दरसण दीठा दुख टलीया ॥ ६ ॥ पाटौ०॥ पूज मूरति मोहन वेल, वलि वाणि सुधारस रेल ।। पूज चाल गजगति गेल ॥ ७॥ पाटो० ॥ मिल मिल सब सूहव आवें, गीत मगल गहुंली गावै । वलि तंदुल मोती वधावै ॥८॥ पाटो०॥ पूज प्रतपो अधिक पुन्याइ, नित विजयहरष सुखदाइ। धर्मसी कहै शोभ सवाई ॥६॥ पाटो० ॥
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२४२
धर्मवर्द्धन ग्रन्थावली
(६) गुरु गीत राजै खरतरगच्छ राजवी, नित नित हो नवल नूर । रा। जिणचंदसूरीसर जग जयौ, उलसतं हो पुण्य नै अकूर ॥२॥ विद्याधर वड वखतावरु, महियलमैं हो महिमा महिमाय । राउ राणा मोटा राजीया, पुहवीपति हो लागै जसु पाय ॥रा०२ सहु कु सुखदायक मुख सोहै, देखता हो दुख जाये दूर ॥ रा०॥ जसु मूरति अति सोहामणी, सोहै सोहै हो श्रीर्जिनचढसूर ॥रा०३ चावा जगि गणधर चोपड़ा,
वरदाइ हो जसु वंश विख्यात ॥रा॥ सुत सोहे सहसासाह नौ,
मतिवंती हो सुपियारदे मात ॥रा० ४॥ श्रीजिनरतनसूरीसरू,
जोग जाणी हो जसु दीधौ पाट । जसु जस जागै इण जगत मे,
___ गावइ गावइ हो गीता रा गहगाट ||शा गुरू छाजे छतीसे गुण,
भट्टारक हो जगि मोट भाग। शुद्ध क्रिया नित साचवे,
सगला मे हो जेहनो सोभाग ॥६॥ श्रीयुगप्रधान यतीश्वरू,
देखता हो हुवै सफलौ दीह । नित विजयहरप वंछित दीये,
. धरि भाव हो गावै. धरमसीह ॥७॥
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गुरु गीतादि संग्रह
२४३ ( २०० ) जिनचंदसूरि गीत साधु आचार सुविचार सखरी सुमति,
छतीसे गुणे करि जागीयौ वडी छति । साधियौ सूर मत्र ग्रही देवा सकति,
साधुपति साधुपति साधुपति साधुपति ।।१।। धींग धोरी वहै रतन रे पाट धुर,
पाउ धारे तिकै गिणा धन देसपुर । सुदृढि जिणरी हुवै जाणि परसन्न सुर,
चढ गुरु चद गुरु चद गुरु चढ गुरु ।। २ ॥ तत्त सिद्धान्त रा तेम व्याकरण तरक,
गात्र जिण रो सदा ज्ञान सुधैं गरक । उदै गच्छ खरतरै आज ऊगौ अरक,
__ भट्टारक भट्टारक भट्टारक भट्टारक ॥३॥ सूरि जिणचद श्रीपूज शोभा सधर, - बडा जिनदत्त जिणकुशल जसु दिये धर । श्री धर्मसी कहै सुजस सगले सखर,
जतीसर जतीसर जतीसर ॥ ४ ॥
न० ११ थिया केइ दिवस मन कोड़ करता यकां,
. पुण्य करि आज अभिलाप पूगी। पूज जिणचंद रा चरण युग पेखता, ।
आज सूरज सही भलौ ऊगौ ॥१॥
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धर्मवर्द्धन ग्रन्थावली धन्न धरती जठे पूज पगला धरै,
सहू इस साभरै देस सारै। इपि गच्छराज धन आज हुआ अम्हे,
धन्न वलि तरणि जग किरण धारै ॥२॥ वाणि वाखाण री जाण अमृत वदे,
प्रेम मन धारि परवीण पीवें । गोत्र गणधार गुणधार भेट्यो गुहिर,
दीपियौ भलौ रवि जगत दीवैं ॥३॥ रतन पटधार वडवार वरतो रिधू,
विधू धरि मेर ६ जाव वरतें। धरो चिर आउ गच्छराउ धर्मशील धर,
पुहवी किरणाल जा प्रगट परतें ॥४॥
जिन चंद सूरि दोहा वारू सरव विवेक, इतरौ जाणी आपथी। अम्ह ने दीजे एक, रितु परिमाणे रतन उत ।। १ ।।
(१) जिनसुखसूरिपद महोत्सव
ढाल-चरण करण धर मुनिवर उदय थयो धन धन आज नो, प्रगट्यो पुण्य अंकूरो जी। वद्या आचारिज चढ़ती कला, नामे जिनसुखसूरोजी ।।१।। सुरत सहर जिणचदसूरि जी, आप्यौ आपणो पाटो जी। महोत्सव गाजे बाजें माडिया, गीतां रां सहगाटी जी ॥२॥
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गुरु गीतादि संग्रह
२४५ पारिख साह भला पुण्यातमा, सामीदास सूरदासो जी। पदठवणो कीधी मन प्रेमसु, वित्त खरच्या सुविलासो जी।। रूडी विधि कीधा रातीजुगा, साहमीवच्छल सारो जी। पटकूले कीधी पहिरावणी, सहु संघने श्रीकारो जी ॥४॥ संवत् सतरै बासठ समै, उच्छव बहु आसाढो जी। सुदि इग्यारस पद महोत्सव सज्यो, चंदकला जस चाढो जी।५ साहिलेचा बहुरा जगि सलहीय, पींचा नख परसंसो जी । मात पिता रूपचंद सरूपदे, तेहने कुल अवतंसोजी ॥ ६॥ प्रतपो एह घणा जुग गच्छपति, श्रीजिनसुखसूरिदो जी । श्रीधर्मसी कहै श्रीसंघने सदा, अधिक करौ आणंदो जी ॥ ७॥
(२) कवित
सकल गुण जाण वाखाण मुख सरसती,
कलाधर अवर नर मीढ केहौ। खर आचार सुविचार जस खरतरे,
___ जैनसुखसूरि जिनचंद जेहौ ॥१॥ सुगुरू निज सूरिमंत्र हाथसु सुपीयौ, ..
दीपीयौ दशो दिश सुजस दावौ। कमल चढ़ती कला देखि सहु को कहै,
चंद पाट दूसरौ चंद चावौ ॥२॥ अगम आगम तरक शास्त्र जाणइ अर्थ,
छात्रधर छहुं छक गुणे छाजइ ।
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धर्मबर्द्धन ग्रन्थावली तरंण रिखराज जेहाज जिम तारवा,
रतनहर राजहर रीति राजा ॥३॥ वडी छति मति उगति जुगति रहणी वडी,
महिपति वड वडा वयण मोहे । भलें धर्मशील सौभाग्य ल्ये भल भला,
सूरिवर सिहर सुखसूरि सोहे ॥ ४ ॥
(३) जिनसुखसूरि छप्पय सकल साख सिद्धात भेद विधि विधि रा भाखे । अवल धरम उपदेश, दुरस हटाते दाखे । वडि पहुंचि व्याकरण तास समवड कुण तोले । जोडे तरक जुगति बहुत शुद्ध संस्कृत वोले ॥ खरतरे सदा दीसे खरी, प्रसिद्धि भली पुन्य पूर री। इकवीस चौक गच्छ से अधिक, सोभा जिनसुखसूरिरी।
(४) जिनसुखसूरि अमृतध्वनि खरतरगच्छ जाणे खलक, सयल गुणे सुसमृद्ध ।
शोभा जिनसुखसूरि री, सहु विधि धरा प्रसिद्ध । चाल-धरा प्रसिद्ध द्वज जस वद्ध,
ध्यान लवद्ध द्विपणा सुद्ध धीमा बुद्धि, धुनि धन रुद्ध भ्रूण विरुद्ध, द्वेपन धंध द्धीरज सिद्ध द्धोरी सुद्ध, द्धौत विरुद्ध द्वंसि कुबुद्धि, द्धवत परिद्ध धारण निद्ध द्धन गुरू वुद्ध,
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गुरु गीतादि संग्रह
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दुर पद दिद्ध द्धरि हथ सिद्ध, द्धी गुण गृद्ध द्धरि ततछद्ध धाम सुलद्ध, दरणी मद्ध द्धाक प्रसिद्ध, धूम सी किद्ध ध्वनि अमृत सुविशेष ॥ १ ॥ खरतर०
(५) जिनसुखसूरि चद्रावला सहु धरमा सिर सैहरौ रे, श्री जिन धरम सुजाण, खरतर गच्छ सोभा खरी रे, भट्टारकीया कुलभाण । कुलभाण रे जाँण वारू किरिया धर्म वखाण, पूज विराजइ पुण्य प्रमाण, जिनसुखसूरि अखडित आण ॥१॥ श्री गच्छनायकजी रे, प्रतपौ बहु जुग पाट,
खाटउ जस खरौजी, वरतौ सुधरम वाट । दाटौ दुख परौजी २ __ साहलेचा बहुरा सही रे, पुहवी गोत्र प्रसिद्ध । रतनादे रुपचद नउ रे, सुत ए गुणे समृद्धरे। सुत ए गुणे समृद्ध सार, आणी मन वइराग अपार संयम जिण लीधौ सुखकार, अधिक भाव भलइ आचार ॥ ३॥ श्रीजिणचंदसूरिंद जी रे, सैं हथ दीधौ पाट । महोछव सूरत मंडिया रे, गीता रा गहगाट । गीता रा गहगाट रे खास, दीपइ पारिख सामीदास । पढठवणो कीधी परकास, विलस्या वित्त लीधौ जसवास [४] महिमा मोटी महियले रे, हुआ हरष उच्छाह । वचन कला वखाण नी रे, वाखाण सहु वाह वाह ।
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धर्मवर्द्धन ग्रन्थावली वाखाणे सह वाह वाह रे लेख, आगम भणिया शास्त्र अशेप, श्री जिन धर्मशील सुविशेष, राजे श्रीयूज चढती रेख, जी
गच्छना०॥५॥ (६) सवैया गुरू जिणचंद सूरि आप हाथ पाट दीनो, कीनो है महोछब पुर सूरत सनूर जू। विलस्यौ वित्त वाह वाह चौरासी गच्छे सराह, देखें तें विशेषै मुख होत दुख दूर ज । उदै को अंकुर किधु पुण्य ही को पूर किधु, सूरिमत्र साधना की सकति हजूर जू। इंद्रभूति अवतारी साचो धर्मशील धारी, सवही कु सुखकारी जैनसुखसूर जू ॥१॥
(७) द्रुपद राग-रामकली ( रामगिरी ) जिनसुखसूरि सुज्ञानी, सेवो भवि जिनसुखसूरि सुज्ञानी । सब गुण लायक श्री गच्छनायक, सुखदायक सुविधानी ॥ ११॥ चवद विद्या सहु विधि चतुराई, प्रकृति भली पहिचानी । श्री जिनचंद सुगुरू पढ़ सुंप्यो, वरषत अमृत वानी ॥२॥सेवोना वखत वडै गुरू तखत विराजत, महिमा सब जगि मानी। शुद्ध क्रिया धर्मशील सुमारग, सब ही वात सयानी ॥३।। सेका
(८) द्रुपद-धन्याश्री गाचौ गावौ री गच्छनायक के गुण गावौ। श्री खरतरगच्छ अधिकी सोभा, चौरासी गच्छ चावोरी । ग०१:
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गुरु गीतादि संग्रह धन धन श्री जिनचंद पटोधर, टीपै चढ़तो दावी। , सकल कला जिनसुखसूरीसर, पग वद्या सुख पावौ गच्छा । वाणी सूत्र सिद्धान्त वखाणे, विधि सु वंदि वधावी। ए गुरू श्री 'धर्मशील' आचारी, सहु में सुजससुहावौ गच्छ॥३।।
(E) भास गीत गहुली
ढाल-मोरो मन मोह्यौ पूज वादण सौं भलो दिण उगौ आज आणंद सौं, गुरू वाद्या लाधो ज्ञान । सुणिस्या उपदेस सुहामणा, धरिस्या साचउ धर्म ध्यान भलो०१. नित करस्या समकित निरमलौ, निरमल जिम गगा नीर भलो० तजस्यां संगति निगुणा तणी, सुगणा सु करिस्यां सीर ।भलो०२। मिल आवी सहिया मलपती, सुन्दर करि शुभ सिणगार भलो० गुण गावौ श्री गुरूदेव ना, औ सफल करौ अवतार । भलो. भगवत गणधरै भाखिया, सहु सूत्र सुणावइ सार । भलो० जिन थी शुभ मारग जाणिय, एहवी जे करें उपगार । भलो०४ जयणा करियै जीवा तणी, जतने भरिये पग जोई। भलो० बड़का रौ वलि कीजै विनय, मन कपट न करिस्यौ कोई ॥५॥ खाटै जस अधिकउ खरतरा, जिण शासन शोभ सुजाण भलो० करणी सखरी पुन्य री करे, भला श्रावक कुल रा भाण भि०॥६ वरतै दिन दिन हि वधामणा, सहु सुजस करै संसार । भलो० . धर्म हेत उपाध्या धरमसी, श्री सघ सदा सुखकार । भ० ॥१॥
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२५०
धर्मवद्धन ग्रन्थावली
गुरु गहुली (१०) ढाल-वैत्रणी आगे थी कहै । रा० सिणगार सार वणाइ सुन्दर, चुंनडी ओढी सुचंग। घर हाथ थाल विसाल ले, आवी अति उद्धरंग। सहु मिली सहिया गुण गावो गहुँली गीत ॥ १॥ सुगुरू बधावी सुरीति, पुन्य धरि बहु प्रीति ।। सहु० ॥२॥ फस्तुरि केशर कुकमा, करि रोल भरीय कचोल । मन रंग माडे माडणा, अधिक भाव इलोल ।। सहु ॥३॥ चौकुण चिहु दिशि च्यार चौकी, चौकोर फूलड़ी चंग। कलीए हसता कमल ज्यू', सौहे अति ही मुरंग ।। सहु० ।।४।। साथीयो सुन्दर विच सोहै, सोहै सगला मन्न । संसार इम सफलो करें, धन अम्मकादे धन्न ।। सहु० ॥५॥ . चोखा अंखडित लेइ चोखा. माहि मोती मेलि । सुहब बधाव सुगुरु नै, बधती मोहनवेलि ।। सहु० ॥al नमती करती निमछना, लुलि लुलि लागे पाय । सुख विजयहरप लहै सदा, धरमसी कहै धरि भाव सहु०॥७॥
(२१) सुगुरु व्याख्यानगीत
ढाल-धर्म जागरीया नी० सरस वखाण सुगुरु तणो, मन भवियण ना मोहै रे। सुणिवाने तरसे सहु, सकल गुण करि सोहै रे ।। सरस०॥ ए। राग सिधत तणे रसै, भेद भलीपर भाखै रे। मिसरी दूध मिल्या थका, चतुर भली पर चाखै रे ||सरसा।।
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गुरु गीतादि संग्रह प्रकृति जुदी पुण्य पाप नी, बेतालीस वयासी रे। सुगुरू कहै समझाय नै, भगवते जे भासी रे ।। सरस० ॥३॥ दस दृष्टान्ते दोहिलो, श्रावक नौ कुल सारू रे। संगति वलि सदगुरू तणी, पामी पुण्य प्रकारू रे ।। सरसना४॥ धरम नरम मन जे धरै, भरम करम' ना भाजै रे। चरम जिणंद कहैं ते चढ़े, परम मुगति गढ पाजै रे।।सरसा । वाणि विविध विचार सु, प्राणी ने परकास. रे। जाणी नैं करिस्य जिकै, वरस्यै मुगति विलास रे ।। सरस०॥६।। इण भवि सुख अधिका लहै, विजयहरप जसवासो रे। धरम करौ धर्मसी कहै, इण उपदेश उलासो रे ॥ सरस०॥७॥
(१२) छप्पय—क का बारहखडी पर करण अधिक कल्याण, काज साधन शुभ कामित । किलक भाल किरणाल, कीध जिण निर्मल कीरत ।। कुल दीपक वलि कुशल, क्रूर नहिं मन छग कूरम । केवल धर्म केलवण, कैहणिया कैतल भ्रम ।। कोश गुण रतन को इण समौ, कौटिक गण कौमुदीयवर । कज सम मुख कंठ कोकिला, काहु जिनसुख जन सुखकार ।
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धर्मवद्धन ग्रन्थावली
श्री जिनभक्तिसरि गीतम्
ढाल-आषाढै भै आवै रा देसी। 'जिनभक्ति' जतीसर वंदौ, चढती कला दीपति चंदौरे । जि०॥ खरतर गच्छ नायक राजे, छत्रीस गुणे करि छाजे रे ११ जिक श्री जिनसख सरि सनाथै, दीधी पद अपणे हाथे रे। जि० । श्री 'रिणीपुर' संघ सवायौ, महोछव कीधौ मन भायौ रे ।२ । 'सेठिया' वंसै सुखदाई, श्री जिन धर्म सोभ सवाई रे। जि० । 'हरिचंद' पिता धर्मधीरो, 'हरिसुखदे' उदर हीरौ रे ।३। जि० । लघुवय जिण चारित लीधौ, सद्गुरु नै सुप्रसन्न कीधौ रे ।जि० विद्या जसु हुइ वरदाइ, पुण्ये गुरु पदवी पाई रे ।४। जि० । प्रनाटयौ जश देस प्रदेस, वरते आज्ञा सुविसेस रे । जि० । वाट सहु देस वधाइ, खरतर गच्छपति सुखदाई । ५ । जि०। संवत 'सतर उगुण्यासी, जेष्ठ वदि त्रीज' पुण्य प्रकासी रे ।जि० सहु सुजस रिणी संघ साध्या, इम कहै 'धर्मसी' उपाध्या रे ।।
॥श्रावक करणी ॥ ढाल-हिवराणी पदमावती
श्री जिन शाशन सेहरौ, बटु जिनवीर ।
देशविरति धर्म उपदिस्यौ, धरे श्रावक धीर ॥१॥ श्रावक नी करणी सुणी, सद्गुरु कहै सार ।
जे आदरता जीवड़ौ, पामै भव पार ॥२ श्रा.॥
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श्रावक करणी
२५३
पछिली रात प्रभात रौ, तजि अंघ अज्ञान ।
वे घड़ी एकात वैसि नै, ध्यावे धर्म ध्यान ।।३॥ श्रा ।। उतम कुल हुं उपनौ, पूरवलैं पुन्न ।
जतन करी जिन धर्म ने, राखें जेम रतन्न ॥४|| श्रा.॥ धुरि समकित साचौ धरै, नित गुण नवकार.।
आदर पर उपकार सुं, बरतें विवहार ॥॥ श्रा.॥ करि न सके तोही कर, मनोरथ मन माहि।।
वत वार धार वली, चारित नी चाहि ॥६॥ श्रा देव जुहारी दिन उदय, गुरु वदि सुज्ञान ।
सांभलि उपदेश सूत्रनौ, गिणे धन दिन ज्ञान ॥णा श्रा.॥ वादि कहै. देज्यो वलि, भात पाणी लाभ।
भोजन कीजै भाव सौं, पात्रा पडिलाभ ॥ श्रा.॥८॥ पच्चखाण पूगे पारता, कहे तीन नौकार।।
घर सारू थोड़ो घणौ, करे पुण्य प्रकार ॥ श्रा.॥६॥ ___ पाणी छाणे, प्रेम सुं, दिन मे दोई वार ।
___ जीवाणी पण जतन सु, राखें सुविचार ॥ श्रा. ॥१०॥ पीसण खाडण लीपणे, राधण रधाण ।
छै कूटो छःकायनौ, जयणा करे जाण ॥ श्रा. ॥११॥ ___ चक्की चूल्है चद्र या, तिम घृत नै तेल ।
___ ऊघाड़ा राख्या ईया, वधै पापनी वेल ॥ श्रा. ॥१२॥ ____ बावीस अभक्ष जे वोलिया, तजें परहा तेह ।
चवदे नेम चितारता, इण लाभ अछेह ॥ श्रा.॥१३॥
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२५४
धर्मवद्धन ग्रन्थावली
साहमीवच्छल साचवे, साधुनी करे सेव ।
आखड़ी वत पचखाण री, टाले नहीं टेव ।। श्रा, ॥१४॥ कूडा कथन रखे करी, सुस कूड़ी साख ।
__ थापण मोसौ मत करे, रिद्धि पारकी राख । श्रा. ॥१५॥ सावू साजी सहित ना, विप ना व्यापार।
पाप विणज टाले परां, जिम होइ अँवार ।। श्रा. ॥१६॥ व्यापार शुद्ध करे वली, निम होइ प्रतीति ।
___ पाप किया ते पडिकमे, अतिचार अनीति | था. ॥१॥ पांच तिथे टाले परो, अधिको आरम्भ ।
परहरे निन्दा पारकी, दिल न धरे दम्भ ।। श्रा. ॥१८॥ पोता री परणी प्रिया, राखे तिण सुरंग ।
शील धरे न करे सही, पर स्त्री प्रसग ॥ श्रा ॥१॥ जूवा प्रमुख कह्याजिके, साते कुव्यसन्न ।
सेवें न कोई सर्वथा, धरमी ते धन्न ॥ श्रा. ॥ २० ॥ पोसा परवे पाखिए, करे मन नैं कोड़ि ।
गुण गाए गुरुदेव ना, हरखे होडा होडि || श्रा. ॥२॥ सूड़ने दाणवइ गास जो, खड़ी क्षेत्र अखंड।
उपदेश न दिये एहवा, दोप अनरथ ढड ॥ श्रा ॥२२॥ रात्रिभोजन नादर, इण दोप अपार ।
सेजे रात्रि सूवता, वलि कर चौविहार ॥ श्रा. ॥३॥ जो सूता कोइ जीवन, जोखो हुय जाय ।
तौ पचखाण सहु तणी, करे मन वच काय ।। श्रा.॥२४॥ -सहु श्रावक नित साचव, एतो कुल आचार। .
धन ते कहै श्री धर्मशी, सुख लहै श्रीकार ॥ श्रा.२५॥
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शास्त्रीय विचार स्तवन संग्रह ४५ आगम सख्या गर्मित वीर जिन स्तवनम्
देवा ना पिण जेह छ देव, सहु देविंद करै जसु सेव । ते नमु श्रीदेवाधिज देव, वचन सुणौ तेहना नितमेव ।।१।। ये सहु नै सुख ए जगदीस, वाणी तेहनी विश्वाचीन । प्राप्या आगम पेतालीस, सख्या नाम कहुं सुजगीस ॥२॥ श्री आचाराग पहिलो अंग, सहस अढी ए सूत्र सुचग। सुयगडाग बीजौ श्रीकार (सुविचार), सख्या इकवीससे सुविचार ३ तीजी ठाणा अग सुपति, सूत्रेसइत्रीसस सतसहि। चौथो समवायाग सुजाण, सोलेसै सतसठ श्लोक प्रमाण ॥४॥ पचम भगवती सूत्र सुधन्न, पनर सहस सतसेवावन्न । जाता धर्म कथा अग छह, हिंवणा पच हजारे दिठ्ठ॥५॥ सत्तम उपवासग दसासार, बोल्या अठसे ऊपरि बार। अट्ठम अतगड सूत्र कहेउ, श्लोक स ख्या आठस ने नेऊ ||६|| नवमौ अग अणुत्तर उववाय, इकसौ बाणु मानकहाय । प्रभव्याकरण दसमी परकास, एक सहस दोयसै पचास ॥७॥ सूत्र विपाके इग्यारम अग श्लोक वारसै सोल सग। अंग इग्यार सूत्र मिले थाय, पैंत्रीस सहस दोइ स प्राय ॥८॥
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२५६
धर्मवर्द्धन ग्रन्थावली
ढाल -सफल ससार नी ॥
वार उपागमे प्रथम उववाइया, पनरसइ सूत्र परिमाण पिणपाइया। रायपसणिया वीय उपाग में, दोइहजार अठहोत्तर मन गमाह। त्रीय उपाग जीवाभिगम जाणिय, च्यार हजार सौ
सात परिमाणिय। चउथ श्रीपनवणा उवं गरकासिय, सात हजार सयसात
सत्यासिय ॥१०॥ पाचमौ जंवूपन्नति सुविसालए, चउसहस एकसौ वलिय छैतालए। चंदपन्नतिया छह वावीस सैं, सत्तम सूरपन्नति संख्या इस॥११॥ अट्ठम नाम निरयावली कप्पिया, नवम उवंग इमकप्पवडसिया। पुफिया दशम इग्यार पुफचूलीया, एम वन्नीदशा वारम
। अनुकूलिया ।।१२।। अट्ठम आदिथी उवंग पाचे मिली, शतक इग्यार संख्या इसी
साभली । बार उपांगनो मेल भेलौ वसै, सहस पच्चीस नैं वलि
सया सातसे ॥ १३ ॥ मूल सूत्र सौ सवा तेण मिलतौ कह्यो, विशेषआवश्यक सहस
पाचे लह्यो। दूसरौ मूलसूत्र सातसै दाखियै, दशवियकालिक भव्यजन
भाखियै ।। १४ ।। . पाखियसूत्र नै मूलसूत्र तीसरौ, तीनसैसाठि संख्या
मता वीसरौ।
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शास्त्रीय विचार स्तवन सग्रह २५७ उत्तराध्ययन दोइ सहस सुविचार ए, मूल सूत्रसहु सवाआठ
. हजारए ।। १५ ॥ ___ सूत्र नंदी सरस जाणिय सातस, अनुयोगद्वार उगणीससौ ,
मन वस। ___ एतलै ए थया सूत्र गुणत्रीसए, जे वचै नित्य व्याख्यान
सुजगीसए ॥ १६ ॥
ढाल-तदुल राशि विमलगिरि थापी
छ छेदे महानिसीथ निशीथ, पाच सहस गिणिजे इवीथ । । वृहत्कलप वीजौ वाखाण, च्यारसै चिहुतर संख्या जाण ॥२४ा, व्यवहार सूत्र छ सै सुविचार, दशाश्रुत स्कंध शत अट्ठार । पचकल्प ते पचम छेद, सवा इग्यारसै सख्या वेद ॥१८॥ छठौ जीतकल्प इण नाम, इकसौ पाच छ कह्या आम। . दसे पइन्ना हिव'इम दाख, सूत्ररुची ते हीये राखै ॥१६॥ ' चउसट्रिगाह तणो चौसरणौ, धरमी जन ने मनमे धरणौ । वीजौ आउर पंचक्खाण, चउरासी गाथा परिमाण ॥२०॥ - - तीजी महा पचखाण कहीस, गाथा इकसौ नइ चौबीस । चोथौ भत्त परिण्णा चाह', इकसौं नै इकहोत्तर गाह ॥२१॥ पंचम पयन्नो तंदुलवेयाली, च्यारस गाह भली तिहा भाली। छट्टो चन्दाविजा गाह, इकसौने छिहुतरि अवगाह ।।२२।। गणविजा ए सत्तम गणिय, भाव भलै सौ गाथा भणियें । मरणसमाहि अठ्ठम पयन्न, गाहा जिहा छस्से छप्पन्न ॥२३॥
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धर्मवर्द्धन ग्रन्थावली देवेंद त्थुय नवमौ होइ, दाखौ तिहा गाथा सय दोइ ।। दशम सथारपयन्न सवासी, दसे सतावीससे परकासौ ॥२४॥ अंग इन्यार नै उपाग बार, मूल सूत्र चउ नदि अणुयोगद्वार । छ छेद दश पयन्ना मेलीस, ए सूत्र आगम पंतालीस ॥२५॥ सूत्र पंतालीस आगम सख्या, सहस अठयोत्तर सातमें काला । आज ऊनाधिक प्रायें एह, तंत तो केवलि जाणे तेह ॥२६॥ सूत्र निजुत्ति चुणि नै टीका, एहना बहु विस्तार अजीका । छलख गुणचालीस सहस्सा, पाचसै छत्तीस जाण रहम्सा ॥२७॥ कलसः इमइण भरतै आज वरत, भव्य जीव जिके सही। आसता आणी तत्व जाणी, वीर वाणी सरदही ।। बिहुतर जेसलमेर नगर, विजयहर्ष विशेष ए। धरमसी पाठक तवन कीधौ. दुरस पुस्तक देख ए ।।२८।।
२४ जिन गणधर साधु साध्वी संख्या गर्भित स्तवन : आदीसर पहलो अरिहंत, गणधर चौरासी गुणवत । प्रणम् सहस चौरासी साध, साध्वी त्रिणलाख गुणे अगाध ॥१॥ अजितनाथ बीजो मन आणु, प्रणमीजै गणधर पंचाणु । साह इकलख वंदौ भवियां, त्रिण लख वीस सहस साधवीयां १२ हिव संभव जिन तीजो होय, गणधर एकसो ने वलि दोय । दुइ लख साहु साहुणी सार, तीन लाख छतीस हजार ।३। अभिनंदन चोथो जिनराय, गणधर एकसौ सोल कहाय । तीन लाख मुनि संख्या भाख, आर्या तीस सहस छः लाख ४।
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शास्त्रीय विचार स्तवन सग्रह
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२५६
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ढोल-चौपईनी पाचम सुविधि जिनेसर सेव, सौ गणधर ध्यावो नित मेव । तीस सहस तीन लाख मुनीस, साध्वी पचलख सहसे तीस ।। पद्मप्रभु प्रणमु परभात, गणधर जेहने एक सो सात । त्रिण लक्ष तीस सहस अणगार, साहुणी चउलख वीस हजार।। श्री सुपास जिणवर सातमौ, नित गणधर पंचागुं नमो । लाख तीन मुनि सूत्रे साख, साध्वी तीन सहस चौ लाख ७५ अछुम जिन चदप्रभु नाम, गणधर व्याणु गुण गण धाम । लाख अढ़ी मुनि वदो भवी, चौलख सहस असी साधवी ८५
ढाल २ हैम घड्यो रतने जड्यो खुपो, रहनी ।
नवमो सुवधि अठ्यासी गणधर मुनि लख दोइ । साधवी त्रिण लाख वीस हजारे अधिकी होइ । सीतल दसम इठ्यासी गणधर मुनि ल्ख एक । साहुणी पिण इक लख हीज अधिकी छए विवेक । । । सहस चौरासी मुनि इग्यारम श्रेयास सार । छिहुतर गणधर साहुणी इग लख तीन हजार । वासुपुन्य जिन बारम जसु छासठि गणधार । इक लख साहुणि बहुतर सहस कह्या अणगार । १० । साहु 'अडसठ सहस, सतावन गणधर जाण, तेरम विमल अज्जा लख उपर आठसे आण ।
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२६०
धर्मवर्द्धन ग्रन्थावली
चवदम सामि अनत पचास कह्या गणराय, छासठ साधने वासठ साधवी सहसे मिलाय । ११ । पनरम धरम तयालीस गणि चौसठ हजार, साहु साहुणी बासठ सहस अने सय चार । वासठ सहस जतीस छतीस गणाधिप सति । सोलम अज्जा इगसठि सहस छस वलि तंत । १२ ।
ढाल ३ पुरदर नी। साठ सहस मुनि पेतीस गणधर सतरम कंथु । साध्वी साठ हजार ने सै वोली ग्रन्थ । तेत्रीस गणधर अट्ठारम अरि पूरे आस । साध्वी साठ हजारे साहु सहस पंचास । १३ । मल्लिनाथ उगणीसम : साहु सहस चालीस । साहुणी सहस पंचावन, गणधर अट्ठावीस । .. वीसम मुनिसुव्रत जसु साधु तीस हजार। सहस पचासे साध्वी गणधर जास अढ़ार । १४ । इकवीसम नमिनाथ नमु सतरे गणईस । वीस सहस मुनि साध्वी सहसे इगतालीस । नेमिनाथ वावीसम साहु सहस अठार । साध्वी सहस चालीस गणधर जास इग्यार । १५ । सोल सहस साहु तेवीसम पास जिणेस । दश गणधर साहुणी अठतीस हजार गिणेस ।
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- . शास्त्रीय विचार स्तवन संग्रह २६१ चौवीसम वर्द्धमान नमु गणधार इग्यार । चवदे सहस जतीस, साहुणी छतीस हजार । १६ । चौवीस जिनना चौदहसे बावन गणधर एम । साहु अठावीस लाख सहस अडतालीस तेम । साधवी लाख चमालीस सहस छयालीस सार । च्यार से उपरि छए धडे ए संख्याधार । १७ । किणहीक सूत्रे ओछा अधिका कह्या अणगार । तेपिण चौवीसा ना पूरा नहिं अधिकार । श्री आवश्यक सूत्र पूरा सहु सुविचार । तिणथी संख्या जाणी वंदु वारंवार । १८ ।
कलसः इम सतरे से तेपने वरसें दीप परब सुदीसए । श्री नगर बीकानेर अधिका विजयहर्ष जगीसए ।
धर्मध्यान मन धरि कहे पाठक धरमसी नितमेवए । . चौवीस जिन धन राज जेहने ध्याइये धर्म देवए । १६ । ..
चौवीस जिन अंतर काल, देहायु स्तवन पचपरमेष्टि मन शुद्ध प्रणमीकरी, ,
धरमहित आगम अर्थ हीयडे धरी। कहिस चौवीस जिन जिन तणो आतरो,
• आउ थित देह परिमाण मत पातगै ।। प्रथमही सुखम सुखमा आरो जाणए,
च्यार कोडा कोडि सागर परिमाणए ।
सत
कातेर
पाठक
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२१२
धर्मवर्द्धन ग्रन्थावली
कोस त्रिण्ड देह त्रिणपल्ल आयु धारण,
तीय दिन तुअर परमाण आहारए । त्रिण कोडा कोडि सागर सुन्बम बीय अगे,
देह दो कोन दोई पल आयु धरो। बोर परिमाण आहार बीजे दिन,
___ युगलीया मानवी एह कहिया जिणे ।। दोड कोडाकोडि सुखम दुःस्त्रमा कह्यो,
कोस इक काय इक पल आयु लह्यो । आमलामान आहार ले दिन प्रत.
काल कर जुगलीया पोहचे सुरगतै ।४।
दाल वीर जिरोसरनी। तिण तीजे अरै तीन वरस साढा अठ मास,
शेष रह्या श्री आदिदेव पहुंता सिववास । चौरासी पुव्वलाख वर्ष पाल्यो जिण आयु,
पाचसै धनुप प्रमाण काय राजे जगराय ! ५॥ आदि थकी पंचास कोड लख सागर हेव,
हुयो अजित जिणेसरु ए वीजो जिण देव । साढी च्यारसै धनुप देह दीपं गुणगेह,
बहुतर पूर्व लाख वर्प आउखो एह । ६ । अजित थकी त्रीस कोड लाख सागर गया जाम, -
तीजो तीर्थकर हुवो ए संभव शुभ नाम ।
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शास्त्रीय विचार स्तवन सग्रह च्यार सै धनुप सरीर मान धार्यो जिणधीर,
साठ पूर्व लख वर्ष आयु पाल्यो वड़ वीर । ७ ॥ संभव थी दस कोड लाख सागर परमाणे,
चोथो अभिनदन जिणद महिमा जग जाणे। ऊंच पणे जसु देह धनुप तीनसे पंचास;
आयु पचास पूर्व लख वर्ष पाल्यो सुखवास । ८ । हिव नव कोडिय लाख जलधि पूरा जव बीता,
पचम जिणवर सुमतिनाथ हुचा सुमति वदीता। तीनसै धनुप सरीर तास शुभ वर्ण सुवास,
चालीस पूरव लाख वर्ष आऊखो जास । । । सागर नेऊ कोडि सहस हिव वीता जाम,
पद्मप्रभु छठो जिणेसरु ए हुओ गुण धाम । ' अढाईसे धनुष मान काया अभिराम,
तीस पूर्व लख आयु पालि पहुता सिवठाम । १०।
. ढाल -बेकर जोडी ताम, रहनी हिव नव सहस कोडे सागर हुआ सही,
श्री सुपास जिणेसर सातमो ए। दुइ सैं धनुपा देह वीस पूरव लख, .
आयुथिति, नितही नमो ए । ११ । हुआ सागर हेव नवसों कोडीय, दौढसे धनुप देही धरु ए। इस पूर्व लख आयु आठम जिनवर, श्रीचन्द्रप्रभु सुखकरु ए।१२।
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धर्मवर्द्धन ग्रन्थावली सुविधिनाथ सुखकार नवमो जिनवर नेऊ कोडि सागरे ए। आउ पूर्व लख ढोइ, सो धनुपा तनु पाल्यो जिण पूरी परे ए १३ नीरधि हिव नव कोडि सुवधि जिणेसथी,
शीतल दशमो जिन सही ए। एक पूर्व लख आव धनुप नेऊ धर काया ऊंच पणे कहीए । १४। सौ निध छासठ लाख छावीस सहस वरस
ऊण इक कोडि सागर ए। तिण अवसर श्रेयास अंग धतुप असी
वरस चौरासीलख धरुए। १५ । जिनवर वारम जाण, चोपन सागरे वासुपूज्य जिण बंदीये ए। सत्तरि धनुप सरीर, अति सुख आउखो,
बहुत्तर लाख वर्ष लिये ए । १६ । ढाल --~-इण पुर कवल कोइ न लेसी, राहनी
तिण जिन थी हिय सायर तीस, विमलनाथ तेरम जिन ईस । साठ धनुप काया सु प्रमाण, वर्ष साठ लख आयु वखाण । १७ । हिव नव सायर केर अन्त, चवदम जिनवर थयो अनत । पूरी काया धनुप पचास, तीन वर्ण लख आयुष तास । १८ । एह थकी चिहु सागर आगे, पनरम धर्म जिणेसर जागें। पैंतालीस घनुष्य जसु देह, आउप दस लख वर्ष धरेह । १६ । पल्ल त्रिभाग विना त्रिक सागर, सोलम शातिजिणंद सुखाकर । चालीस धनुप प्रमाणे काय, एक लाख वरसा नौ आय । २८ !
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शास्त्रीय विचार स्तवन संग्रह २६५ एण थकी पल्योपम आधे, समरू सतरम कथं समाधै। पामी देह धनुप पैंतीस, आयु पचाणु सहस वरीस । २१ । वर्प एक कोडि सहस विहीन, चोथो भाग पल्योपम कीन । त्रीस धनु अरि जिन अट्ठारम, आयु वर्प चौरासी हजारम ।२२। वर्ष हुआ इक कोडि हजार, उगणीसम मल्लि जिन अवतार, तनु पचवीस धनुप नो तास, पचपन सहस वर्प भववास ।२३। बोल्या हिब वछर पूरा चोपन लाख,
सामी मुनिसुव्रत हुआ सूत्रे साख । वन्दो वीसम जिन वीस धनुप तनु मान,
तीस सहसे वर्षे पाल्यो आयु प्रधान । २४ । हिव पट् लख वर्षे हुआ श्री नमिनाथ,
तनु पन धनुप मित सेवो सिवपुर साथ । दस सहस वर्ष जिण पाल्यो आयु पडूर,
इकवीसम जिनवर अरचो सुख अकूर । २५ । पंच लाखे पूरे बीते वर्षे वढ, "
वावीसम बहु गुण नेमीसर जिण इन्द । यादव कुल जगचक्ष दीपें दस धणु देह, '
आयु थिति पाली एक सहस वरपेह ।२६। हिव सहस त्रयासी सात शतक पचास,
- वर्षे त्रेवीसम परगट जिणवर पास। नव हाथ प्रमाणे अंग सुरग सुरेह,
पूरो जिण पाल्योआयु सो वरसेह । २७ ।
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धर्मवर्द्धन ग्रन्थावली इण थकी अढीसे वप श्री महावीर,
बहुतर वर्षायुप साते हाथ सरीर । इम सहु बेतालीस सहस वर्ष उणेह,
इक कोडि कोडि सागर आदि थी एह । २८ । कलसः-इम अरें तीजे आदि जिणवर, अवर चोथे एमाए ।
चौवीस जिणवर चितचोखे प्रणमीये बहु प्रेमए । पुररिणी सतरेसे पचीस प्रगट पर्व पजूमणे, वाचक विजयप सानिध धर्ममी मुनि इम भणे ।२६।
६८ भेद अल्पबहुत्व विचार गर्भित स्तवन वीर जिणेसर वढिये, उपगारी अरिहंत ।
आगम ए जिण उपढिस्या, एओ ज्ञान अनत ||१|| भला अठाणु भेदसों, वोल्या अलप बहुत्त ।
जिणमें भमियो जीवड़ो, ते सहु वात तहत्ति ॥॥
दाल . सफल ससारनी। सहु थकी अलप नर गर्भज जाणिये (१)
एहनी नारि सख्यात गुण आणिये (२) अगनि असंख्यात गुण पन्जत बादरा, (३)
___एहथी गुण असंख्यात अनुत्तर सुरा (४)॥३॥ उपरिम (५) मध्य (६) अधत्रिक त्रिक (७) देवता,
अच्युत (८) आरण (6) प्राणत (१०)आनता (११) - एह संख्यात गुण जाणिज्यो अनुक्रमा।
सातमीनरक (१२) असंख्यात गुणइमतमा(१३)।४१
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शास्त्रीय विचार स्तवन संग्रह . २६७ हिव सहस्रार (१४) श्रुक्र (१५) पंचम नेरया (१६)
लांतक (१७) चतुर्थीनर्क (१८) ब्रह्मदेवया (१६) तीय, पृथ्वीय (२०) माहेन्द्र (२१) असखगुणा,
सनतकुमार (२२) बीयनिरय अनुक्रम घणा (२३) ठाम चौवीसमी मनुष्य समूच्छिमा, (२४)
देवईशान असंख गुण निभ्रमा (२५) । ६।' देवी ईशानरी (२६) सुधर्मसुरजिके (२७)
तेहनी, त्रीय संख्यात गुणीय तिके (२८) । ६ । भवणवइदेव असंख्यात (२६) देवी संख्या बहु (३०)
प्रथमनारकि असखेय गुणीया सबहु (३१) बोल वतीसमें खेचर पचेन्द्रिया,
तिरिय असंख्यात गुणा(३२) सख्य एहनीत्रिया(३३)।७१
ढाल तिण अवसर कोइ मागच आयो पुरदर पास। थलचर तिरिय पुरप(३४) त्री(३५) जलचरिमिथुन (३६-३७) लहेस, व्यतर देवने (३८) देवीय (३६) ज्योतिपी युगम(४०।४१)कहेस ।
खचरतिरी(४२)थलचर(४३)जलचरय(४४)नपुसक जेह ।
अनुक्रमैं एह इग्यार संख्यात गुणा करि लेह ॥ ८ ॥ वलि परजापति चोरिन्दी संख्यात गुणेह (४५)
पजत सज्ञि पचेन्द्रि विशेपे अधिका तेह (४६) .. पज्जवइन्द्रि (४७) पजतेइन्द्रि विशेष (४८) विशेष
अडतासीस ए बोल कह्या अनुक्रम गिण देख)
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२६८
धर्मवर्द्धन ग्रन्थावली पंचेन्द्रि अपज्जत असखगुणा ए जाण (४६) चोरिन्द्रि तेइन्द्रि (५१) वेइन्द्रि (५२) अपज विशेप वखाण । प्रत्येक वनस्पतिय(५३)निगोद(५४)पृथ्वी(५५) अप(५६)वाय(५७) चादर परजापत पाच असख गुणाय ॥१॥
हिवअपज्जत्ता बादर अनि अठावनेवोल (५८) एहवा हीज वनस्पति असंखगुणी इणतोल (५६) वलिय निगोद(६०)पुढवी(६१)अप(६२)वाय(६३) एच्यारे जाण ।
वादर अपजन्ता असंख्यात गुणा परिमाण ॥११॥ इहांथी सुक्ष्मअपज्जत अगनि असंख गुणेह (६४)
भू (६५) जल(६६)पवन (६७) इसाज विशेप धरेह । . अड़सट्टिमो इहा सूक्ष्म पन्जत तेउ गिणेस (६८) पुढवी (६६) अप ने (७०) वायु (७१) पज्जता सुक्ष्म विशेप ।१२।
___ ढाल-बेकर जोडी ताम राहनी।
बहुतरमे हिव वोल सूक्ष्म अपज्जत, जीव निगोदे जाणिवाए, (७२) । असंख्यात गुण एहएहथी पज्जत संख्यातेगुण आणवाए (७३)।१३। . अनतगुणा अधिकार इहाथी आगले भव्य अनंत गुणा सहीए(७४) । ए चिहुतरमो समकित नहीं लहै, मोक्ष कदे लहिस्ये नहीए ।१४।।
समकित पतितने(७५)सिद्ध(७६)अनंतागुणा,एलेखवल्यौ अनुक्रमेए। * चादर रूप पज्जत वनस्पतितणा(७७) जीव अनंत गुणा भमैए।१५। -
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शास्त्रीय विचार स्तवन सग्रह २६६ सामान्यरुपे सर्ववादर पज्जत, जीव विशेपाधिक कहौए, (७८) वणवादर अपज्जत असखगुणा इहा, ठाम गुण्यासीसें लह्योए।१६। अपज्जत वादर जीव (८०) वलि बादरसहु, (८१) अधिका अधिक विशेषथीए। सुहम अपज्ज वणम्स असंख्यगुणा इम,सुण वयासी सासौ नथीए१७ अपज्जत सुहम विशेप(८३)सूक्ष्मपज्जती वनस्पतिअसखीगुणैए(८४) इण चौरासी बोल इहाथी आगले सर्व विशेषाधिक पणए । १८ । सुक्ष्म पज्जत्ता जाण (८५) सूखम सहु गिणौ (८६) भव्य सत्यासी में भणौए (८७)। जाणौ जीवनिगोद (८८) वलियवनस्पती (८९) एकेन्द्रि अधिकागिणौ ए (६०)। १६ । जाणौ तृयचजाति (११) इशाणु इहां मिथ्यादृष्टिबाणमोए (६२) अविरत जीव अवशेप (६३) सकसाइ सहु, (६४) चावौ भेद चौराणुमो ए । २० । मानोहिव छद्मस्थ (६५) सर्व सयोगीय (६६) भववासी भणिय सहुए(१७)। जीवजिता सहु जाणं एह अठाणुमो, बोल विवेककरो वहुए (६८) । २१ ।
कलस :इम वीर वाणी सुणो प्राणी सूत्र पन्नवणा थकी । ए भेद आण्या जिणे जाण्या तियै सिद्ध वधू तकी। सुख विजयहर्ष विशेप श्रीसंघ धर्म शील भला धरे । जेसाणगढ में तवन जोड़ यो सवत सतरे बहुत्तरै । २२ ।
इति अल्पवहुत्व-विचार गर्भित श्रीमहावीर स्तवनम्
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२७०
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धमवद्धन ग्रन्थावली चौवीस दण्डक स्तवन ढाल--आदर जीव क्षमा गुण पादर
पूर मनोरथ पास जिनेसर, एह करू अरदास जी। तारण तरण विरुद तुझ सामलि, आयो हुं धरि आस जीपू० इण ससार समुद्र अथागें, भमियो भवजल माहि जी। गिलगिचिया जिम आयो गिड़तौ, साहिब हाथे साहिजी पू० तुं ज्ञानी तो पिण तुझ आगै, वीतग कहिये वात जी। चौवीसे दंडके हुँ फिरीयो, वरणुतेह विख्यात जी ।। ३ ।। पू० साते नरक तणो इक दंडक, असुरादिक दस जाण जी। पाच थावर ने त्रिणि विकलेंद्रि, उगणीस गिणती आण जी।४।। पंचेंद्रि तिरजच नै मानव, एह थया इकवीस जी। वितर जोतिषी ने वैमानिक, इम दडक चौवीस जी ॥शापू० पंचिंद्री तिरजंच अने नर, परजापता जे होइ जी। •ए चउविह देवा माहे ऊपजै, इम देवै गति दोइ जी ॥ ६ ॥ पू०
असख्यात आउखें नर तिरि, निसचे देवज थाय जी। निज आउखा सम कि ओछे, पिण अधिकै नवि जाय जी ॥७॥ भवणपती के वितर ताई, संमूरछिम तिरजंच जी। सरग आठमें ताइ पहुचे, गरभज सुकृत सचं जी ॥ ८॥ पू० 'आऊ संख्याते में गरमज, नर तिरजंच विवेक जी। बादर पृथिवी ते वलि पाणी, वनसपती परतेक जी ॥६॥ व्पू
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. शास्त्रीय विचार स्तवन संग्रह .. २७१ परजापते इण पाचे ठामे, आवी उपजै देव जी। इण पाचा माहें पिण आगे, अधिकाई कहुं हेव जी ।। १०॥ पू० तीजा सरग थकी मांडी सुर, एकेंद्रि नवि थाय जी। अठम थी ऊपरला सगला, मानव माहि ज जाय जी ।। ११ ॥
ढाल-आज निहजो दोसे नाहलो नरक तणी गति आगति इणपर, जीव भमें संसार । दोइ गति ने दोइ आगति जाणिये, वलिय विशेष विचार ॥१२॥ . संख्यातें आऊ परजापता, पंचेंद्री तिरजच । तिमहिज मनुष्य वे हिज ए, नरकमे जाये पाप प्रपच ।। १३ ॥ प्रथम नरक लगि जाइ असन्नीयौ, गोह नकुल तिम बीय गृध्र प्रमुख पंखी त्रीजी लगे, सींह प्रमुख चौथीय ॥ १४ ॥ पाचमी नरके सीमा सापनी, छट्ठी लगि स्त्री जाय । सातमीये माणस के माछला, उपजे गरभज आय ॥१५॥ नरक थकी आवें बिहुं दंडके, तिरजच के नर थाय । ते पिण गरभज तें परजापता, संख्याती जसु आय ।। १६ ॥ नारकिया नै नरक थी नीसरया, जेफल प्रापति होय । उत्कृष्ट भांगे करते कहु, पिण निश्च नहीं कोय ।। १७ ॥ प्रथम नरक थी उवटि चक्रवति हुवै, बीजी हरि बलदेव । त्रीजी लगि तीरथंकर पद लहै, चौथी केवल एव ॥ १८॥ पंचम नरक नो सरवविरति लहै, छट्ठी देसविरत्ति । सत्तम नरक थी समकित हिज लहै, न हुवै अधिक निमित्त १६
__ ढाल-करम परीक्षा करण कुमर चल्योरे । - मानव गति विण मुगति हुवे नहीं रे, एहनौ इम अधिकार।।
आऊ संख्यातें नर सहु दडके रे, आवी लहै अवतार ।। २० ॥
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२७२
धर्मवर्द्धन ग्रन्थावली तेऊ वाऊ दंडक वे तजी रे, वीजा जे बावीस । तिहा थी आया था। मानवी रे, सुख दुख पुण्य सरीस २१ नर तिरजंच असंखी आउख रे, सातमी नरक ना तेम । - तिहा थी मरि ने मनुप हुवे नहीं रे, अरिहंत भाप्यौ एम ॥२२॥ वासुदेव वलदेव तथा वली रे, चक्रवरति अरिहंत । सरन नरक ना आया ए हुवै रे, नर तिरि थी न हुवंत ।।२३।। चौविह देव थकी चवि ऊपजेरे, चक्रवरति वलदेव । वासुदेव तीर्थंकर ते हुवै रे, वैमानिक थी वेव ॥२४॥
ढाल-हैम घड्यो रतने जड्यो खुपो, हिव तिरजंच तणी गति आगति कय अशेष । जीव भम्यो इण परि भव माहे करम विशेष ।। आउ संख्याती जे नर नै तिरजंच विचार । ते सगला तिरजंचा माहै लहै अवतार ||२|| जिण तिरजंचा माहें आवे नारक देव । तेह कयौ पहिली तिण कारण न कहुं हेव ॥ पंचेंद्रि तिरजच संख्याते आऊखे जेह । तेह मरी चिहुंगति माहे जावे इहां न संदेह ॥२६॥ थावर पाच त्रिणे विकलिंदी आठे कहावे । तिहा थी आऊ संख्याती नर तिरजंच में आचें ॥ . . विकल मरी लहै सरवविरति पिण मोख न पाये। तेर वाउ थी आयो तेह नै समकित नावै ॥२७॥ नारक वरजी ने सगलाई जीव संसारै।। पृथिवी आऊ वनमपति माहे लहै अवतारै ।।
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२७३
शास्त्रीय विचार स्तवन संग्रह ए तीने उवटी इहाथी आवै दस ठामें।। थावर विकल तिरी नर माहे उतपति पामै ॥२७॥ पृथिवीकाय आदे देई दश दडक एह । तेऊ वाऊ माहे आवी ऊपजै तेह ।।। मनुप विना नव माहे तेऊ वाऊ वे जावै । विकलिंदी ते दश माहि जावै पूठा ही आवे ।।२८।। एम अनादि तणौ मिथ्याती जीव एकत । वनसपति माहे तिहा रहियो काल अनंत ।। पुढवी पाणी अगनि अनै चौथो वलि वाय । कालचक्र असंख्याता ताई जीव रहाय ।।२।। बेइदी तेरिदीने चोरेन्दी मझारें। संख्याता वरसा लगि रहियो करम प्रकारै ।। सात आठ भव लगता नर तिरजच मे रहियो । हिंव मानव भव लहिने साधनो वेष में गहियौ ॥३०॥ रागद्वप छूट नहीं किम कै छटक बार। पिण छ मन सुध माहरे तुहिज एक आधार ॥ तारणतरण मैं त्रिकरण शुद्धे अरिहंत लाधौ । हिव ससार घणो भमिवौतौ पुदगल आधौ ॥३१॥ तूमन वछित पूरण आपद चरण सामी। ताहरी सेव लही तो मै हिव नव निधि पामी ।। अवर न कोई इच्छुइण भवि तू हिज देव । सूधे मन इक ताहरी होज्यो भव भव सेव ॥३२॥
॥ कलश ॥ इम सकल सुखकर नगर जेसलमेर महिमा दिण दिण । सवत्त सत्तरै उगणतीस दिवस दीवाली तणै ।। गुण विमलचद समान वाचक विजयहरप सुशीस ए। श्री पासना गुण एम गावै धरमसी सुजगीस ए ॥३३॥
१८
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२७४
धर्मवद्धन ग्रन्थावली
.. श्री समवशरण विचार स्तवनम्
॥ दोहा ॥ श्री जिन शासन सेहरौ, जग गुरू पास जिणिद । प्रणमै जेहना पद कमल, आवी चौसठि इंद ॥१॥ तीर्थकर आवै तिहा, त्रिगढी करय तयार । समकित करणी साचव, एह कहुं अधिकार ॥२॥ करै प्रशंसा समकिती, मिथ्यात्वी ह मूक । सूर्य देखि हरखै सहू, घणे अंधारै घूक ॥३॥
' ढाल (१) वीर वखाणी राणी चेलणा जी आप अरिहंत भले आविया जी, गावै अपछरह गंधर्व । समवशरण रचे सुरवरा जी, सखेपे ते कहुं सर्व । आ० ॥४॥ भवनपती इन्द्र वीसे भिल्या जी, सोल दू वितर सार। जोइस दु दस विमाणी जुड्या जी, चउस ठ्ठि इन्द्र सुविचार ।। पवन सुर पुजी परमारजी जी, भूमि योजन सम भाउ । मेघकुमार रचि मेघनै जी, करय सुगंध छड़काउ । आ०॥ ६ ॥ अगर कपूर शुभ धूपणा जी, करय श्री अगनिकुमार । वाणविंतर हिव वेग सु जी, रचय मणि पीठिका सार ॥ ७ ॥ पुहप पंच वरण ऊरध मुखे जी, वरपए जाणु परिमाण । । . भवणवइ देव त्रिगढो भलो जी, करय ते सुगहुँ सुजाण ॥ ८ ॥ रचय गढ प्रथम रूपा तणौ जी, सोवन कांगुरे सार । रवि शनि रयण कोसीसके जी, कनक को बीय प्राकार ।।।।
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शास्त्रीय विचार स्तवन संग्रह २७५ रतन गढ रतन रै कांगुरै जी, रचय वेमाण सुर राज ।' भलो त्रीजो गढ भीतरे जी, तिहा विराजै जिनराज आ१०॥ भीति ऊंची धगु पाचसैं जी, सवा तेत्रीस विसतार । ' धनुष से तेर गढ अतरौ जी, प्रोलि पचास धनु च्यार ।। ११ ॥ दश पंच पच त्रिहुं गढ तणी जी, पावड़ी वीस हजार । थाक श्रम नहिंय चढता थका जी, एक कर उच्च विस्तार ॥१२॥ पंच धणु सहस पृथ्वी थकी जी, उच्च रहै त्रिगढ आकास । तेह तलि सहु यथास्थित वसे जी, नगर आराम आवास ।।१३।। तोरण त्रिक चिहुं दिसि तिहा जी, नीलमणि मोर निरमाण । दुसय धगु मध्य मणिपीठिका जी, उच्च जिण देह परिमाण ।१४।। च्यार आसण तिहा चिहु दिसि जी, मोतीए झाक झमाल। । सम विच कूण ईसाणमे जी, देवछंदौ सुविशाल आ० ॥१५॥ देव कुंदुभि नाद उपदिसें जी, जिण गुण गावसी जेह । अम्ह जिम आइ सहु ऊपरै जी, गाजसी तेह गुण गेह ॥ १६ ।।
ढाल (२) सफल संसार नी "पुव्व दिसि आसणे आइ बेसैं पहू, सुरकृत चौमुख रूप देखै सहू। दीपं अशोक तरु वार गुण देह थी,
देखि हरखै सहुँ मोर जिम मेह थी ॥१७॥ मोतिया जाल त्रिण छत्र सुविसाल ए,
रूप चिहुं दिस चामर ढाल ए । योजन गामिणी वाणि जिणवर तणी,
भगवंत उपदिशै बार परपद भणी ॥ १८ ॥ "
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२७३
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धर्मवद्धन ग्रन्थावली प्रदिक्षणा रूप थी अगनि कूणे करी,
__गणधर साधवी तिम विमाणी सुरी। ज्योतिपी भुवणिनी वितरी त्री पण,
नैऋत कूण जिण वाणि ऊभी सुणे ।। १६ । त्रिहुं तणा पति वायु कूण में जाण ए,
सुर विमाणीय नर नारि ईसाण ए । वार परिपद मद मच्छर छोड़ ए,
भूख तृप वीसरे सुणे कर जोड़ ए ॥ २० ॥ पूठि भामंडल तेज परकास ए,
जोयण सहस धज ऊंच आकास ए। झलहले तेज धर्मचक्र गगने सही,
महक सहु वारण धूप धाणा मही ॥ २१ ॥ वाहण वहिल सहि धरिय पहिलै गढे,
होइ - पगचार नर नारि ऊंचा चढे । जिण तणी वाणि सुणि जीव तिरजंच ए,
वैर तजि बीय गढ रहै सुख संच ए ॥ २२ ॥ पुण्यवंत पुरुप ते परिपद वारमै,
सुणे जिण वाणि धन गिणय अवतार मै । चौवहि देव जिणदेव सेवा रसे,
मणिमयी माहिली प्रोलि माहे वसै ॥२३ ।। चिहुं दिसि वाटुली वावि चौ जाणिय,
विदिसि चौकूणी दोड दोइ वाखाणीर्य ।
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शास्त्रीय विचार स्तवन संग्रह
२७७
आवि जिहां वावि जल अमृत जेम ए,
स्नान पाने वपू निरमल हेम ए ॥ २४ ।। जय विजया अपराजि जयंतिया,
मध्य कंचणगडै प्रोलि वसंतिया । तुंबुर पुरुप पट्टग अर्चिमाल ए,
रजत गढ प्रोलि ना एह रखपाल ए ॥२५॥ पहिल त्रिगढौ न हुआ जिण पुर ग्राम ए,
देव महर्धिक रचैं तिण ठाम ए। करण वार वार कारण नहिं कोइ ए,
___आठ प्रातिहारज ते सही होइ ए ॥ २६ ।। जिन समवशरण नी ऋद्धि दीठी जीए,
तेह धन धन्न अवतार पायो तिए। - पास अरदास सुणि वंछित पूरज्यो,
हिव मुझ ताहरौ शुद्ध दरसण हुज्यो ॥२७॥
॥ कलश ॥ इम समवशरण रिद्धि वरण सहू जिणवर सारिखी । सरदहै ते लहै शुद्ध समकित परम जिनध्रम पारिखी ।। प्रकरण सिद्धंत गुरु परंपर सुणी सहु अधिकार ए । संस्तव्यो पास जिणद पाठक धरमवरधन धार ए ॥२८॥
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२७८
। धर्मवर्द्धन ग्रन्थावला
चौदह गुणस्थानक स्तवन
___ ढाल-थभणपुर श्री, राहनी सुमति जिणंद सुमनि दातार, वंदु मन सुध वारो वार,
- आणी भाव अपार । चवदै गुणथानक सुविचार, कहिसु सूत्र अरथ मन धार,
पाव जिण भव पार ॥१॥ प्रथम मिथ्यात कयौ गुणठाणौ, बीजौ सासादन मन आणौ, __ -
तीजो मिश्र बखाणो। चौथो अविरति नाम कहाणौ, देशविरति पंचम परमाणौ,
छट्ठौ प्रमत पिछाणौ ।।२।। अप्रमत्त सत्तम सलहीजै, अठम अपूरव करणकहीजै,
अनिवृत्ति नाम नवम्म । - सूषम लौभ दशम सुविचार, उपशातमोह नाम इग्यार,
खीणमोह बारम्म ॥ ३ ॥ , तेरम सयोगी गुणधाम, चवदम थयौ अयोगी नाम,
वरणु प्रथम विचार - कुगुरु कुदेव कुधर्म वखाणे, ते लक्षण मिथ्या गुण ठाण,
. तेहना पंच प्रकार ॥ ४ ॥
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शास्त्रीय विचार स्तवन संग्रह
२६
ढाल-२ सफल ससारनी जेह एकात नय पक्ष थापी रहै,।
प्रथम एकात मिथ्यामती ते कहै। ग्रंथ ऊथापि थापै कुमति आपणी,
कहै विपरीत मिथ्यामती ते भणी ॥५॥ शैव जिनदेव गुरु सहु नमै सारिखा,
तृतीय ते विनय मिथ्यामती पारिखा। सूत्र नवि सरदहै रहै विकलप धणे,
संशयी नाम मिथ्यात चौथो भणै ॥ ६ ॥ सममि नहिं काइ निज धध रातो रहें,
एह अज्ञान मिथ्यात पंचम कहै। , एह अनादि अनंत । अभव्य नै,
कहय अनादि थिति अंत सु भव्य नै ॥१॥ जेम नर खीर घृत खड जिमनै वमैं,
सरस रस पाइ वलि स्वाद केंहवौ गमे । 'चउथ पचम छठे ठाण चढि नै पड़े,
किणही कषाय वसि आइ पहिलै अडै ।।८।। रहै विचै एक समयादि पट आवली,
. सहिय सासादने थिति इसी साभली। हिव इहा मिश्र गुणठाण त्रीजो कहै,
जेह उत्कृष्ट अंतरमहूरत . लहै ॥६॥' ,
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२८०
धर्मवर्द्धन ग्रन्थावली
ढाल-३ बेकर जोडी ताम रहती पहिला च्यार कपाय शम करि समकिती,
कैंतों सादि मिथ्यामती ए। ए वे हिज लहै मिश्र सत्य असत्य जिहा
सरदहणा वेहुं छनी ए॥ १०॥ मिश्र गुणालय माहि मरण लहै नहीं
आउ बंध न पडै नवै ए। कैंतो लहि मिथ्यात के समकित लही,
मति सरिखी गति परिभवै ए ॥ ११ ॥ च्यार अप्रत्याख्यान उदय करी लहै,
__ व्रत विण सुध समकित पणौ ए। ते अविरत गुणठाण तेत्रीस सागर,
साधिक थिति एहनी भणौ ए॥ १२ ॥ दया उपशम संवेग निरवेद आसता, समकित गुण पाचे धरै ए। सहु जिन वचन प्रमाण जिनशासन तणी,
अधिक अधिक उन्नति कर ए ॥ १३ ॥ केइक समकित पाय पुदगल अरथ ता, उत्कृष्टा भव मे रहै ए । केइक भेदी गंठि अंतरमहूरतै, चढतै गुण शिवपद लहै ए ॥१४॥ च्यार कषाय प्रथम्म त्रिणवली मोहनी, मिथ्या मिश्रसम्यक्तनी ए। साते परकृति जास परही उपशमै,
ते उपशम समकित धनी ए॥ १५ ॥
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शास्त्रीय विचार स्तवन संग्रह २८१ जिण साते क्षय की ते नर क्षायिकी,
तिणहिज भव शिव अनुसरै ए।' , आगलि बांध्यो आय तौ ते तिहां थकी,
तीजे चौथे भव तर ए ॥१६॥
ढाल-४ इण पुर कबल कोई न लेसी पंचम देश विरति गुणथान, प्रगटै चौकड़ी प्रत्याख्यान । जेण तजै बावीस अभक्ष्य, पाम्यौ श्रावकपणौ प्रत्यक्ष ॥१७॥ गुण इकवीस तिके पिणधारै, साचा बारै व्रत संभार । पूजादिक पट कारिज साधे, इग्यारै प्रतिमा आराधै ॥१८॥ आरत रौद्रध्यान है मंद, आयौ मध्य धरम आनंद । आठ वरस ऊणी पुव कोडि, पचम गुणठाणे थिति जोड़ि ।।१६।। हिव आगै साते गुणथान, इक इक अतरमहूरत मान । पांच प्रमाद वस जिण ठाम, तेण प्रमत्त छठौ गुण धाम ॥२०॥ थिवरकलप जिनकलप आचार, साथै पट आवश्यक सार । उद्यत चौथा च्यार कपाय, तेण प्रमत्त गुणठाण कहाय ।।२१।। सूधौ राखै चित्त समाध, धर्म ध्यान एकान्त आराधै। जिहा प्रमाद क्रिया विधि नास, अपरमत्त सत्तम गुण भास।२२।
ढाल-५ नदि जमुना के तीर, राहनी पहलै अंशै अट्ठम गुणठाणा तणे, आरंभै दोइ श्रेणि सखेपै ते भणै। उपशम श्रेणि चढ जे नर है उपशमी,
क्षपक श्रेणि क्षायक प्रकृति दशक्षय गमी ।२३।
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२८२
धर्मवर्द्धन ग्रन्थावली जिहां चढता परिणाम अपूरव गुण लहै,
___ अट्ठम नाम अपूर्व करण तिण कहै । शुक्लध्यान नौ पहिलो पायो आदरै,
निर्मल मन परिणाम अडिग ध्याने धरै ।२४. हिव अनिवृति करण नवमो गुण जाणिय
जिहा भावथिर रूप निवृति न आणीय । क्रोध मान नै माया सजलणा हणे,
उदय नहीं जिहां वेद अवेद पणो तिणे ॥२५॥ तिहा रहे सूपम लोभ काइक शिव अभिलप, . ते मूखमसपराय दशम पंडित दखै । शातमोह इण नाम इग्यारम गुण कहै,
____ मोह प्रकृति जिणठाम सहु उपशम लहै ।२६। श्रेणि चढ्यौ जौ काल करै किणही परै,
तो थाये अहमिद्र अवरगति नादरै । च्यार वार समश्रेणि लहै ससार में,
एक भवै दोइ वार अधिक न हुवै किमै ।२७ चढि इग्यारम सीम शमी पहिलै पड़े,
मोह उदय उत्कृष्ट अर्ध पुद्गल र. । .... . खिपक श्रेणि इग्यारम गुणठाणी नहीं,
दशम थकी बारम्म चढे ध्याने रही ।२८१
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शास्त्रीय विचार स्तवन सग्रह
ढाल-६ इक दिन कोई मागध आयो पुरदर पास खीणमोह नामें गुणठाणौ बारम जाण,
मोह खपाय नडो आयौ केवलनाण । प्रगटपणे जिहा चारित अमल यथा आख्यात,
हिव आगै तेरम गुणथान तणी कहै वात ।२६।। घातीया चौकड़ीक्षय गई रहीय अघाती एम,
प्रकृति पच्यासी जेहनी जूना कप्पड़ जेम । दरसण ज्ञान वीरिज सुख चारित पाच अनंत,
केवलनाण प्रगट थयौ विचरै श्री भगवंत ३० देखें लोक अलोकनी छानी परगट बात,
___महिमावंत अढारह दूषण रहित विख्यात । आठे बरसे ऊण कही इक पूरव कोड़ि,
उत्कृष्टी तेरम गुणथान तणी थिति जोड़ि ।३१। रकि शैलेसी करण निरुध्या मन वच काय,
तेण अयोगीअंत समै सहु करम खपाय । पाचे लघु अक्षर ऊचरतां जेहनौ मान,
___ पंचमगति पामै सुखसु चवदम गुणथान ३२ तीजै बारमै तेरमै माहे न मरें। कोई,
पहिलो वीजौ चौथी परभव साथै होइ । नारक देव नी गति में लाभ पहिला च्यार,
धुरला पंच तिरिय मे मणुए सर्व विचार ।३३।।
॥ कलश ॥ इम नगर वाहड़मेर मंडण, सुमति जिन सुपसाउले । गुणठाण चवद विचार वरण्यो, भेदि आगम नै भलै ॥ संवत सतरै उगुणत्रीस, श्रावण बदि एकादशी । वाचक्क विजयहरक्ख सानिधि, कहै-इम मुनि धरमसी ॥३४॥
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२८४
धर्मवर्द्धन ग्रन्थावली
चौरासी आशातना स्तवन
ढाल-विलसै ऋद्धि समृद्धि मिली। जय जय जिण पास जगत्र वणी, शोभा ताहरी संसार सुणी । आयो हुँ पिण धरि आस घणी, करिवा. सेवा तुम्ह चरण तणी १ धन जन जे न पड़े जंजाल, उपयोग सु वेसि जिन आले । आसातन चौरासी टालै, शाश्वत सुख तेहिज संभाले ॥२॥ जे नाखें सलेषम जिनहर में, कलहउ करें गाली जूअ रमै । धनुषादि कला सीखण ढुकै, कुरलौ तंबोल भखै थूकै ॥३॥ सर वाय वडी लघु नीति तणी, संज्ञा कंगुलिया दोप सुणी। नख केस समारण रुधिर क्रिया, चांदी नी नांखे चावड़िया'।४। दांतण नै घमन पियें कावौ, खावइ धाणी फूली खावौ । सूर्व वीसामणि विसरामै, अजगज पसु नइ दामण दामे ।।५।। सिर नासा कान दशन आंखें, नख गाल वपुस ना मल नाखे । मिलणौ लेखी करइ मंतरणी, विहचण अपणो करिधन धरणौ। वैसे पग ऊपरि पग चडिया, थापै छाणा छड़े ढुंढणिया। . सुकवइ कंप्पड़ कप्पड़ वड़िया, नासीय छिपइ नृपभय पड़िया।।। शोके रोव विकथाज कहै, इहा संख्या वैतालीस लहें । हथियार घड़े ने पशु बांध, ताप नाणौ परिखें राधइ ॥८॥ भांजी निसही जिनगृह पंसद, धरि छत्र में मडप में बइसें। हथियार धरै पहिरे पनही, चांवर बीजै मन ठाम नहीं ॥ ६ ॥ तनु तेल सचित फल फूल लिये, भूषण तजि आप कुरूप थिय । दरसणथी सिर अंजलि न धरइ, इग साडें उतरासंग करें ॥१०॥
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शास्त्रीय विचार स्तवन संग्रह २८५ छोगी सिरपेच मउड़ जोड़े, दड़िए रमै नइ बहसें होड़ें। - सयणा सुजुहार करै मुजरौ, करे भाड चेष्टा कहै वचन बुरौ ११ धरे धरणु झगड़े उल्लंठी, सिर गुंथै बाधैं पालठी । पसारइ पग पहिरइ चाखड़िया, पग झट कि दिरावैदुड़बडियां१२ करदम लूहै मैथुन मंडे, जूंआ वलि अइठि तिहा छंड । ऊघाडै गूझ कर वइदां, का व्यापार तणी केंदा ॥ १३ ॥ जिनहर परनाल नौ नीर धरइ, अंघोले पीवा ठाम भरै । दूपण जिण भवण मे ए दाख्या, देव वंदण भाष्य में जे भाख्या १४ सुज्ञानी श्रावक सगति छता, आसातन टालें बार सता । परमाद वसै काइ थाय, आलोया दोष सहू जाय ॥ १५ ॥ तंवोल नै भोजन पान जुआ, मल मूत्र शयन स्त्री भोग हुआ। थूकण पनही ए जघन दसे, वरज्या जिन मंदिर माहि वस ।१६। द्रव्यत नै भावित दोइ पूजा, एहना हिज भेद कह्या दूजा । सेवा प्रभु नी मन शुद्ध कर, वंछित सुख लीला तेह वरै ॥१७॥
॥ कलश ॥
इम भव्य प्राणी भाव आणी, विवेकी शुभ वातना । जिन बिव अरचइ परी वरजइ चौरासी आसातना ।। ते गोत्र तीर्थकर ज अरजें नमइ जेहनइ केवली । उवझाय श्री ध्रमसीह वंद्र जैन शासन ते वली ॥१८॥
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૨૮૬
धर्मवर्द्धन ग्रन्थावली
अंटावीस लब्धि स्तवन
॥ दोहा ॥ प्रणम् प्रथम जिणेसरू, शुद्ध मनै सुखकार, लवधि अट्ठावीस जिण कही, आगम ने अधिकार ॥१॥ प्रश्नव्याकरण प्रगट, भगवति सूत्र मझार, पन्नवणा आवश्यकै, वाल लवधि विचार ||२|| अमल त करि ऊपन, लवधां अट्ठावीस, ए हिव परगट अरथ सु, सामलिज्यो सुजगीस ॥३॥
ढाल १ सफल संसार नी। अनुक्रमे हेव अधिकार गाथा तण,
लवधि ना नाम परिणाम सरिखा भणे । रोग सहु जाय जसु अंग फरस्था सही,
प्रथम ते नाम छै लबधि आमोसही ॥४॥ जास मलमूत्र औपध समा जाणिय,
वीय विप्पोसही लवधि वखाणि । श्पमा औषध सारिखौ जेहनौ,
त्रीजी खेलोसही नाम छ तेहनौ ॥१॥ देहना मैल थी कोढ दूरे हवे,
चौथी जल्लोसही नाम तेहनो चबै ।। केस नख रोम सहु अग फरसें लही,
- रहे नहीं रोग सम्बोसही ते कही ।।६।।
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शास्त्रीय विचार स्तवन संग्रह २८७ एक इन्द्रिय करी पाच इन्द्रियतणा;
भेद जाणे तिका नाम संभिन्नणा । वस्तु रूपी सहु जाणिय जिण करी,
सातमी लबधि ते अवधिज्ञाने धरी ॥णा
ढाल २ आव्यौ तिहा नरहर, राहनी
हिव आगुल अढीये ऊणो माणुप खित्त,
संगन्या पंचेंद्री तिहा जे वसय विचित्त, तसु मन नौ चितित जाणे थूल प्रकार,
ते ऋजुमति नामै अट्ठम लबधि विचार ॥८॥ संपूरण मानुप खेनें सज्ञावंत,
पंचेन्द्रिय जे छ तसु मन वाता तत । सूषम परिजायें जाणे सहु परिणाम,
- ए नवमी कहियं विपुलमती शुभ नाम ।।६।। जिण लबधि परमाणे ऊडी जाय आकास,
ते जंघा विद्याचारण लंबधि प्रकास । 'जसु वचन सरापे खिण में खेरु थाय,
ए लवधि इग्यारमी आसी विस कवाय ॥१०॥ सहु सूखम बादर देख लोक अलोक,
ते केवल लवधी बारमीय सहु थोक । गणधर पद लहिये तेरम लबधि प्रमाण,
चवदम लंबधे करि चवदह पूरब जाण ॥ ११ ॥
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२८८
धर्मवद्धन ग्रन्थावली तीर्थंकर पदवी पामै पनरम लद्धि,
__ सोलम सुखकारी चक्रवति पद रिद्धि । वलदेव तणौ पद लहीयें सतरम सार,
___ अड्डारम आखा वासुदेव विसतार ।। १२ ।। मिश्री घृत खीरें मिल्या जेह सवाद,
एहवी लहै वाणी उगणीसम परसाद ।' भणियौ नवि भूलै सूत्र अरथ सुविचार,
ते कुछग बुद्धी वीसम लवधि विचार ॥१३॥ एके पद भणियै आवै पद लख कोड़ि,
___ इकवीसम लवधी पायाणुसारणी जोड़ि । एक अरथ करि उपजे अरथ अनेक,
वावीसमी कहिये वीज बुद्धि सुविवेक ।। १४॥ ,
ढाल (३) कपूर हुवै अति ऊजलो रे.
सोलह देश तणी सही रे, दाहक सकति वखाण । - तेह लवधि तेवीसमी रे, तेज्यो लेश्या जाण ॥१५॥ चतुर नर सुणिज्यो ए सुविचार, आगम नै अधिकार ।च। चवद पूरवधर मुनिवरु रे, ऊपजतां सदेह । रूप नवी रचि मोकले रे, लवधि आहारक एह । च० ॥१६॥ तेजो लेश्या अगनि में रे, उपशमिवा जलधार । मोटी लवधि पचीसमी रे, शीतल लेश्या सार । च० ।। १७ ॥
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शास्त्रीय विचार स्तवन संग्रह २८६ जेण सकति सु विकुरवे रे, विविध प्रकारे रूप । सद्गुर कहै छावीसमी रे, वैक्रिय लवधि अनूप ।च॥१८॥ एकणि पात्रे आदमी रे, जीमीवै केई लाख । तेह अखीण महाणसी रे, सत्तावीसम साख ॥च॥१९॥ चूरे सेन चक्रीसनी रे, सघादिक नै काम तेह पुलाक लवधि कही रे, अट्ठावीसम नाम ||चा२०॥ तेज शीत लेश्या बिन्हे रे, तेम पुलाक विचार। भगवती मूत्र मे भाखियौ रे, ए त्रिहुं नो अधिकार ।।च०२१॥ चक्रवर्ति बलदेव नी रे, वासुदेव त्रिण एह । आवश्यक सूत्र अर्छ रे, नहीय इहा सदेह ।।चा२२॥ पन्नवणा आहार गी रे, कलपसूत्र गणधार । तीन तीन इक मिली रे, वारू आठ विचार ॥०॥२३॥ प्रश्नव्याकरण कही रे, बाकी लवधा वीस । साभलता सुख ऊपजे रे, दौलति ह निसदीस ॥च॥२४॥
॥ कलश ॥ सवत्त सतरं स छवीस मेर तेरसि दिन भलैं । श्री नगर सुखकर लणक्रणसर आदि जिण सुपसाउलैं वाचनाचरिज सुगुरू सानिधि विजयहरष विलास ए कहै धर्मवर्द्धन तवन भणता प्रगट ज्ञान प्रकास ए॥२५॥
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२६०
धर्मवद्धन ग्रन्थावली
आलोयणा स्तवन
ढाल (१) सफल ससार नी ए धन शासन वीर जिनवर तणौ,
जास परसाद उपगार थायै घणौ । सूत्र सिद्धात गुरमुख थकी साभली,
लहिय समकित्त ने विरति लहिये वली ॥१॥ धर्म नो ध्यान धरि तप जप खप करें,
जिण थकी जीव संसार सागर तरै । दोप लागा गुरू मुखहि आलोईयै,
जीव निर्मल हुवै वस्त्र जिम धोईयै ।।२।। ढोप लागै तिको च्यार परकार ना,
धुर थकी नाम ने अरथ ते धारणा । किणहि कारण वस पाप जे कीजीये,
प्रथम ते नाम संकप्प कहीजिये ।।३।। कीजीय जेह कंदर्प प्रमुखे करी,
दोष ते बीय परमाद सना धरी । कूदता गरवता होई हिंसा जिहा,.
दर्प इण नाम करि दोष तीजौ तिहा ॥४॥ विणसता जीव नै गिनर न करै जिको,
चौथौ उट्टीआ दोष ऊपजै तिको । अनुक्रमै च्यार ए अधिक इक एकथी,
दोप धरि प्रायचित लेड विवेकथी॥५॥
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शास्त्रीय विचार स्तवन सग्रह
२६१
ढाल (२) अन्य दिवस को० रहनी पाटी कमली नवकरवाली पोथी जोड, ज्ञान ना उपग्रण तणीय आसातनं कीधी होइ । जघन्य थी पुरमढ एकासण आबिल उपवास, अनुक्रम एह आलोयण सुगुरु वताई तास ॥६॥ एजो खडित थायै अथवा किहा ही गमाइ, तौ वलि नव्या कराया दोप सहू मिट जाइ । थापना अण पडिलेल्या पुरमढ तो तपधार, खिरता एकासण ते गमता चौथ विचार ॥७॥ दर्शन ना अतिचार तिहा परम जघन्न, एकासण आबिल अट्ठिम चिहुं भेदे मन्न । आसातन गुरुदेवनी साहमी सु अप्रीति, जघन्य एकासण थी आलोयण चढती रीति ॥ ८ ॥ अनंतकाय आरभ विनास्या चौथ प्रसिद्ध, विति चौरिन्द्री साया एकासण थी वृद्धि । बहु वि ति चौरिंदीय हण्या बि ति चौ उपवास, सकल्पादि चिहु विधि दुगुणा दुगुण प्रकास ॥६॥ उद्दही कुलियावड़ा कीडीनगरा भन, बहु जलोया मक्या दस दस उपवास प्रसंग। वमन विरेचन कृमि पातन आबिल इक एक, जीवाणी ढोलंता दो उपवास विवेक ॥ १० ॥
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२६२
धर्मवर्द्धन ग्रन्थावली
संकप्पादिक एक पंचिंद्री उपद्रव होइ, दोइ त्रिण आठ दसे उपवास आलोयण जोइ । बहु पचिदि उपद्रव पट अठ ने दस वीस, चिहुं परकारे चढती आलोयण सुणि सीस ॥ ११ ॥ पंचेन्त्री ने दीधै लकड़ी प्रमुख प्रहार, एकासण आबिल उपवास ने छठ विचार । साध समझ लोक समक्ष राज समक्ष, कूडौ आल दीया दुइ चौ पट चौथ प्रत्यक्ष ॥ १२ ॥ दस उपवास दडाया तेम मराया वीस, इक लख असीय सहस नवकार गुणौ तजि रीस । पख चौमास लगि इक त्रिणवस उपवास, अधिको क्रोध करतो आलोयण नहिं तास ॥ १३॥ सृआवड़ि ना दोष कीया बलि थापण मोस, वोल्या वलि उत्सूत्र कीया गुरु ऊपर रोस । करीय दुवालस बार हजार गुणं नवकार, मिच्छादुक्कड़ देई आलावौ बार वार ॥ १४ ॥
ढाल (३) बेकर जोडी ताम, राहनी विण कीधा पचखाण विण दीधां वांदणा,
पड़िकमण विधि पातर ए। अणोझा ने असिमाय तिहा अवधे भण्या,
- इक इक आविल आचर ए ॥ १५ ।।
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शास्त्रीय विचार स्तवन सग्रह
गठसी ने एकत्त निव्वी आविल,
___ भंगे आलोयण इमै ए। एक पाच षट आठ नवकरवालीय,
गुण नवकार अनुक्रमे ए ॥ १६ ॥ उपवास भंग उपवास आबिल ऊपरा,
अधिको दड वखाणीयै ए । पाचमि आठमि आदि भंग किया वलि,
फिर ग्रहै पातक हाणीय ए ॥ १७ ॥ ऊखल मूसल आगि चल्ही घरटीय,
दीधै अट्ठिम तप करै ए । मागी सूई दीध कातरणी छुरी.
____ आबिल चढता आदरै ए ॥ १८ ॥ जीव करावै जुद्ध रात्रि भोजन,
__ जल तरणे खेलण जूऔ ए । पाप तणौ उपदेस परद्रोह चीतव्या,
उपवास इक इक जूजूऔ ए ।। १६ ।। पनरै करमादान नियम करी भंग,
__मद्य मास माखण भख्या ए। आलोयण उपवास सकापादिक,
चिहु भेदे चढता लिख्या ए ॥ २० ॥ बोल्या मिरपावाद अदत्तादान त्यु,
जघन्य एकासण जाणिय ए। अति उत्कृष्टी एण जाणि आलोयणा,
उपवास दस दस आणिय ए ।। २१ ।।
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२६४
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धर्मवईन ग्रन्थावली
ढाल ( ४ ) सुगुण सनेही मेरे लाला, रहनी चौथे व्रत भार्ग अतिचार, जघन्ये छठ आलोयण धार । मध्ये दस उपवास विचार, उत्कृष्ट गुणि लख नवकार ॥ २२ ॥ परिग्रह विरमण ढोप प्रसग, तीन गुण व्रत माहे भंग ।। च्यार शिक्षाबूत रे अतिचार, आविल त्रिण प्रत्येके धारे ।२३। शील तणी नव वाडि कहाय, तिहा जौ लागौ दोष जणाय । त्रिय नै फरस हुआ अविवेक, इक आविल कीजें प्रत्येके ।।२४।। साध अनै श्रावक पोपीध, एकेन्द्री संघट्टे कीध । वीसर भोल सचित जल पीध, दंड एकासण अंबिल दीध ॥२५॥ विण धोये विण लुह्य पात्र, एकासण तिम पुरिमढ मात्रै । गई मुहपोती आविल सारौ, तिम ओधै अदिम अवधारौ ।२६। च्यार आगार छ छीडी राखे, व्रत पचखाण करै पट साखें । दोघे मिच्छादुक्कड़ दाखै, आलोयण तेह नै अभिलार्षे ॥२७॥ आलोयण ना अति विस्तार, पूरा कहता नावे पार । तौ पिण संखपे ततसार. निर्मल मन करतां निसतार ॥ २८ ॥ धन श्री वीर जिणेसर सामी, जसु आगम वचने विधि पामी । जीत कलप ठाणा अंग आदि, वलिय परंपर गुरु परसादि २१!
कलश ॥ इम जेह धरमी चित्त विरमी पाप आप आलोइ नै एकांत पूछे गुरू बतावै सकति वय तसु जोइ नै विधि एह करसी तेह तरसी धरमवत तणे धुरै ए तवन श्री धमसीह कीधी चौपने फलवधिपुर |॥३०॥
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शास्त्रीय विचार स्तवन संग्रह
२६५
वीस विहरमान जिनस्तवनम्
वदुमन सुध वइरत माण जिणेसर वीस,
___दीप अढी में दीपं जयवंता जगदीस, केवलज्ञान ने धारै तारै करि उपगार,
किण किण ठामै कुण कुण जिन कहिस्यु सुविचार ।१॥ पैतालीस लख योजन मानुष क्षेत्र प्रमाण,
वलयाकारै आधै पुष्कर सीमा जाण, दोइ समुद्र सोहै दीप अढाई सार,
तिण मे पनरै कर्माभूमि नो अधिकार ।२। पहिलो जवूद्वीप समइ विचि थाल आकार,
लावउ पिहलउ इक लख जोइण में विस्तार, मोटो तेहनै मध्य सुदरसण नामै 'मेर,
तिण थी दस विदिसानी गिणती च्यारे फेरे ॥३॥ मेरु थकी दक्षिण दिशि एह भरत शुभ क्षेत्र,
पाचसै छवीस जोयण छकला तेहनो वेत्र, उत्तर खड मे एहवो इरवइ खेत कहाय,
इण बिहुं करमाभूमि अरा छए फिरता जाय ॥४॥ तेत्रीस सहस छसय चौरासी जोयण जाण,
च्यार कलाए महाविदेह विपंभ वखाण, भरत थी चौगुणो इक एक विजय तणो परिमाण
एहवी विजय बत्तीस विराजे जेहनै ठाण ॥३॥
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धर्मवर्द्धन ग्रन्थावली मेरु विचै करि पूरब पच्छिम दोइ विभाग,
___ सोलह सोलह विजय तिहा विचर वीतग राग, सासतै चौथे आरै तारै श्री अरिहत,
एहवं महाविदेह करमभूमि त्रीजी तंत ।।६।। पूरब विदेह विजय पुखलावती आठमी ठाम,
पुडरीकणी नगरी तिहा श्री सीमधर स्वाम, वन विजय पञ्चीसमी विजयापुर नौ नाम,
पच्छिम विदेह बीजौ युगमंधर कीजै प्रणाम ॥७॥ तिम हिज नवमी वच्छ विजय वलि पूरव विदेह,
नयर सुसीमा त्रीजो बाहु नमुं धरि नेह, नलिनावर्त्त चउवीसमी पछिम विदेह वखाण,
वीतशोका नयरी तिहा चौथौ सुवाहु सुजाण ॥८॥ ए च्यारेई जिणवर जंबूद्वीप मझार,
__ महाविदेह सुदर्शन मेरु - तणे परकार, एहवौ जबूद्वीप महागढ जेम गिरिद,
खाई रूपै दोइ लख जोयण लवण समद ॥६॥
ढाल २ दीवाली दिन अावीयर, राहनी
दीपइ वीजउ दीप ए, धन धन धातकी खड। पिहुलौ चिहु लख जोयणे, मडल रूपै मंड ||१०||दी०॥ पूरब पच्छिम धातकी, खड गिणीजै दोइ । विजय मेरु पूरव दिस, पच्छिम अचलमेरु जोइ ॥१शादी।
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शास्त्रीय विचार स्तवन संग्रह २६७ दोइ भरत दोइ ईरवें, दोइ वलि महाविदेह । करमभूमि पट छै इहां, उणहीज नामै एह ॥१२॥दी। दीप इक इक मेरु नै आसरें, करमभूमि तीन तीन । निज निज मेरु थी माडिन, लेखो चिहंदिसि लीन ॥१३॥दी॥ श्रीसुजात जिण पाचमौ, छट्ठउ स्वयंप्रभु ईस । ऋपभानन जिन सातमौ, समरीजै निसि दीस ॥१४॥दी०॥ अनंतवीरिज जिण आठमौ, एच्यारे जिनराय । पूरव धातकीखंड में, महाविदेह रहाय ॥१५शादी०॥ पहिला चिहुं जिण नी परइ, विजय नगर दिसि ठाण । तिणहीज नामें अनुक्रमै, विजय मेरु अहिनाण ॥१६॥दी। नवमौ शूरप्रभ नम, दशमो देव विशाल । इम वज्रधर इग्यारमो, त्रिकरण प्रणमुनिकाल ||१७||दी०|| वारमौ चंद्रानन जिन, पच्छिम धातकी माहि । विचरै च्यारे जिणवरा अचल मेर उच्छाह ॥१८॥दी। एहवौ धातकीखंड ए, परिदखिणा परकार । अठ लख जोयण वीटीयौ, समुद्र कालोदधि सार ॥१६॥दी०॥
ढाल (३) कालोदधि नै पैलै पार ए, बीट्यउ चूड़ी जेम विचार ए। सोले लख जोयण विस्तार ए, दीप पुक्खरवर अति सुखकार ए || सुखकार पुष्कर दीप तीजौ, तेहने आधै वगै । विचि पड्यो परवत मानुषोत्तर, मनुषक्षेत्र तिहा लगे-।।
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२६८
धर्मवर्द्धन ग्रन्थावली
तिण आध करि अठ लाख जोयण, अरध पुष्कर एम ए । तिहा करमभूमि छए कहीजै, धातकीखंड जेम ए ॥२०॥ आधे पुष्कर में पूरव ढिसै, मदर नामै मेरु तिहा वसैं । पच्छिम विज्जूमाली मेरु ए, इहां किण इतरौ नामै फेरे ए ।। फेर ए इतरौ इहा नामै, अवर ठामै को नहीं । - - इक एक मेरै तीन तीने, करमभूमि तिहा कही। तिम भरत ईरवतइ विदेहे, नाम सिरखें हेत ए। तिणहीज नामै विजय सगली, सासता ध्रम खेत ए ॥२१॥ घातकी खंड तिम पुष्कर सही, इण क्षेत्रां नो मान कह्यौ नहीं। दुगुणा दुगुणै अति विस्तार ए, शास्त्र थकी लेज्यो सुविचार ए॥ सुविचार वाकी तेह सगलौ नगर तिमहिज मन गमै । पूरब पच्छिम जेह जिणदिसि, तेह तिमहिज अनुक्रमे ।। श्री चंद्रवाहु भुजंग ईसर, नेमि च्यार तिथंकरा। पूरवं पुष्कर अरध माहे, सरब जीव सुखकरा ॥२२॥ वइरसेन बंदू जिन सतरमो. श्रीमहाभद्र अठारम नित नमो। देवजसा उगणीसमौ देव ए, जसोरिद्धि वीसम जिन सेव ए॥ जिन सेव च्यारे अर्ध पुष्कर, माहि पच्छिम भाग ए । तिहा मेर विजमाल चिहुं दिसि, विचरता वीतराग ए । चउरासी पूरव लाख वरसा, आउ इक इक जिन तणौ । पाचसै धनुप शरीर सोहै, सोवन वर्ण सोहामणौ ॥ २३ ॥ काल जघन्ये इम जिण वीस ए, हिव उत्कृष्टै भेद कहीस ए । इकसौ सित्तरि तिहां जिणवर कहै, पाचे भरते जिण पाचे लहै।
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शास्त्रीय विचार स्तवन संग्रह २६६ जिण लहै पाचे, तेम पाचे ईरवै मिलि दश हुआ । इक इक विदेह बतीस विजया, तिहा पिण जिण जुजुआ ।। एक सौ सित्तरि एम जिणवर, कोड़ि नव वलि केवली । नव कोड़ि सहसे अवर मुनिवर, वंदिये नित ते वली ॥ २४ ॥ इहा भरते ईरवते आज ए, पचम आरै नहिं जिनराज ए । धन धन पाचे महाविदेह ए, विचरै वीसे जिन गुण गेह ए॥ गुण गेह दोष अढार वर्जित, अतिशया चौतीस ए । चउसहि इद नरिंद सेवित, नमू ते निस दीस ए । तिहा आज तारण तरण विचरइ, केवली दोइ कोड़िए । दुइ सहस कोड़ि सुसाधु वीजा, नमुं वेकर जोड़ि ए ॥ २५ ।।
॥ कलश ॥ इम अढी दीपे पनर करमा-भूमि क्षेत्र प्रमाण ए । सिद्धात प्रकरण साखि भाख्या वीस वइहरमाण ए॥ श्रीनगर जेसलमेर सवत सतर उगणतीसै समै । सुख विजयहरप जिणिंद सानिधि नेह धरि ध्रमसी नमैं ॥२६॥
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३००
धर्मवर्द्धन ग्रन्थावली
अष्ट भय निवारण श्री गौड़ी पाब्वनाथ छंद
॥ दोहा ।
सरस वचन दे सरसती, एह अरज अवधार । पारथिया पहिड़े नहीं, उत्तम ए आचार ॥ १॥ हित करिजे मोसु हिवै, देजे वैण दुरस्त । कवियण पिण सुणि नै कहै, सखरौ घणु सरस्स ॥२॥ गुण गरूऔं गौड़ी धणी, पारसनाथ प्रगट्ट । मन सूधै मोटा तणा, गुण गाता गहगट्ट ।। ३ ।।
घद-नाराच प्रसिद्ध बुद्धि सिद्धि निद्ध ऋद्धि वृद्धि पूर ए, कलत्त पुत्त कित्ति वित्त वद्धते सनूर ए, विजोग सोग रोग विग्ध अग्घ सिग्य घायकं. प्रगट्ट देव नित्त मेव सेव पास नायक , ४ गुमान मोड़ि हत्थ जोड़ि देव कोडि वग्ग ए, अनूप भूप चुप धारि आइ पाइ लग्ग ए , पहू बहू सुकित्ति नित्त सव्व सोभ लायकं , प्र० ५ कुबोह लोह कोह द्रोह मोह माण वज्जियं, अनंत कात शात दात रूप मंण लज्जियं, असेस शुद्ध तत्त जुत्त सोभ ए अमायकं , प्र० ६
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शास्त्रीय विचार स्तवन संग्रह
३०१
विसाल भाल सुविसाल अद्धचंद छज्जियं, रउह थी रिसाइ जाणि एथि आइ रजियं, सुनैण कंज गंध काज भौंहि भौर रायकं प्र० ७ कपूर पूर कस्सतूर कुंकुमा सुरग ए, अरग्गजा अथग्ग में रहै गरक अग ए, अछेह दुत्ति गेह देह सव्ववही सुहायक, प्र०८ मृदंग दौंदौं दौं दप्प मप्प बज्ज ए, नफेरि भेर झलरी निसाण मेघ गज ए, तटक्क तान थेड थेइ लक्ख सुक्ख दायकं, प्र०६
प्रष्ट भय नाम दोहा करि केहरि दव ऋद्ध अहि, राडि समुहह रोग । अति बंधण भय'अठ टलै, सामि नाम सयोग ।१०।
छद भुजगी छहुं रित्तु छाक्यौ झुकतो झकोला, लपक्के विलग्गी अली मालि लोला, वलेटें वलाका वली सुडि दौला, झरै निजरा जेम मर्दै कपोला, ११ पट्ट चालतो जाणि पाहाड़ तोला, झलक्क डलक्कावतो लाल डोला, इसौ दूठ पूठे पडता अकोला, जपता करें नाचि नी मात चोला, १२
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धर्मवर्द्धन ग्रन्थावली
इति हस्तिभय महा सह सीह अबीहं उदंड,
भरै फाल आफालतो पुच्छ झडं, डग फाडि डाचौ वड वज मुडं,
महातिक्ख नक्खं रखे गेप चहं ।। १३ ।। फुरक्कावतो मुछि फाडत तुडं,
___ ललक्कंत लोला विकट विहड । धणी पास चौ नाम ध्यान धरड,
टलै श्याल ज्यु मीह होए अहडं ॥ १४ ॥
इति सिह भय जले जंगला में जटा जूट जाला,
प्रणा झाड़ ऊजाड़ में लग्ग झाला | चहू मृग्ग वग्ग पसू पंखि वाला,
बलंता कमेडा चिड़ा जंतु माला ।। १५ ।। धुखे धूम लग्गे कीया नग्ग काला,
भलो माल रुखे टल्या नाहि टोला । बड़े सकटे एण आया विचाला,
प्रभु नाम नीरै बुझे तत्तकाला ।। १६॥
___इति अग्नि- भय कलू काल रूपी महा विक्करालं,
फणा टोप रो महाकोप जाल ।
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शास्त्रीय विचार स्तवन संग्रह ३०३ वलक्के वलंतौ चलंतो करालं,
__ जिणै फूकि सूकै तरू माल डालं ॥ १७ ॥ हला हाल सलोलियं विक्ख लालं,
रहै लाल लोचन्न दो जीह वाल । धरता प्रभू नाम रिदै विचालं,
सही साप होवे जिसी फूल मालं ॥ १८ ॥
इति सर्प, भय भिड़े भूप भूपे अधिक्के अटक्के,
. खला हाड तूट खडग्गा खटक्के । परा हैवरा पाडि नाख पटक्के,
धुरा सिंधुरां कवरा भू धटक्के ।। १६ ।। प. प्राण संधाण बाणे बटक्के,
हुके केई हाथाल रोसैं हटक्के । झला झाल गोलेहु नाले भटक्के,
तु तुड मुडा प्रचंडा तटक्के ॥ २० ॥ छछोहा सलोहा पहुंधा छिटक्के,
झुक्क सूर झझेडि नाखें झटक्के । प्रभु नाम लेता इसे ही अटक्के,
कदे बाल बाको न हो4 कटक्के ।। २१ ।।
॥ इति युद्ध भय ॥ जतन्ने घणे केइ बैसे जिहाजै,
____ अथग्गे जले आइ कुव्वाइ वाजै ।
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३०४ धर्मवर्द्धन ग्रन्थावली घटा टोप मेघा गडडुत गाज,
हुबक्कै तरंगा विरंगाहु वाजै ।। २२ ।। लिचा पिञ्च लागी घडी ताल भाजै,
अहो कोड राखै अठै अम्ह काजै । इसे सकट जे जपैं जैनराजे,
सही पार पामै तिके सुक्ख साजे ।। २३ ।।
इति जल भय गड गुबड गोलक हीय होड़ी,
____ हरस्स खसं उध्रसं गांठि फोडी । टले गोढ थी कोढ अड्डार रोडी,
महाताप सताप आतंक कोड़ी ॥ २४ ॥ न होवै कदे कायमै काय खोडी,
सहु आधि व्याधं सही जाइ छोडी। जिणंदं नमै मन्न मे मान मोड़ी, ___ लहे सो सदा सुक्ख संपत्ति जोड़ी ।। २५॥
इति रोग भय अमूछा मलेछा वली मन्न खोटा,
जिया चक्खु चुचा लुल्या गाल गोटा । वली पाघ वाकी लपेट्या लंगोटा,
. सहेटा गह या सब्बला हाथ सोटा ॥ २६ ॥
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शास्त्रीय विचार स्तवन सग्रह दीय कोरडा देह दोला दबोटा,
वदे बोल वाका झंझे मंत झोटा । पड्या व दिखानै महा दुक्ख मोटा,
प्रभू नाम थी वेग थायै विछोटा ।। २७ ॥
इति बदि भय नमता जिणेशं सदा मन्न राग,
सहीअ महा दुढ में अट्ठ भागै । रली लोक लक्ख लुली पाय लागै,
दिसो दिस्स माहे जसू जस्स जागै ॥ २८ ॥
॥ कलश ॥
परतख जिणवर पास आस उल्लासह अप्पण विविध जास गुण वास दासचा दालिद कप्पण चैण जसु चरण ईति अति भीति निवारण लील लाछि लख गान विमलकीरत्ति वधारण विण इट जेम दीपत दुति, विमलचद मुवख छवि वरण दौलत्ति विजयहरपा दीयण, धरमसीह ध्याने धरण || ।। इति अष्ट भय निवारण श्री गोडी पार्श्वनाथ छद ॥
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धर्मवर्द्धन ग्रन्थावली
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श्री जिनचद्रसूरि अमृतध्वनि
रतन पाट प्रतपं रतन जाणइ सक्ल जुगन गच्छनायक जिणचट गुम सोभन तप जप सत्त ।
चालितो तप जप सत्त तेम तपत्त तेज वखत्त तरणि तग्वत्त तृणसम वित्त त्तजि मदि चित्त त्तुरत चरित्त त्तहि किय
हित्त त्तिनि गुपत्त तिनुय मुमन्त त्तेबडि तत्त त्तजित मित्त त्तत्त सिदूत तारितजंत त्तरक जुगन्त त्तरजित धुत्त त्ततु दीपत्तत्तुल रतिपत्तित्तासन मत्त त्रमत दुरित्त त्तिभुवन कित्त त्तवत कवित्त त्तसु अमृतध्वनि धूममी कहै सार
१ रतन इति श्री वर्तमान गुरू म्तवना रूप ५२ तत्ते झाड करी नइ .
महा अमृतध्वनि जाणिवी ॥ उपकार घ्र पद
राग-वृ दादनी सारंग करणी पर उपगार की सब करणी मे अधिकी वरणी, तरणी यह संसार की । क० ॥१॥ कीने गुण ऊपरि गुन करिवी, वात सुतौ व्यवहार की । पिण विनु स्वारथ करण भलाई, अपने जीउ उद्धार की ।का। सुकृती पात्र कुपात्र न सोच, धरै उपमा जलधार की । साची कहिय सुगुरू धम सीमा, सब शास्त्रनि के सार की ।क०।३
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शास्त्रीय विचार स्तवन संग्रह
३०७
सप्ताक्षरी कवित्तगिही केकि के अगिह केकि के गिह गिहि कुकाहि । केकि को क ख ग घूक हहा हूहू खगहु क्कहि । के गहि गह गहि कोह खे गगा है खग खगाहि । के कुग्गह गह गहे अग अग्धै अगि अग्गहि । के हक्क अहक्क अगाह गहै गेह खेह कंकह गुहा । कहि कुक्ख खूह खुह अग्गि की कहुं केही अक्कह कहा ? अकुह विसर्जनीया ना कंठ इणे हीज साते अक्षरे कवित्त छै पेट नाट ऊपरा कह्यौ छ।
गूढ रूप आशीर्वाद सवैया धोरी के धनी के नीके हार को अहार सुत,
ताही के नगर गयो जाके दस सीस है ! मब लोक जाके सुत ताके नाम ताकी सुता
वाजी मुख भूपन बैठी निसि दीस है ।। राजा लावै रैंत लार ताकी साखा की सिंगार
आगे धाई धरी देखि उपजी जगीस है। भाह की धुजावे रैन तिन्हें पूछयो जोङ वेन
ताकी नाम चातुरी सा मेरी भी आसीस है ||१|
नुसते इक बोल कयौ न गिणे कोऊ धूनि बक तो गुणी गहरो । हलकें कहै बात न पावत न्याउ जबाब के जोर खडो बहरौ ।।
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धर्मवर्द्धन ग्रन्थावली
निसि मौन सो बठो तके केहै ऊघत सूनी ही सोर कर सहरों। न लहै गुण के को कहै ध्रमसी जगि आज लबारिन को पहुरौ ।।
समस्या-दोहरा हमारे देस छोहरा करतु है ।
सवैया इल्तीसा एक एक ते विसेप पंडित वसै असप,
रात दिन ज्ञान ही की वात कुं धरतु है । वैढक गणक ग्रंथ जानै ग्रह गणन पंथ,
और ठौर के प्रवीण पाइनि परतु है । करत कवित सार काव्य की कला अपार,
शोक सब लोकनि के मन क हरतु है। कहै मसीह भैया पंडिताई कहु कैसी,
दोहरा हमारे देस छोहरा करतु है ॥ १॥ समस्या-नैन के झरोखे वीच झारखता सो कौन है । हरिसो सकेत करी राधिके विलोके मग,
असे आई बैठी सखी एक ही बिछौन है । राधे बोली सुनि खेल मोसु नैन बाद जोवै,
अनिमेप दो मैं हारी साई दासी हौन है ।। एते सखी पीछे हरे हरे आए हरी अति ही,
अति ही निकट है के तकै गहि मौन है । बोली सखी राधे सुनि मोसु कहि साच वाच,
नैन के झरोखे वीचि झाखता सो कौन है ||१||
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सपैया सर्वतोमुख-गोमूत्रिका बध
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धर्मवर्द्धन ग्रन्थावली
नारी कुञ्जर जाति सवैया शोभत घणी जु अति देह की वणी है दुति, सूरिज समान जसु तेज मा वदाय जू भूपति नमैं है नित नाम को प्रताप पहु, दैवत तही ही दुख नाहि है कदाय जू । पूरण बडेई गुरा सेव के करे थे सुख, वटत तही ही वहुलोक समुदाय जू । देत है बहूत सुख देव सुगुरुहि नित, दोऊ को नमै है ध्रमसीह यो सदाय जू ।
अन्तापिका आदर कारण कौन भूप कहा रोपि र क्रम न रहै निश्चल कौन कौन त्रिय नयने ऊपम कर विन कहा वृत्ति बामि वच को न उथा कोन नाम समुदाय कौन तिय पुरुपई व्याप वसती विहीन कहिये कहा सवहि कहा राखत जतन धरिजे अखंड भ्रममी कहै 'धरम एक जग मे रतन' १
। यह पूरा पढने से "इकतीमा सबैया” है, बड़े अक्षरो को
छोड़ देने से "मवचा तेवीना" हो जायगा।
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शीलरास
ढाल-हु बलिहारी जादवा, ए देशी शील रतन जतने धरो, खंडी ने मत' आणो खोड कि । भूपण निरदृण्ण भलौ, होइ' नहीं कोइ इयरी जोड कि शशी. शील रचे मन शुद्ध स, परहा तेह' पखाले पाप कि। कुल नैं पिण निरमल करै, ओलखीयौ तिण आपो आप कि ।२। सुकृत तिण वलि संचीयौ, सहु जग मे पामै सोभाग कि। दुरगति दुख दूरे दलै, अइओ एहना विरूद अथाग कि ।३। शी० मुशकल करमे मोहनी, वार व्रता मा दुष्कर बभ कि । करणे जीह मन त्रिकरणे, दमणा ए दोहिला निरदभ कि ।४।शी. पर त्रिय संगत पाड़ई, सत्तम व्यसन कहीजे सोइ कि । उडी मति आलोचज्यो, हाणि घरे पर' हासौ होइ कि ।। शी. मेरू जिता दुःख मानिय, सुख तौ मधु ना बिंदु समान कि । सुरगुरू विद्या (धर) सारिखा, मानिस तो बैंसीस विमान कि है मत विपयारस माचज्यौ, वाचेज्यौ एहवा गुरू बैंण कि । दूह्वी नै हित दाखवै, साचा तेह कहीजै सैण कि ॥७॥ शी. विपय तणा फल विप समा, ए वेऊ नही सम अधिकार कि । विप इक वेला दुख दीय, विषय अनंती वार विचार कि ॥८॥ पुन्य नरभव पामियौ, भरम्या विपय म राची भोल कि। काग ऊडावण कारणे, नाखौ मत थे रतन निटोल कि ।।। शी.
१ मन, २ हुवै, ३ होडि, ४ होए, ५ वलि, ६ जिहा ।
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धर्मवर्द्धन ग्रन्थावली कनक तणो देहरौ दसी, कंचण नी वलि आप कोड कि । कष्ट-तनी किरिया, ह नहीं सील तणी ते होड कि ||१०|| शी. पालै शील भली परै, टाल दूपण परहा तेम कि ।। वखाणे सहू को वली, हेक रतन नै जडीयो हेम कि ||११|| शी निरमल नयणे निरखीयें, वयण वदें नहीं मयण विकार कि । सुर सेवा करै सयण ज्यु, शील रयण थी अधिको सार कि १२ सोहै मनुप सुशीलीयो, कुसीलीया री शोभन काइ कि । कोड रीस मता करै, सीख भली साची कहिवाइ' कि ।१३। शी. ललना सुं लुबधो थकी, लोपि गमावै लज्जा लीक कि। जायै धन पिण जूजूऔ, नीर रहै नहि फूटी नीक कि ।१४। शी. पुरम भला स्त्री पापिणी, पापी पुरप नैं स्त्री पुन्यवत कि । मत' एकात म धारिज्यो, परणामे सहु फेर पडत कि ।१५। शी. कष्ट धन भेलौ करै, झगड़ा झाटा करि करि झूठ कि । खरचै नहीं धरम खेत मे, मानवंती नैं द भर मूठ कि ।१६। शी की कम करडे कुकरी, मुख नौ झरते मास मसूढ कि । ममन हुवै ते म्वाद मैं, माहिली हानि न जाणं मूढ कि ।१७। शी अवगुण कोड न अटकलै, मेल करावे तिण सु मेल कि । गुम्जन स्यु धारै गुसौ, अवसर नाखै ते अवहेल कि ।१८। शी महिला रइ मगति मिल्याँ, मूखम जीव मरइ नव लाख कि। भगवतइ इम भाखीयौ सूत्र सिद्वाते लाभ साख कि 18| शी.
२ सुखदाइ, २ मन, ३ हाड कस सूर. कूकर ।
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शील रास
भरीयै रू तसु भुंगली, तातै सूए रे दृष्टात कि । हिंसा जीवा री हुवै, एहवा विषय कह्या अरिहंत कि । २० | शी. त्यागी विपय तथा तिके, ज्ञानी तेह गिणीजै गान कि । अथिर गिणीजै आउखौ, वरतै जेहवो संध्या वान कि | २१ | शी. जेवी चंचल वीजली, पीपल नौ वलि पाकौ पान कि । ठार रो तेह न ठाहरै, वैश्या नौ जिम नेह विधान कि ||२२|| कीजै मद ते कारिमा, जल अंजलि नौ देखत जाय कि । करवत बहती काठ मैं, दीसैं इण विध आयु रदाय कि । २३ | शी. सुखदाई संसार मैं, साचो नहीं कोई धर्म समान कि । एहना भेद अनेक छै, पिण सहु माहे शील प्रधान कि । २४ | शी ज्वलन हुवै जल जेहवौ, सरप हुवै फूलमाल समान कि । मीह हुवै मृग सारिखौ, सीलें सहु बाता आसान कि । २५ | शी झूठो गय ते हय जिसौ, हालाहल ते अमृत होइ कि । जोरावर अरि मित्र ज्यं, कष्ट करें नहीं सीलै कोय कि । २६ । शी. परिसिद्ध नाम प्रभात नौ, ल्यै सहु कोइ मन सुध लोक कि । पणु के परम्परा, वलि शास्त्रा थी केइ विलोक कि १२७१ शी. आदिसर नी अंगजा, ब्राह्मी शीलवती वाह वाह कि । सुन्दर रूप सपेखि नॅ, चक्री भरत धरी चित चाह कि १२८| शी. साठि सहस वरसा लगे, तप आविल करी तोड़ी काय कि । शील पाल्यौ तिण सुन्दरी, कीरति आज लगें कहिवाय कि । २६ शुकल किसन पख टपती, शील अडिग नी एकण सेज कि । सहस चौरासी साधु थी, आदिसर परसस्या एज कि |३०| शी
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वर्मवद्धन ग्रन्थावली
बहु जम चदनबालिका. लघु हिज वय जिण चारित्र लीध कि। साधवी नहम छतीस में, कीरती वीर जिणेसर कीध कि 1137!! भीना चीर स्कायवा, गईय गुफा मे राजुल रंग कि । रहनेमे काउसंग रह्य , अवलोकी को सुन्दर अंग कि उll अकुम (ना) वसि गज आणीयो, दीघो राजमती उपदेश कि । निपट प्रमत्या नेमजी. लाभ नहीं दूपण लवलेस कि १३३। शी. चीर दुर्योधन खाचीया. पाचाली सक्रीय उपाय कि। सौ अट्टोनर साउला. प्रगट्या नवनव शील पसाय कि ाशी. देव उपाडी दौपदी, आणी धातकीविंड आवास कि। पदमोत्तर नृप प्रारथी, छेडे मत मुमने च मास कि ॥३५॥ कीधी बाहर किसन जी, पदमोत्तर पिण लाग्यो पाय कि । पाचे पाडब नी प्रिया. पाम्यो वंछित शील पसाय कि ॥३३॥ चित चौखे रामचंदनी. कौशल्या माता सुखकार कि । कष्ट टल्या बंछित फल्या, सतीया में सील सिरदार कि ॥३७॥ रावण रे कर्ज रही. सीता रो किम रहियो सील कि। लोक वाक के लागुआ, ए परपूठ करै अवहील कि 1॥ ३८॥ शी. पावक कुण्ड माहे पड़ी, जल शीतल मे न्हाई जेम कि । सड कहै धन धन ए सती, हुई निकलंक जाण हेम कि ।३६। शी. हाथी जेहनं अपहरी जिण वन मे खामी जीवराशि कि। वेऊ सुत नृप बूझिव्या, साधवी पद्मावती स प्रकाश कि ।४०१ साते चेडा नी सुता, शिवा सुज्येष्टा जेष्टा सार कि ! पद्मावती प्रभावती, चेलणा मृगावतीय चितारि कि ।४१। शी.
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शील रास
३१५
मृगावती मुझ नै मिलै, चढि आयौ नृप चडप्रद्योत कि । हिकमति करि हारावीयौ, पाल्यौ नै उदयनै पोत कि ।४२शी. सुलसा सखरी श्राविका, निंदे पूरव करम निदान कि । सीले सुर सानिध कर, सु 4 आणि जीवत सतान कि ।४३। शी० एक जती री आखि मे, तृण जी. करि काठ्यौ तेह कि । मेटी पीड़ा मुनि तणी, सतीय सुभद्रा धर्म सनेह कि ।४४। शीव कूडी ही लोके कह्यौ, आलिंगन इण दीधउ अक कि । चालणीये जल' सींचता, कीधी शीलै ए निकलक कि ॥५॥शी० देसवटौ जूए दीयौ, नीकलीयौ स्त्रीय सु नलराय कि। सूती दवदती तजी, शीले पग पग कीधी सहाय कि ॥४६॥ शी० अति गरबी ने अविरति, जिण तिण सु जोडावे जुद्ध कि । तिणहिज भव नारद तिर, शील तणौ एक गुण मन शुद्ध कि ४७ कुमरी मल्ली धन कही, जिण यूझवीया पट राजान कि । पाल्यौ शील भली पर, सूत्र ज्ञाता में वरण समान कि ।४८शी० सुघरणी श्री कुभरायनी, मल्ली कुमरी तणी ए मात कि। शील प्रभाव प्रभावती, वरतै सतीया माहि विख्यात कि ॥४॥ दूपण अभया नै दीयौ, कहै राजा द्यौ सूली कील कि। सिहासन कीधौ सुरै, सेठ सुदरसण धन्य सुशील कि १५० शी० अरि (ना) कटक ते अटकीया, एहनो वल कोइ अगम अथाहकि। शील मत्रै मंत्रीसर, साची कहीये सील सन्नाह कि ॥५१॥ शी० साची सत्यभामा सती, रुक्मणी पिण तिम चढती रेख कि । सलहौ मलयासुन्दरी, शील रतन राख्यौ सुविशेप कि ॥५२॥
३ पालना।
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धर्मवर्द्धन ग्रन्थावली
सुरसुन्दरी ने श्रीमती, गुणसुन्दरी पिण अधिकी ज्ञान कि । नित नित मयणरेहा नमु, धरिजै अंजनासुन्दरी ध्यान कि ५३ दूपण संख राज दियौ, कर वध्या ढीठा केयूर कि । कलावती कर कापीया, निरख्या तो वल ने ए नूर कि । ५४ शी० भयणा श्रीस्थूलिभद्र नी, जखा जखदिन्ना सु प्रमाण कि । भूआ भूअदिन्ना वलि, सयणा वयणा रयणा जाण कि ॥ ५५ ॥ कोश्या केर नाटक किया, मुनि धूलिभद्र रह्यो ज्यू मेर कि । आया गुरू ऊभा हुआ, दुक्करकारक कह्यो दो वेर कि ||५६ ||
एह अदेखो आणि नै, सीह गुफावासी ते साध कि । चूक भटके चौमास मै, आवी नें खाम्यो अपराध कि १५७| आतल ने पिण औहटे, वलि संवा काठी वाग कि । तारे आपणपौतिको, सहु माहे पामे सौभाग कि । ५८ । शी० शील खंड्यौ तिण स्युं कीयौ, दावानल गुण वन नै दीध कि । कूटयौ पडहौ कुजस नौ, कुल में मसि नौ टीलो कीध कि । ५६ ।
पाणी दीधौ पुण्य नैं, सहु आपढ नैं दीध सकेत कि । दुख लियो काइ उदीर नैं, चतुर हुवै तौ तु चित चेत कि ६०| शिवपुर द्वारै तिण सही, भोगल दीधी काठी भीड कि । सहु देख तेहने सामट्ठा, नित आवै जिम पखी नीड कि ॥ ६१ ॥ अवगुण कुणकुण आखीयै, खड्या शील पडे दुख खाण कि । पाले तेह पुण्यात्मा, विलसै सहु सुख ए जिण वाणि कि ||१२||
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शील रास
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जिन शासन धन जाणिय, आगर धरम रतन नौ एह कि । ब्रह्मचारी हुआ बड वडा, त्रिकरण शुद्ध प्रणमीजै तेह कि ।६३। वरते बीकानेर मे विजयहरप जसु लील विलास कि । धुरि ध्यायौ धर्म ध्यान नौ, श्री धर्मसीह रच्यो शीलरास कि ।६४
इति श्री शीलरास सम्पूर्णम् । सवत् १७७७ वर्षे मिती फागुण सुदि २ दिने श्री विक्रमपुर मध्ये
पडित सुखरत्ननलिपी कृत । ( पत्र ३ जयचदजी भंडार)
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श्रीमती चौढालिया
दोहा
खीर खाड मिलीया खरा, घृत विण न वर्ण वात, तिम इहा चार प्रकार मे, वरणु शील विख्यात, १
शीले सुर सानिध कर, शीले लील विलास, शीले दुरगति दुख टल, शीले पामै शिव वास, २ ते ऊपर सुणजो सहू, श्रीमति ना दृष्टात, शील राख्यो जतने करी, ते हिव सणजो तंत, ३
ढाल (१) चौपई
इणहिज दखण भरत मझार, अग-देश आरज आचार, धण कण कण रीध अपार, वसतपुरि अलका अवतार, १ प्रवल तेज प्रताप पडूर, शत्रुदलन तिहा राजा सूर, तिण राजा रे जीव समान, मतिसागर मुहतो प्रधान, २ सार पुरि नि कर सभाल, चंद्रधवल नामै कोटवाल, चतुरा जासु एकज चित्त, सुन्दरदत्त नामे प्रोहित, ३ वह व्यापार घणो बाजार, गढ मढ मदिर प्रौल प्राकार उत्तम जन तिहा वसे अनेक, वसतपुरि नगरी सुविवेक, ४ हिव सुन्दरदन्त प्रोहित तणी, श्रीदत्त मित्र अछे हित वणो, ' तेहने नार अछे श्रीमती, शील गुणे करि सीता सती, ५
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श्रीमती चौढालिया
३१६
सेठ जरै परदेशे जाय, प्रोहित नै घर दीयो भोलाय, जेहवो राख हेत सदीव, देह दोय जाण इक जीव, ६ एक दिन श्रीदत्त सेठ विचार, परदेशे चाल्यो व्यापार, तेड़ी प्रोहित ने कहै तेह, तुम सारु छ माहरो गेह, ७ घर की घणी भोलावण दीध, सेठ तिहा थी कीधी सीध, ग्रोहित आवै कर सभाल, को न सके कर बाको वाल, ८ सुखे रहे नारि श्रीमति, पाले शील सदा शुभमति प्रोहित दीठी रूप अमोल, कहिवा लागो एहवा बोल, ह हुं प्रोहित माहरो कायदो, मोसु मिल ज्यु हुवे फायदो, तुम प्रीतम जे माहरो मित्त, तु हिवे कोइ न मेले चित्त, १० श्रीमति उत्तर आप्यो सही, तमने एहवो करवो नही, मोटा ते इम न करै मूल, सा (य) र थिकी कीम उडे धूड, ११ दिवी भोलावण तुम नै घणी, प्रदेशे चाल्यौ मुझ धणी, घर हुंती किम उठे धाड, चीभडला किम खायै वाड़, १२ प्रोहित कहै मुझ वचन उवेख, धेठि होड सहि करें दंप, हिवे ताहरौ घर जातो देख, इण बात मे मीन न मेख, १३ दूहा-श्रीमति मने जाण्यो सही, खिणि टालु एक वार,
पहिलै पोहरै आवजो, रात गया ततकाल, १ सतोष्यो प्रोहित वचन, निज घर बैठो आय, शील राखण ने श्रीमती, एहवी करें उपाय २
ढाल २–अलबेला नो कह्यो जाय कोटवाल नै रे लालतू छै पुर रुखवाल सुविवेकी रे प्रोहित की मत पातकी रे लाल जोरे करेय जंजाल स० १
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३२० धर्मवर्द्धन ग्रन्थावली सीले निर्मल श्रीमती रे लाल करि बुध वल प्रचंड सु० जोयजोये इण भात सु रे लाल राखे सील सुचग सु०२ कहै कोटवाल चिंता किसी रे लाल ए नाखिस अवहेल सु० प्रोहित रहसी पाधरो रे लाल पिण तु मोसु मन मेल स०३ सती कहै छ वातड़ी रे लाल नहि छ ताह न लाग सु० पाणी थी किम प्रगट रे लाल ऊनी वलती आग सु०४ मोसु ताण मती करो रे लाल कह्यो इम कोटवाल सु० सती कहै तमे आवजो रे लाल वीजे पहुर विचाल सु०५ तिहा थी आवि उतावली रे लाल कहै मु ता ने एम सु० राजा धुर धर थानके रे लाल कह्यो अन्याय हुवै केम सु० ६ कोटवाल कुमारगी रे लाल हु नांखिसु उखेड़ सु० रूपे मोझो मुतो कहे रे लाल तु मुझ ने घर तेड़ सु०७ सू बोलो छो कहै सती रे लाल सगला सरिया काज सु० अमृत थी विप ऊपजे रे लाल आयो कलजुग आज सु०८ मु तो कहै बोलो मती रे लाल सो वाता एक बात सु० तीजे पहुरे पधारजो रे लाल इम कहि गई असहात सु०६ आवी राजा ने कहै रे लाल मुता मे नहिं माम सु० कहै छै तुझ घर आवसुरे लाल सुकीजे हिव साम सु० १० राजा रूपे रीझियो रे लाल रागे कहे इण रीत सु० मुतो स मुझ आगल रे लाल मुझ न कर तुमीत सु० ११ भूप भणी कहै सती रे लाल धरती खावा धाय सु० तुमे छो प्रजा ना पिता रे लाल एह करो किम अन्याय सु० १२
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श्रीमती चौढालिया राजा हुवे सहुनो धणी रे लाल मत तु वचन उथाप सु० , चउथे पहुरै रातनै रे लाल आविजो थे आप सु० १३ करि सकेत जुदा जुदा रे लाल आवि आपनै गेह सु० शील राखण में श्रीमती रे लाल जोयजो करस्यै जेह सु० १४
सती कहै ते वारता, पाडोसण नै तेड़, च्यार नगर ना थंभ ते, मुके नहीं मुझ केड़, १ कूड़ो कागल ले करि, रोती देती राड़, तू ओए निशि पाछली, कूटे मुझ किमाड़२ इम सिखावी तेहन, मोटी सझी मंजूस, च्यार भखारी तेह में, कोइ मति जाण्यो कूड़ ६ इण अवसर संझ्या थई, आथम्यो जब सूर, नेह सहित नि (स) ज थयो, तो प्रोहित नवले नूर, ४
ढाल ( ३ )- नवकार री वस्त्र आभरण अमोल तंबोल सजाई चूर, हरखि आयो सति घरे हसतो ऊभो हजूर ॥१॥ कूडै मन आदर कर तेह' सजाई लीध, दासी ने सनकारि सिखावी सगलो सिधो दीध, भोजन पान सजाई करता वेला कीध, बाधी रात पड़ी छै आकुल थाओ म सीध ॥२॥ बीजे पहोरे आयो आय बजायो वार, हुँ कोटवाल उघाड़ किमाड़ म लावो वार।
२१
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३२२
धर्मवर्द्धन ग्रन्थावली प्रोहित कहे जाण्यो ? एणे मुझ विकार, तो आयो इण वेला कीजे कवण विचार ||३|| सतीय भणी कई प्रोहित माहरा वाप नो सूस, तुम उपगार गिणीस छिपाय तुंमुझ नै तिण मंजूस, तिण मजूस मे एक भखारै घाल्यो ठूस, सबलौ तालो दीधो सरब रही मन हूंस || हिवं कोटवाल नै माहे लीधो दीधो बहुमान, नवी सजाई करवा माडी भोजन पान । फिरता घिरता आधी रात गमाई ग्यान, तीजे पहुरे बारे बोल्यो प्रधान ॥५॥ साद ते अटकलीयो हलफलियो कोटवाल, मुझ ने जाणि मुहते कुड करी ततकाल । हिवै किहा जाऊ के थी थाउ चोली बाल, वैसि रहो भखार नी बीच मंजूस विचाल ॥६॥ तिहा वलि तालो दीधो लीधो मुहतो माहि, अधिक भगत करै पिण ऊपरले मन उच्छाह । जिम तिम रात गमावै बात घणी आगाह, बारणे राजा बोल्यो चउथे पहुरै चाह ॥षा मंत्री जाण्यो इण वेला नृप आयो आप, मुझ करतूत तिहां थी वाणी पूरो पाप । मुझ संताड़ि हिवे नहिं बीजी काइ टाप, तीजै घर घालि दीयो तालो टाल सताप ||८||
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श्रीमती चौढालिया
३२३ ऊपरलै मन हुँतै माहे बुलायो राय, पग धोवावै पाणी ल्याव ज्यु निशि जाय । इण अवसर आफलती रोती बारण आय, पाड़ोसणी कीमाड़ ने कूटै करि हाय हाय ॥६॥ कूकै पाडोसण हलफली खोल किमाड ताहरा पति ना कागल माहे मोटी धाड़ राजा कहै सु कीजै पहिली मुझ नै छिपाय चौथे भखारै घाल्यो तालो दीध जड़ाय ॥१०॥ आस पासै लोक मिल्या तेह निसुणी कूक कूड़े चित्त सती पण रोवै प्रीय गयो मुझ मूक जड़ीया पेई मा च्यार जणा जाणे मामै चूक काइ आया हिव केम निकलम्या रहिस्या मूक ॥११॥
इतर सूरज ऊगीयो, प्रगट थयो परभात, सेठ तणी सभलावणी, करती सगले वात, ॥१॥ आरण कारण करण ने, सगला मिल्या सब कोय; मुंओ सेठ अपूतीयो, सुणीयो राणी सोय, ॥२॥ माल करावो खालस, राजा ने कहो जाय, भूपत किहा लाभ नहीं, जोयो सगले ठाय, ॥३॥ राजा मुहतो नहिं घरे, तिम प्रोहित कोटवाल, किण हिक मोटा कामवश, गया होसे ततकाल ॥४॥
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धर्मवर्द्धन ग्रन्थावली राणी जाग्यो हुँ हिज हिवे, मंगावी ल्युमाल, मूक्या प्यादा आपका, साथे देई हमाल ||५| सेठाणी कहै माहरे, सघलै घर रो सार, बीजो काइ जाणुनहीं, इण मंजूप मझार, ॥६॥ हमाले आणी हिवै, मोटि निउं मंजस, राणी जाणे सार ते, ल्यु वहिलेरो लू स ॥७॥
ढाल (४)-धरम आराधीयर, ए देशी
तालो खोलावै तिस ए, ऊभी राणी आण, पहिला प्रोहित प्रगट्यो ए, वहिलो गयो संताप, ।११ हिवं इचरज थयो ए, जोयजो करम संजोग, विपयारस वाह्या थका ए, विगड़े दोनु लोग, २। कहै राणी तें सुकीयो ए, हसिवा लागी हेव, प्रोहित कहै हसजो पछे ए, देखो वीजा देव, ३। जितरै बीजे वारण ए, नीकलियो कोटवाल, राणी कहै ओ काइ ए, करवी थी संभाल, ।४। म्हा विण चोकी कुण कर ए, कहै कोटवाल निदान, ततखिण तीजा ठाम थी ए, प्रगट थयो परधान ।। हस राणी कहै स्युहुवो ए, दफतर थारै हाथ, मु तो कहै मन आवणा ए, राजा जी के पास, ६ तालो चौथो खोलता ए, पोते प्रगट्यो राय, माथे ओढे ओटणा ए, लोका माहे लजाय ।)
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श्रीमती चौढालिया
३२५
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मांहो मांहे मीटे मिल्या ए, मान महातम खोय, पछाताप ते अति कर ए, हुणहार जिम होय ।८। भूपति प्रमुख सको भणे ए, श्रीमति ने साबास, वैरी घाव वखाणीये ए, राख्यो शील सुवास, है। तेड़ी राजा तेहनें ए, सखरो दै सतकार, श्रीमती तुमोटी सती ए, नाम थकी निस्तार ।१० वसत्र आभ्रण दीया घणा ए, वहनी नाम बोलाय, पोते नृप पगे लागने ए, निज अपराध खमाय ।११। गाजे बाजे हर्प सु ए, पहोंचावं नृप गेह, सहु लोक मे जस थयो ए, धन धन श्रीमति एह ।१२। नगरी माहि बहु हुवो ए, जिण धरम नो उद्योत । सुध शील पाल्यो थका ए, श्रीमति पर वाधे ज्योत ।१३। कितरो काल गया थका ए, आयो तसु भरतार, शील प्रसादे सुख लह्यो ए, बरत्या जय जयकार ।१४। अन्य दिवस गुरु आविया ए, धरमघोप अणगार, श्रीमती संजम लीयो ए, जाणी अथिर ससार, १५॥ व्रतधारी श्रावक हुवा ए, राजादिक बहु लोग, पुन्न तणे परसाद थी ए, थाये सगला थोक, ।१६। सूध साधवी श्रीमती ए, सुर पद पाम्यो सार, महाविदेह में सीझसी ए, एक लहसि अवतार ।१७१ सीले सुख सदा लहै ए, सीले जस सोभाग, धरम थकी कहै धरमसी ए, सफल फलै तसु आस ।१८। इति श्रीमती चौढालिया सम्पूर्ण
[स्वामी नरोत्तमदास जी के सग्रह से ]
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श्री दशार्णभद्र राजर्षि चौपई वीर जिणेसर वद ने, प्रणम् गौतम पाय, एहनो सासन आज ए, सहु जीवा सुख थाय ।। विधि सु करता वंदना, धरता मन सुद्ध ध्यान, लहिये सुख इह लोक ना, परभव मुक्ति प्रधान ।। वादंता श्री वीर ने, मन थी छोड्यो मह, इन्द्र प्रशंस्यो आपथी, भलो दसारणभद ।३। मदहरसूत शिवधरम मे, पेखी तिण प्रस्ताव, दसार्णभद्र कीध दृढ, भगवत ऊपरि भाव ।४। भाति भाति दीठी भली, गुण अवगुण ह ज्ञान, भली वस्तु सहु को भजे, निरखी तजे निदान ।।
ढाल (१)-कपूरहुवे अत्ति उजलो रे, ए देशी सम्बन्ध ए तुम्हे साभलो रे, कारण मूल कहाव, अधिक दशार्ण आदर्यो रे, भगवंत ऊपरि भाव ।। सुगुण नर ए सुणिज्यो अधिकार साभलिता थासी सही रे, आगें लाभ अपार, सु०२। देश सहु मे दीपतो रे, वारू देश वैराट, सहू को लोक सुखी सदा रे, वरतें निज कुल वाट, ३। मोटो एक तिण देश मे रे, गिणजे धनपुर गाम, धन धाने धीणे करि रे, ठावो निरभय ठाम । स०।४।
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श्री दशार्णभद्र रोजपि चौपई ३२७ मदहर सुत मणिहारीयो रे, वसे तिहा सुखवास, सखरो आप सुमारगी रे, त्रिया कुशीला तास । स०॥ • कोइ क तिहा कणवारीयो रे, मनरो तिण सु मेलि,
आवै छानो अवसरे रे, करिवा तिण थी केलि ।स० ।। उणही ग्रामे एकदा रे, मोटे चोहटें माहि, नाटिकीया नाचै नवा रे, आवें लोक उमाहि ।स०७) किणही नाटिकीये कीयो रे, नारी रूप नवल्ल, भाति भाति खेलें भलो रे, अदभुत कला अवल्ल ।स०८ तेहवे ते मदहर त्रिया रे, देखण आवी दौड़ि, नटवी रूप निहाल ने रे, ठिक न रह्यो दिल ठोड़ि।।। उण रा साथी आगले रे, तेह त्रीया कहें ताम, मुझ घर आवी जो मिलें रे, चु तुहने सो दाम ।१० तुरत बात मानी तिणे रे, नाटिक परो निवेड़ि, नाटिकीयो तिण नारिने रे, आयो करिवा केड़ि।११॥ त्रिया रूप नटवो तिको रे, आगण उभो आय, मदहर त्रिय माहे लीयो रे, बहु आदर बोलाय ।स०१२॥ पग हाथ प्रमुख पखालिवा रे, निरमल दीधो नीर, पुरसें भोजन युगति स रे, खाडि घिरत ने खीर ।१३। जीमण बैठो जेतलै रे, नटुवो वेसे नारि, तिण वेला कणवारियो रे, बोल्यो घरि ने बार स०१४। नारि कहे नट नारि ने रे, कर मति चिंता काइ , तू छिप वैसि तिला तणे रे, मोटे कोठे माहि ।सु० १५॥
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३२८
धर्मवद्धन ग्रन्थावली
ते आघो वैठो तिहां रे, अंधारी दिसि आई । फू फू फू तिल फूकि ने रे, खूण बैठो खाय । मु० १६ ।
दूहा आसंगायत आवियों, तेहवें तेह तलार । पायस भोजन पेखिने, जिमवा करे जिवार |१| जीमण बैठो जुगति सु, सखरी खीर सवाढ | वोल्यो ग्रहपति वारणे, साभलियो तिणसाट |२| हलफलियो उठ्यो हिवें, अटकल कोप उपाय । करें वीनति कणवारीयो, छानों मुझ छिपाय | ३ | तिल घर मे वँसो तुम्हे, पिण ओलै हिज पास । आघा मत पैसौ उहा, विषधर नो छै वास । ४ । ते छिपाय बैठो तिसें, आयो धणीय उमाह । आखर वीहे अंगना, निबलो तोही नाह | ५ | भर्यो थाल दीठो भलो खीर घृत ने खाड | पूछे पति कहो किम किया, मोसु कपट म मांड |
ढाल (२) —– कुमरी बोलावें कुदडो ए देसी
1
कहे त्रिया बाता केलवी, आठिम नो दिन आजो रे शिव पारवती पूजिवा, करी खीर तिण काजो रे क० ११ जैति करी नें जीमिवा, हुं बैठी थी एहो रे ।
जितरे हीय आया तुम्हे, मैं कहिवो सत्यमेवो रे |क० २
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दशार्णभद्र राजपि चौपई
३२६ पति कहें हुं परि गाम थी, आयो भूखो आमो रे । पहिली जीमल्यु पछे, धाई बैठी धामो रे । क० ३ किम जीमिस त्रिया कहै, सुचि कीधो नहिं स्नानो रे । करतो भोजन ते कहै, तुम्ह स्नाने अम्ह स्नानो रे ।क० ४ तिण अवसर तिल घर तणे, मधि बैठो हुइ मकौ रे । नट ते रूपे नारि ने, फाकै तिल दे फूको रे क० ॥५ विम्मासै कणवारियो, सरप कह्यो थो सोयो रे । किहा इक फूकारा कर, हिव केही गति होयो रे । क० ६ जो अंधार झाटसी, करसी कुण कणवारो रे। इण दिसि वाघ उठी नदी, पड़ियो एह प्रकारो रे । क०७ नर उठी नासौ जिसे, लखियो नटवी लागो रे।। ते पिण उठ नाठी तिहा, भला गया बिहुं भागो रे। क०८ धोखे पड़ियो घर धणी, सोचे केहो सरूपो रे। नर नारी कुण नीकल्या, अदभुत रूप अनूपो रें। क०६ प्रिय नै पर्ने परचावण, प्रीया बोली होठे बुद्धो रे । मैं पाल्यो थोजीमता, स्नान किया विण सद्धो रे ।क०१० जीम्यो अणन्हायो जरै, सखरी न करी सेवो रे। शिव पारवती सलकिया दोयु परतिख देवो रे । का पहिला वडेरा पूजता, सेवा करता सारो रे। पेट पूज्या सहु पूजिया, ए थारो आचारो रे । क० १२ कूक्या बाहर का नहीं, हुंपिण रही हरायो रे। वैसि रहें ज्यु वापड़ो, ढोली ढोल बजायो रे । क० ११३
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३३०
धर्मवर्द्धन ग्रन्थावली
दूहा मनहर कहै सुण माननी, हु मूरख मतिहीन । अणसमझयो उतावले, कारिज भूडो कीन । १। हिवै जो अधिकी नू हि तो, विधि काईक वताय । गया देव पाछा गृहे, आवै केण उपाय ।२। त्रिया कहै सुणि नाह तु , जो परदेशे जाय । खर न्याय धन खाट ने, ल्यावं तु हित लाय । ३ । विधि वलि बाकुल करी, वलि पूजीजे धरि प्रेम । शिव पारवती तो सही, आवै पूठा एम।४। केलवी कह्यो कुसीलणी, साच गिण पति सुद्ध। देखो भोलो दिल्ल रो, धवलो तितरो दूध । ५ ।
दाल (३) सेवा बाहिरौ कहीये कौ सेवक ए देशी
मानव युभमे मिथ्यामति मोह्यौ, जे हित अहित न जाणे । अणहूंता इ देवा ऊपर, आसत अधिकी आणे । १ मा० दिन तिणहीज चल्यो परदेशे, ले आऊं धन लाहो। माहरा रूस्या देव मनाउ, ए मन मे उमाहौ । मा०२ करतो पंथ दिने कितरेके, देश दशारण दीठो। वा सरस ईख रा वाटक, माहि हुवै गुल मीठो । मा० ३ रोजगार काजै तिहा रहियो, काम कितो एक कीधो , खेत धणी तिण हेम खुशी स, दस गढीयाणा दीधौ , ४ मा०
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दशार्णभद्र राजपि चौपई
३३१
खाचाताण मिली ए खरची, काम सरै नहिं कोई , भमतो तिहा थी वलि भोगवतो, सुख दुख लीया सोई; ५ मा० इक दिन इक अटवी मे ऊभो, छबि सखरी तरु छाया , वाडी चढि राय दशारण, उणहिज वडि तलि आया , ६ मा० पूछयो भूपे कुण परदेशी, इण ठामे क्यु आयो , तिण अपणा घर देव त्रियानो, सहु विरतंत सुणायो, ७ मदहर सुत हुं छु मणिहारो, धन में कारण धाउं , अरथ खाट ने पूजी अरची, माहरा देव मनावु , ८ पूजिस हु शिव ने पारवती, सो दिन सफलो थासी , माया भावे तितरी मेलो, आखर साथ न आसी, ६ सहसवुद्धी नृप सुणि समझावै, परमारथ सहु पायो; सरल चित्त दीसे तुसखरो, पिण वाहर वहकायो , १० घर मे केई घाल्या घरणी, नाठा ते नर नारि , शिव पारवती घर थी सिलक्या, कामण दीधी गारी , ११ परहो तुझ काढ्यो परदेशे, कुलटा इतरो कीधो , समझावी इम राय दशारण, डेरो पुर मे दीधो , १२ सखरे महिले राख्यो सुखियौ, सखरी भगति सजाई , स्वारथ विण जे करणी सेवा, भल्ला तणीय भलाई , १३ दिल में चिते राय दशारण, अहो एहनी अधिकाई , अछता देव तिहा ही ऊपर, साची भगति सदाई , १४ । मो सरिखौ नाहिं कोई मूरख, मोहे रहियौ माची, साचा देव तिथंकर सरिखा, सेवा न करू साची , १५
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રૂર
धर्मवर्द्धन ग्रन्थावली
जयवंता श्री वीर जिणेसर, इण ठामे जो आवै , तो काइक अधिकाई कीजे, भावना इस नृप भावै , १६
दूहा
इण अवसर तिहा आविया, जगगुरु वीर जिणेश । तरता बीजा ने तारता, देता ध्रम उपदेश । १ परसिद्ध श्री गौतम प्रमुख, गणधर साथ इग्यार । साथे साध भला सही, जेहन चवद हजार । २ चौ विधि देव मिली रच्यो, समवशरण श्रीकार । स्वामि बैठा सिंहासणे, बैठी परषद वार । ३ जेण दसारण राय ने, दीध वधाई दोड़। आभरण वगस्या अंगना, माथै राख्यो मौड़ ।४ हिवे घणो हिज हरखियो, भूप दशारणभद्र । छोले इल्लोले छिले, साचो जाणि समुद्र । ५ सवला आडंबर सजे, वाद् इम वृधमान । किणही वांद्या नहिं कदे, इम धारे अभिमान । ६
ढाल ( ४ ) यत्तिनी देशी
अभिमान इसौ मन आण, प्रभु आया पुण्य प्रमाण । महिमा करु सबल मंडाणे, वाह वाह सकोड वखाणं ।। तेडया कोटवक ताम, आग्चे हिव भूपति आम । बाट य बजावो सारा, नोवत नीसाण नगारा ॥२॥
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दशार्णभद्र राजपि चौपई ३३३ शुचि कीजे स्नान संपाड़ा, सहु पहिरै नवि नवि साड़ा। हीर चीर पाटंवर हेम, पहिरौ सहु भूपण प्रेम ॥३॥ हिव आणि सिणगारो हाथी, साम्हेलो मोहें तिण साथी । गुड़डत कलाहिण गाजे, रोलम्ब कपोले राजे ॥४॥ काजल किलकें तनु काला, सबला परचण्ड सुडाला। सिंदूत्या सीस सलूक, जलधर में बीज झबूकै ॥ ऊपर सोहै अंबाड़ी, फूली जाणै फूलवाड़ी। ऊंचा परवत अणुहारा, आण्या गज सहस अठारा ।।६।। घणा मोला ऊचा घोड़ा, हर हीस होडा होडा । तेजी ऊछले बाडता, उचास भणी आपड़ता ॥७॥ मुंह पतलै पूठे मोटा, छछोहा ने कानें छोटा । सोने री साखत कसीया, राजी हुवै चढता रसिया ।।८।। सालहोत्र सुलक्षण साख, लेखा हय चौवीस लाख । सोल सहस घणे सनमान, राजें साथै राजान ।।६।। सुखपाल सहस श्रीकार, रथ तौ इकवीस हजार । सातसै अन्तेउर सार, सहु सज्ज हुआ सिणगार ॥१०॥ कहा पायक तेत्रीस कोड़ि, कर सेवा वे कर जोड़ि। छत्र चामर सोभा छाजै, रवि तेज दसारण राजे ॥११॥ वड़ी रिधि तणे विसतार, पुर बाहिर हिव पधारें। आव धरता आणंद, जिहा त्रिगड़े श्री वीर जिणद ॥१२॥
॥ दूहा ॥ "अबाड़ी थी उतस्या, महिपति अधिके मान । मदहर सुत पिण साथ ले, वंद्या श्री बधमान ॥१॥
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धर्मवर्द्धन ग्रन्थावली
ढाल-( ६ ) आज निहजो दोसड़ नाहनो- देशी कोई मन मे गरब रखे करो, सुजानी हु सोई । जो करो तोही दसारणभद्र ज्य, करिज्यो तुम्हे सह कोई । को सवलो गज दशारण देश नो, तुरत ज तजीयो तेह । पाए लागी ने इंद्र प्रशंसीयो, अधिको मुनिवर एह । - उत्तराध्ययन अध्ययन अठारमे, मूत्र टीका सुविचार । रिपमंडल वलि प्रकरण थी, रच्यो ए विस्तर अधिकार |३ मिथ्यामत जिम साभलता टलै, साचो सरस संबंध । समकित कारण सुवुधि साभलो, बोल्यो सगवट बध।४ संवत सतरै वरस सतावन, मेडते नगर मझार । चौमासे गणधर जिणचट जी, सुजस कहै ससार । भट्टारकीया खरतर गच्छ भला, शाखा जिनभद्रसूरि । वाचक विजयहरय वखतावरू, परसिध पुण्य पडूर । ६ तेहनै शिष्ये ए मुनिवर तव्यो, श्री पाठक ध्रमसीह । श्री जिनधरम तिको श्रीसघ ने, द्यौ सुख दोलति लीह । ७
इति श्रीदशारणभद्र राजर्पि चतुःपदी समाप्ताः सवन् १८६१ मिती आसाढ कृष्ण १ रवि
महिपुर लि० उद्योतविजे
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श्रीवीरभवतासरः
राज्यर्द्धि वृद्धिभवनाद् भवने पितृभ्या,
श्री वर्धमान' इति नाम कृतं कृतिभ्याम् । यस्याद्य शासनमिदं वरिवत्ति भूमा
वालम्वनं भवजले पतता जनानाम् ।। १॥ श्री 'आपभिः' प्रणमतिस्म भवे तृतीये
गर्भस्थितं तु मघवाऽस्तुत सप्तविंशे । यं श्रेणिका दिकनृपा अपि तुष्टुवुश्च स्तोष्ये किलाहमपि तं प्रथमं जिनेन्द्रम् ॥ २॥
(युग्मम् ) अथ तृतीयकाव्ये श्रीभगवतो महावीरस्वामिनो,वलाधिक्यमाह
वीर ! त्वया विद्धताऽऽमलिकी 'सुलीला,
वालाकृतिश्छलकृदारुरुहे सुरो यः। तालायमानवपुपं त्वहते तमुच्च
मन्यः क इच्छति जनः सहसाग्रहीतुम् ॥ ३ ॥
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धर्मवद्धन ग्रन्थावली हिव अति हरख्यो मदहरो, देख निरंजन देव । मिथ्यामति मेटी करे, श्री जिनवर नी सेव ।।२।। इन्द्र हिंव आत्रै इहा, सबल आडंवर साज । नृप प्रतिबोधण जिन नमण, एक पथ दोड काज ॥३॥
ढाल (५) इण अवसर कोइ मागध आयो पुरन्दर पास, रा देशी
सोधरम देवलोके शक महासुर राज, दीठौ राय दशारण वदण नै सजे साज । करणी एह कर ते धन जिन वदन काज, पिण अहंकार उतारनै हु प्रतिवोध आज ||१||
सुरपति हुकम इरापति देव धरी ऊछाह, चौसठि सहस्स वड़ा गजराज विकुर्वे चाह, इक इक गजरै मुख सुखकारी पाचसै वार,
मुख मुख आठ दंतूशल रच्या श्रीकार ||२|| इक इक दंते पंते वारू अठ अठ वावि, वावी वावी आठ आठ कमल सुगंध धर भाव कमले कमले लख लख पाखडिया परसिध, प्पाखडीए पाखडीए नाटक वत्रीस वद्ध ॥३॥
बलि प्रति कमले मध्य प्रासाद वतस विमान, राजे तिहां अग्रम हिपी आठे शक्र राजान, एह अचभे रूप अनूप वण्या असमान देख दमारण राजा आप तज्यो अभिमान ।।४।
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. दशार्णभद्र राजर्षि चौपई
जग में धन धन जिन शासन धन वीर जिणंद, आवै जेहन वंदण काजै एहवा इंद, मैं अग्यान कीयौ अभिमान महा मतिमंद, मुझ रिद्धि अंतर जेहवो कूप समंद ॥५॥
अहो अहो इन्द्र आगे कीया केई धरम अनूप, लाधी वैक्रिय लबधि रचै मन मान्या रूप, धरम करू हिव हु पिण ते निश्चै मन धारि, वीर सु आवि करी नृप वीनति तु प्रभु तारि।६।
प्रतिबूधी मदहर सुत पिण नृप संगति पाइ, मलयाचल सगे तर वीजा पिण महकाय, कीधो लोच तिहा हिज सोची वात न काय, देई बिहुं ने दीक्षा शिष्य किया जिनराय ।
तुरित त्यागी वड वैरागी मोह न माय, जे करणी तें कीधी ते मैं कीनि न जाय, तें अहंकार पोतारो साच कीयो सुखदाय, पोतें इन्द्र प्रशंसा करि करि लागो पाय !८!
सहु रिधि सवर शक्र पहूंतो सरग मझार, वीर जिणेसर तिहा थी कीध अनेथ विहार, राय दशारण मदहर साधु भला ध्रमसील, सहु सुख पाया पायो केवल मोख सलील ।।
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धर्मवर्द्धन ग्रन्थावली
ढाल-( ६ ) आज निहेजो दीसइ नाहलो-ए देशी कोई मन मे गरब रखे करो, सुज्ञानी है सोई । जो करो तोही दसारणभद्र ज्यु, करिज्यो तुम्हे सहु कोई । को० सवलो राज दशारण देश नो, तुरत ज तजीयो तेह । पाए लागी ने इंद्र प्रशंसीयो, अधिको मुनिवर एह । २ उत्तराध्ययन अध्ययन अठारमे, सूत्र टीका सुविचार । रिषमडल वलि प्रकरण थी, रच्यो ए विस्तर अधिकार । ३ मिथ्यामत जिम साभलता टलै, साचो सरस संबंध । समकित कारण सुबुधि साभलो, बोल्यो सगवट बंध । ४ संवत सतरं वरस सतावनै, मेडते नगर मझार । चौमासे गणधर जिणचद जी, सुजस कहै ससार । ५ भट्टारकीया खरतर गच्छ भला, शाखा जिनभद्रसूरि । वाचक विजयहरप वखतावरू, परसिध पुण्य पडूर । ६ तेहन शिष्ये ए मुनिवर तव्यो, श्री पाठक ध्रमसीह । श्री जिनधरम तिको श्रीसघ नै, द्यौ सुख दोलति लीह । ७
इति श्रीदशारणभद्र राजर्पि चतुःपदी समाप्ताः संवत् १८६१ मिती आसाढ कृष्ण १ रवि
महिपुर लि० उद्योतविजे
--20:
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श्रीवीरभक्तामरः
राज्यद्धि वृद्धिभषनाद् भवने पितृभ्या,
श्री 'वर्धमान' इति नाम कृतं कृतिभ्याम् । यस्याद्य शासनमिदं वरिवत्ति भूमा
वालम्बनं भवजले पतता जनानाम् ॥ १॥ श्री 'आप॑भिः' प्रणमतिस्म भवे तृतीये
गर्भस्थितं तु मघवाऽस्तुत सप्तविशे। यं श्रेणिकादिकनृपा अपि तुष्टुवश्च स्तोष्ये किलाहम पि त प्रथमं जिनेन्द्रम् ।। २ ॥
(युग्मम् ) अथ तृतीयकाव्ये श्रीभगवतो महावीरस्वामिनोवलाधिक्यमाह
वीर । त्वया विदधताऽऽमलिकी सुलीला,
बालाकृतिश्छलकृदारुरुहे सुरो यः। तालायमानवपुपं त्वते तमुच्च
मन्यः क इच्छति जनः सहसाग्रहीतुम् ।। ३ ।।
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धर्मवद्धन ग्रन्थावली
अथ चतुर्थकाव्येन श्रीभगवतो विद्याधिक्यमाह
शक्रण पृष्टमखिलं त्वमुवक्थ' यत् तद्
जैनेन्द्रसंज्ञकमिहाजनि शब्दशास्त्रम् । तम्यापि पारमुपयाति न कोऽपि बुध्या,
___ को वा तरीतुमलमम्बुनिधिं भुजाभ्याम् ॥ ४ ॥ उपदेशाविक्यमाह
धर्मस्व वृद्धिकरणाय जिन। त्वदीया,
प्रादुर्भवत्यमलसद्गुणदायिनी गौः । पीयूपपोपणपरा वरकामधेनु
नाम्येति कि निजशिशोः परिपालनार्थम् ? ॥शा कर्मक्षये भगवतो नाम्नो माहात्म्यमाहछियत कर्मनिचयो भविना यदाशु
त्वन्नामधाम क्लि कारणमीश! तत्र । कण्ठे पिकस्य कफजालमुपैति नाशं
तचारुचूतकलिकानिकरकहेतु : ॥६॥ भगवता मिथ्यात्व हतं तदन्यदेवेषु स्थितमित्याह
देवार्यदेव ! भवता कुमतं हत तन्
मिथ्यात्ववत्सु सतत शतशः सुरेषु । सतिष्टतेऽतिमलिनं गिरिगह्वरेषु
सूया शुभिन्नमिव शार्वरमन्धकारम् ।। ७ ।।
वक्य इति पठान्तरः ।
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सस्कृत स्तोत्रादि संग्रह
३३६
भगवतो नाम्न आधिक्यमाह
त्वन्नाम 'वीर' इति देव सुरे परस्मिन्
केनापि यद्यपि धृत न तथापि शोभाम् । प्राप्नोत्यमुत्र सलिने किमृजीपपृष्ठे,
मुक्ताफलद्य तिमुपैति ननूदविन्दुः ? ।। ८ भगवतो ज्ञानोत्पत्तिविशेपमाह
ज्ञाने जिनेन्द्र | तव केवल नाम्नि जाते ___लोकेपु कोमलमनासि भृशं जहर्षः। प्रद्योतने समुदिते हि भवन्ति किं नो,
पद्माकरेपु जलजानि विकाशभाजिEll सेवके उपकारविशेषमाह
वादाय देव । समियाय य इन्द्रभूति
स्तस्मै प्रधानपदवी प्रददे स्वकीयाम् । धन्यः स एव मुवि तम्य घशोऽपि लोके
भूत्याऽऽश्रित य ह नाऽऽत्मसमं करोति ।।१०णा भगवतो वचनमाधुर्यमाह
गोक्षीर सत्सितसिताधिक्म (मि) टमिष्ट
माकर्ण्य ते वच इहेप्सति को परस्य । पीयूपकं शशिमयूखविभ विहाय
क्षारं जल जलनिधे रसितु क इच्छेन् ?||११॥
१ 'नो' इत्यन्य पाठ
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धर्मवर्द्धन ग्रन्थावली
भगवतोरूपाधिक्यमाह
अङ्गुष्ठमेकमणुभिर्मणिजः सुरेन्द्रा
निर्माय चेत्तव पदस्य पुरो धरेयुः । पूष्णोऽय उल्मुकमिवेश स दृश्यते व
यत्ते समानमपरं न हि रूपमस्ति ।१२।। भगवदर्शने मिथ्यात्वं नोद्घटतीत्याह
उज्जाघटीति तमसि प्रचुरप्रचार
मिथ्यात्विना मतमहो न तु दर्शने ते।' काकारिचक्षुरिव वा न हि चित्रमत्र
यद्वासरे भवति पाण्डुपलाशकल्पम् ॥१३।।' कपायभङ्ग भगवतो वलवत्वमाह
चन्या द्विपा इव सदैव कपायवर्गा
भञ्जन्ति नूतनतरूनिब सर्वजन्तून् । सिंहातिरेकतरस हि विना भवन्तं
कम्तान् निवारयति सञ्चरतो यथेष्टम् ? ॥१४॥ उपसर्गसहने भगवतो दृढता दर्शयन्नाहद्विट् 'सङ्गमे' न महतामुपसर्गकाणा
या विशतिस्तु समृजे जिन। नक्तमेकम् । चित्त चचाल न तया तव झमया तु
कि सन्दरादि शिखर चलितं कदाचिन् ? ॥१५॥
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संस्कृत स्तोत्रादि संग्रह
भगवानपूर्वदीपोऽस्तीत्याह
निःस्नेह | निर्दश । निरञ्जन । निःस्वभाव |
}
निष्कृष्णवर्त्म |
निरमत्र |
नित्यद्य ते । गतसमीरसमीरणात्र
•
अथ सूर्यादयतिशयवान् भगवानित्याहविस्तारको निजग़वा तमसः प्रहर्त्ता,
दीपोsपरस्त्वमसि नाथ 1 जगत्प्रकाशः 12
अथे चन्द्रादपि त्वद्यशोऽधिकमित्याह
मार्गस्य दर्शक इहासि च सूर्य एव । स्थाने चं दुर्दिनहतेः करणाद् विजाने सूर्यातिशायिमहिमाऽसि मुनीन्द्र । लोके ॥ १७
प्रह्लादकृन् कुवलयस्य कलानिधानं पूर्णश्रियं च विदधच यशस्त्वदीयम वर्वर्त्ति लोकवहुकोक सुखकरत्वाद्
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निरङ्कुशेश !
भगवता (न्) सावत्सरिकं दानं दत्त तदाहयद् देहिनां जिनवराब्दिकभूरिदाने
विद्योतयज्जगदपूर्वशशाङ्कविम्बम् ||१८||
---
हृत हि भवता किमु तत्र चित्रम् ? दुर्भिक्षकदलनात् क्रियते सदौप
कार्य कियज्जलधरै जलभारनम्रः १ ॥१६॥
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धर्मवद्धन ग्रन्थावली
भगवञ्चरणदर्शने फलाधिक्यमाह
याहक सुखं भवति ते चरणेऽत्र दृष्टे
ताहक परभुवदनेऽपि न देह भाजाम् । प्राप्ते यथा सुरमणौ भवति प्रमोदो
नैव तु काचशकले किरणाकुलेऽपि ॥२०॥ भक्तो भगवत्सेवा प्रार्थयन्नाह
एवं प्रसीद जिन! येन सदा भवेऽत्र
त्वच्छासनं लगति में सुमनोहरं च। त्वत्सेवको भवति यः स जनो मदीयं
कश्चन मनो हरति नाथ भवान्तरेऽपि ॥२||
जिनस्य भामण्डलम
भामण्डलं जिन | चतुर्मुखदिक्चतुष्के
तुल्यं चकासदवलोक्य सभा व्यमृक्षत् । सूयं समा अपि दिशो जनयन्ति किंवा
प्राच्येव दिग् जनयति स्फुरदशुजालम् ॥ २२ ।। लोकैर्यः शिवः शिव इति ध्यायते स भगवानेवेत्याह
शम्भुगिरीश इह दिग्वसनः स्वयम्भू
__ मृत्युञ्जयस्त्वमसि नाथ महादिदेव । तेनाम्बिका निजकलत्रमकारि तन् त्वन्नान्यः शिवः शिवपदस्य मुनीन्द्र | पन्थाः ॥ २३ ॥
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संस्कृत स्तोत्रादि संग्रह
सर्वशास्त्राध्ययनादपि सम्यक्त्वमधिकमिति दर्शयन्नाह -
जानन्ति यद्यपि चतुर्दश चारु विद्या देशोन पूर्वदशकं च पठन्ति सार्थम् ।
सम्यक्त्वमीश न धृतं तव नैव तेषां
ज्ञानस्वरूपममलं प्रवदन्ति सन्तः ॥ २४ ॥
पुरुषोत्तमोऽयं वीर एवेत्याह
नृणा गणाः गुण चणाः पतयोऽपि तेषां
ये ये सुराः सुरवराः सुखदास्तकेऽपि । कृत्वाऽञ्जलिं जिन । चग्क्रिति ते स्तुति तद् व्यक्त त्वमेव भगवन् । पुरुषोत्तमोऽसि ॥ २५ ॥
संसारसागरशोपकाय प्रणाम :
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रोगा खा बहुमहामकराः कषाया
श्चिन्तैव यत्र वडवाग्निरसातमम्भः । वार्धिर्भवः सर इव त्वयका कृतस्तन्
तुभ्यं नमो जिनभवोदधिशोषणाय ||२६||
भगवदर्शनालाभे विडम्बना
यद् यस्य तस्य च जनस्य हि पारवश्यमावश्यकं जिन 1 मया वरिवस्ययाSSप्तम् । तन् तर्कयामि बहुमोहतया मया त्वं
स्वप्नान्तरेऽपि न कदाचिदपीक्षितोऽसि ॥२७॥
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धर्सवर्द्धन ग्रन्थावली
स्तनन्धयस्य भगवतो रूपस्वरूपमाह
रम्येन्द्रनीलरुचि देषभृतो जनन्याः
पावं श्रितस्य धयतश्च पयोधर ते । रूपं रराज नवकाञ्चनरुक तमोन्न
विम्वं रवेरिव पयोधरपार्श्ववर्ति ॥२८॥ प्रभोर्जन्म
इक्ष्वाकुनामनि कुले विमले विशाले
सदनराजिनि विराजत उद्भवस्ते । दोपापहारकरणः प्रकटप्रकाश
स्तुङ्गोदयाद्रि शिरसीव सहस्ररश्मेः ॥२६॥ नाथस्य जन्माभिषेकःस्नानोदकैर्जिन (जनि) महे सुरराजिमुक्त
र्गाने पतभिरपि नूनमनेजमानम् । दृष्ट्वा भवन्तममराः प्रशशंसुरीश
___ मुच्चेस्तटं सुरगिरेरिव शातकौम्भम् ॥३०॥ वप्रत्यविचार:
ये त्रिप्रदक्षिणतया प्रभजन्ति वीर
ते स्युनरा अहमिवाद्भुतकान्तिभाजः । वप्रत्रयं वददिति प्रविभाति तेऽत्र
प्रल्यापयन त्रिजगतः परमेश्वरत्वम् ॥३॥
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संस्कृत स्तोत्रादि सग्रह
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भगवत्संस्मरणे सुरसान्निध्यमाह
कान्तारवर्त्मनि नराः पतिताः कदाचिद्
दैवात् क्षधा च तृपया परिपीडिताङ्गाः। ये त्वा स्मरन्ति च गृहाणि सरासि भूरि
पद्मानि तत्र विबुधाः परिकल्पयन्ति ॥३२॥ भगवचित्तस्थिरतामाह
संनिश्चला जिन | यथा तव चित्तवृत्तिः
कस्यापि नवमपरस्य तपस्विनोऽपि । याहा सदा जिनपते । स्थिरता ध्र वस्य
ताहक कुतो ग्रहगणस्य विकाशिनोऽपि ॥३३॥ अथ भगवदर्शने जन्मवैरिणामपि विरोधो न भवतीत्याह
ओत्वाखवोऽहिगरुडाः पुनरेणसिंहा
अन्येऽगिनोऽपि च मिथो जनिवैरवन्धाः । तिष्ठन्ति ते समवमृत्यविरोधिनं त्वा
दृष्ट्वा भय भवति नो भवदाश्रितानाम् ।।३४।
भगवचरणशरणगतं न कोऽपि पराभवतीत्याह
यस्ते प्रणश्य चमरोऽह्नितले प्रविष्ट
स्त हन्तुमीश न शशाक भिदुश्च शक्रः । तद युक्तमेव विबुधाः प्रवदन्ति कोऽपि
नाकामति क्रमयुगाचल सश्रितं ते ॥३॥
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धर्मवर्द्धन ग्रन्थावली
भगवन्नामतोऽति (पि) भयं न भवतीत्याह
पूर्व त्वया सदुपकारपरेण तेजो
लेश्या हता जिन विधाय सुशीतलेश्याम् । अद्यापि युक्तमिदमीश तथा भयानि
त्वन्नामकीर्तनजलं शमयत्यशेषम् ॥३॥ भगवन्नामतः सर्पभयमपि विलीयत इत्याह
ऊर्ध्वस्य ते बिलमुखे वचनं निशम्य
यत्रण्डकौशिकफणी शमतामवाप। तन् साम्प्रतं तमपि नो स्पृशतीह नाग
स्त्वन्तामनागदमनी हृदि यस्य पुसः ॥३७॥ भगवविहारे ईतयो न भवन्तीत्याह
तुर्यारके विचरसिस्म हि यत्र देशे
तत्र त्वदागमत ईतिकुलं ननाश । अद्यापि तद्भयमहर्मणिधामरूपान्
त्वत्कीर्तनात् तम इवाशु भिदामुपैति ॥ ३८॥ भगवत्पादसेवाफलम्
निर्विग्रहाः सुगतयः शुभमानसाशाः
सच्छुक्लपक्षविभवाश्चरणेपु रक्ताः। रम्याणि मौक्तिकफलानि च साधुहंसा
स्त्वत्पादपङ्कजवनायिणो लभन्ते ।। ३६ ।।
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संस्कृत स्तोत्रादि संग्रह
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भगवद्वचनश्रद्धानात् कामितप्राप्तिर्भवतीत्याह
संसारकाननपरिभ्रमणश्रमेण,
क्लान्ताः कदापि दधते वचन कृत ते । ते नाम कामितपदे जिन देह भाज
स्वासं विहाय भवतः स्मरणाद् ब्रजन्ति ।। ४०॥ भगवद् पं दृष्ट्वा सुरूपा अपि स्वरूपमदं मुञ्चन्तीत्याह
सर्वेन्द्रियैः पटुतरं चतुरस्रशोभ
त्वां सत्प्रशस्यमिह दृश्यतरं प्रदृश्य तेऽपि त्यजन्ति निजरूपमदं विभो । ये
मा भवन्ति मकरध्वजतुल्यरूपाः ॥४१॥
निर्वन्धनं जिन ध्यायन्तो निर्वन्धना भवन्तीत्याह
छित्वा दृढानि जिन | कर्मनिबन्धनानि
सिद्धस्त्वमापिथ च सिद्धपद प्रसिद्धम् । एवं तवानुकरणं दधते तकेऽपि
सद्यः स्वयं विगतबन्धभया भवन्ति ।। ४२ ।। • भगवत्स्तोत्राध्ययनान् सर्वोपद्रवनाशो भवतीत्याह
न व्याधिराधिरतुलोऽपि न मारिरारं,
नो विड्वरोऽ शुभतरो न दरो ज्वरोऽपि । व्यालोऽनलोऽपि न हि तस्य करोति कष्ट ।
यस्तावक स्तवमिमं मतिमानधीते ।। ४३ ।।
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धर्मवर्द्धन ग्रन्थावला
भगवत्स्तवोमौक्तिकहारः कण्ठे धार्य इत्याह
त्वत्स्तोत्रमौक्तिकलता सुगुणा सुवर्णा
त्वन्नामधामसहिता रहिता च दोपः। कण्ठे य ईश | कुरुते धृत 'धर्मवृद्धि'
स्त 'मानतुङ्ग'मवशा समुपैति लक्ष्मीः ॥ ४४ ॥ अथ प्रशस्तिःरसगुणमुनिभूमेऽन्देऽत्र भक्तामरस्थैः
चरमचरमपादः पूरयन्सत्समस्याः । सुगुरु 'विजयहर्षा' वाचकास्तद्विनेय
चरमजिननुतिं जो 'धर्मसिंहो' व्यधत्तं ॥ ४५ ॥
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ॐनमः सिद्धेभ्यः
सरस्वत्यष्टकम्
प्राग्वाग्देवि जगज्जनोपकृतये, वर्णान द्विपञ्चाशतम्, __या वाप्सी निजभक्तटारकमुखे, केदारके बीजवन् । तेभ्यो ग्रन्थ-गुलुञ्छकाः शुभफला, भूता प्रभूतास्तकान् , सैवाचापि परःशतान् गणयसे सकस्फोरणाछमतः ॥१॥ यातेति प्रात प्राततुिति ग्मिात--
विद्याजातः सश्रीसातस्तेपा जातः प्रख्यातः। एता भ्रातर्भक्त्युध्रातः स्नेहस्नातः स्वाख्यातः
सेवस्वातश्चितृष्णातः शास्त्रेषु स्यान्निष्णातः ॥२॥ शिक्षाछदश्च कल्पः सुकलितगणितं, शब्दशास्त्रं निरुक्ति
वदाश्चत्वार इष्टा भुवि विततमते धर्मशास्त्रं पुराणं । मीमांसाऽऽन्वीक्षिकीति त्वयि निचितभृतास्ताःषडष्टाऽपिविद्यास्तत्त्वं विद्यानिपद्या किमु किमसिधिया सत्रशाला विशाला ||३|| सुवृत्तरूपःसकलः सुवर्णः प्रीणन् समाशा अमृतप्रसूर्गी. तमःप्रहर्ता च शुभेपु तारके हस्ते विधुःकिं किमु पुस्तकस्ते ॥४॥
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धर्मवर्द्धन ग्रन्थावली पदार्थसार्थदुर्घटार्थचित्समर्थनक्षमा,
सुयुक्तिमौक्तिकैकशुक्तिरत्रमूर्तिमत्प्रमा। प्रशस्तहस्तपुस्तका समस्त शास्त्रपारदा,
__ सता सका कलिंदका सदा ददातु सारदा ।।। मंद्र मध्यश्च तारैः क्रमततिभिरुरः कण्ठमूर्द्धप्रचारैः, ____सप्तस्वा प्रयुक्तैः सरगमपधनेत्याख्ययाऽन्योन्यमुक्तः । न्कन्धेन्यस्य प्रवालं कलललितकलं कच्छपी वादयंती, रम्यास्या सुप्रसन्ना वितरतु वितते भारती' भारती' मे ॥३॥ भातो भातः श्रवणयुगले कुडले मण्डले वै,
___ चान्द्रार्कीये स्वतः उत ततो निःसृतौ पुष्पदन्तौ । श्रावं श्रावं वचनरचना मेदुरीभूय चास्याः,
संसेवेते चरणकमलं राजहंसाभिधातः ॥ ७ ॥ अमित नमितकृष्टे तद्धिया सन्निकृष्टे,
श्रुतसुरि शुभद्दष्टे सद्साना सुवृष्टे । जगदुपकृतिसृष्टे सज्जनानामभीष्टे,
तव सफलपरीष्टे को गुणान्वक्तुमीष्टे ॥ ८ ॥ सतेत्यमष्टकेन नष्टकष्टकेन चष्टके
सतां गुणद्धि गर्द्धनः सदेव धर्मावर्द्धनः । सखे सुबुद्धिवृद्धिसिद्धिरीप्स्यते यदा सती,
नमस्यतामुण्स्य साववश्य मों सरस्वती ॥६॥
इतिश्रीसरस्वत्यष्टकं विद्यार्थपूत्रै त्रिविष्टपविष्टरं
१ सरस्वती। २ भा च रतिश्चेति भारतो कान्ति सुख च ददातुइत्यर्थ ।
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संस्कृत स्तोत्रादि संग्रह
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श्रीजिनकुशलसूरीणामष्टकम्
यो नातृनिव सेवकानपि सदा वर्भत्ति कुर्वन मुदं,
विच्छिदन वियदं ददच्छुभपदं सपादयन् सपर्दै । मन्यन्ते हि यकं पितामहतया विश्वेऽत्र विश्वे जनाः,
सोऽय वः कुशलानि जैनकुशलश्वकर्तु विद्याचणः ।। येऽरण्येपु पिपासवः प्रपतिता ध्युगुरु मानसे,
नानागत्यवितत्यमेघमतुलं वः पाययामास यः । योऽचाप्येप उदन्यतो वहुजनान के धापयेद्धयानतः,
सोऽयं वः कुशलानि जैनकुशलश्वकर्तु विद्याचणः।२। लोलोलोलति मिंगला कुलतमे सिन्धावगाधे भृशं,
मज्जन्त प्रविलोक्य सेवकगण सत्रा वहित्रेण वै । यस्तूणति मतीतरत्सकुशलदं दोा गृहीत्वा दृढं,
सोऽयं वः कुशलानि जैनकुशलश्वक विद्याचणः ।। वारीशोत्तरणे रणे प्रहरणे नागे नगे पन्नगे,
झंझाया विकटे झषे झषकुटे घट्टरघट्ट वटे । ध्यानावस्य मनागपीह लभते नो ईतिभीती नरः,
सोऽयं वः कुशलानि जैनकुशलश्चकर्तु विद्याचणः ।४। त्व चेदेनमनेनस सकृदपि स्नेहादसेविष्यथाः,
रामे वेत्य रमा मनोरमतमा त्वा पर्यपासिष्यत ।
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धर्मवद्धन ग्रन्थावली
इत्यादिश्य वयस्य मिभ्यमनुजा यम्याहिमर्चन्त्यहो।
सोऽय वः कुशलानि जैनकुशलश्चकर्तुं विद्याचणः ।। धन्या 'जैतसिरी' प्रमू जनयिता मत्री च जलागरो'
यस्म जन्म ददी ददौ यतिगुणान् श्रीजैनचन्द्रो गुमः । व्युत्पन्नाय तु सूरिमंत्रसहित सौव पद दत्तवान्,
सोऽय वः कुरालानि जैनकुशलश्चकतु विद्याचणः॥६॥ श्रेयः श्रेयस ओजसा शुभयशा यःस्वर्गमध्यासितो,
नेदीयानिव हर्पयत्यनुदिनं भक्तान् दवीयानपि । यो लोके कमलाकरान् रविरिव प्रौढ प्रतापोद्यतः,
सोऽयं वः कुशलानि जैनकुशलश्चकर्तु विद्याचणः ।।जा दद्यादय धनीयते बहुधनं स्त्रीकाम्यते सुस्त्रियः,
__ यो भक्ताय जिगीयते च विजय सुत्ये सुतान् दासते । यत्कीतिः प्रसरीसरीति सततं को कौमुदीव स्फुटं,
सोऽयं वः कुशलानि जैनकुशलश्चकर्तु विद्याचणः ।।८।। सत्काव्याष्टकमष्टधीगुणयुतो दः पूतरूपो पटुः,
सच्चेता उपवणव ह्यहरहर्यः सप्तकृत्वः पठेत् । तस्मै श्री विजयादिहर्पगुरुता सद्धर्मशीलोदयो,
दादाति प्रभुरेप जैनकुशलः साक्षादिव स्वद्र मः ॥६॥ .
इनि श्रीजिनकुशलमूरीणामष्टकम्
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चतुर्विंशतिजिनस्तवनम्
(इन्द्रवज्राछन्दः) स्वस्तिश्रिये श्री ऋपभादि देवं, निर्दभदेवं जिनदेवदेवं, चारुप्रकाशं किल मारुदेवं, स्तौमीह सम्पत्तिलतैकदेव ॥१॥
(तोटकछन्दः) अमरासुर पुस्पशुपक्षिकृत-मदवारनिवारक ईश जितः, भवता मदनोऽपि मदौघयुतःप्रवदन्तिबुधा अजितं हि ततः ॥२॥
(वशस्थ) लसद्यशः पूरितसदिशं भवंत एतमर्चन्तु जनाश्च शंभवं । जिनं सदिक्ष्वाकु कुलाब्जसंभवं, स्फुरत्तपोधाम वितीर्णसभव ।।
(द्रुतविलम्बित) जिनमहं प्रणमाम्यभिनन्दनं,
सुभगसंवरभूपतिनन्दनम् । सकलसद्गुणपादपनन्दनं,
जिनवरं जनलोचननन्दनम् ।।४।।
(तोटक) त्रिजगत्पतिरेषजिनः सुमति
वितनोतु मतिं किल मे सुमतिः। शुभबोधपयोधिरनेकनुतिः,
क्रमणधु तिरंजितदेवपतिः ॥१॥
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धर्मवर्द्धन ग्रन्थावली
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(इन्द्रवज्रा) पद्मप्रभोऽर्हन् वरपद्मलोचनः,
पद्माननवाश्रितपालाञ्छनः । सञ्चित्तपद्मामलपद्मलाञ्छनः,
पक्षाकरः स्वाच्छिवपद्मलाञ्छनः ॥६॥
(भुजङ्गप्रयात) भजन्ता प्रभुं चित्प्रदं श्रीसुपावं,
भवन्तो नरा नूनमानन्दपाश्वं । जिनं तप्तहेमस्फुरत्कान्तिपावं,
सता सातदं दम्भवल्ल्यग्रपाश्वं ॥७॥
(वसन्ततिलका) चन्द्रप्रभं जिन वदन्ति यके मनुष्या
त्वा सेवकेन्दुसशीकरणान्न दक्षाः भो चन्द्रसेवितपदाब्ज परंमयोक्तः,
स्वामिन्वत स्तवभकार-उकारयुक्तः ॥८॥
(तोटक) विवुधा प्रणुवन्ति जिनं सुविधि,
विविधप्रकटीकृतधर्मविधि । शिवमार्गविधानत एव विधि,
गुणनीरनिधि शिवदायिविधि ।।६।।
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संस्कृत स्तोत्रादि सग्रह
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(प्रमाणिका) विभु भजस्व शीतलं, सक्षशस्त्रशीतलं ? दरा निवारिशीतलं, जिनं विभिन्नशीतलं ॥१०॥
(विच न्माला) अर्हन्तं मूर्ना श्रेयास, वन्देऽह देवश्रेयासं । श्रेयः सत्कासारे हंस, हिंसं नोध्वान्तौघे हंसं ॥११॥
(मधुमाधवी) त्वा प्राप्य सर्वभुवनत्रयवासिपूज्य
मन्यात्क इन्छति सुराञ्जिन वासुपूज्य ! , कि कोऽपि कल्पतरुमीहितद विहाय,
ह्य च्छूलपर्णिन इहेसति सत्सुखाय ? ॥१२॥
(द्रुतविलम्बित) विमलनाथमशेपगुणाकर, विमलकीर्तिधरं च भजेवरं । 'विमलचन्द्रमुख जिननायक, विजयहर्पयशःसुखदायकं ॥१३॥
(स्रगधरा) . कीहक्ससार एपः प्रमितिकृतितया कीदृशः सिद्धिजीवः,
कीहक्षो राजशब्दः सुरनरनिचये जिष्णुनामाऽपि कीहक वाह्यार्थी वर्णबंधा द्विधिहरिगिरिशप्रस्तुतश्चारुधर्मा धर्माद्यः सर्वदर्शी स हि विशदगुणःपातु चातुर्दशोकः ॥१४॥
(मन्दाक्रान्ता) । यः सर्वेपाममित सुखदो य सदेच्छन्ति सर्वे,
तुल्यं येनान्यदिह न हि च प्राणिना यः पितेव ।
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३५६
धर्मवर्द्धन ग्रन्थावली
तस्यापि स्वाम्यसि जिनपते धर्मनाथाभिधाना,-- न्मन्ये तेनाहमिति हि भवच्छशो नास्ति कोऽपि ॥१॥
___ (शार्दूलविक्रीडितं) शान्तिः शान्तिमनाः स नाहितकरः सेवन्ति शान्ति बुधा---
स्तायन्ते मम शान्तिना सुमतयस्तस्मै नमः शान्तये । शान्तेः कान्तिधरो परो न हि सुरः शान्तेरहं सेवकः, शान्तौ तिष्ठति मन्मनश्चसततं शान्ते । सुसातं कुरु ॥१६।।
(स्रग्विणी) चिन्मयं मद्रदं कुंथुतीर्थकर विश्वविश्वेशमीडे मुदा शङ्कर । दुष्टकौवधूकांवकाहस्कर, पुण्यकृत्पुण्यसद्रत्न-रत्नाकरं ॥१७॥
(वसन्ततिलका) नाम्नीह यद्यरजिनस्य सदा श्रुते च,
नश्यन्ति लवरिजना हि किमत्र चित्रम् । आकर्णिते बत निनादभरे मृगारे
स्तिष्ठन्ति किं मृगगणा बलिनोऽपि बाढ़ ॥१८
(मालिनी) द्विजपतिदलभालं मल्लिनाथं सुभालं
प्रहतविपयजालं छिन्नदुःखाब्जनालं। अमितसुगुणशाल प्रातनिर्वाणशालं,
भविक-पिक-रसालं स्तौमि नित्यं त्रिकाल ॥१६॥
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संस्कृत स्तोत्रादि संग्रह
३५७
(सिंहोद्धता) राकेन्दुकान्तिमुनिसुव्रत वै त्वदास्यं, ___ दृष्ट्वा हि दृग्विकचपद्ममनोहरं च । संभावयन्ति मनसीति शुभा मनुष्याः, सद्राजतेऽब्जयुगलं विधुमध्यभागे ॥ २० ॥
(द्रुतविलम्बितं) नमत भव्यजनाः सततं नमि, नमित निर्जरमद्भुतकामदं । मदनपञ्जरभञ्जन द्विद्विज, द्विजपतिप्रवराननमीश्वरं ।। २१ ।।
(मन्दाक्रान्ता) यस्त्वं नित्यं किल रमयसे मुक्तिसीमन्तिनीञ्च,
तस्याः सङ्ग क्षणमपि समुन्मुञ्चसि त्वं न नेमे। सत्त्व सर्वे सुरन भुजगः कथ्यसे योगिनाथ, स्तेपा वाक्यं बत जिन कथं त्वां च संजाघटीति ।।२२।।
(कामक्रीडा) वामापुत्रं तेजोमित्रं दुःखौघागे मातङ्ग,
सच्छीकोप चेतस्तोप शोभावल्ली सारङ्गम् । दत्तानन्दं विद्यावन्द प्राण्याशाया कल्पागं, नित्योत्साह वन्दे चाहं श्रीपार्वेशं पुण्यागम् ।।२३॥
( पञ्चचामर) प्रवादिसर्वगर्वपर्वप्रभङ्ग भूरिरुट,
सुपर्वनाथ हैतिमीतिभीतिवार-चारकम् ।
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३५८
धर्मवर्द्धन ग्रन्थावला जिनेश-चर्द्धमान वर्द्धमान शासनं वरं, नमामि मामकीनमानसाबुजन्मषट्पदम् ।।२४||
( कलशः ) इत्थं संवद्रोजष्टिनगभूसज्ञेच दीपालिका
घस्र गुम्फित एप सातभरदस्तीर्थड्राणा स्तवः । सद्विद्याविजयादिहर्पकमलाकल्याण शोभाभर, तन्याहो वहुधर्मवद्धनवता सन्मानसाना सदा ॥२॥ इति चतुर्विशतिजिनस्तवनं पृथकाव्यजातिमयम् ।
अथ व्याकरण सना शब्द रचनामयं
श्रीमहावीर जिलबृहत् स्तवनम् यस्तीर्थराजस्त्रिशलात्मजातः सिद्धार्थभूपो भुवि यस्य तातः, वितन्यते व्याकरणस्य शब्दस्तत्कीर्तिरेवात्र यथामुदब्दैः ॥१॥
यो लेख शालाऽध्ययनाय वीरो,
विनीयमानः प्रयतः पितृभ्याम् । इन्द्रण पृष्टं सममुत्ततार,
सर्वेस्ततः शाब्दिक एष उचे ॥२॥ ततः परं यः परिणीयपनी,
संसुज्य सर्वानपि कामभोगान् ।
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संस्कृत स्तोत्रादि संग्रह ३५६ गृहात्परिव्रज्य चरित्रलोल्या-, ___ मन्ये विसस्मार स शब्दविद्याम् ।।३।। म तत्र संज्ञाविधिना समानैः,
सहाऽपि सन्ध्यक्षरता विधित्सन् । ये नामिनस्तेषु गुणञ्च वृद्धि
मवाधपूर्व युगपच्चिकीर्षन् ॥ ४॥ धित्सन् हसत्वं न हि निःस्वरेषु,
तथान्त्ययोर्व रसयो विसर्गम् । नाम्नः शत त्र्युत्तरमन्त्रयुञ्जन् ,
विभक्तिभिस्तस्य च नाशमाशु ॥५॥ लिङ्गत्रयोच्छेदमपि प्रकुर्वन् ,
न युष्मदस्मत्स्वपरापरत्वं । अग्रोपसर्गा व्यय कारकं च,
स्त्रीप्रत्ययं तत्र मनागपीच्छन् ॥ ६ ॥ वर्णम्य लोपं न तथा विकारं,
न वर्णनाशं च वदन्निरुक्तं । कदापि नो विग्रहकारकेपु,
प्रकल्पयन्नेव विकल्पभावम् ॥ ७ ॥ वर्णा विशुद्धार्थविभक्तयो ये,
तेपा समास न समीहमानः । सुखाऽव्ययीभावपदं यत्र
लिासुः सदा तत्पुरुपप्रधानः ॥ ८॥
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धर्मवर्द्धन ग्रन्थावली
द्वन्द्व बहुव्रीहिपरिग्रहादि
रूपं विरूपं च न कर्म धारयन् । शत्रावशत्रावपि न द्विगुत्वं,
यद्यद्वदस्तद्धितमेव लोके ॥४॥ नित्यं यथाख्यातक्रियाकृतो ये,
तान्सोपसर्गान्न चिकीर्षमाणाः । विभूञ्च भावं विजहच कर्म, न कर्मकत्तत्वमुशंस्तथोक्त्या ॥ १० ॥
( अष्टभिः कुलकम् ) विराजतेऽयं किल कामकुम्भः,
स्वामिस्तव प्राज्ययशः समूहः । नो चेत्कथं पूरयतीह नित्यं,
वाढं कवीना मन ईप्सितञ्च ।। ११ ।। सतः सवाभिनयं नयन्ती,
सरागरंगाय रभागरंगे । दिशं दिशं चारुशं दिशन्ती,
नन्नति कीर्तिस्तव नर्तकी च ॥ १२ ॥ म्विदयमाद्रियते सुगुणै सखे,
स्विदयमाद्रियते सुगुणानिति । सुगुणमैन्य हि वीर जिनाधिपं,
बुधजना विमृशन्ति भृशं मिथः ।। १३ ॥
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सस्कृत स्तोत्रादि सग्रह
३६१ राजानः स्वैर्ललाटरहरहरमिता यान्स्पृशन्ति प्रणामात् , ते राजतो नखास्ते जगति जिनविभो तान्यपि द्योतयन्ति । स्वामिस्तस्मादमीपा प्रवरमिह महाराज नामास्ति सत्तन्मन्त्र्येऽन्ये नखायामपि दधति महाराज संज्ञा मृपा सा ।। १४ यावल्लसन्तौ दिविपुष्पदन्तौ यावद् ध्र वस्तावदसौ स्तवश्च, कुर्यात्प्रकर्ष विजयादिहर्प सद्य क्तिलीलः शुभधर्मशीलः ।। १५ ।।
(१) समसंस्कृतमयं पार्श्वनाथ लघुस्तवनम् ससारवारिनिधितारकतारकाभ,
डिंडीरहीरसमसत्तमवोधिलाभ । आतंकपंकदलनातुलवारिवाह,
वामेयदेव जयभिन्न भवोरुदाह ।। १ ॥ जानामि कामित करं तव नाम देव,
तेनाऽऽगतोऽहमिह पादसरोरुहे ते। मा माऽवहीलय गुणालय सहयालो,
संतो भवन्ति निपुणाहि परोपकारे ॥२॥ मोहारिभूमिरुहभंगमतंगजाय,
संछिन्नतुगसमनोज मनोजवाय । मायाविवादिकुवलालिन वारुणाय,
भूयो नमो भवतु ते जिननायकाय ।। ३ ।।
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३६२
धर्मवर्द्धन ग्रन्थावली
वामागज दरभरागगज भजन्ते,
ते जन्तवो नव-नवोदयता लभन्ते भूमीरुहो हि समयामलयं वसन्तो,
गच्छन्ति किन शुभचन्दनता समेऽपि ॥४॥ इत्थ सदैव समसस्कृतशब्द शोभ,
यः पापठीति मनुजः स्तवनं यशोभवे । स बीयते विजयहर्पसुख सलीलः,
पाव शितु स्मरणतः शुभधर्मशीलः ॥ ५॥1॥
(२) पार्श्वजिनलघुस्तवनम् विश्वेश्वराय भवभीति निवारणाय
सताप-पादप निवारण वारणाय । सत्यक्तमाय सजलावुढनीलकाय,
तुभ्य नमोऽस्तु सततं जिननायकाय ॥१॥ सम्मोहमारुतसुरेशधराधराय ।
मुक्त्यगनाप्रणयपुञ्जकृतादराय । दुःकर्मकाष्ठ-भरकाननपावकाय,
तुभ्यं नमोऽस्तु सततं जिननायकाय ॥२॥ सज्जन्तु वाछितसुदानसुरमाय,
कंदर्पसर्पहरणे गरुडोपमाय ।
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सस्कृत स्तोत्रादि सग्रह
योगीश्वराय शिवशालिवने शुकाय,
तुभ्यं नमोऽस्तु सततं जिननायकाय ॥ ३ ॥ दारिद्रय-रेणु भर-सहरणाम्बुदाय,
सम्पत्ति-सिद्धि सुयशः सुखबोधदाय । आजन्मदुःखगणपल्लवलावकाय,
तुभ्यं नमोऽस्तु सततं जिननायकाय ।।४।। देवाऽसुरप्रणतपाद सरोरुहाय,
कुन्देन्दुमण्डलसमुज्ज्वलचिद्गृहाय । निःसंख्यदुःखदगदक्षय कारकाय,
तुभ्यं नमोऽस्तु सतत जिननायकाय ।। ।। पूर्णक्षपारमण शुभ्रकलाकलाय
सत्कीर्ति संभृतदिगीश्वरमण्डलाय । लीलाऽऽलयाय विकचाम्बुरुहाम्बकाय,
तुभ्य नमोऽस्तु सततं जिननायकाय ॥६॥
, (कलश )
इत्थं विश्वयमश्वसेननरराड-वशाजघस्राधिपं, सद्वामोदर शुक्तिमौक्तिकनिभ कल्काग भङ्गद्विपम् । श्रीपाश्वं विजयादिहर्प सहिताः स्युः सस्तुवन्तो नराः,
पार्श्वेश बहुधर्मवर्द्धनधनं चिद्रनरत्नाकराः ॥७
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वर्मवद्धन अन्यावली
(३) श्रीपार्श्वजिनवृहत्स्तवनम्
वाञ्छितदानसुरद्रुम तुभ्यं, नम ए कुरु सौख्यानि लसन्ति ।
__ जय जय जगतिपतेः ॥१॥ नव नव नवनमहर्निशममलं, यश ए तव कवयो गायन्ति ।
जय जय जगतिपतेः ॥२॥ इक्ष्वाकुकुल-कमलाकरवर भास्कर ए अश्वसेनवंश-वतस
जय जय जगतिपतेः ॥३॥ वामामातृवामोदरमानस सर ए तत्र मनोरमहंस,
जय जय जगतिपतेः ॥ ४ ॥ धन्यतरं तदहो अहस्त्रिभुवन मह ए तव शुभ-उद्भव आस,
जय जय जगतिपते, ॥ ५ ॥ ववधे प्रियमनोरथ इव सुखभिव दिव ए वर राज्यं विललास,
जय जय जगतिपतेः ॥ ६॥
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संस्कृत स्तोत्रादि संग्रह
ज्वलदहियुगल वहुहित मत्रदानत ए इन्द्रपदं नयसिस्म
जय जय जगतिपतेः ॥७॥ नमीकृतशक्रव्रज राज्य-- रज ए त्व तूर्ण त्यजसि स्म
जय जय जगतिपते ॥ ८ ॥ मोहलता दलन द्विप बहुलं तप ए चारुतरं च चकर्प
__ जय जय जगतिपतेः ॥४॥ लध्वा केवलसंपदः शिवपद सद ए त्वं श्रीपार्श्व वभर्थ,
जय जय जगतिपतेः ॥ १० ॥ सौख्यं बहुभिरवाप्यत तवनामत ए कामितदायक देव
जय जय जगतिपतेः ॥ ११ ॥ श्रीधर्मवर्द्धन पेहत तव मतरत ए त्वं प्रभुरेधि सदैव
जय जय जगतिपतेः ।। १२ ।। श्रीपार्श्वजिनवृहत्स्तवन संस्कृतमयं तालमध्ये गेय ।
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धर्मवद्धन ग्रन्थावली
(४) चतुरक्षर-पार्श्वस्तवनम्
(कन्या छन्द) भो भो भव्याः कीत्तिस्तव्याः नव्या नव्या, जनी श्रव्यां ।। १ ।। प्रत्यूपेनः, श्रीपार्श्वनः यो ज्ञानेन, प्रनन्नव ॥ २ ॥ ध्वस्तद्वंद्व, सम्यक्स, त्यक्त्वाव्यध्वं, तं वंध्य ।।३।। यः श्रीकाश्या, वाणारस्या पुऱ्यांमस्या, स्वश्रेयस्या ॥४॥ अश्वात्सेनः, श्रीभूपेन ईतिस्तेन, स्तद्राज्येन ॥ ५॥ तत्स्त्रीमुख्या, वामाभिख्या तस्याःकुक्ष्याः , पुत्रो न्युष्यात् ।।६।। चेतोऽन्तर्व, न्यस्तोऽखवैः । ग्लायद्गर्वै-देवैः सर्वैः ॥ ७॥ पुण्यप्राज्यं, भुक्त्वा राज्यं तत्साम्राज्यं, ज्ञात्वा त्याज्यं ॥८॥ यः संसार, त्यक्त्वा भारं साध्वाचार, चक्र सार ।। ।।
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सस्कृत स्तोत्रादि संग्रह अन्यापोह, ध्यात्वा सोऽहं श्रेण्यारोह, क्षिप्त्वा मोहं ।। १० ।। तचाचल्यं, हत्वा शल्यं प्रापत्कल्यं, यः कवल्यं ॥ ११ ॥ द्व' आयात-स्तत्सेवातः श्रीविद्यातः, सातत्रातः ॥ १२ ॥ तव्याख्यानं, तस्य ध्यानं तत्त्वज्ञानं, भूयात्प्यान ॥ १३ ।। अन्याऽनीह, स्तद्भक्तीहः,
धर्मात्सीह-स्तं स्तौतीह ।। १४ ।। इति श्री चतुरक्षरायाप्रतिष्ठायाजातौ कन्यानाम छंदोवृहतम्तवनं
(५) पावलघुस्तवनम्
(द्रुतविलम्बितछन्दः) प्रवरपार्श्वजिनेश्वर पत्कजे, '
भयहरे भविभावुकदे भजे । य इमके न कदापि नरस्त्यजे
तमिह सद्रमणीवरमासजेन् ॥ १॥ उदितमेतदहः सफल नशं,
सफलना च नयामि तथा दृशं । जिनप दर्शनतो भव एप मे
सफल एव गुणाः सफलाः समे ॥ २॥
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३६८
धर्मवर्द्धन ग्रन्थावली
जरिहपीति विलोक्य सना जिनं
मम मनोऽत्र शिखीव घनाघनं । मिलति वै यदि वाञ्छितदायक
स्तमनुसृत्य न वष्टि सुखाय कः ॥ ३ ॥ लघुवया अपि यः सवयाः सता
निजगुणैः प्रवभूव तनूभृता। अहियुगाय यकोज्ज्वलते ददे
सुरपद स जिनो भवतां मुदे ॥ ४ ॥ शमदमादिगुणैरति सुन्दर
स्तव जिनेश विराजति सवरः । परिभृतो मणिभिः सुयशश्चणः
। क्षितितले किमु भाति न रोहणः ।।५।। तव यशश्च गुणान्निगमं पदं,
वचनतो मनसस्तनुतो मुदः । वदति वेत्ति च विंदति वंदते,
विधिरयं जिन यस्य स नन्दति ॥६॥ गुणचनो भुवि पार्श्वजिनेश्वरः
सम इहाऽस्ति न येन परः सुरः। जित इनो महसा यशसा शशी ___ नमति तं सततं मुनिधर्मसी: ॥७॥ इति छेकानुप्रासपादान्त-द्रुतविलम्वित छन्दोमर्य
पार्श्वजिनलघु-स्तवनम्
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संस्कृत स्तोत्रादि सग्रह
३६६
(६) श्रीपावलघुस्तवनम् भजेऽश्वसेन-नन्दनं मुहुर्विधाय वन्दनं,
न रागिणो हि के नरा इने जिने सुदृग्धराः ॥१॥ सता विपश्चिता मता सदेव सुप्रसादता,
विधेहि पार्श्वदेवते मयि क्रमाब्जयो रते ॥२॥ अभीष्ट युष्मया मया प्रवृत्य ते त्वदाज्ञया,
न दद्यते कृपोदयाद्विभो ममोद्यता अयाः ॥३॥ चरीकरीति ते यशः प्रससरीति तद्यशः,
वरीवरीति ते पदं स वर्वरीति ते पदं ॥४॥ समस्तदुःखनाशनं विभो तवानुशासनं,
तदस्तु मे पुनर्धनं सुजैनधर्मवद्धनं ॥५॥
श्री ऋषभदेव स्तवनम् जय वृपभ वृषभवृपविहितसेव, सेवकवाञ्छितफलफलद देव । देवादेवाचितपादपद्म, पद्माननपूरितभूरिपद्म ॥१॥ पद्माङ्गजमदगजगजविपक्ष, पक्षीकृतजगदुपकारलक्ष । लक्षितसमलोकालोकभाव, भावितसूनृतसुगुणस्वभाव ॥२॥ भावारितमोभरतरणिरूप, रूपस्थित रूपातीत-रूप । रूपित सद् यज्ञसुधर्मशील, शीलित शाश्वतशिवसौख्यलील॥३॥
२४
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३७०
धर्मवर्द्धन ग्रन्थावली
नवग्रही-न्यायपरीक्षा सख्ये सत्यपि दहना द्रक्षति यन्नं विचक्षणा त्रयथा। ग्रहराजो ग्रहराजी हिमाशुमंगारकादर्वाक् ॥१॥ शीताद्विभ्यति सर्व शीतातिर्भवति दुःसहा सततम् । अङ्गारकमुष्णाशुं तत्तिष्ठत्यन्तरा हिमरुक ॥२॥ यत्रायाति कुपुत्रो जनयति वैरं हि जनकपुत्राणाम् । यद्विग्रह गृहालौ सोऽयं सोमस्य सौम्यस्य ॥३॥ निवसति यद्यपि दैवाद् नः क्रूराक्ररयो द्वयोर्मध्ये । सत्प्रकृतेरनुभावाचः सौम्यः सौम्य एव स्यात् ।।४।। गुरुरधिकः सर्वगुण गुरुसेवा नैव निःफला भवति । समया गुरु वसन्तौ ग्रहावुभौ बुधकवी जातौ ॥५॥ तारुण्ये सति शुक्र वोभूयन्तेऽसमे शुभा कामाः । क्तदभावे तदभावाच्छुक्रवल को न कामयते ।। उच्चपदादिस्थित्या पितुरुक्त्याचलति वैपरीताद्यः । सत्याभिधो बुधोक्त्या सन्दो मत्या पुनर्गत्या || पण्यमृत पेन्तु तुदति सुधाशु विधु तुदः साक्षात् । लप्ट्वास्वादो लोके शी छिन्नेऽपि न हि तिष्ठन् ॥८॥ स्वस्वामिनं विनाऽपि हि निजशक्त्या कार्यसिद्धिमातनुते । किं नो कवन्धरूपः केतुः स्तुत्यो ग्रहश्रेणी ।।६।। श्रेष्ठा सुवर्णरचितां नवग्रहीं मुद्रिका सुधर्ममतिः । प्रीत्या परीक्षमाणाः परीक्षते तत्त्वरत्नानि ||१०||
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सस्कृत स्तोत्रादि सग्रह
३७१
शान्तिनाथस्तवनम्
स्तुवन्तु त जिन सदोपकारतालताधनं,
स्वदेहदानतो यको ररक्ष रक्तलोचनम् । प्रसूदर स्थितेन सच्छुनंयुता प्रयुजिता,
त्वरा निजाःप्रजाज्जा राजा विवर्जिताःकृवाः १ अवाप्य येन जन्म चक्रवर्तिता प्रतिता, जगत्प्रभुत्वमाग्य कीर्तित्र्तिकी च नात्तता। अभीष्टदा दिवस्तरुर्घटो मणि स्त्रयोऽप्यमी, अनुत्वका तकास्तु सेवते सना सना भ्रमी ।। २॥
स्वकीयसेवकाय यः सुखं ददाति सत्वरं,
ततो मुदा तमाचिरेयमाचिरेयमीश्वरं । नमो नमोऽस्तु ते त्वया समो न कोऽप्यहो ऋभुः
सुधर्मशीलने भवेभवेस्त्वमेव मे विमुः॥३॥
-:
:
(७) श्रीगौडीपार्श्वनाथस्तवनम् प्रणमति यः श्रीगौडीपावं, पद्मा तस्य न मुञ्चति पावं, सुगुणजनं सुषमेव । कीर्तिस्फूतिरहो ईदृक्षाः यस्यजगति जागति समक्षा, ननमीह तमेव ।। १॥
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३७२
धर्मवर्द्धन ग्रन्थावली
सद्भक्त्या भक्तलोका जिनवरंभवतो यत्र यत्र स्मरन्ति, साक्षात्तेषां समेषां वरमिह हि मुहुर्वाञ्छितं त्वं विधत्से । यात्रामायान्ति तत्ते कति कति च मया प्रत्ययाश्चात्र दृष्टा, हया मे चिक्त्वृतिस्तत इत इत आः कामये नान्य देवम् ॥ २॥
(प्राकृतचित्राक्षराछन्दः ) विविह सुविहिलच्छीवल्लिसंताणमेहं,
सुगुणरयणगेहं पत्तसप्पुण्णरेहं । दलियदुरियदाहं लद्धससिद्धिलाह, जलहिमिव अगाहं वंदिमो पासनाहं ॥३॥
(मागधी) शुलपुलनलवललुचिलविनिलमिदपलमानन्द,
सकलशुभाशुभशेविटपदशलशीलुहवंद । कलुनाशागल कुलकमलालिदिनेशलदेव, चलनशलोजमहं पनमामि निलंतलमेव ।।४।।
( सौरसेनी) - दटिनीदारनदरनपोय, दुरिदोहहुदासन-अदुलदोय। सपूरिदजगदीजंदुकाम पूरयमह वंछिद पाससामि || ||
(पसाची) तुहताहतवानलनासघनं, सुहतानसुकोवितगीतगुनं । धरनीसकनीस नत सात, नम पानजिनं सुसुहं तततं ।। ६ ।।
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सस्कृत स्तोत्रादि सग्रह
३७३
(चूलिकापसाची) मतनमतसरवनवनदहनपावक,
सिद्धिसुभजुवतिसिंगारवरजावकं । जो हु तुह चलनजुकमचते सततं चकति सव्वे चना पास पनमंति ते ॥७॥
(अपभ्र सिका) तुहु राउल-राउलह सामि हु राउल रकह,
हिणसु दुहाइ सुहाइ कुगु सुमइ मा अवहीरह । पिक्खइ जुगु अजुग्गु ठाणु वरसतउ किं घणु,
पत्तउ पड़ जड होसु दुहियसा तुह अवहीरणु ॥८॥
(समसस्कृत) सज्जन्तु कामितविधाननिधानरूपं,
चित्त धरामि तव नाम सुगेयरूपं । इच्छामि कान्त मिदमेव भवे भवेऽह,
वामाङ्गजेह गुणगेह सुपूरितेहं 18 इम अरज अम्हारी ता हि पक्षीकुरु त्व,
गिणइज हित कीधु तस्य सत्यं गुरुत्वं । हिव मुझ सुख आपो, सा तवैवास्ति शोभा,
तुझ विण कहि स्वामी कस्य नो सन्ति लोभाः ॥१०॥ स्वर्भापा संस्कृतीया तदनु प्रकृतिजा मागधी शौरसेनी,
पेशाची द्वय गरुपाऽनुसृतविधिरपभ्रांसिकासूत्रवाक्यः ।
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धर्मवईन ग्रन्थावली
पड्भिर्वाग्भो रसर्वा स्तुति सुरमवती-निर्मिता पार्श्वभत्तः,
श्रीधर्माद्वद्वनेनामितसुकृतवता हादसुस्वाददास्तात् ।।११।। इतिश्रीगोडीपार्श्वनाथस्य स्तवन पदभाण समसस्कृतादि
चातुमय श्रेयः क्रियान्
watsar(८) श्रीपाधिीशितु वृह स्तवनम्
सर्वश्रिया ते जिनराज राजतः,
श्लोकोरित शुल्को गिरिराज-राजतः । अर्घप्रदानैरपि राजराजतः
त्वत्कोऽतिरेको भुवि राजराजतः ॥१॥ स्मरणं कुरुते सदा यक
स्तव तस्मै सुखवासदायकः । त्वमसि प्रभवे सदायकः
प्रणमन्नेश भवेत्सदायकः ॥२॥ शुभहक . तव नाथ सेवक,
नयते वाञ्छितमेव सेवकं । विबुधै विहितैकसेवक,
त्वहते वश्मि हि मानसे वकं ॥३॥ तव ये चरणेऽत्रनामिनः
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सस्कृत स्तोत्रादि सग्रह
स्युरहो ते तु कदापि नामिनः । मणिमाप्य मुनीश नाकिनः,
किमु चित्र हि भवन्ति नाकिनः ॥४॥ जिनपार्श्वसुनाम तावक,
शरण यः श्रयते न तावक । न पराभवितुं हि कोऽपि त, प्रभविष्णुः क्षितिपोऽपि कोपितं ॥५॥
परिहत्य वसुस्त्रियौ वने, निवसन्तीश यके हि यौवने । हृदि यैर्निहितं न नाम ते,
विदधीरन्सहितं न नाम ते ॥ ६ ॥ गमित नरजन्म देवन
हदि मे तेन कदापि देव नः । तदहं परवश्यतां गतः,
परसेवा च मया कृतागतः ॥७॥ शुभवता भवता सुकृता कृताः,
कतिचिदूर्ध्व जगत्प्रभुतामृताः । कतिचिदीश महोदयतायता,
मम विधौ विहिता लसता सता ।। ८॥ मम सदा नतनिर्जरवारके,
त्वयि विभौ सति पापनिवारके ।
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धर्मवद्धन ग्रन्थावली इह जिनाधिपदुःपमवारके,
किल मया किमऽदायि न वारके ॥४॥ राका भवानिव भवानिह भात्यतोऽपि,
श्रेष्ठाः स्तुवन्ति शुभवन्तमहो भवन्तं । छिन्नार्तिराप्तभवता भवतापकी,
तस्मै सदाऽत्र भवते भवते नमः स्तात् ।। १०॥ देवोऽधिकः प्रभवतो भवतो न कोऽपि,
सेवाज जिष्णु-भवतो भवतोऽतिरम्या। सद्भक्तिरा भवति यं भवति प्रक्लप्ता,
प्रोप्तातया शिवफला जिनधर्मसीता ।। ११ ।।
श्रीनेमिस्तवनम्
जिगाय यः प्राज्यतरस्मराजी,
तत्याज तूण रमणीश्च राजीम् । राजेव योगीन्द्रगणे व्यराजीद्
देयात्स नेमि वहुसौख्यराजीः ॥१॥ निजकुलकुलरत्नं वाञ्छितार्थच रत्न,
तमसि गगनरत्न चित्कला रात्रिरत्नम् । नमितसकलदेवः क्रोधदावैकदेवः,
प्रभवतु सुमुदे वः सतत नेमिदेवः ॥२॥
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सस्कृत स्तोत्रादि सग्रह
३७७
(६) श्रीपार्श्वस्तोत्रं
(द्विहसं शालिनी छंद ) तवेश नामतस्त्वरा दरा भवन्ति गत्वराः,
प्रसृत्वरा रवेकरास्ततो यथा तमो भराः ॥१॥ अधोत्कराश्च नश्वरा धरेश्वराद्धि तस्कराः,
स्थिराः स्युरिन्दराभराः स्वमन्दिरान्न हीत्वराः ॥२॥ प्रभोः स्तवेषु तत्परा नरा जगत्सु जित्वराः,
तकेपु तत्परा दरा दरातयोऽपि किंकराः ॥३।। विधीयता जिनेश्वराऽऽशु पार्श्वहक्कृपापराः, प्ररायतां तरा व्वरा ममापि धर्मशीलराः ॥४॥
पञ्चतीर्थ्याः पंचजिन स्तोत्रम्
(प्रमाणिकाछदः)
योऽ चीचलदुश्च्यवनोरसि स्थितः
क्रमाङ्गुलीतः किल कर्णिकाचलं । स्वनाम चचुश्च चरिक्रियादयं,
स श्रीमहावीरजिनो महोदयम् ।। १ ।। अर्कः शुभोदर्कमतर्कितश्रिय,
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३७८
धर्मवद्धन ग्रन्थावली
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जैबातृकः प्राति जयं यशः क्रियम् । मोमो भिनत्तीतिमनीतिजा भियं,
बुधो ददातीह बुधाञ्चिता धियम् ॥२॥ गुरु गुरु ज्ञानगुणं विधत्ते, काव्यः कला काव्य कलाञ्च दत्त ।।
शनिः शुभं राहुरय शिखीश, नुः सेवितु यच्छति वीरमीशम् ॥ ३ ॥ एवं सेवा दधतः पञ्चजिनानां स्तवान्प्रपञ्चयते । ते सौख्यानि लभन्ते भव्यश्रीधर्मशीलभृतः ॥ ४ ॥
अष्टमङ्गलानि
स्वस्तिकं चारुसिंहासनं कौस्तुभं,
कामकुम्भः सरावादिमसंपुटं । मत्स्ययुनल सुखस्यार्पणं दर्पणं,
नंदिकावर्तकं मङ्गलान्यष्ट वै ॥१॥
चतुर्दशम्वप्नाः
श्वेतेभो वपभो हरिश्च कमला स्यात्पुष्पमालाद्वय,
पूर्णन्दुश्च दिवाकरो ध्वजवरोऽभःपूर्णकुम्भःमरः ।
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सस्कृत स्तोत्रादि सग्रह
३७६
क्षीराधि विविध विमानभवन सद्रत्नराशिमहान, निधूमा निरिसे चतुर्दश शुभाः स्वप्ना मुदे सन्तु वः।।१।।
गीर्वाणसिन्धावहिमगिनो वहून्,
नन्तं समालोक्य रुपा गरुत्मान् । जघान गगाम्वु-शुभप्रभावा, चतुर्भुजीभूय वभूव तत्पतिः ॥१॥
ENLear शीघ्रमागच्छ भो शिष्य, मम पादौ निपीडय, परिचर्याप्रसादेन, त्व प्रवीणो भविष्यसि ॥१॥
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(१०) श्रीपाश्र्वनाथस्तोत्रम्
प्रसर्सति पार्वेश विश्वे यशस्ते,
विशस्ते तु धन्या पदाव्जस्पृशस्ते, मदीयाऽपि लोला, स्तुतौ तेऽस्तु लोला,
विदोलायमाना भ्रमादत्त मा भून् ॥१॥ बुधास्ते सपऱ्यातया 'चारुता ,
भवाब्धि प्रती- भजान्सद्विपुर्य्या ।
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३८०
धर्मवर्द्धन ग्रन्थावली अह तेऽनुभावं समारुह्य नावं,
तितीपुर्विभावंश्रितस्त्वा मुदाऽवं ।।२।। न केनाऽपि केनाऽपि भोगादिना मे, वशाया रिरसा निनंसोस्त्वदं ही।
विनेता तवेशास्मि नेतासि मे त्वं,
रमा धर्मशीलप्रमा देहि मह्य (१) ॥३॥
इति श्रीपार्श्वस्य लघुस्तोत्रमद कोविदसद प्रशस्यं ।
श्री बीकानेरमध्ये श्रीआदीश्वरमूर्ति स्तोत्रं
प्राज्या चरीकति सुखस्य पूर्ति,
यका जरीहर्ति च दुष्टजूति । मद्रश्च मोमूर्ति सुभक्तमूर्ति,
ता वीकपुर्या नमतादिमूर्ति ।।१।। इष्टार्थपूत्तौं घु घटी वरीयसी,
जाड्यात्तिहानावपटीपटीयसी, गिरीसभेयं प्रतिमा गरीयसी,
स्थिरा स्थिरावद् भवतास्थवीयसी ॥२॥ 'एनाजिनेनागसमा शयद्वयं,
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संस्कृत स्तोत्रादि सग्रह
३८१
.
वयं
ललाट आधाय विधाय सल्लयं ।
च यूयं शुभधर्मशीला, भजाम भव्या विलसामलीला ॥३॥ इति श्रीऋषभदेवस्तवनम्
समस्यामयं श्रीमहावीरस्तवनम्
श्रीमद्वीर तथा प्रसीद सततं मे स्यादियं भावना,
संसारं तु वरं च जीवितमथो त्वदर्शनात्क मन । भोगान् सर्वकुटुम्बकं क्रमतया जानामि पक्वेतर
"जम्बूवज्जलबिन्दुवज्जलजवजंबालवज्जालवन्" ॥२॥ स्थाने तज्जिननूयसे बुधजनस्त्वं दुष्टकष्टापहो,
भ्रान्त्या भुक्तविपं त्वगाधमुदक शत्रूछूितं शस्त्रकम् । दावाग्निः प्रबलो महाँश्च निगडस्त्वन्नामत स्यात्क्रमा
जम्बूवज्जलबिन्दुवज्जलजवज्जबालवज्जालवत् ॥२॥ सोऽपि त्वा प्रणनामय शिवमते श्रीशैवराजो मुनि__ येनामी लवणाम्बुधिप्रभृतयो दृष्टा हि सप्त क्रमात् । क्षीरोदोदधिभृद्धृतोदकइराभृच्चेक्षवा स्वादुव,
अम्भोधिर्जलधि पयोधिरुदधिर्वारानिधिर्वारिधि ॥३॥ ये त्वा श्रीजिन संश्रयन्ति हि जनास्ते स्युजिनाख्याधरास्तद्य क्तं जलपर्यया इव विमा प्राप्ताऽधिरित्यक्षरं ।
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धर्मवीन ग्रन्धावली पयाया स्युरुदन्वता बुधजन सगृह्यमाणा अमो;
अम्भोधिर्जलधि पयोधिरुदधिर्वारानिधिवारिधि ॥४|| जिन भजता मिति झल्लरीयं, प्रवक्ति लोकानिव वाद्यमाना।
वृद्ध्वनेरर्थत एव ठस्य, टंठंठठंठंटठठठठठः।।६।। दान तपः शीलमशेपपुण्य, ज्ञानञ्च विज्ञानमपीह भावः । त्वन्छासनेनेश विना कृततत्, ठठठठठंठठठंठठंठः ॥॥ जिनवचन मिद तेऽनन्तकृत्वोऽधिकारे,
प्रययुरणुनिगोदं ज्येष्ठपञ्चेन्द्रियाश्च । युगपदिह विपच स्यात्कदाचिन्न चित्र, ___ मशकगलकमध्ये हस्तियूथं प्रविष्टम् ॥७॥ मन इदमगुरुपं न्यायसिद्ध मदीयं,
मदमदनमतंगा यान्ति तन्मध्यदेश । अहमिह किमु कुर्य्या देव साक्षादजय्यं.
मशकगलकमध्ये हस्तियूथं प्रविष्टम् ||८|| नवन नमनं मह्न वचनं, कुरुते कुरुते कुरुते कुरुते ।। तव यः स यशः शिव मा च सुखं, लभते लभते लभते लभते ।।६।। दीव्यदीधिति दिक् चतुष्कसदृशंभामण्डलपृष्ठतः
__ कृत्वाऽऽसीनमहो चतुमुखविधुश्रेष्ठाऽऽस्य नंतु त्वकां । आयातः स्मयदा विमानसहितौ श्रीपुष्पदन्तौ तदा,
चन्द्राः पञ्च तथैव पञ्च रवयो दृष्टा जनै भूतले ॥१०॥ पुण्या ते प्रकृतिः प्रभो परसुरो वाई मदाढ्य सदा,
सद्रव्योऽपि निराश्रयोऽसि मदनानीकपरिनन् स्फुट ।
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सस्कृत स्तोत्रादि सग्रह
३८३
इष्टं मृटतरं च वर्णनमथो प्रस्तूयते ते क्रमाद्गंगावद्गजगण्डवद् गगनवद्गागेयवद्गेयवत् ।।११।।
(कलशः) इत्थं वांञ्छितदानदैवततर्यः शासनाधीश्वरः ।
श्रीवीरः शिवतातिराततयशाः श्रीधर्मतो वर्द्धनः, नूतो नूतन नूतन घु तिमयः काव्यैसमस्यामयै
ये ध्यायेयुरिमं जिनं जगतितेस्यु जन्तवः कन्तवः ॥१२॥
। व्यस्त-समस्त मध्योत्तर प्रश्नमय काव्यम् के पत्यौ सति भूपणोत्सवधराः १, श्रेष्ठास्तु के प्राणिपु ? सर्वत्रादरता लभेत भुवि कः ? के बन्दिना स्युगृहाः ? का का भाग्यवता भवत्प्रतिपद ? के कांदशीकागिना ? के धन्या निज संपदा विलसने ? "दानप्रकारादराः" ॥१॥ धान्यावर्थ उदूखले भवति का स्वाा समेषा च का ? कार्या नत्रजन गुरौ लसति का शोभा च राज्ये तथा ? सप्तास्यस्तरणे रथ वहति कः ? सव्वंसहा का स्मृता ? कुग्रामे वसता सता भवति का ? "सुज्ञान नीवीक्षितिः" ॥२॥
रामे १८ऽर्था त्वं संबोधय कामकेशवविधी-शानश्रियःस्वं मम, दातृणा च हरौ सदाऽत्र भवताच्छीतापतौ सुन्दरि!
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३८४
धर्मवर्द्धन ग्रन्थावली
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किं धातुत्रयमत्र कीति वभो त्व वन्हिबीजं व्रज, विश्रामेप्यविशंश्रिते मुहुरहो उक्तेऽपि कि मुह्यसे ।।१।।
गी वीणा तत्रिकैका वरचिवुकसृता सूचिका सनसाना, कूपानां वाम्पनाशाश्रुतियुगलशामूर्द्धमूर्द्धा पुरश्रीः । तस्मिन् वासश्चकासज्जिन तव सुयशो गागवाहस्तदित्य, सूच्यग्रे कूपपटकंतदुपरि नगरं तत्र गङ्गा प्रवाहः ।।१।। तिलमिव लघु चित्त स्नेहयुक् तत्प्रदेशे, निवमति किल हीनाझीव तृष्णातिकृष्णाः । मयमिव मदनं सा सूतमे ऽभूत्तदित्यं, तिलतुयतटकोणे कीटिकोष्ट्र प्रसूता ।।२।। तवेशाऽत्यम्यं धर्मशीलोपदेशो, भवाब्धि तितीयु भवेद्यो हितेन ।
रतिश्चारतिश्चातिनिन्दातिकृष्णा
समस्या समस्या समस्या समस्या ॥३॥ प्रवति विश्वे जिनस्योपदेशो,
भवाब्धि तितीप भवेद्यो हितेन । रतिश्चारतिश्चातिनिन्दा तितृष्णा,
समस्या समस्या समस्या समस्या ।।४||
२ जात तदित्य
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सस्कृत स्तोत्रादि सग्रह
३८५
अथ कतिचित्समस्यापदानि पूर्यन्ते
["दर्श पूर्णकल च पश्यति विधुबन्ध्यासुतोऽन्धो दिवा" इति समस्यापद श्रीमाल विहारीदासस्य पुरतो भट्टेन प्रदत्त । यथा
प्राग दुःकर्मवशान्मृतस्वजनकं कञ्चिद्गताक्ष शिशु,
वन्ध्या काचिदपालयन् नृभिरतः प्राख्यायिबन्ध्यासुतः। मध्याह्न शयितः स दर्शदिवसे पूर्णेन्दु मेक्षिष्ट तद्दर्श पूर्णकलं च पश्यति विधु बन्ध्यासुतोऽन्धो दिवा ॥१॥
["मंदान्दोलितकुण्डलस्तवकया तन्व्या विधूतं शिरः” इति समस्यापदं भट्टदत्त पूर्यते भाऽऽवश्यककार्यतः प्रवसता प्रावाचि पत्न्याः पुरो,
मासान्ते त्वमहं च धामनि निजे द्रक्ष्याव इन्दु नव । रुच्ये तावदसगते सखिजनै द्रष्टु विधं प्रोक्तया,
मन्दान्दोलितकुण्डलस्तवकया तन्व्या विधूतं शिरः ॥१॥ अन्यच्चसाधना पुरतो मयाद्य विधिना धमः समाकर्णितः,
पत्युक्त वचनं हिताच्च वनिता श्रुत्वाऽऽशुहृष्टा वर । त्वं चेन्मा वनिते वदेरथ तदा गृहामि साधु व्रतं,
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धर्मवर्द्धन ग्रन्थावली
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मन्दान्दोलितकुण्डलस्तवकया नव्या विधूतं शिरः ॥२॥
"प्रथमकवलमव्ये मक्षिकामन्निपातः" इति समस्यापदं उपाध्यायविनयविजयदत्त तत्पूरित पण्डितवमसीकेन] परिणय जनताया याति यो भाग्यहीनः
स्वदनमतुलपड क्तो रोपमाधाय तिष्टन् । यदि कथमपि भोक्तु मस्थितस्तत्र जातः,
प्रथमकवलमध्ये मक्षिका सन्निपातः ॥१॥ उपसि कृपणनामाऽ ग्राहि जातं फल तद्
द्रुतमजनि जनैः स्वैराटिरुद्वगता च । कथमपि यदि जग्धिः प्रापि तत्रापि जातः,
प्रथमकवलमध्ये मक्षिकासन्निपातः ।।२।। क्वचिदपि समये स्याच्चित्तभङ्गो जनस्य
तदुपरि विफलाम्न्यु मिष्ट्रसत्कारवाचः । परिणमयति किं वै शेषतत्काल भुक्तीः,
प्रथमकवलमध्ये मक्षिकासन्निपातः ॥३॥ यदि हि जननलन्न स्यादशुद्ध प्रमादान्, __ तदुपरि न फलाय स्पष्टभावाधिकारः । किमुपरितनमुक्ति प्रापयेत्सत्फलत्वं,
प्रथमकवलमव्ये मक्षिकासन्निपातः ॥४॥
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सस्कृत स्तोत्रादि सग्रह
३८७
["विद्युत्काकेन भक्षिता" इति समस्यापदं राजसारै ढक्त यं धर्मसिंहेन पूर्यते]
आयान्त नायकं वीक्ष्य, श्यामया श्यामवाससा । रुद्धा सीमं तरु-किंवा, विद्य त्काकेन भक्षिता ॥१॥ प्रेरितेन भृश पत्या कस्तूरीचूर्ण मुष्टिना । छन्ना रदच्छदाभा किं विद्य त्काकेन भक्षिता ।।२।। प्रसह्य खण्डिके क्षिप्ता सद्य ति द्धरणीसुता । (?) रक्षसा रावणेनाहो, विच त्काकेन भक्षिता ॥३॥ आजग्मुषी छलं कत्तु, श्रीजिनदत्तसूरिणा । कृष्णामत्रेणरुषोत विद्य काकेन भक्षिता ॥४॥ त्वत्खनखण्डितस्यारेः पेशीराजन्यदाऽपतत् । मद्वर्णद्वपिनीयं वै, विद्युत्काकेन भक्षिता ।। ५ ॥ राजस्त्वद्वरिनारीभी रुदतीभिरधोमुखं । धौताञ्जनेन पत्राली, विद्युत्काकेन भक्षिता ।। ६॥
( इति समस्यापट्कमहमदावादमध्ये पूरितं )
["मत्सी रोदिति मक्षिका च हसति ध्यायन्ति वामभ्र वः" इति व्यास-सतीदास-दत्तं समस्यापद पूर्यते-]
श्रीकृष्णोऽम्बुधितश्चतुर्दशभुश रत्नानि निर्वासय, मासानेहसितत्रशक्तशफरः शुण्डाघटो निसृतः ।
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धर्मवर्द्धन ग्रन्थावली म्बस्वभू शवशादपूर्वलभनाद्वीतिप्रतीतेः क्रमात्मत्सी रोदिति मनिका च हसति ध्यायन्ति वामन वः ।। राजन्नाजिविधी त्वया निजरिपुर्व्यापादितस्तच्छिरो. लात्वोडीय जगाम गृध्र उत नभृप्टं च नद्या बहन । बाग्र्घट्टै किमिति स्त्रियस्तिमियुत तन्निश्चकपुस्तदा,
मत्सी रोदिति मक्षिका च हमति व्यायन्ति वामभ्र वः ।।२।।
वृक्षे झौद्रमसख्यमक्षिकमिहा रुक्षन समीक्ष्य स्त्रियो, द्रागुन्मूल्य सरिद्रयोद्रुममिलद् द्रुत्वामितद्बुद्रुत । पीताब्धिश्च पपौ जलं स्थलतया गामजनाच्चित्रतो, मत्ती रोदिति मक्षिका च हसति ध्यायन्ति वामभ्र वः ॥३॥ कासाराम्भसि वारिणा निजघटान बभ्र : पुरस्य स्त्रियस्तावत्तजलमध्यतो मदकलो हस्त्युन्ममज्ज स्फुटम् ।। भूस्यन्मीनमुढग्रवर्वणमिमं ता वीक्ष्य चित्रं तदा, मत्सी रोदिति मक्षिका च हसति ध्यायन्ति वामभ्र वः॥४॥
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सस्कृत स्तोत्रादि संग्रह ३८६ “मन्दोदरी किमुदरी बदरी किमेपा" इति समस्या पदंहृष्टाशया वरदशाननजल्पनौघै,
रंतस्तमाः कुवलकण्टकतादधाना। मायोपमात्रययुताऽपि क्रमाद्विभिन्ना,
मन्दोदरी किमुदरी वदरी किमेषा ॥ १ ॥
__ चारुश्रिया बहुविचारि सुगोत्रजेपु, सञ्चारताचरणलक्षणवर्जितेषु । प्रश्नोत्तरे इयमुभे धरते समस्या, धन्वस्थलेषु च खलेषु चको
विशेपः ॥१॥
"यष्टिरीष्टे न वैणवी" इति समस्यापदं नमन गुणवानेव कुरुते न तु निगुणः । गुणं विना नतिं कर्तुं, यष्टि रीष्टे न वैणवी ॥ १ ॥ प्रतिभैव प्रभुयुक्तिखण्डने स्यान्मतिस्तुना । झोदित हि कुशीवक्ष्मा, यष्टि रीष्टे न वैणवी ॥२॥
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३१०
धर्मवर्द्धन ग्रन्थावली "शीर्षाणां सैव बन्व्या मम नवतिरभूल्लोचनानामशीतिः” इति समन्याचक्रे श्रीपार्श्वमौलौ शृणु युवति मया सत्फणाना सहस्र, तद्वीक्ष्येन्द्रः स्तुवन्सन् खराशिनवशिरास्युन्ममार्ज स्ववस्त्र। शच्यय्या नर्चखाध्य कवि धुमितशोऽहन्प्रतस्थेऽधशेषा, शीर्षाणा सैव बन्ध्या सम नवतिरभूल्लोचनानामशीतिः ॥ १॥
("नवलक्ष्यो जनताक्षिभिर्विसीः” इति समस्यापदं श्रीजिन चन्द्रसूरिभट्टारकैः प्रदत्त पञ्चकृत्वः पूरितम् )
सुपमाभिरनेकसूनृतैः प्रतिभाभिः सुनयश्च सद्गुणैः । जिनचन्द्रतुला करोति यो नवलक्ष्यो जनताक्षिभिविभीः ।। प्रति घस्मयकतवस्पृहाः करणान्यत्र च पञ्च तद्भिदे । प्रचणो यति यः परीक्ष्यते, न वलक्ष्यो जनताक्षिभिर्विभीः।२। उपकारपरोपकारिपु कनक कामिनिकाञ्च वष्टिनो । मंभवाब्धिपराङ्मुखः पुमानवलन्यो जनताक्षिभिर्विभीः।।३।।
कुन्ते गुरूगईगाय को बढ़मुष्टि त्वमल दधाति यः ।
अभिवाय शुभात्र यम्ब स नवलभ्यो जनताक्षिसिविभीः ।।
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सस्कृत स्तोत्रादि सग्रह ३६१ गदतः स्वजनेष्ट नाशतो जरसा मृत्युत एव दैवतः । शतशो भयमेवमुद्वहन्नवलक्ष्यो जनताक्षिभिविभीः ॥५॥
"तिलतुषतटकोणे कीटिकोष्ट्र प्रसूता" इति समस्यापदम् सखि वृशि समपप्तत्कीटिकैकोपतार
सुहढवदत्पक्ष्मो दस्य निःसारयस्ताम् । अभिमुखमयविम्वं वीक्ष्य हक्स्थ तदाऽहो,
तिलतुपतटकोणे कीटिकोष्ट्र प्रसूता ॥१॥
"विवेकः शाब्दिकेष्वयम्” इति समस्यापदम्-- उत्तमोऽह सदा वर्ते मध्यमस्त्व प्रवतसे । परः सामान्य आवाभ्या विवेकः शाब्दिकेष्वयम् ।। १ । समासः क्रियते तेपा येपामन्वययोग्यता । व्यासता बहुरूपाणा, विवेकः शाब्दिकेष्वयम् ।। २ ।। सार्वधातुकतानित्य लकाराणा चतुष्टये । आद्धधातुकताषट्के, विवेकः शाब्दिकेष्वयम् ।। ३ ।।
"हुताशनश्चन्दनपङ्कशीतलः"
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३१२
धर्मवर्द्धन ग्रन्थावली
ज्वलन्कमायोऽपि तवोपदेशा--
द्भवेज्जनः शान्तिरसैकरूपः । किं नामृतासारत ईश हि स्यात्,
हुताशनश्चन्दनपङ्कशीतलः ।। १ ।।
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११२
धर्मवर्द्धन ग्रन्थावली में प्रयुक्त देशी सूची (१) मुरली वजावैजी आवै प्यारो कान्ह
७१ (२) चतुर विहारी रे आतमा
७६, ११२ (३) आज निहेजो दीसे नाहलो
७८, २७१, ३६६ (४) केसरीयो हाली हल खडे हो (५) कबहु मै नीके नाथ न:ध्यायो (a) आयो आयोरी समरतां दादो आयो (७) गोठलदे सेत्रु जे हाली (८) नायक मोह नचावियो
११३ (E) सफल ससार अवतार० १७२, २५६, २६६, २७५, २७६, २८६, २६० (१०) अमल कमल जिम०
१६३ (११) विलसे ऋद्धि समृद्धि मिली
१६८, २०८, २८४ (१२) धणरा ढोला ।
२०० (१३) सुवरदे रा गीत री
२०३ (१४) दादै रै दरबार चापो मोह्य रह्यो (१५) आदर जीव क्षमा गुण०
२०६, २७० (१६) नणदल री (१७) त्यागी वैरागी मेघा जिन समझाया
२२२ (१८) उडरे आवा कोइल मोरी
२२२ (१६) चरण करण घर मुनिवर
२४४ (२०) वेत्रणी आगे थी कहै (२१) धर्म जागरीयानी
२५०
२०५
२०७
२५०
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२५२
२५७
२५६, २७२
२६२ २६३, २६८, २१२
२६४ २६७, २८३, ३३४
२७१
२७४ २७८
[३१४] (२२) आषाढ भैरू आवं (२३) तदूल राशि विमलगिरि थापी (२४) हेम घड्यो रतने जड्यो खुपो (२५) वीर जिनेश्वर चरण कमल (२६) वेकर जोडी ताम (२५) इण पुर कंबल कोई न लेसी (२८) तिण अवसर कोई मगध आयोo (२६) करम परीक्षा करण कुमर चल्यो (३०) वीर वखाणी रानी चेलणा (३१) थभणपुर श्री पास जिणंदो (३२) नदी यमुना के तीर। (३३) आव्यो तिहा नरहर (३४) कपूर हुवै अति ऊजलो (३५) अन्य दिवस को (३६) सुगुण सनेही मेरे लाला (३७) दीवाली दिन आवीयउ (३८) हु बलिहारी जादवा (३६) अलबेला नी (४०) नवकार री (४१) धरम अराधियए (४२) कुमरी बुलावै कूबड़ो (४३) सेवा बाहिरो कहिये को सेवक
२८१
२८७ २८८, ३२६
२६१ २६४ २६६ ३११ ३१६
३२१
३२४
३२८ ३३०
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[३६५] (अमरकुमार) सुरसुन्दरी रास का अन्त्य भाग [ ढाल १२-इण पर भाव भगति मन आणी ] धरम शील जिण साचो धार्यो, वलि नवकार संमायों जी। सुरसुन्दरिए सर्व समायों, निज आतम उधार्यो जी,
एक सदा जिन धर्म अराधो॥६॥ 'शीलतरंगणी' ग्रन्थ नी साखे, ए रास अति लाखे जी। धन जे शील रतन नै राखै, भगवत इणपर भास जी ॥१॥ संवत सतरै वरस छत्तीसै, श्रावण पूनिम दीसै जी। एह संबन्ध कह्यो सुजगीस, सुणता सहु मन हीसे जी ॥८॥ गणधर गोत्रो गच्छपति गाजे, जिनचंद्रसूरि विराजे जी। श्री बेनातट पुर सुख साजै, चौपी करी हित काजे जी ॥६॥ साखा जिनभद्रसूरि सवाई, खरतर गच्छ बरदाई जी। पाठक साधुकीरति पुण्याई, साधसुन्दर उवझाई जी ॥२०॥ विमलकीरति वाचक बड़ नामी, विमलचन्द यश कामी जी। वाचक विजयहर्ष अनुगामी, धर्मवर्द्धन धर्म ध्यानी जी ॥१॥ .
उपदेश हिया में आणी, पुण्य करे जे प्राणी जी। · आवी लाछि मिलै आफाणी, साची सद्गुरु वाणी जी ॥१२||
बारमी ढाल कही बहुरगे, चौथे खंड सुचंगे जी। जिन धर्मशील तणे शुभ सगे, आनंद लील उमगे जी ॥१३॥
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सादुल राजस्थानी रिसर्च इन्स्टीट्यूट के प्रकाशन राजस्थान भारती ( उच्चकोटि को गोव-पत्रिका ) भाग १ और
३ ८)प्रत्येक भाग ४ से ७ ह) प्रति भाग भाग २ (केवल एक अंक) २) रुपये
तस्सितोरी विशेषांक --५) रुपये पृथ्वीराज राठोड जयन्ती विशेषाक ५) रुपये
- प्रकाशित ग्रन्थ १, कलायण (ऋतुकाव्य) ३|| २ वरसगांठ ( राजस्थानी कहानियां ॥) ३ आर्भ पटकी (राजस्थानी उपन्यास) २॥)
नए प्रकाशन १, राजस्थानी व्याकरण १३, सदयवत्सवीर प्रदन्व २, राजस्थानी गद्य का विकास १४, जिनराजसूरि कृति कुसुमाजलि ३, अचलदास खीचीरी वचनिका १५, विनयचन्द्र कृति कुसुमाजलि ४. हम्मीरायण
१६, जिनहर्ष ग्रन्थावली ५, पदिनी चरित्र चौपाई २७, धर्मवद्धन ग्रन्यावली है, दलपत विलास
२८, राजस्थानी दूहा ७, हिंगल गीत
१६, राजस्थानी वीर दूहा ८, परमार वंश दर्पण
२०, राजस्थानी नोति दूहा ६, हरि रस
२१, राजस्थानी व्रत कथाएं २०, पीरदान लालस ग्रन्यावली २२, राजस्थानी प्रेम-कथाएं ११, महादेव पार्वती वेल
२३, चंदायण २२, सीताराम चौपाई
२४, दम्पति विनोद
२५, समयसुन्दर रासपचक पता :-सादल राजस्थानी रिसर्च इन्स्टीट्यूट, बीकानेर
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