SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 190
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रस्ताविक विविध संग्रह ' १११ सुरेग पुव्व' सर राज', गयण धर५ धुरि वारिध थिति । वासव' ग्रह अति चतुर, जगत सुर" पारिख सेवित ॥ उचह'प्रभात'कति सहित, गरजित निरमल प्रथित गुण। वहुजान तेज केली वरिस, धीर"पवित्र ध्रमसीह भण ॥१॥ एक्कक्खर उत्तरा वंदे नहीं क्यु देव गुरु, विकै न वस्तु विवेक । छोड़ें औठों अन्न क्यु , उत्तर निहुं रो एक ॥१॥ भाव नहीं। दूधै केम स्वाद नहीं, दीधे किम फिर दिद्ध । दाडिम कण ज्यो पोस्तकण, जुदा नहीं किण विद्ध ।।२।थर नहीं हाथी जनमि किसौं न है, वैद दिये किम पत्थ । नर आदर किम ना लहै, उत्तर त्रिहुं इक अत्थ ॥३॥ जर नहीं देशै नीपति क्यु नहीं, क्यु न घडै लोहार । 'किम वसता मुहंगी विक, उत्तर एक प्रकार ॥४॥ घण नहीं होयालिये कुण नारी रे कुण नारी रे, पंडित कहौ अरथ विचारी रे।' ___ चतुराइ बुद्धि तुम्हारी रे, सहु कोइ वखाणे सारी रे ।कुण॥१॥ मन मोहन सुन्दरि माती रे, रहै पच भरतारे राती रे। सखरी पहिरै ते साड़ी रे, तौ पिण सहु अंगै उघाड़ी रे ।कु०।२॥ आइ वैसे मुजरे ऊंची रे, तिण घरि नहीं ताला कुची रे । दिन उगै घाहडी उठी रे, पल में जइ बैसे पूठी रे ॥कुण० ॥३॥
SR No.010705
Book TitleDharmvarddhan Granthavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1950
Total Pages478
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy