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धर्मवर्द्धन ग्रन्थावली
(५) रसाउला चावौ गच्छ चउरासिये, भट्टारक वडभाग । गणधर श्री जिणचद गुरु, एओ सोभ अथाग ||१|| ए अत्थग्गरा, पूजरै पग्गरा,
यात्र चीजग्गरा, आवै उमंगरा। साधरै संगरा, अग उपागरा,
सूत्र सुचंगरा, भेट अभङ्ग रा। गंग तरंग रा, राग नै रगरा,
पापन पुण्य रा, दाखवें दिन्न रा। संसै आसन्न रा, मेटियें मन रा,
गम्म आगम्म रा, ज्ञान रै गम्म रा। आखवे तत्त आगम्म रा,
धोरी श्री जिन ध्रम्म रा। पूजतां पाय गुरु प्रम्म रा,
जायें पाप जनम्म रा॥१॥
(६) सवैया वाकं दूजे पछि दूज वंदत है कोऊ एक,
याको नित ही नरिंद वदत अशेष हैं। चाकी तो निशा की वेर, अथिर सी जोति होत,
याकै ज्ञान को उदोत भानु सौं सुपेख हैं।