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________________ - शास्त्रीय विचार स्तवन संग्रह २७५ रतन गढ रतन रै कांगुरै जी, रचय वेमाण सुर राज ।' भलो त्रीजो गढ भीतरे जी, तिहा विराजै जिनराज आ१०॥ भीति ऊंची धगु पाचसैं जी, सवा तेत्रीस विसतार । ' धनुष से तेर गढ अतरौ जी, प्रोलि पचास धनु च्यार ।। ११ ॥ दश पंच पच त्रिहुं गढ तणी जी, पावड़ी वीस हजार । थाक श्रम नहिंय चढता थका जी, एक कर उच्च विस्तार ॥१२॥ पंच धणु सहस पृथ्वी थकी जी, उच्च रहै त्रिगढ आकास । तेह तलि सहु यथास्थित वसे जी, नगर आराम आवास ।।१३।। तोरण त्रिक चिहुं दिसि तिहा जी, नीलमणि मोर निरमाण । दुसय धगु मध्य मणिपीठिका जी, उच्च जिण देह परिमाण ।१४।। च्यार आसण तिहा चिहु दिसि जी, मोतीए झाक झमाल। । सम विच कूण ईसाणमे जी, देवछंदौ सुविशाल आ० ॥१५॥ देव कुंदुभि नाद उपदिसें जी, जिण गुण गावसी जेह । अम्ह जिम आइ सहु ऊपरै जी, गाजसी तेह गुण गेह ॥ १६ ।। ढाल (२) सफल संसार नी "पुव्व दिसि आसणे आइ बेसैं पहू, सुरकृत चौमुख रूप देखै सहू। दीपं अशोक तरु वार गुण देह थी, देखि हरखै सहुँ मोर जिम मेह थी ॥१७॥ मोतिया जाल त्रिण छत्र सुविसाल ए, रूप चिहुं दिस चामर ढाल ए । योजन गामिणी वाणि जिणवर तणी, भगवंत उपदिशै बार परपद भणी ॥ १८ ॥ "
SR No.010705
Book TitleDharmvarddhan Granthavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1950
Total Pages478
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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