________________
२७४
धर्मवद्धन ग्रन्थावली
.. श्री समवशरण विचार स्तवनम्
॥ दोहा ॥ श्री जिन शासन सेहरौ, जग गुरू पास जिणिद । प्रणमै जेहना पद कमल, आवी चौसठि इंद ॥१॥ तीर्थकर आवै तिहा, त्रिगढी करय तयार । समकित करणी साचव, एह कहुं अधिकार ॥२॥ करै प्रशंसा समकिती, मिथ्यात्वी ह मूक । सूर्य देखि हरखै सहू, घणे अंधारै घूक ॥३॥
' ढाल (१) वीर वखाणी राणी चेलणा जी आप अरिहंत भले आविया जी, गावै अपछरह गंधर्व । समवशरण रचे सुरवरा जी, सखेपे ते कहुं सर्व । आ० ॥४॥ भवनपती इन्द्र वीसे भिल्या जी, सोल दू वितर सार। जोइस दु दस विमाणी जुड्या जी, चउस ठ्ठि इन्द्र सुविचार ।। पवन सुर पुजी परमारजी जी, भूमि योजन सम भाउ । मेघकुमार रचि मेघनै जी, करय सुगंध छड़काउ । आ०॥ ६ ॥ अगर कपूर शुभ धूपणा जी, करय श्री अगनिकुमार । वाणविंतर हिव वेग सु जी, रचय मणि पीठिका सार ॥ ७ ॥ पुहप पंच वरण ऊरध मुखे जी, वरपए जाणु परिमाण । । . भवणवइ देव त्रिगढो भलो जी, करय ते सुगहुँ सुजाण ॥ ८ ॥ रचय गढ प्रथम रूपा तणौ जी, सोवन कांगुरे सार । रवि शनि रयण कोसीसके जी, कनक को बीय प्राकार ।।।।