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धर्मवद्धन ग्रन्थावली प्रदिक्षणा रूप थी अगनि कूणे करी,
__गणधर साधवी तिम विमाणी सुरी। ज्योतिपी भुवणिनी वितरी त्री पण,
नैऋत कूण जिण वाणि ऊभी सुणे ।। १६ । त्रिहुं तणा पति वायु कूण में जाण ए,
सुर विमाणीय नर नारि ईसाण ए । वार परिपद मद मच्छर छोड़ ए,
भूख तृप वीसरे सुणे कर जोड़ ए ॥ २० ॥ पूठि भामंडल तेज परकास ए,
जोयण सहस धज ऊंच आकास ए। झलहले तेज धर्मचक्र गगने सही,
महक सहु वारण धूप धाणा मही ॥ २१ ॥ वाहण वहिल सहि धरिय पहिलै गढे,
होइ - पगचार नर नारि ऊंचा चढे । जिण तणी वाणि सुणि जीव तिरजंच ए,
वैर तजि बीय गढ रहै सुख संच ए ॥ २२ ॥ पुण्यवंत पुरुप ते परिपद वारमै,
सुणे जिण वाणि धन गिणय अवतार मै । चौवहि देव जिणदेव सेवा रसे,
मणिमयी माहिली प्रोलि माहे वसै ॥२३ ।। चिहुं दिसि वाटुली वावि चौ जाणिय,
विदिसि चौकूणी दोड दोइ वाखाणीर्य ।