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धर्म वावनी
झगरा उलटा ही गहै कुलटा, कबहुं न रहै कुल की वट में। बहु लोकनि में निकसै करि लाजरू, यार कुघेरत घु घट मे। लहिहुं कव घात करू वह वात, यही घटना जु घट घट में। उनकी धर्मसीह गहै जोऊ लीह,
मिट तसु माम चट्टा पट में ।। ३० ॥ नैन सु काहू सु सैन दिखावत, वैन की काहु सौ बात वनावै । पति की चित्त में परवाह नहीं, नित की जन और सु नेह जणावै । सासूको सास जिठानीको जीउ, दिरानीकी देह दुखै ही दहावै । कहै धर्मसीह तजो वह लीह,
लराइ को सूल लुगाइ कहावै ॥३१॥ टैंटि धरै मन में तन में न नमै, नही मेलतं मीटि ही ऐसी। काहिकु आपनी जानिय ताहिकु,आनीय चित्त मैं को परदेसी। ताको न नाम ठाम न लीजिय, कीजिये आप ही तैसै सँसी । साच यहै धर्मसीउ कहै,
भैया चाह नहीं ताकी चाकरी कैसी ॥३२॥ ठीककी वात सबै चित्तकी, हितकी नितकी तिन सोज कहीजै। सो पुनि आपनसों मिलिके दिलकै सुध जो कहै सोउ कीजै । कोउ कुपात परै उलटो, कुलटौ करि चीत कु मीतसौं खीजैं। जो धर्मसीह त● हित लीह तिन्है,
मुखि छार दे छार ही दीजै ॥ ३३ ॥
सवैया इकतीसा डौलें परवार लार बैंन कहै वार वार,
हाल सेती माल ल्याहु ढीलन पलक है।