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धर्मवद्धन ग्रन्थावली
भोजन कुनाज साज, लाज काज चीर ल्याह जाहु,
जाहु ल्याहु देहु ऐसी ही गलक है। व्याहुनिकी पाहुनिकी कहा करू भैया मोहि,
ऐतें है जंजाल जेते सीस न अलक है । धर्मसी कहै रे मीत, काहे कु रहै सचीत,
दे कु है एक देव खैव कुं खलक है ।। ३४ ।।
___सरैया तेवीसा ढीठ उलूक न चाहत सूरिज, तै सँ मिथ्याती सिद्धत न ध्यावै । कूकर कुंजर देखि भसैं, पुनि त्यु जड़ पंडित सु घुररावें । सूकर जैसै भली गली नावत, पापी युसाधु के सग न आवै । लंपट चाहत ना धर्मसीखकु,
चोरकु चादणो नाहि सुहावै ॥ ३५ ॥ नहीं कोउ पाहुणोना कछ लाहणो, नाहि उराणो कहू को होवौ। गरज पर ही अरज्ज के कारण, काहुं सुना कर जोरि कै जोवो । घर की जर की पुनि वाहिर की, डर की परवाह न काहू कूरोवो। कहै धर्मसीह बड़ो सुख है भैया,
माग के खाइ मसीत मे सोवो ॥३६।। तीछण क्रोध सुहोई विरोध रु, क्रोध सुबोध की सोध न होई । क्रोध सो पावै अधोगति जाल कु क्रोध चडाल कहै सब कोई। क्रोध सुगालि कडै वढे वेढ, करोध सुसजन दुज्जण होइ। यु धर्मसीह कहै निसदीह सुणो,
भैया क्रोध करो मति कोई ॥३७॥