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धर्म वावनी
थान प्रधान लहै नर दान तँ, दान तै मान जहा जहा पाव । दान ते ह दुख खानि की हानि, जु रान मसान कहुं डर नावै । दान सु भानु विमानलु कीरति, दान विद्वान कुआनि नमावै । दान प्रधान कहै धर्मसी सिव
सुन्दरि सौं पहिचान बनावै ॥३८॥
सवैया इकतीसा देखत खुम्याल देह नैन ही मे धरे नेह,
करत बहुत भाति आदर के देवै की। नीक ही पधारे राज, कहो हम जैसो काज,
पूछ फुनि वात-चीत पानी और .वै की। ऐसी जहा प्रीति रीति चाहे हम सोइ चीत, .
___ और है प्रवाह हम कहा कछु खर्वै की। धर्मसी कहत वैन, सवही सुणेज्यो सैन, ____ मैंलपोहि दखें तहा सोहि हम जैवै की ॥३६॥
सवैया तेवीसा धंध ही मे नित धावत धावत, टूटि रह्यो ज्युसराहि को टट्ट । पारकै काज पचें नित पापमे, होइ रह्यो जैसे हाडी को चट्ट । छारे नहीं कब ही धर्मसीख कु, मुझि रह्यो है अज्ञान मखट्ट । चित ही माझि फिर निस वासर,
जैसै सजोर की डोर को लट्ट ॥४०॥ नाचत-वश के ऊपर ही नर, अग भुजग ज्यु कल तल पेटा। जोरह प्यार की ठौर परै जहा, सोइ सहै रण माहि रपेटा ।।