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धर्मवर्द्धन अन्थावली आज धरौ नहीं हो धर्मशील पै,
ल्यौगे घणे जु तिस दिन लीवू ।। २६ ।।
सवैया इकतीसा चाहत अनेक चित्त (चीत), पाले नहीं पूरी प्रीत ,
केते ही करें है मीत, सोदौं जैसे हाट को । छोरि जगदीस देव, सारै ओर ही की सेवु ;
एक ठोर ना रहै, ज्यं भोगल-कपाट को । जाणे नहीं भेद मूढ़, ताणे आप ही की रूढ़ ;
है रह्यो मदोन्मत, जैसे भैसों ठाट को। धर्मसी कहै रै सैन, ताको कबहुं न चैन , धोबी कैसौ कूकरा है, घर को न घाट कौ ॥ २७ ॥
सवैया तेवीसा छोरि गरव्व जु आवत देखि के, आदर देइ कै आसन दीजै । प्रीति ही के रुख की मुख की, सुखकी दुखकी मिलि वात वहीजैं। दूर रहैं नित मीठी ही मीठी ही, चीज रु चीठी तहा पठइज। साच यहै धर्मसीउ कहै भैया,
चाह करें ताकी चाकरी कीजै ।। २८ ।। जो तप रूप सदा अपकै, अपनो वपु पूत पखार करेंगो। जो तप की खप पूर करें, नर पाप के कूप मे सो न परेगो। मोक्षपुरी तमु पंथ प्रयान कुं, पुन्य पक्कान की पोटि भरेंगी। धर्म कहै सब मर्म यहै,
तप तैं निज कर्म को भर्य हरेगो ॥२६॥