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धर्म बावनी एसो सुभाऊ बुरौ उनको पुनि, एक भलौ गुन है तिन पाहीं । वोले धर्मसी वैन सुधारस,
तातें सुहात जहां ही तहां ही ॥ २२ ॥ खोदि कुदाल सं आनी है रासभ, भ पटकी छटकी जल धारै । लातन मारे के चाक चहोरी है, डोरी सं फासी सी देइ उतार कूट टिपल्ल जलाइ है आगि मैं, तो भी लोगाइया टाकर मारै। यं धर्मसी सगरी गगरी भैया,
कोउ न काहू की पीर विचारें ॥ २३ ॥ गुण रीति गहै हठ मै न रहै, कोऊ काज कहै तसु लाज वहै। कछु रीस न है सब बोल सहै, अपनें सवही कु लिये निवहै । चित्त हेत चहे पर पीर लहैं, न चलें कबहु पथ में अव है। धर्मसीह कहैं जगि सोऊ वहडौ,
जिनके घट में गुण ए सब है ॥ २४ ॥ घरराटि कर घर द्वारहि तें, घुरकै घर के पति स घर रानी। सासु को सास ही सोखि लयो, पुनि जोर कहाधुकरेंगी जिठानी। धूजत है घर को जु धनी, फुनि पाथर मारत मागत पानी। देखो धरमसी दूठी है झूठी है,
नारि किधु घर नाहरि व्यानी ॥ २५ ॥
डान मैं काहु कुआनत नाहि, गुमान सु गात चलावत गोबू । सोझै घरी घरी पाघरी पेच कु, पेखत आरसी में प्रतिबिंव । झूठो सरव्ब गरब धरावत, जौलुं न काल कहुं अजगीबू ।