________________
१२.
धर्मवद्धन ग्रन्थावली ऐसो कहै धर्मसिंह, धर्म की गहो लीह । काया माया वादर की छाया सी कहात है। का०।३।
( २३ )
राग-सौरठा रे सुणि प्राणिया, लही गरथ अरथ अनेक, म करे गर्व रे। वहि जाइ, एकैजहि प्रवाहै, सवल निवला सर्व रे । सु० । १ । चंद सूर ही राहु चिगल्या, प्रगट जोइ तु पर्व रे । नर असुर सुर सहु काल नाख्या, चवीणा ज्यु चर्व रे । सु०।। मृढ धी पुदगल पिंड मैलें, अरथ अर्व ने खरवरे। सुजान सु धर्मशील सुखियो, देखि आत्तम दर्व रे । सु०।३।
( २४ )
राग-काफी मानोवण मेरा, यारो मानो वयणा मेरा । सेंन तु मोह निद्रा मत सोवे, है तेरे दुस्मन हेरा । यारो ॥१॥ मोह वशे तु इण भव माहे, फोगट देत है फेरा । चार विचार करो दिल अंतर, तु कुण कौन है तेरा । यारो।।२।। कीजे पर उपगार कछु इक, लीज लाह भलेरा । धर्म हितु इक कहै धर्मसी और न कछ अनेरा । या० ॥३॥
राग-धन्याश्री (कबहु मैं नीके नाथ न ध्यायो) किण विध थिर कीजे इण मनकु । 'वचन कर वशि मौन ग्रहैते, त्योथिर आसन तनकु । किन |१||