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कुण्डलिया बावनी
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कम
कर्म
लिखिया ब्रह्म लिलाट में, लोक सकै कुण लोप । भायै सुख दुख भोगव, किसु किया है कोप । किसु किया है कोप, रोप काठलि घण वरस.। वावीहीयौ बापड़ो, तोइ जल काजे तरस । देखे सहु को दिने, अंध है घूघु अंखीया । धोखो तजि धर्मसीह, लामिजै सुख दुख लिखिया ।लि०।१४। लीजै च्यारे-तुरत लगि, चूत,द्रव्य नृपदान । , गुरू शिक्षा प्रस्ताव गुण, न करो ढील निदान । न करो ढील निदान, जाय धन हारे जुआरी । । चुगल मिलै चौ तरै, रहे वगसीस राजारी ।। गुरु पिण न दीये ज्ञान, कह्यो जौं तुरत न कीजै । . सुभ प्रस्ताव सिलोक, गिर्न तुरतज लीजै । ली० ॥१५॥ एको ह जो आप मै, कजीये काम कुटब । . तो को न सके तेहन, झगड़े भाट झुव ।। झगडे झाटे मुंब, बुब पिण लागै बहुनी । बोली एकण वध, साच माजे मा जैनी । सहुनी जिण रै फट जू जूआ, न हसु धन र नेकौ । धुरि हुंती धर्मसीह, आप मे कीजै एको । एको ।१६। ऐ देखौ ब्रहमड इण, इक इक बड़ी अचभ । धरा भार इवौं धरै, सु थभी किण विध थभ । थंभी किण विध थंभ, दंभ पिण कौ नवि दीस ।