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धर्मवद्धन ग्रन्थावली मंड्यो किम करि मेह, दडड पाड्या निस दीस । अंवर विण आधार, सूर शशि भमै सपेखो। सागी कहै धर्मसीह, ए ए अचरिज देखौ। ए०१७ ओहिज भूतल ओहिज जल, वाया एकण वेर । अंव निंब पानैं इसौं, फल में पड़ीयो फेर । फल मे पड़ीयौ फेर, मेर सरसव जिम मोटौ। स्वाति विन्दु सीप में, आइ पड़यो अण चोटी। मोती है बहु मोल, सरप मुखि विष ह सोइज । पात्र अन्तर पड्यो, उदक कहै धर्मसी ओ हिज ।ओ०१
औपध मोटो अन्न इक, भाजे जिण थी भूख । सालैं अन विण सामठा, देही माहिला दूख । देहि माहिला दूख, उख है सहु नै अन्न री। उदर पडै जां अन्न, मौज ता लगि तन मन री। आखर अन्न अंश, पलं पूरा व्रत पौपध । धीरज ह धर्मसीह, अन्न इक मौटौ औषध । ओ०१६।
स्वभाव अव कोऔ निव कोइला, लुब्या किहा इक लागि। काग भणी कहे कोइला, कोइल ने कहै काग। कोइल ने कहै काग, जाइगा कारण जाण । भूलें माणस भमर, अंग सरिखे अहिनाणे । विहु जब बोलिया, अगुण गुण लीधा अटकल । न रहै छांना नेट, अंब कौऔ निव कोकिल । अ० १२०॥