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कुण्डलिया वावनी
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पर स्त्री गमन निषेध अपणी तिय थी अवर नै, माने घणु मसंद । लखमीजी नै तजि लग्यो, गोपीयां सूगोविंद । गौपिया सू गौविन्द, इन्द्र पण तजि इन्द्राणी । अहिल्या नैं आदरी, जगत सगल ए जाणी। अतिधन है उन्मान, जाय नहीं वाता जपणी । प्राये परत्तिय प्रीति, अधिक है न हुवै अपणी । अ० ॥२१॥
आठ अंधे क्रोधी कामी कृपण नर, मानी अनैं मदद्ध । चोर जुआरी नै चुगल, आठों देखत अंध । आठे देखत अंध, अवध रस लागा धावै। तन धन री हाणि, नेटि तोइ नजरै नाचे । कुकरम कुजस कुमीचि, सोइ देखे नहीं सोधी । धरमसीख नहिं धरै, करै इम कामी क्रोधी । क्रो० ॥२२॥
कपूत खाए नै खेरू करै, सगलै घर रौ सूत । कूत न काइ कमाइवा, कहिय एम कपूत । कहिये एम कपूत, भूत जिम बोले भड़की। सखरी देता सीख, तुरत कहै पाछौ तड़की। साच कहै धर्मसीह, उणे सुत सदा अंधेरू। म खटू मौजी मन्न, करै खाए धन खेरू । खा० ॥२३॥