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ऋपभदेव स्तवन
जाणि नववाड़ि शुद्ध शीलवत जोगवे,
___ पंच अंतराय हणि भोग सहु भोगवै ॥५॥ घरि परिग्रह तजी की इच्छा घणी,
सहस चौरासी शिष्य लाख त्रण शिष्यणी । मुखि कई कोई सेवक नहीं माहरे,
अणहुतै कोड़ि इक देव सेवा करै ।।६।। नयण निरखौ नहीं श्रवण ना साभलौ,
अंश पिण जीभ सुस्वाद नां अटकलौ ।। ‘क्रिणही इन्द्रिय सु काइ जाणौ नहीं,
तोई सर्वज्ञ रौ विरुद धारौ सही ॥णा क्रोध अलघौ करी कीध कोमल हियौ,
किण विधै काम रिपुहणिय दहवट कियौ। कीजे नहीं मान उपदेश एहवा कही,
नेट तुकिणही नै शीश नामें नहीं |८|| कपट नहीं कोय तो भगत किम भोलवी,
अवगुण पारका देखि किम ओलवौ। किणहि बातें कदे लोभ जो ना करो,
धरिय ऋण रतन ने केम जतने धरौ।।। भिक्खु अणगार निज नाम मन शुद्ध भणौ,
तीन गढ छत्र त्रिण राज त्रिभुवन तणौ । वचन गुप्ते वली नाम वाचंयमा,
योजन वाणि सुं गाजे च्यारुगमा ॥१०॥