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छप्पय बावनी मुहडै सुपिण मिलै, नाक सु अधिक नाते । बिहु मुहड़ौ बोलतो, खत्त पत्त गिणे न खाते । , व्यवहार शुद्ध व्यापार थी, तजियो सहु लोके तिणै । बोलेंन कोइ इण सुबहुत, इड़ियो फल सरिखा गिण ॥ २६ ॥ चातक नु छै चतुर, सीख सुणि वयणे साचे । पिउ पिउ करे पोकार, जलद सगला मत याचे । के जल थल इक करें, उणा थी पूगै आसा । मरड फरड केइ गरजि, नेटि उडिजाइ निरासा । लहणीये जोग आफे लहिसि, पुरालब्धे पुन्य पापरी । धर्मसीउ कहै धीरज धरे, ओ ही मत छ आपरी ॥ २७ ॥ छात्र तिकौ छावर, दोष गुरु निजरा देखे । पाचा माहे प्रसिद्ध, सुजस बोले सुविशेष । छाप धरै सिर छती, ग्राहकी होइ गुणारो । विद्या तसु वरदायी, उदय वलि होइ उणारो । छल छिद्र ताकिल्ये छीटका, छानो कहै अछती छती । पाचमै तास ऊधी पडै, गुर लोपी सो दुरगति ॥ २८॥ जो हालाहल जों, जोइ मन्मथ रिपु ते । भाल नैत्र महि भर्यो, वले वन अनल वदीतै । शकर ऐही शकति, होइ तोइ रजवट हालण । ससि गिरजा सुर सरित, पास राख तिहुं पालण । तिण रीति सुबुद्धि धर्मसी तिको, धुरा दृष्टि ऊडीधर । जल वालि पालि वाधं जरु, काज रजनीति हि करै ।। २६ ॥