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परिहां ( अक्षर बतीसी) वतीसी
काया काचे कुंभ समान कहैं क कौ । धाखे घेखी काल सही देसी धको । करवट वहतां काठ ज्यु आउखो कुट। परिहा न धरै तोइ धर्मसीख जीव नट- ज्युनट ॥१॥ खमिर्जे गालि हितूनी इम कहै ख खौ । रीस करी कहै तेह' कहीजे हित रखो । आणा सैंणा वैण सु आख्या उपरें । परिहा धर्म कहै सुख होइ धूों ही धूप रे ॥ २ ॥ गरथ पामी गुण कीजे इम -कहे गगो। साहमी साधु सुपात्र संतोषीजै सगो। लाधि छै जो लाछि कहै धर्म लाहल्यौ । परिहा सची राख्या सैंण अपान स्वाद सौ ॥३॥ घड़ि माहे घडिजाहे, आयु कहै घ घो। अमर न दीठौ कोई जीव अठा अघौ। पहिली को दिन च्यार दिन को पछै । परिहा आखर क़है धर्मसीह सही चालणो अछ ॥ ४ ॥ नेह वधै नहीं नेट, हुए अंगुल ढीहीयै । लुलि नमीयौ तो कामु लोक लजालीये ।