________________
धर्मवद्धन ग्रन्थावली
-
गाठिहीय धर्मसी कहै सुख मतां गिणौ । परिहा औ गुण इणहिज ड डि यो आमण दूमणौ ॥ ५॥ चकवा ज्युचल चित्त, न हूजे कहे चचो । पर वसि प्रीति लगाइ तलफि के क्यु पचो। सिरज्यो है सम्बंध किसु हा हा किये। परिहा धीरज धर धर्मसीह रखे हारे हीये ।। ६ ॥ छक देखि खेलीजें एम कहो छ छै। पछतावो जिण काज सही न हुवे पर्छ । आखर जे धर्मसीह हुवै उतावला । परिहा विणसाडे निज काज सही ते वाउला ।। ७ ।। जोवन जोर गिणे नहीं केह. कहै ज जो। गरव चलें ता सीम हुवे देही गजी। धीरो रहे धर्मसी कहै हासी होइसी। परिहां जोबन बीते कोइ न साम्हो जोवसी ॥ ८ ॥ झगड़े म करै झूठ, कहै छै युझ में। द्य नहीं कोई साखि दुखे देही ढझे। कूडे की परतीत न, साचो ही कहै । परिहा रागा बिना धर्मसी कहै चेजो क्युरहे ॥ ६ ॥ न धरो तिण सुनेह, मिले नहीं जे मुखै । दुपडौं दीस दूर, अनें बोले दुखै । आखर एह अछे जो इणहिज वेतरो। परिहा चीतारै नहीं कोई बबयो भाट चुलेतरो॥१०॥