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________________ धर्म बावनी सत की सगति नाहि करी, न धरी चित में हित सीख कही कू। प्रीति अनीति की रीत भजी न, तजी पुनि मूढ मैं रूढ़ि गही कु। या जमवार में आइ गवार में, मारी इता दिन भार मही कु। रेसुन जीउ कहे धर्मसीउ, गइसो गइ अब राख रही कु ॥५३।। हाथ घसैं अरू आथि नसैं, जु वसं चित्त में उदवेग क्रोधू आ। सगे सुनि कूर कियो घर दूर, दिखाइ न मूह दीयो यह दूआ। दुकै लहणात सुकै मन माहि, तकै मरिचकु वावरी कुआ। कहै धर्मसीह गहै सुख लीह तौ, भूलि ही चूक रमो मत जूआ ॥ ५४ ॥ लंछन चद मैं ताप दिणद में, चंदन माझि फणिद को वासो । पंडित निर्द्धन सद्धन है सठ, नारि महा हठ को घर वासौ। हीम हिमाचल खार है वारिधि, केतक कंटक कोटि को पासौ। देखो धर्मसी है सबकु दुःख, कोउ करो मत काहू को हासौ ॥५५॥ क्षमाही को खड्ग धर्यो जिण धीर, करी है तयार सुज्ञानकी गोली। सुमति कबाण सुर्वण ही वाण, हलक्क ही सुभरि मुठि हिलोली। ऐसो सज्यो ही रहै धर्मसीउ, कहा करै ताको दुरजन कोलि । सदा जगि जैत निसान घुरै, गृदधुगृदधु करि कोडि कलोली ॥५६॥ ज्ञान के महा निधान, बावन वरन जान, कीनी ताकी जोरि यह ज्ञान की जगावनी।
SR No.010705
Book TitleDharmvarddhan Granthavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1950
Total Pages478
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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