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धर्मवद्धन ग्रन्थावली संकट कोटि विकट्ट सहैं नर, पूरण कु अपनै रह पेटा। देखो धर्मसीह जोर पखावज,
चूण के काज सहेज चपेटा ॥४१॥ पंकज मांमि दुरेफ रहे जुगहै मकरद चितै चित ऐसौ। जाइ राति जु है है प्रभात, भय रवि दोत हस कज जैसो। जाउंगो मै तव ही गज नै जु, मृनाल मरोरि लयौ मुहि तसौ । थु धर्मसीह रहैं जोउ लोभित,
8तिनकी परि ताहिं अदेशो ॥ ४२ ॥ फूल अमूल दुराइ चुराइ, लीए तो सुगन्ध लुके न रहेंगे। जो कछु आथि के साथ सुहाथ हैं, तो तिनकुसवही सलहेंगें। जो कछु आपन मे गुन है, जन चातुर आतुर होइ चहेगे। काहे कहो धर्मसी अपने गुण,
बूठे की बात वटाऊ कहेंगे ॥४३॥ बोल के बोल सुबोझल वात, भइतौ गइ करू जानॆन ऐसौ। फोज अनी अनी आइवनीतौ, लुकावे कहा जब जोर ह जैसौ। प्रीति तुटै पुनि चीत फट, तौ कहा धर्मसी अव कीजै अंदेसी। देखण काजजुरे सवही जन,
नाचत पैंठी तो घुघट कसौ ॥४४॥ भाव संसार समुद्र की नाव है, भाव विना करणी सब फीकी। भाव क्रिया ही को राव कहावत, भावही तैं सब बात है नीकी। दान करौ वहुध्यान धरौं, तप जप्प की खप्प करौ दिन ही की। गतको सार यहै धर्मसी इक,
. भाव विना नहीं सिद्धि कहीं की ॥४॥