________________
कुण्डलिया वावनी पड़ीइ मादे पूत, वाप कहि वैद बुलावै । श्रावण में धर्मसीह, नट कहै छासा नीठी। दूध जेठ में दीय, मानि निज आरति मीठी । अ० ॥७॥ इतरौ में पिण अटकल्यो, सोचे सारी दीह । निंदा जिहा पर नी नहीं, धरम त, धर्मसीह । धरम त, धर्मसीह, जीह निज अवगुण जपै । त्रेवड़ि इण में तत्त, काइ कसटे तन कपै । तप जप निंदा तठे, हुवै नही कोइ हितरौ । निदा हुंती नरक, अम्हे अटकलीयो इतरौ । इतरो०८।
परउपगार ईख कनक उत्तम अगर, चावा ए जगि च्यार । निज सुभाउ मेट नहीं, आवै पर उपगार । आवै पर उपगार, सार रस ईख समप्पे । छोलता छेदतां दुगुण, दुति सोवन दीपे । अग्नि प्रजाल्यो अगर, सुरभि छ सहु सरीखें । अवगुण ठालि अलग्ग, एक उत्तम गुण ईखे । ईख०।। उत्पति साभल आपरी, गरवै पछै गमार । उपजेतें तें उदर में, अशुचि लीयो अहार । अशुचि लीयोअहार, वार तिण हीज ऋतु वीरिज । मुख ऊधे मल माहि, दुख सहीया दिलगीरज । तं पछताणो तरें, कीया नहीं पूरव सुकृत । साभलि तुं धर्मसीह, एह थारी छै उत्पति ।उत्प०।१०।