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धर्मवर्द्धन ग्रन्थावली
कर्म सिरजित मेट न कौसके, करौ कोडि विधि कोई। . एहवी हिज बुद्धि उपजै, होणहार जिम होई । होणहार जिम होई, जोइ धर्मसी इण जग्गे । चल्यो सुभूम चकवै, उदधि जल बूडि अथग्गे । सोल सहस सुर साथ, हुंता सेवक करता हित । ए वाले कीयो अंध, सही ब्रह्मदत्त नैं सिरजित । सि०।४। धंध करि करि जोड़ि धन, संचे राखै सुव । भागवसै केइ भोग, वले न बाहर बुब । वले न बाहर बुव, लुंबि रहै माखी लालची। कण कण ले कीड़ीया, पुज मे ले पोते पचे । मेल्यो नदे माल, कोई न गयौ लक धे। कलि में कीधो कुजस, धरम विण करि करि धंधै । ध० ।। अति हितकरि चित्त एकथौ सु विटक्यो किणहिक वार । मिलिया वले मनावता, पिण ते न मिलैं तिण वार । ते न मिलें तिण बार, ठार ओन्हो जल ठामैं। जीयैतो इ पहिल रौ, पुरुष ते स्वाद न पामैं । तोडे सांधो तुरत, गाठि रहै डोरे गुप्फित । धरि लो ते धर्मसीह हे, बैंन हुवै ते अति हित ॥ अ०।६। आरति मीठी अप्पणी, आई नमै सहु आप । गरा ने गांमंतर, बोलावें कहि बाप । चोलवें कहि वाप, आपणी आरति आवें.।