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कुण्डलिया बावनी
ॐ नमो कहि आद थी, अक्षर रै अधिकार । पहली थी करता पुरप, कीधौं ॐकार । कीधो ॐकार सार, तत जाणे साचौ । मंत्र जंत्रे मूल, वेद वायक धुरि वाचौ । सह काम धर्मसीह दीयें रिद्धि सिद्धि औ दोऊ । बावन आखर वीज, आदि प्रणमीजे ओ ॐ ॐनाश नमीयै मस्तक नामि ने, नमो गुरु कहि नित्त । बहु हितकारी जिण बगसीयो विद्या रूपी वित्त । विद्या रूपी वित्त, चित जिण कीधो चोखो। दावै तिम दीजता जलण जल चोर न जोखौ। - सुगरा रे सहु सिद्धि ज्ञान गुण निगुरै गमियें । सीख कहै धर्मसीह नामि मस्तक गुरु नमीय ॥न म.२॥
तृष्णा मनरी तिष्णा नहु मिटै, प्रगट जोइ पतवाण । लाभ थकी बहु लोभ ह, हैं तृष्णा हैं राण । है तृष्णा है राण, जाण नर पिण नवि जाणें । पास जुड़ या पंचास, आस सौ उपरि आणें । सौ जुड़िया तव सहस, धरै इच्छा लख धन री। ध्रापै किम धर्मसीह, मिट नहीं तृष्णा मन री ।। म..॥३॥