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धर्मर्द्धन ग्रन्थावली
श्री शाति जिन स्तवन
सेवो भाई सेवो भाई शाति जिन सेव रे।
दूजो नहीं कोई ऐसो देव रे ।। १ ।। क्रोध विरोध भर्या सुर केवि रे।
निकलंक निरदोप यहु नित मेव रे ॥२॥ हाथ रतन आयो छै हेव रे।
काच तजो पाच गहो परखेव रे ॥३॥ केशर चदन पूज करेव रे।
लाहो नरभव इह विध लेव रे ||४|| कहै ध्रमसी जोडि कर बेव रे।
तुझ सेवा मुझ याहीज टेव रे ॥५॥
चन्द्रपुरी शाति जिन स्तवन
__ जग नायक जिनवर पुहवी माहे प्रत्यक्ष ।
सोलम संतीसर सुखदायक कल्पवृक्ष । जसु यात्र करवा लोक मिले तिहा लक्ष ।
दरसण देखत ही आणद पावै अक्ष ॥१॥ दों दो दो दप मप द्राग्डिदिक दमके मृदंग।
झण रण रण में मैं झाझरि झमकित झङ्ग ।।