SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 264
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ शान्ति नाथ जिन स्तवन १८५ ठम ठम पाय ठमकति घमकति घूधरि सग। ताकिटि ताकिट थेइ थेइ नृत्य करत मन रग ।।२।। केसरि करि पूजत छीजत अशुभ जे कर्म।। भावन भावता भाजै भव नौ भर्म ।। नित नाम जपें जे निजमन करि अति नर्म। हरखै ते पहुंचे मुगति रमणि ने हर्म ॥३॥ छाक्यो रहे छहुं रितु मस्त महा मतवाल । हाथी झरणा जिम झरती मद असराल ।। परवत सम सवलौ पूठ पड्यो सुन्डाल । ततखिण जिण नामें अस कर नहीं आल ||४|| दुकारव करतो, वाघ महा विकराल । नहरा अति तीक्ष्ण, जिम करवत दताल । पुछा छोट करतौ फदकल्यै तीजी फाल । प्रभु नाम प्रसाद, सींह भगै ज्यु स्याल ॥५॥ दावानल वलतो झलहल नीकले झाल । बहु वृक्ष सघन वन वले पसु पखी वाल ॥. किण हीक कारण नर आयौ अग्नि विचाल । जिण नाम जलै अगि ओल्हाय तत्काल ॥६॥ फु फु फण करतौ धरतौ कोप कराल । रहै आख्या-राती काजल सम महाकाल ।। एहवौ उरंडतौ देखी दो जीहाल।। तुम नामै साँप ते जाणं फूल री माल ||णा
SR No.010705
Book TitleDharmvarddhan Granthavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1950
Total Pages478
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy