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________________ २१४ धर्मवर्द्धन ग्रन्थावली श्री महावीर जिन स्तवन वीर जिणेसर वंदिय, इण सम नहीं कोइ और, म्हारा लाल । परता पूरण परगडी, माची प्रभु साचौर न्हा० ॥१॥ आज इण पंचम अरै, सासग एहनो सार न्हा० । जिन धरम वरते जगत में, ए एहनौ उपगार म्हा०॥ २ ॥ गौतम सुधरम गणधरू, शिष्य गहना श्रीकार म्हां०। सूत्र सिद्धान्त जे उपदिस्था, नित सुणता निस्तार म्हा०॥ ३॥ अतुलित बली ए अवतों, जिण सुर कीधा जेर म्हा० । संका मेटी शकनी, मही कंपायो मेर न्हावा४॥ अठ वरसी बालक इण, महुकम एकंण मुट्टि म्हा० । रामति आमल की रम्या, देव हरायो दुट्टि म्हा॥ ५॥ लेसाले ले आवता, अधिकाइ करी एण म्हा० । उतर आप्या इन्द्र ने, जौड़ी व्याकरण जेण ॥ ६॥ म्हा० वरस त्रीसज गृह वसी, ले लिखमी नो लाह म्हां० । आपो आप आदर्यो, चारित चित्तनी चाह म्हा॥७॥ तप जिण सहु निरजल तया, बार वरस धुरि मु न म्हा। तिण मे पारण दिन तिकै, ऊठसै मै इक उन म्हा०॥ ८॥ सूलपाणि चडकोशियौ, गौसाला गुणहीन म्हां। तिण तीना ने इण कीया, उपसम समकित लीण म्हा०॥६॥
SR No.010705
Book TitleDharmvarddhan Granthavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1950
Total Pages478
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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