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शत्रुजय वृहत् स्तवन
( आलोयणा पचीसी) सै–जै नायक वीनति साभलौ, श्री रिपहेसरु स्वाम । दीनदयाल तुम्हाने दाखिवु, अतर बीतग आम ॥ सै० ॥११॥ नटवानी परि भव भव नाचता, विविध वणाया वेश ।
म वसे करि भमते मैं किया, केइ पाप किलेश ।। सै० ॥२॥ केवलज्ञानी तुम्ह आगल किसु, देखावीजै दाख। पिण आलोयण लीजै आपणी, श्री अरिहतनी साख ॥सै०॥३।। पाप टलै नही आलोयण पखै, कहै ज्ञानी सहु कोय । परही मुक्या सिरनी पोटली, हलवी गावड़ी होय ॥सै०॥४|| अरिहत देव सुसाधु गुरू इसा, जैन धरम तत्त जाण । समकित साचौ एनविसर्दयौ, अधिक मिथ्यामति आण |सं०।५।। पहिले आश्रय हिंसा प्राण नी, कीवी केइ प्रकार । जयणा कायनी जीवनी, पामिस किम भव पार ।। सै० ॥६॥ कूड कपट कलि विकला केलवी, कीजइ छै केड काम । मृपावाद पगोपग मोकलौ, सी गति थासी स्वाम || सै० ॥७॥
अधिको लीजै ओछो दीजिये, रीति इसी दिन रात । __ अदनादान घणा लागै इसा, तरिस किण परि तात || सै011
तीन विधेड सुर नर त्रियच ना, मैथुन सुं मन लाय । काम विटवन केम कही सकुं, जाणं तु जिनराय ।। सं० ।।६।।