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परिहा (अक्षर बतीस) बतीसी फल दीध फल होइ कहै छै युफ फौ । निफल पहिली हाथ किसुं आणे नफो । सेवा कीधा ही ज सही कारिज सरै। परिहा दाखै धर्मसीह दिल्ल ठरें तो द्वाफुरै ॥ २२ ॥ बोल्या मोटा बोल किसुं कहियो बवे । दीसें आयौ दाव तठे नचो दबै । साच नहीं जिणरें मन तिणसं सरम सी । परिहा धैठे माणस सुं हित केहो धर्मसी ॥ २३ ॥ भलपण कीजै काइक एम कहो भ भौ । लोका माहे जेम भली शोभा लभौ । जीव्या रौ पिण सार इतौ हिज जाणीय । परिहा उपगारे धर्मसी कहै काया आणीय ॥ २४ ।। मित्राइ रो मूल कहै धर्मसी म मौ । नयणे देखौ मित्र तरै पहिली नमौ । दीजे लीजे कहीजे सुणीजे दिल्ल री। परिहा खावै तेम खवावै प्रीति तिका खरी ॥ २५ ॥ या यौ कहै यारी करि तिण हीज यार सु। पडीया आपद मॉहि बुलावे प्यार सु । पूरी प्रीतो ते जे तलफ तिण पगा। परिहा सुख मे तो धर्मसी हुवे सहु को सगा ॥ २६ ॥ रक राउ इक राह चलै बोले र रौ । द्वेष राग धर्मसी कहै एता क्यु धरौ ।