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६२ धर्मवर्द्धन ग्रन्थावली
एता नव नव रग बणाव अग सु। परिहा राख सहुनी होस्यै एकण रंग सु॥ २७ ।। लोभ गमावै शोभ कहै छै यु ल लौ । भाख लोक सहु को लोभी नहीं भलौ । लालच वसि धर्मसी कहै थोडो लग्गीय । परिहा मान महातम मोह रहै नहीं मग्गीय ॥ २८ ॥ वात घणी वणसाड हुवे कहै छै व वो । निखरी नीकलि जाइ उदेग हु भयो । बहु गुण छै धर्मसी कह थोड़ो बोलीय । परिहा थोडी वस्तु सदाइ मुहगी तोलीय ॥ २६ ॥ शीख न माने सुआलारी को सही । कलियुग माहे बँडै री पृथ्वी कही । आंकत्रीयो ते लाठी ले ने उरडियो। परिहा मान्यो अखरा मे पिण शशियो कोठा मुरडियो॥३०॥ क्षेत्र सहे खण धार खरै रिण नाखिस । खेले खीले वास खले खेत्रे खन । पेट काज धर्मसीह इता दुख पाडीयं । परिहा फाड्यो पेट सुन्याय ख खे फाडीय ॥ ३१ ॥ सत्त म छाडौ सैंण कह्यो छे यु समै । कष्ट पडे ते ईस कसोटी मे कस। जोवो सत्ते सिद्धि हुइ विक्रम जिसी । परिहा साको राखे सोइ सही कह धर्मसी ॥ ३२ ॥