________________
प्रस्ताविक विविध संग्रह
११७ . आछे से अथाने घने और भी कु बोल है । चीरडी पटीरडी सीरावडी बड़ी पुड़ी।।
हरद सौं जरद आछे भुजिया को झोल है। सागरी निरोग फोग राइ खेलरा के जोग ।
भाजी भली भाति की मे, नीबू को निचोल है। -एकली मिठाइ तो धिठाइ कहै धर्मसीह । सालणा के साथ सु वोलावे कैसी बोल है ।।२।।
सगैया तेवीसा दाख वदाम अखो. सिंघोडे, गिंदोडे सौं जोडै सबे ही सुहावै । खारक खोपरे याही के भेट, छुहारी गिरी है पै न्यारी कहावै ॥ पूछहधौं गुजरातिय लोक, निवात भिलें निमजे भलै भावै ।। मेवे इते नितमेव लहै, सु कहै धर्मसीह भैया पुण्य प्रभावै ॥३॥ चटपट में पकवान चलावत, खावत है खीर खाड भी खाते । तो से चाउल दाल तजै नहीं; पालि करै फुनि घीउ की घात ।। सुधारी धुगारी पीयें फुनि छाछहि, पाछै कै जाइ चलू किये पाते। वचै सु लुकाइ कैदेण की देरहि, ताली युदेत दिखावत दाते ॥४॥ __
- :अध्यात्ममतीया रो --सवैया इकतीसा आगम अनादि के उथापी डारे आपै रुढ़ि,
अबके बणाए वाल - बोध मानै संमती। जोगी जिंदे भक्तनि पैं, दूरहुं ते दोरे जात,
देखे न सुहात ताहि एक जैन के यती।