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धर्मवद्धन ग्रन्थावली ऐसो उदै क्रोध मान, दूर कीए क्रिया दान,
ऐसे पछिपाती गुण काहू को न ल्य रती। बावन ही अच्छर कुं, पूरे से पिछाने नाहि ,
कैसे कै पिछानें कहां आतमा अध्यामिती ।। १ ॥
शरीरं अंस्थिरता--सनैया इकतीसा ज्ञान के अभ्यासा मिसि, आवत उसासा सासा,
__ छिन न विसासा तहा कहां दिन मासा है। पग्यो प्रेम पासा, तामैं मानत विलासा खासा,
देख जो विमासा घरि हानि लोक हासा है। आसा तो अकासा जेती, खेलत दुवासा सेती, केती है उजासा घन बीजुरी का वासा है। अतर प्रकासा कर धर्मसी सुवासा धर, पानी में पतासा जैसा' तन का तमासा है ॥ १ ॥
रूपैया-सवैया तेवीसा आपणी देह सुनेह नहीं पुनि, जानत खेह के गेह छिपैया । मोह नहीं मन में धन मे, वन मे तन में तप ताप तपैया ।। लोक वडे वडे पाय लगे, जु सवै गुण सोभत लोभ लुपया । वाटन को नउ उझाटन को डर, सौइ बड़ौ जाकै माठ रूपैया।। कोइ तो पाइ छिपाइवा धन, धारे नहीं धर्मसीख कहैंया । सुब कहाइ खवाई ने खाई, भखाइ लगाइ लरावत भैया ।। कौन कहै तिनकुंजु बडौ है, मडौ सब ही सु करै है लडैया । वाट वंटाइ उडाइद्य फाट तें, सोइ वडौ जाकै झाँठ रूपैया ।।