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धर्मवद्धन ग्रन्थावली
सभल्ल
मंदवाड़ एक नव नव मता, मूल न जाणे को मरम । कहै साधु अशुभ पूर्व करम, धरि सुखकारी इक धरम ।३६। तीन कोडि तरु जाति, आणि वलि लाख इक्यासी । सहस वार एकसौ, भार इक संख्या भासी । आठ भार ते इसा, फल्या लाभ फल फूलै । भार च्यार विण फले, भार पट लता म करि शास्त्र साखि धर्मसी कहै, भार अढार वनस्पती। विणलीया सुस खाधा बिगर, छह ऋतु मे हिसा छती ।३१ थिर दीसै थि गति, अलग आकाशं उद्धि । पिण पल पल पवन सु, गुडथला खाय गुड्डि । जिण रो न चले जोर, डोर परहत्थ दवाणी । पर सिद्ध कीध पुकार, नेट किण ही मन नाणी । नू न डोर छटै न तिम, ऊची तलफ आफलें । प्राणी इम परवस पड्या, गमियो नर भव गाफिले ॥३८॥
उद्यम
दृहिजे उद्यम दृध, जतन करि दही जमावे । वलि परभात विलोड, उदिम सेती घृत आवै । करि उद्यम सहु कोइ, भला नित जिमें भोजन । खवरि आणे खेपीयौ, जाइ नै के भोजन ।
- अडमहि कोडि सहि लख सतर वलि सहस्स ।
. उपरि मेलौ आठ सौ भार अठार वणम्स । १ ।