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छप्पय बावनी
मर कौँ कोइन मरें, जीव कहै कोइ न जीव । तोइ खारो जल तजे, प्यार करि अमृत पीवै। गाठिरोकोइन लगैगरथ, सिगलाहुइ जिण थी सयण । धर्म नै कर्म सहु मे धुरा, बडी वस्तु मीठौ वयण ॥ ३३ ॥
डाहो हुइ सो डरै कोइ मत भू डौ कहसी । घर डर कुल डर घणो, सुगुरु डर डाकर कहसी । माण तणे डर मुदै लाज डर करणो लेखें । मावी ता डर मानि, सामि डरकर सुविशेषे । दुरगते दुख परभव डरै, जाण करैं डर नव जिको । धर्मसीह कहै सहु धर्म को, तत्व सार जाणे जिको ॥ ३४ ।
ढीली वात मढाहि पुण्य रो कारिज पडता । ,, , , न्याय सुधो नीवडता । ढीली बात मढाहि बहस सु पडिये बोले । ,, , , ढमकीए वाहर ढ़ोले । सहु कर पूछि आगे सुजस, ढीली तठे न ढाहिजे । आविय दाव औठभता, कुल धर्मसीह कहाइजै ॥ ३५॥
अपनी अपनी
नर मादी निरखि ने, वैद कफ वात वतावे । जो पूर्छ जोतसी, लार ग्रह केइ लगावें । भोपो कहै भूत छ, लोभ वीमासणि लीधौ । जंत्र मत्र रा जाण, कहै कोइ कामण कीधौ ।