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धर्मवर्द्धन ग्रन्थावली
वर मादल ताल कंसाल बजावत,
के गुरुके गुण गावत है। बहु मोतीय तन्दुल थाल भरे,
__नित सूहव नारि वधावत है। धर्मनीउ कहै गच्छराज कु वंदत,
पुण्य उर्दै सुख पावत है ॥४॥
(७) सलैया काजति छवि चंदा मुख सुख कंदा
__अमल अमंदा अरविंदा । भाजति भय मुंढा शोभ सुरिंदा,
फेटत फंदा दुख दंदा । दुति जाणि दिणंदा, सैवहि वृदा,
___हाजर वंदा राजिन्दा। कहै धर्म कविंदा अति आणंदा,
जगति जतिंदा जिणचंदा ॥१॥ शोभत सुखदानी श्री गुरुवाणी,
सकल सुहानी सुनि प्राणी। कलि कमल कृपाणी, सिव सहिनाणी,
गुणिजन जाणी हित आणी ।। बुधजनहि वखाणी ग्रन्थ लिखाणी,
रस कर सानी दुख हानी। धर्मसीह सुजानी पुण्यप्रधानी,
कुशल कल्याणी महिमानी ।।२।।