________________
३१६
धर्मवर्द्धन ग्रन्थावली
सुरसुन्दरी ने श्रीमती, गुणसुन्दरी पिण अधिकी ज्ञान कि । नित नित मयणरेहा नमु, धरिजै अंजनासुन्दरी ध्यान कि ५३ दूपण संख राज दियौ, कर वध्या ढीठा केयूर कि । कलावती कर कापीया, निरख्या तो वल ने ए नूर कि । ५४ शी० भयणा श्रीस्थूलिभद्र नी, जखा जखदिन्ना सु प्रमाण कि । भूआ भूअदिन्ना वलि, सयणा वयणा रयणा जाण कि ॥ ५५ ॥ कोश्या केर नाटक किया, मुनि धूलिभद्र रह्यो ज्यू मेर कि । आया गुरू ऊभा हुआ, दुक्करकारक कह्यो दो वेर कि ||५६ ||
एह अदेखो आणि नै, सीह गुफावासी ते साध कि । चूक भटके चौमास मै, आवी नें खाम्यो अपराध कि १५७| आतल ने पिण औहटे, वलि संवा काठी वाग कि । तारे आपणपौतिको, सहु माहे पामे सौभाग कि । ५८ । शी० शील खंड्यौ तिण स्युं कीयौ, दावानल गुण वन नै दीध कि । कूटयौ पडहौ कुजस नौ, कुल में मसि नौ टीलो कीध कि । ५६ ।
पाणी दीधौ पुण्य नैं, सहु आपढ नैं दीध सकेत कि । दुख लियो काइ उदीर नैं, चतुर हुवै तौ तु चित चेत कि ६०| शिवपुर द्वारै तिण सही, भोगल दीधी काठी भीड कि । सहु देख तेहने सामट्ठा, नित आवै जिम पखी नीड कि ॥ ६१ ॥ अवगुण कुणकुण आखीयै, खड्या शील पडे दुख खाण कि । पाले तेह पुण्यात्मा, विलसै सहु सुख ए जिण वाणि कि ||१२||